हमारी दुनियां में मंगल का बड़ा महत्व है | हर आदमी चाहता है कि प्रारम्भ किया गया कार्य सानंद सम्पन्न हो जाय | मंगल क्या है, यह जानना बड़ा जरूरी है | गुड़-चंवलेड़ी को भी मंगल माना जाता है, पर सबसे बड़ा व श्रेष्ट मंगल है – धर्म | यह भी प्रश्न हो सकता है – कौनसा धर्म मंगल है ? अहिंसा, संयम व तप सबसे बड़ा धर्म है और यही मंगल भी है | हमें सोचना है कि जैसे मैं सुख चाहता हूँ व मुझे अपना जीवन प्रिय है वैसे ही दूसरों को भी अपना जीवन प्रिय है | अतः किसी को दुखी करने व मारने का मुझे कोई अधिकार नहीं | किसी के गाली देने से मुझे यदि बूरा लगे तो मैं दूसरों को गाली क्यों दूं | मेरे लिए जैसा व्यवहार प्रिय है, मैं दूसरों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करूं ? अहिंसा धर्म तो है ही साथ ही यह एक नीति भी है और इसी नीति पर चलना हर परिवार, मोहल्ला, समाज, राष्ट्र व विदेश के लिए जरूरी है | इससे हम विद्वेष से दूर रहकर शांति से जी सकते हैं | संयम भी धर्म है – जहाँ संयम वहीं धर्म | त्याग धर्म व भोग अधर्म | तीसरा धर्म है - तप | तपस्या में तेज होता है | शुभ योग अपने आप में तप है | जिसका मन अहिंसा, संयम व तप रूप धर्म में रत्त हो जाए, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं | हमें भी उसी धर्म की शरण में जाना है |
श्रृष्टि में अनंत प्राणी हैं व अनंत जन्मों में भ्रमण करते रहते हैं | सृष्टि में चार दुर्लभ चीजें है – १. मनुष्य जन्म २. श्रुति अर्थात धर्म श्रवण ३. श्रुत पर श्रद्धा व आस्था का होना ४. धर्म में आचरण, वीर्य व पुरुषार्थ | कुछ लोग मनुष्यों की संख्या को नियन्त्रित करने की बात भी करते हैं पर मनुष्यों की संख्या देवताओं व तीर्यन्चों से कम है | आजकल यंत्रों के माध्यम से धर्म का श्रवण आसान हो गया है व सामने न होते हुए भी देश विदेशों में बैठे लोग इससे लाभान्वित हो सकते है | ऐसे में श्रुति सुलभ हो गई है | तीसरी दुर्लभ वस्तु है – श्रुत पर आस्था व श्रद्धा का होना व चौथा उस पर आचरण, पुरुषार्थ व वीर्य का होना | इन चारों की दिशा में हमारा प्रयास चलता रहे | हमारा यह मानव जीवन एक वृक्ष के समान है और वृक्ष में फल लगने से ही उसकी गुणवत्ता सार्थक हो सकती है | मानव जीवन रुपी वृक्ष का पहला फल है – जिनेन्द्र-पूजा, वीतराग-पूजा, दूसरा फल गुरु-पर्युपासना, तीसरा स्वत्वानुकम्पा अर्थात प्राणी मात्र के प्रति करुणा का भाव., चौथा सुपात्र दान, पांचवां फल – गुणानुराग, प्रमोद भावना व छटा आगम वाणी का श्रवण | हमें इन फलों से मानव जीवन को सफल व सुफल बनाना हैं |
शास्त्रकार के अनुसार एकांत सुख वाला स्थान होता है – मोक्ष | सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके हमारा अज्ञान व मोह दूर हो जाए और अज्ञान व मोह तब दूर होते हैं जब ज्ञान का प्रकाश व्याप्त हो जाता है | ज्ञान दो प्रकार का होता है – कुंड के पानी के समान व कूए के पानी के समान | कुंड से वही पानी मिल सकता है जो बाहर से डाला जाता है जबकि कूए के अन्दर से भी नए पानी का निर्माण हो सकता है व नये पानी का श्रोत भी मिल सकता है | मति श्रुति ज्ञान तो इन्द्रियों के माध्यम से मिल सकता है जबकि केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए राग द्वेष का अल्पीकरण व क्षय होना जरूरी होता है | दुःख के मूल को नष्ट करने के लिए भी राग द्वेष को कम करना होगा | इसके लिए बदबू के श्रोत का पता लगाना जरूरी होता है | राग और द्वेष हमारी चेतना से जुड़े रहते है तब तक दुःख की बदबू परेशान करती रहती है | ज्ञान के साथ यदि संस्कारों की सुगंध का सम्मिश्रण होता रहे तो दुखों की बद्बू के लिए कोई अवकाश नहीं रहता |
