Name : Acharya Shri Mahashraman
Original Name : Mohan Dugar
Date of Birth : 13 May 1962
Place of Birth : Sardarsahar (Rajasthan)
Initiation- Date : 5th May 1974
Place : Sardarsahar (Rajasthan)
Name : Muni Mudit
Initiated by : Muni Shri Sumermalji (Ladnun)
Guru : Acharya Shri Tulsi, Acharya Shri
Designated Acharya
Date : 9 May 2010
Place : Sardarshahar
Patotsav
Date & Place : 23 May 2010, Sardarshahar
जीवन परिचय
राजस्थान के इतिहासिक नगर सरदारशहर में पिता झुमरमल एवं माँ नेमादेवी के घर 13 मई 1962 को जन्म लेने वाला बालक मोहन के मन में मात्र 12 वर्ष की उम्र में धार्मिक चेतना का प्रवाह फुट पड़ा एवं 5 मई 1974 को तत्कालीन आचार्य तुलसी के दिशा निर्दशानुसार मुनि श्री सुमेरमलजी "लाडनू " के हाथो बालक मोहन दीक्षित होकर जैन साधू बन गये !
धर्म परम्पराओ के अनुशार उन्हें नया नाम मिला "मुनि मुदित"
आज तेरापंथ धर्म संध को सूर्य से तेज लिए चाँद भरी धार्मिक,आध्यात्मिक मधुरता लिए 11 वे आचार्य के रूप में आचार्य महाश्रमण मिल गया है ! विश्व के कोने कोने में भैक्षव (भिक्षु) शासन की जय जयकार हो रही है!
भाई बहन : छह भाई, दो बहिने ( आचार्य श्री महाश्रमण जी सातवे क्रम में )
गोर वर्ण , आकर्षक मुख मंडल , सहज मुस्कान से परिपूर्ण , विनम्रता , दृढ़ता , शालीनता, व् सहजता जैसे गुणों से ओत:प्रोत आचार्य महाश्रमणजी से न केवल तेरापंथ अपितु पूरा धार्मिक जगत आशा भरी नजरो से निहार रहा है ! तेरापंथ के अधिनायकदेव भिक्षु, अणुव्रत के प्रणेता आचार्य तुलसी एवं श्रेद्धेय जैनयोग
पुनरुद्वारक प्रेक्षा प्रणेता महाप्रज्ञजी के पथ वहाक आचार्य श्री महाश्रमणजी हम सबका ही नही , पूरी मानव जाती का पथदर्शन करते रहेंगे !
700 साधू- साध्वीया, श्रमण- श्रमणीयो, एवं सैकड़ो श्रावक- श्राविकाओं को सम्भालना एवं धर्म संघ एवं आस्था से बांधे रखना बड़ा ही दुर्लभ है! आज के युग में हम एक परिवार को एक धागे में पिरोके नही रख सकते तब तेरापंथ धर्मसंघ के इस विटाट स्वरूप को एक धागे में पिरोकर रखना, वास्तव में कोई महान देव पुरुष ही होगा जो तेरापंथ के आचार्य पद को शुभोषित कर रहे है!
किसी भी परम्परा को सुव्यवस्थित एव युगानुरूप संचालन करने के लिए सक्षम नेतृत्व की जरूरत रहती है ! सक्षम नेतृत्व के अभाव में सगठन शिथिल हो जाता है! और धीमे-धीमे छिन्न भिन्न होकर अपने अस्तित्व को गंवा बैठता है !
तेरापंथ उस क्रान्ति का परिणाम है जिसमे आचार्य भिक्षु का प्रखर पुरुषार्थ , सत्य निष्ठा एवं साधना के प्रति पूर्ण सजगता जुडी हुई है . आचार्य भिक्षु की परम्परा में आचार्य तुलसी एवं दसवे आचार्य महाप्रज्ञ न केवल जैन परम्परा अपितु अध्यात्म जगत के बहुचर्चित हस्ताक्षर थे! उन्होंने जो असाम्प्रदायिक सोच एवं अहिंसा , मानवतावादी दृष्टिकोण दिया है वः एक मिसाल है! आचार्य महाप्रज्ञ प्रेक्षाध्यान साधना पद्धति के प्रणेता, महान दार्शनिक व् कुशल साहित्यकार के रूप में लोक विश्रुत थे!
आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने उतराधिकारी के रूप में 35 वर्षीय महाश्रमण मुनि श्री मुदित कुमारजी का मनोयन किया था ! तेरापंथ में युवाचार्य मनोयन का इसलिए विशेष महत्व है की यहा एक आचार्य की परम्परा है! तेरापंथ के भावी आचार्य की नियुक्ति वर्तमान आचार्य का विशेषाधिकार है! इसमें किसी का हस्तक्षेप नही होता है ! आचार्य इस ओर स्वय विवेक से निर्णय लेते है !
तेरापंथ के वर्तमान 11 वे आचार्य महाश्रमण जी उम्र में युवा है , चिन्तन में प्रोढ़ है, ज्ञान में स्थविर है ! तेरापंथ की गोरवशाली आचार्यो की परम्परा में यह एक ओर गोरव जुड़ गया आचार्य श्री महाश्रमण के रूप में ! 22 वर्ष की उम्र में वे पूज्यवर रूप के विधिवत निकट आए फिर एक -एक सीढ़ी आगे बढ़ते गए! आज तेरापंथ के भाग्य विधाता के रूप में मुनि मुदित, आचार्य महाश्रमण के रूप में प्रतिष्ठित है !
आचार्य श्री महाश्रमण मानवता के लिए समर्पित जैन तेरापंथ के उज्जवल भविष्य है। प्राचीन गुरू परंपरा की श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा अपने उतराधिकारी के रूप में मनोनीत महाश्रमण विनम्रता की प्रतिमूर्ति है। अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी की उन्होंने अनन्य सेवा की। तुलसी-महाप्रज्ञ जैसे सक्षम महापुरूषों द्वारा वे तराशे गये है।
जन्ममात प्रतिभा के धनी आचार्य महाश्रमण अपने चिंतन को निर्णय व परिणाम तक पहुंचाने में बडे सिद्धहस्त हैं। उसी की फलश्रुति है कि उन्होंने आचार्य महाप्रज्ञ को उनकी जनकल्याणकारी प्रवृतियों के लिए युगप्रधान पद हेतु प्रस्तुत किया। हमारे ग्यारवे आचार्य श्री महाश्रमण उम्र से युवा है, उनकी सोच गंभीर है युक्ति पैनी है, दृष्टि सूक्ष्म है, चिंतन प्रैढ़ है तथा वे कठोर परिश्रमि है। उनकी प्रवचन शैली दिल को छूने वाली है। महाश्रमण की प्रज्ञा एवं प्रशासनिक सूझबूझ बेजोड़ है।
क्रमिक विकास
आचार्य महाश्रमणजी में जन्म जात प्रतिभा थी ! उनके भीतर ज्ञान -विज्ञान सैद्धांतिक सूझ-बुझ, तात्विक बोलो की पकड़ , प्रशासनिक योग्यता सहज में संप्राप्त थी! गणाधिप्ती आचार्य श्री तुलसी, एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ के चिन्तन में इनकी योग्यता के अंकन का उत्स कब हुआ ! यह समय के साथ परत दर परत खुलता रहेगा !
फिर भी इसकी हल्की पर मजबूत दस्तक देखने को लाडनू (राजस्थान) में 13 मई 1984 को मिली जब आचार्य श्री तुलसी ने अपने निजी कार्य में उन्हें नियुक्त किया ओर लगभग उसी समय प्रथम अंग सूत्र आयारो के संस्कृत भाष्य के लेखन में सहयोगी बने. श्रद्धेय आचार्यवर द्वारा आयारो जैसे आचार शास्त्रीय सूत्र पर प्रांजल भाषा में भाष्य की रचना की गई है. भाष्यकारो की परम्परा में आचार्य महाप्रज्ञ का एक गोरव पूर्ण नाम ओर जुडा हुआ है!
इसी वर्ष आचार्य श्री तुलसी का चातुर्मास जोधपुर था ! चातुर्मासिक प्रवेश 7जुलाई को हुआ ! आचार्यवर ने उन्हें (महाश्रमण ) प्रात: उपदेश देने का निर्देश दिया ! 8 जुलाई से मुनि मुदित कुमारजी (महाश्रमण ) उपदेश देना प्रारंभ किया ! उनकी वक्तृत्व शैली व् व्याख्या करने के ढंग ने लोगो को अतिशय प्रभावित किया ! जोधपुर के
तत्व निष्ठ सुश्रावक श्री जबरमलजी भंडारी ने कहा इनकी व्याख्यान शैली से लगता है ये आगे जाकर महान संत बनेगे ! 1985के आमेट चातुर्मास में भगवती सूत्र के टिपण लेख में भी सहयोगी बने!
अन्तरंग सहयोगी
अमृत महोत्सव का तृतीया चरण उदयपुर में माध शुक्ल सप्तमी स: 2042 (16 फरवरी 1986) को मर्यादा महोत्सव के दिन आचार्य श्री तुलसी ने धोषणा की -" मै मुदित कुमार को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अन्तरंग कार्य में सहयोगी नियुक्त करता हु !" उस घोषणा के साथ आचार्य तुलसी ने जो भूमिका बाँधी उसमे मुनि मुदित समाज के सामने उभरकर आ गये ! बैसाख शुक्ला 4 स. 2042 (13 मई 1986 ) को आचार्य श्री तुलसी ने ब्यावर में मुनि मुदित को साझपति (ग्रुप लीडर) नियुक्त किया !
अप्रमत्त साधना
महाश्रमण पद पर अलंकृत होने के बाद उनकी स्वतन्त्र रूप से तीन यात्राए हुई जो जन सम्पर्क की दृष्टी से बड़ी ही प्रभावशाली रही थी ! माध कृष्णा 10, स.2047 (10 जनवरी 1990) को अपनी सिवांची मालाणी की यात्रा परिसम्पन्न कर सोजत रोड में पुज्यवरो के दर्शन किये तब आचार्य तुलसी ने कहा -" मै इस अवसर पर इतिहास की पुनरावृति करता हुआ तुम्हे अप्रमत्त की साधना का उपहार देता हु ." यदि किसी ने तुम्हारी अप्रमाद की साधना में स्खलन निकाली तो तुम्हे उस दिन खड़े खड़े तीन धंटा घ्यान करना होगा ! ." आज तक आपने ऐसा एक भी अवसर नही आने दिया जिसके कारण आपको प्रायच्श्रित स्वीकार करना पड़ा हो ! यह उनके अप्रमाद का परिणाम है
महाश्रमण पद का सृजन ओर नियुक्ति
आचार्य श्री तुलसी ने संधीय अपेक्षा को ध्यान में रखकर दो पदों का सृजन किया महाश्रमण .. महाश्रमणी ! भाद्र शुक्ल 9 स. 2046 (9 सितंबर 1989) महाश्रमण पद पर मुनि मुदित कुमारजी एवं महाश्रमणी पद पर साध्वी प्रमुखा कनक प्रभाजी की नियुक्ति की! उस समय मात्र 28 वर्ष के थे हमारे वर्तमान आचार्य महाश्रमण ! ये पद अन्तरंग संधीय व्यवस्था में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ के सतत सहयोगी के रूप सृजित किये गये ! दिल्ली में माध शुक्ला सप्तमी , स. 2051 (6 फरवरी 1995) को मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गणाधिपती गुरुदेव तुलसी ने मुनि मुदित की इस पद पर नियुक्ति की . उस समय महाश्रमण मुनि मुदित पर अमित वात्सल्य की दृष्टी करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा-" धर्म संघ में मुनि मुदित का व्यक्तित्व विशेष रूप से उभरकर सामने आया है ! मै इस अवसर पर मुनि मुदितकुमार को "महाश्रमण" पद पर प्रतिष्ठित करता हु. महाश्रमण मुनि मुदितकुमार आचार्य महाप्रज्ञ के गण संचालन के कार्य में सहयोग रहता हुआ स्वय गण- सचालन की योग्यता विकसित करे! महाप्रज्ञ ने अपना आर्शीर्वाद प्रदान करते हुए कहा था -" महाश्रमण मुदितकुमार जैसे सहयोगी को पाकर मै प्रसन्न हु ! महाश्रमण के रूप में आठ वर्ष तक पुज्यवरो की सन्निधि में जो विकास किया वः चतुर्विध धर्मसंध की नजरो में बैठ गया !
युवाचार्य पद पर नियुक्ति
दिल्ली में महाश्रमण पद पर पुन: नियुक्ति के मोके पर गुरुदेव ने जो पत्र दिया था उसकी पक्तिया थी -" इसके लिए अब जो करणीय शेष है उसकी उचित समय आचार्य महाप्रज्ञ धोषणा करेंगे ! वह उचित समय करीब अढाई वर्ष बाद भाद्र पद शुक्ला 12 स. 2054 (14 सिप्तम्बर1997) को गंगाशर बीकानेर (राजस्थान) में आया जब आचार्य महाप्रज्ञ ने एक लाख लोगो की विशाल मानव मेदनी के बीच करीब ११:३० बजे, युवाचार्य पद का नाम लेते हुए कहा -" आओ मुनि मुदितकुमार"! इसके साथ शखनाद , विपुल हर्ष ध्वनी एवं जयकारो के साथ आचार्य श्री की इस घोषणा का स्वागत किया! आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अपने युवाचार्य का नामाकरण " युवाचार्य महाश्रमण " के रूप में किया! आचार्य श्री ने पिछली दीपावली (10 नवम्बर 1996) को गणाधिपती आचार्य तुलसी के साथ हुए चिन्तन के दोरान लिखे पत्र का वाचन किया साथ ही एक अन्य पत्र भी पढ़ा जो भाद्र पद शुक्ल 8 स. 2054 (10 सितम्बर 1997 ) को ही लिखा था ! इसमें उन्होंने अपने उतराधिकारी के तोर पर महाश्रमण मुदितकुमार का नाम धोषित किया था ! परम्परा के अनुरूप आचार्य श्री ने नव नियुक्त युवाचार्य महाश्रमण मुदितकुमार जी को पछेवडी ओढाई ओर अपने वाम पाशर्व में पट पर बैठने की आज्ञा प्रदान की ! आसान ग्रहण के साथ ही हर्ष से पंडाल गूंज उठा!
"मेरे महावीर भगवान ग्रुप"(MMBG)
तेरापंथ
'धम्मो सुद्धस्य चिट्ठइ' धर्म उसी के पास ठहरता है। जिसका मन विशुद्ध होता है। अशुद्ध मन धर्म के लिए उपयुक्त क्षेत्र नहीं होता। मन के वैयक्तिक तथा सामष्टिक विशुद्धता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए तदनुकूल धार्मिक व्यवस्था तथा वातावरण की आवश्यकता होती है। उसके अभाव में जन-मानस की विशुद्धि अशुद्धि में बदलने लगती है। सामष्टिक अशुद्धि का प्राबल्य जब असामान्य होने लगता है तब उसके विरुद्ध वातावरण बनता है और धर्म-क्रांति के लिए भूमिका तैयार होती हैं। ऐसे अवसर पर मार्ग-दर्शन के लिए प्राय: कोई-न-कोई महापुरुष इस संसार में आता है और प्रस्तुत जन-मानस को झकझोर कर जगाता है। धर्म के प्रति वितृष्णा और अधर्म के प्रति अनुराग तभी उत्पन्न होता है जबकि धर्म का वास्तविक स्वरुप आंखों के सामने से ओझल हो जाता है। महापुरुष अपने दिव्य नेत्रों से स्वरूप को पहचानते हैं और जनमानस में उसकी पुन: प्रतिष्ठा करते हैं। प्रत्येक धर्म-क्रांति की प्राय: यही प्रक्रिया रही है। इस परिपेक्ष्य में तेरापंथ की स्थापना को एक सफल धर्म-क्रांति के रूप में देखा व परखा जा सकता है।
तेरापंथ की स्थापना विक्रम संवत 1817 आषाढ़ पूर्णिमा (ई. सन् 29 जून, 1760) को हुई थी। वह कोई ऐसा ही घटित हो जाने वाली घटना मात्र नहीं थी; अपितु उस समय की अनिवार्य आवश्यकता तथा अवर्जनीय मांग थी। वह ऐसा समय था जबकी भारतीय जन-मानस अंध-परंपराओं तथा रूढ़ियों से परिव्याप्त होकर हासोन्मुख हो चुका था, राजनैतिक वर्चस्व पराजय की श्रंखलाओं में आबद्ध कराह रहा था, सामाजिक संगठना की कड़ियां एक-एक कर विच्छिन्न होती जा रही थीं और आर्थिक क्षेत्र में हीनता के बीज उप्त किए जा चुके थे। धार्मिक क्षेत्र भी और विपनावस्था से अछूता नहीं रहा। आचार और विचार संबंधी शैथिल्य ने उस समय के जन-मान्य साधु-समाजों में एक दुस्पूर पुर रिक्तता उत्पन्न कर दी थी। धार्मिक संगठन वृद्धावस्था से जर्जरित शरीर की तरह लड़खड़ाने लगे थे। इन सभी स्थितियों को सम्मिलित घुटन में तेरापंथ के रूप में सम्मुख आने वाली इस धर्म क्रांति के बीच अंकुरित हुए थे।
आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी। परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था। उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम तेरापंथ हो ही गया। इसका कारण निम्नोक्त घटना है।
Ø घटना-
जोधपुर के श्रावक एक दिन बाजार की उसी दुकान पर, जहां पहले स्वामीजी ठहरे थे, एकत्रित होकर सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्मानुष्ठान कर रहे थे। संयोगवश उसी समय फतहमलजी सिंघी का बाजार में आगमन हो गया। वे एक जैन श्रावक थे और उस समय जोधपुर राज्य के महामन्त्री भी। वे दुकान की तरफ आये और श्रावको से पूछा--" आप लोग स्थानक में सामायिक न करके यहाँ बाजार में कैसे की है।
उन्होंने स्वामीजी के पृथक होने की साडी घटना कह सुनाई और बतलाया कि अनेक मतभेदों के साथ-साथ स्थानक के विषय में भी स्वामीजी अपना भिन्न मत रखते है। उनका कथन है की साधुओं के निमित्त कोई स्थान नहीं होना चाहिए। मठाधीश और परिग्रही का साधुता से क्या सम्बन्ध हो सकता है?गृहस्थावस्था का अपना एक घर छोड़ने वाला साधू यदि ग्राम-ग्राम में घर बनवाकर बैठ जाएगा तो वह गृहस्थ से भी गया गुजरा हो जायेगा। आगम-दृष्टि से भी अपने निमित्त बने स्थान का उपभोग करना सदोष है। स्वामीजी के इन विचारो से हम सब भी सहमत है। अतः स्थानक को छोड़ कर यहाँ सामायिक कर रहे है।
सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन लेने के पश्चात् उन्होंने पूछा-- इस समय कितने साधु इस विचारधारा का समर्थांव कर रहे है?
श्रावको ने उत्तर दिया--"तेरह"
उन्होंने फिर पूछा--अपने यहां जोधपुर में उनका अनुसरण करने वाले आप लोग कितने श्रावक है?
श्रावकों ने कहा-- हम लोग भी तेरह ही है, जो सभी यहां उपस्थित हैं।
महामंत्री ने तब हँसते हुए कहा-- यह अच्छा संयोग रहा की तेरह ही साधू और तेरह ही श्रावक।
Ø नामकरण-
सिंघी जी के साथ उस समय ' सेवग' जाति का एक कवि भी था। साधुओं और श्रावकों की संख्या का वह आकस्मिक समान योग देखकर कवि ने उसी समय एक दोहा बनाकर सुनाया।
साध साध रो गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लोगां, ए तेरापंथी तंत।।
पहले-पहल उस नाम को स्वामीजी के विरोधी व्यक्तियों ने ही पकड़ा। अल्प संख्या को आधार बनाकर उपहास के रूप में वे उसका प्रयोग करने लगे और जब-तब स्वामीजी के अनुयायियों को "तेरापंथी" कहकर चिढ़ाने लगे।
Ø तेरापंथ का अर्थ-
स्वामीजी के पास नामकरण के समाचार पहुंचे। उन्होंने नामकरण के समय की उक्त सारी घटना को सुना तो उनकी मूलग्राहिणी प्रतिभा ने उस शब्द को तत्काल स्वीकार कर लिया।
राजस्थानी भाषा में संख्यावाची "तेरह" शब्द को "तेरा" कहा जाता है और "तू" सर्वनाम की सम्बन्ध-वाचक विभक्ति का एकवचन भी "तेरा" बनता है। स्वामीजी ने उन दोनों ही शब्द रूपों को ध्यान में रखते हुए अपनी बुद्धि के द्वारा उक्त शब्द कि व्याख्या की। अपने आसान का परित्याग का वन्दन-मुद्रा में बैठते हुए उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और बध्दाज्जंलि कहा--"हे प्रभु! यह तेरापंथ है। हम सब निर्भ्रान्त होकर इस पर चलने वाले है, अतः"तेरापंथी" है"।
मूलतः कवि की भावना को तेरह की संख्या ने ही प्रेरणा प्रदान की थी; अतः स्वामीजी ने उसे भी उतना ही महत्व दिया और उस शब्द का दूसरा संख्यापरक अर्थ करते हुए कहा--" पांच महाव्रत, पांच समितियां एवं तीन गुप्तियां - ये तेरह नियम जहां पालनीय है, वह तेरापंथ है"।
Ø तेरह नियम:-
इस प्रकार आचार्य भिक्षु के पंथ का नाम तेरापन्थ प्रचलित हो गया। आचार्य भिक्षु तेरापंथ के संस्थापक बन गए।
क्रांतदृष्टा आचार्य श्री भीखणजी ने इस धर्मक्रांति का मार्गदर्शन और नेतृत्व किया। सम्यग् आचार, सम्यग् विचार का पुनः संस्थापन ही उनका एकमात्र उद्देश्य था। वे उस में पूर्णत: सफल हुए। बहुत से लोगों ने उनके क्रांत विचारों को पहले तो तीव्रता से विरोध किया, बाद में उन्हें जिज्ञासा से सुना और अंत में सत्य व हितकर पाकर अपनाया। जैन धर्म के लिए तेरापंथ को जहां एक नव प्राणदायी संगठन कहा जा सकता है, वहां उसे आचार- विशुद्ध के क्षेत्र में होने वाले धर्म-क्रांतियों का नवनीत कहा जा सकता है।
तेरापंथ जैन धर्म का एक अत्यंत तेजस्वी और सक्षम संप्रदाय है। यह विक्रम की 19वीं सदी की पुरस्कृति है। आचार्य भिक्षु इसके प्रणेता थे। इस अनन्य ओजस्विता देने वाले चतुर्थ आचार्य जयाचार्य हुए। इसको नए-नए आयामों से उन्नति के क्षितिजों पर ले जाने वाली नौवें आचार्य श्री तुलसी है। इन्होंने इतने प्रभावक कदम उठाये कि तेरापंथ जैन संप्रदायों में एक वर्चस्वी संप्रदाय बन गया।
आचार्य श्री ने तेरापंथ को ही नहीं, जैन धर्म को भी ऐसा व्याख्यायित किया कि उनके सिद्धांतों की व्यापकता और वैज्ञानिकता उजागर होकर जनमानस पर प्रतिष्ठित हो गई।
तेरापंथ का इतिहास वैचारिक उदारता, समन्वय शीलता, आचार निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा है। सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है। योगक्षेम वर्ष का अनूठा आयोजन हुआ। लगभग चार सौ साधु-साध्वियाँ इसमें सहभागी बने। इतिहास की यह पूर्ण घटना थी। इसकी प्राणवत्ता ने सारे समाज में प्राण फूंकने का सफल प्रयास किया। आचार्यश्री की निष्ठा और सतत प्रेरणा तथा 10वें आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के नवनवोन्मेषशील चिंतन ने इसमें अद्वितीय ऊर्जा भर दी। वर्तमान में जैन श्वेतांबर तेरापंथ के ग्याहरवें आचार्य श्री महाश्रमण जी हैं। महाश्रमण जी पुज्य संत, योगी, आध्यात्मिक नेता, दार्शनिक, लेखक, वक्ता और कवि हैं।
Ø संगठन-
आचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मार्यादापत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा कि –
(1) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।
(2) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।
(3) कोई भी साधु अनुशासन का भंग न करे।
(4) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।
(5) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।
(6) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।
(7) आचार्य जहाँ कहे, वहाँ मुनि विहार वा चातुर्मास करे। अपने इच्छानुसार न करे।
(8) आचार्य के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।
इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २५० वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोककल्याकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।
Ø संघव्यवस्था-
तेरापंथ संघ में इस समय 651 साधु साध्वियाँ हैं। इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महश्रमण पर है। वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: 3-3 व 5-5 के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं। प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है। प्रत्येक वर्ग को "सिंघाड़ा" कहा जाता है।
ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य वहीं निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी सिंघाड़े अपने अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।
Ø आचारसंहिता
तेरापंथी जैन साधु जैन सिद्धांतानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं।
1) उनके उपाश्रय, मठ आदि नहीं होते।
2) वे किसी भी परिस्थिति में रात्रिभोजन नहीं कर सकते।
(3) वे अपने लिये खरीदे गए या बनाए गए भोजन, पानी व औषध आदि का सेवन नहीं करते। पदयात्रा उनका जीवनव्रत है।
Ø विचारपद्धति-
(1) संसार में सभी प्राणी जीवन चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता अत: किसी की हिंसा करना पाप है।
(2) मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अत: उसकी रक्षा के लिये अन्य कुछ प्राणियों का वध सामाजिक क्षेत्र में मान्य होने पर भी धार्मिक क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि धर्म मानवतावाद को मानकर नहीं चलता।
(3) धर्म बलात्कार में नहीं, हृदयपरिवर्तन कर देने में है।
(4) धर्म पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। वह तो आत्मा की सत्प्रवृत्तियों में स्थित है।
(5) जहाँ हिंसा है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता।
(6) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं।
(7) हर जाति और हर वर्ग का मनुष्य धर्म करने का अधिकारी है। धर्म में जाति और वर्ग का भेद नहीं होता।
(8) गुणयुक्त पुरुष ही वंदनीय है, केवल वेश नहीं।
(9) धर्म सारे ही कर्तव्य हैं पर सारे कर्तव्य धर्म नहीं। क्योंकि एक सैनिक के लिये युद्ध करना कर्तव्य हो सकता है पर आध्यात्मिक धर्म नहीं।
Ø दीक्षापद्धति-
दीक्षार्थी उपदेश या अपने जन्म के संस्कारों से प्रेरणा पाकर जब आचार्यश्री के पास दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसके अचारण, ज्ञान, वैराग्य आदि की कठोर परीक्षा ली जाती है। किसी किसी की परीक्षा में तो पाँच सात वर्ष तक बीत जाते हैं। जो परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे ही दीक्षित किया जाता है। दीक्षा हजारों नागरिकों के बीच माता पिता आदि पारिवारिक जनों की सहर्ष मौखिक और लिखित स्वीकृति जिसमें कौटुंबिक तथा अन्य कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के हस्ताक्षर हों, के पश्चात् दी जाती है।
Ø तपश्चर्या-
तपश्चर्या के क्षेत्र में भी तेरापंथ श्रमण संघ किसी से पीछे नहीं है। एक दिन आहार और एक दिन निराहार, इस प्रकार आजीवन तपश्चर्या करनेवाले तो संघ में अनेक साधु साध्वियाँ हैं।
'धम्मो सुद्धस्य चिट्ठइ' धर्म उसी के पास ठहरता है। जिसका मन विशुद्ध होता है। अशुद्ध मन धर्म के लिए उपयुक्त क्षेत्र नहीं होता। मन के वैयक्तिक तथा सामष्टिक विशुद्धता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए तदनुकूल धार्मिक व्यवस्था तथा वातावरण की आवश्यकता होती है। उसके अभाव में जन-मानस की विशुद्धि अशुद्धि में बदलने लगती है। सामष्टिक अशुद्धि का प्राबल्य जब असामान्य होने लगता है तब उसके विरुद्ध वातावरण बनता है और धर्म-क्रांति के लिए भूमिका तैयार होती हैं। ऐसे अवसर पर मार्ग-दर्शन के लिए प्राय: कोई-न-कोई महापुरुष इस संसार में आता है और प्रस्तुत जन-मानस को झकझोर कर जगाता है। धर्म के प्रति वितृष्णा और अधर्म के प्रति अनुराग तभी उत्पन्न होता है जबकि धर्म का वास्तविक स्वरुप आंखों के सामने से ओझल हो जाता है। महापुरुष अपने दिव्य नेत्रों से स्वरूप को पहचानते हैं और जनमानस में उसकी पुन: प्रतिष्ठा करते हैं। प्रत्येक धर्म-क्रांति की प्राय: यही प्रक्रिया रही है। इस परिपेक्ष्य में तेरापंथ की स्थापना को एक सफल धर्म-क्रांति के रूप में देखा व परखा जा सकता है।
तेरापंथ की स्थापना विक्रम संवत 1817 आषाढ़ पूर्णिमा (ई. सन् 29 जून, 1760) को हुई थी। वह कोई ऐसा ही घटित हो जाने वाली घटना मात्र नहीं थी; अपितु उस समय की अनिवार्य आवश्यकता तथा अवर्जनीय मांग थी। वह ऐसा समय था जबकी भारतीय जन-मानस अंध-परंपराओं तथा रूढ़ियों से परिव्याप्त होकर हासोन्मुख हो चुका था, राजनैतिक वर्चस्व पराजय की श्रंखलाओं में आबद्ध कराह रहा था, सामाजिक संगठना की कड़ियां एक-एक कर विच्छिन्न होती जा रही थीं और आर्थिक क्षेत्र में हीनता के बीज उप्त किए जा चुके थे। धार्मिक क्षेत्र भी और विपनावस्था से अछूता नहीं रहा। आचार और विचार संबंधी शैथिल्य ने उस समय के जन-मान्य साधु-समाजों में एक दुस्पूर पुर रिक्तता उत्पन्न कर दी थी। धार्मिक संगठन वृद्धावस्था से जर्जरित शरीर की तरह लड़खड़ाने लगे थे। इन सभी स्थितियों को सम्मिलित घुटन में तेरापंथ के रूप में सम्मुख आने वाली इस धर्म क्रांति के बीच अंकुरित हुए थे।
आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी। परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था। उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम तेरापंथ हो ही गया। इसका कारण निम्नोक्त घटना है।
Ø घटना-
जोधपुर के श्रावक एक दिन बाजार की उसी दुकान पर, जहां पहले स्वामीजी ठहरे थे, एकत्रित होकर सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धर्मानुष्ठान कर रहे थे। संयोगवश उसी समय फतहमलजी सिंघी का बाजार में आगमन हो गया। वे एक जैन श्रावक थे और उस समय जोधपुर राज्य के महामन्त्री भी। वे दुकान की तरफ आये और श्रावको से पूछा--" आप लोग स्थानक में सामायिक न करके यहाँ बाजार में कैसे की है।
उन्होंने स्वामीजी के पृथक होने की साडी घटना कह सुनाई और बतलाया कि अनेक मतभेदों के साथ-साथ स्थानक के विषय में भी स्वामीजी अपना भिन्न मत रखते है। उनका कथन है की साधुओं के निमित्त कोई स्थान नहीं होना चाहिए। मठाधीश और परिग्रही का साधुता से क्या सम्बन्ध हो सकता है?गृहस्थावस्था का अपना एक घर छोड़ने वाला साधू यदि ग्राम-ग्राम में घर बनवाकर बैठ जाएगा तो वह गृहस्थ से भी गया गुजरा हो जायेगा। आगम-दृष्टि से भी अपने निमित्त बने स्थान का उपभोग करना सदोष है। स्वामीजी के इन विचारो से हम सब भी सहमत है। अतः स्थानक को छोड़ कर यहाँ सामायिक कर रहे है।
सारी बातों को ध्यानपूर्वक सुन लेने के पश्चात् उन्होंने पूछा-- इस समय कितने साधु इस विचारधारा का समर्थांव कर रहे है?
श्रावको ने उत्तर दिया--"तेरह"
उन्होंने फिर पूछा--अपने यहां जोधपुर में उनका अनुसरण करने वाले आप लोग कितने श्रावक है?
श्रावकों ने कहा-- हम लोग भी तेरह ही है, जो सभी यहां उपस्थित हैं।
महामंत्री ने तब हँसते हुए कहा-- यह अच्छा संयोग रहा की तेरह ही साधू और तेरह ही श्रावक।
Ø नामकरण-
सिंघी जी के साथ उस समय ' सेवग' जाति का एक कवि भी था। साधुओं और श्रावकों की संख्या का वह आकस्मिक समान योग देखकर कवि ने उसी समय एक दोहा बनाकर सुनाया।
साध साध रो गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लोगां, ए तेरापंथी तंत।।
पहले-पहल उस नाम को स्वामीजी के विरोधी व्यक्तियों ने ही पकड़ा। अल्प संख्या को आधार बनाकर उपहास के रूप में वे उसका प्रयोग करने लगे और जब-तब स्वामीजी के अनुयायियों को "तेरापंथी" कहकर चिढ़ाने लगे।
Ø तेरापंथ का अर्थ-
स्वामीजी के पास नामकरण के समाचार पहुंचे। उन्होंने नामकरण के समय की उक्त सारी घटना को सुना तो उनकी मूलग्राहिणी प्रतिभा ने उस शब्द को तत्काल स्वीकार कर लिया।
राजस्थानी भाषा में संख्यावाची "तेरह" शब्द को "तेरा" कहा जाता है और "तू" सर्वनाम की सम्बन्ध-वाचक विभक्ति का एकवचन भी "तेरा" बनता है। स्वामीजी ने उन दोनों ही शब्द रूपों को ध्यान में रखते हुए अपनी बुद्धि के द्वारा उक्त शब्द कि व्याख्या की। अपने आसान का परित्याग का वन्दन-मुद्रा में बैठते हुए उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और बध्दाज्जंलि कहा--"हे प्रभु! यह तेरापंथ है। हम सब निर्भ्रान्त होकर इस पर चलने वाले है, अतः"तेरापंथी" है"।
मूलतः कवि की भावना को तेरह की संख्या ने ही प्रेरणा प्रदान की थी; अतः स्वामीजी ने उसे भी उतना ही महत्व दिया और उस शब्द का दूसरा संख्यापरक अर्थ करते हुए कहा--" पांच महाव्रत, पांच समितियां एवं तीन गुप्तियां - ये तेरह नियम जहां पालनीय है, वह तेरापंथ है"।
Ø तेरह नियम:-
इस प्रकार आचार्य भिक्षु के पंथ का नाम तेरापन्थ प्रचलित हो गया। आचार्य भिक्षु तेरापंथ के संस्थापक बन गए।
क्रांतदृष्टा आचार्य श्री भीखणजी ने इस धर्मक्रांति का मार्गदर्शन और नेतृत्व किया। सम्यग् आचार, सम्यग् विचार का पुनः संस्थापन ही उनका एकमात्र उद्देश्य था। वे उस में पूर्णत: सफल हुए। बहुत से लोगों ने उनके क्रांत विचारों को पहले तो तीव्रता से विरोध किया, बाद में उन्हें जिज्ञासा से सुना और अंत में सत्य व हितकर पाकर अपनाया। जैन धर्म के लिए तेरापंथ को जहां एक नव प्राणदायी संगठन कहा जा सकता है, वहां उसे आचार- विशुद्ध के क्षेत्र में होने वाले धर्म-क्रांतियों का नवनीत कहा जा सकता है।
तेरापंथ जैन धर्म का एक अत्यंत तेजस्वी और सक्षम संप्रदाय है। यह विक्रम की 19वीं सदी की पुरस्कृति है। आचार्य भिक्षु इसके प्रणेता थे। इस अनन्य ओजस्विता देने वाले चतुर्थ आचार्य जयाचार्य हुए। इसको नए-नए आयामों से उन्नति के क्षितिजों पर ले जाने वाली नौवें आचार्य श्री तुलसी है। इन्होंने इतने प्रभावक कदम उठाये कि तेरापंथ जैन संप्रदायों में एक वर्चस्वी संप्रदाय बन गया।
आचार्य श्री ने तेरापंथ को ही नहीं, जैन धर्म को भी ऐसा व्याख्यायित किया कि उनके सिद्धांतों की व्यापकता और वैज्ञानिकता उजागर होकर जनमानस पर प्रतिष्ठित हो गई।
तेरापंथ का इतिहास वैचारिक उदारता, समन्वय शीलता, आचार निष्ठा और अनुशासन की साकार प्रतिमा है। सेवा, समर्पण और संगठन की जीवन-गाथा है। श्रद्धा, विनय तथा वात्सल्य की प्रवाहमान त्रिवेणी है। योगक्षेम वर्ष का अनूठा आयोजन हुआ। लगभग चार सौ साधु-साध्वियाँ इसमें सहभागी बने। इतिहास की यह पूर्ण घटना थी। इसकी प्राणवत्ता ने सारे समाज में प्राण फूंकने का सफल प्रयास किया। आचार्यश्री की निष्ठा और सतत प्रेरणा तथा 10वें आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के नवनवोन्मेषशील चिंतन ने इसमें अद्वितीय ऊर्जा भर दी। वर्तमान में जैन श्वेतांबर तेरापंथ के ग्याहरवें आचार्य श्री महाश्रमण जी हैं। महाश्रमण जी पुज्य संत, योगी, आध्यात्मिक नेता, दार्शनिक, लेखक, वक्ता और कवि हैं।
Ø संगठन-
आचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मार्यादापत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा कि –
(1) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।
(2) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।
(3) कोई भी साधु अनुशासन का भंग न करे।
(4) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।
(5) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।
(6) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।
(7) आचार्य जहाँ कहे, वहाँ मुनि विहार वा चातुर्मास करे। अपने इच्छानुसार न करे।
(8) आचार्य के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।
इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २५० वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोककल्याकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।
Ø संघव्यवस्था-
तेरापंथ संघ में इस समय 651 साधु साध्वियाँ हैं। इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महश्रमण पर है। वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: 3-3 व 5-5 के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं। प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है। प्रत्येक वर्ग को "सिंघाड़ा" कहा जाता है।
ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य वहीं निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी सिंघाड़े अपने अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।
Ø आचारसंहिता
तेरापंथी जैन साधु जैन सिद्धांतानुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं।
1) उनके उपाश्रय, मठ आदि नहीं होते।
2) वे किसी भी परिस्थिति में रात्रिभोजन नहीं कर सकते।
(3) वे अपने लिये खरीदे गए या बनाए गए भोजन, पानी व औषध आदि का सेवन नहीं करते। पदयात्रा उनका जीवनव्रत है।
Ø विचारपद्धति-
(1) संसार में सभी प्राणी जीवन चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता अत: किसी की हिंसा करना पाप है।
(2) मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अत: उसकी रक्षा के लिये अन्य कुछ प्राणियों का वध सामाजिक क्षेत्र में मान्य होने पर भी धार्मिक क्षेत्र में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि धर्म मानवतावाद को मानकर नहीं चलता।
(3) धर्म बलात्कार में नहीं, हृदयपरिवर्तन कर देने में है।
(4) धर्म पैसों से नहीं खरीदा जा सकता। वह तो आत्मा की सत्प्रवृत्तियों में स्थित है।
(5) जहाँ हिंसा है, वहाँ धर्म नहीं हो सकता।
(6) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं।
(7) हर जाति और हर वर्ग का मनुष्य धर्म करने का अधिकारी है। धर्म में जाति और वर्ग का भेद नहीं होता।
(8) गुणयुक्त पुरुष ही वंदनीय है, केवल वेश नहीं।
(9) धर्म सारे ही कर्तव्य हैं पर सारे कर्तव्य धर्म नहीं। क्योंकि एक सैनिक के लिये युद्ध करना कर्तव्य हो सकता है पर आध्यात्मिक धर्म नहीं।
Ø दीक्षापद्धति-
दीक्षार्थी उपदेश या अपने जन्म के संस्कारों से प्रेरणा पाकर जब आचार्यश्री के पास दीक्षा की प्रार्थना करता है तो उसके अचारण, ज्ञान, वैराग्य आदि की कठोर परीक्षा ली जाती है। किसी किसी की परीक्षा में तो पाँच सात वर्ष तक बीत जाते हैं। जो परीक्षा में उत्तीर्ण होता है, उसे ही दीक्षित किया जाता है। दीक्षा हजारों नागरिकों के बीच माता पिता आदि पारिवारिक जनों की सहर्ष मौखिक और लिखित स्वीकृति जिसमें कौटुंबिक तथा अन्य कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के हस्ताक्षर हों, के पश्चात् दी जाती है।
Ø तपश्चर्या-
तपश्चर्या के क्षेत्र में भी तेरापंथ श्रमण संघ किसी से पीछे नहीं है। एक दिन आहार और एक दिन निराहार, इस प्रकार आजीवन तपश्चर्या करनेवाले तो संघ में अनेक साधु साध्वियाँ हैं।