त्रिदिवसीय वर्धमान महोत्सव का आज तृतीय व अंतिम दिन | ज्ञान की वर्धमानता के प्रति हमें सदा जागरूक रहना चाहिए | हमारा यह क्रम तब तक रहे जब तक स्थाई सम्यकत्व प्राप्त न हो जाय | हम तब तक ज्ञान प्राप्त करते रहें जब तक ज्ञान में पूर्णता न आ जाये | मिथ्यात्वी भी ज्ञान प्राप्त कर सम्यकत्व की दिशा में आगे बढे | अभव्य भी साधु बन जाए तो उसे मोक्ष की प्राप्ति तो नहीं हो सकती पर नव ग्रेवेयक तो जा सकता है | दर्शन की भी वर्धमानता होती रहे | चारित्र में पांच महाव्रत पांच हीरे के समान है | ये हीरे चक्रवर्ती पद से भी ज्यादा मूल्यवान व कीमती होते है | कोई इन कीमती हीरों को चुरा न ले | इन हीरों को चुराने वाला सबसे बड़ा चोर है – मोहनीय कर्म, हमें इनसे सावधान रहना है | पांच समितियां व तीन गुप्तियाँ ये आठ महाव्रतों के पहरेदार होते हैं | प्रतिक्रमण व प्रायश्चित आत्म शुद्धि के दो उत्तम उपाय है | प्रतिक्रमण में जल्दबाजी न हो व हमारा उच्चारण भी शुद्ध व स्पष्ट रहे | प्रतिक्रमण के दौरान बातें न हों, अर्थ बोध भी हो व भावनात्मक जुड़ाव भी रहे | यदि कोई भूल हो जाये तो प्रायश्चित का होना भी जरूरी है, काल धर्म प्राप्त होने से पहले प्रायश्चित का स्नान व शुद्धता हो जाय | चलते समय बातें न करे, विभूषा का भाव न रहे व आगम-स्वाध्याय चलता रहे तो चारित्र पालन में ये सहायक बन सकते हैं |
त्रिदिवसीय वर्धमान महोत्सव का आज मध्य व द्वितीय दिवस | वर्धमानता अच्छी भी होती है व बुरी भी | सर्प्रथम हमारे ज्ञान में वृद्धि हो, ज्ञान पाना अच्छा है पर उसमें भी विवेक रहे | किस समय कौनसा ज्ञान प्राप्त किया जाय | समय की घड़ी की सूई पर हमारी दृष्टि रहे व उसका सदुपयोग हो | प्रातः काल का समय आगम वाचन व सूत्रों के स्वाध्याय में लगाना चाहिए न कि अख़बार आदि पढ़ने में | डाक्टर के लिए डाक्टरी, वकील के लिए वकालत व आध्यात्म वेताओं के लिए आगम की प्रार्थमिकता रहे | केंद्र केंद्र है व परिधि परिधि | ज्ञान के साथ दर्शन भी पुष्ट बने | वीतराग व जिनेश्वर वाणी पर हमारी आस्था व श्रद्धा पुष्ट बने | किसी बात का आग्रह न रहे तथा धर्म संध की मान्यता के साथ हमारा मेल हो | हमारा सदा दिमाग निष्टावान रहे, शंकाशील न बने | यथार्थ के आगे तेरी मेरी की सारी बातें गौण हो | हम यथार्थ को कभी झुठलाने का प्रयत्न न करें व यथार्थ के प्रति सदा समर्पित रहें | तीसरी बात है – चारित्र | यथार्थ के प्रति आस्था व कषायों के मंदता होने से चारित्र भी निर्मल बन सकता है | हमारे ज्ञान, दर्शन व चारित्र तीनों वर्धमान होते रहें |
काल के तीन रूप – अतीत, वर्तमान, भविष्य
काल को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है – १. अतीत २. वर्तमान ३. भविष्य | अतीत अनंत व भविष्य भी अनंत होता है जबकि वर्तमान सीमित होता है व सापेक्ष भी | समय को वर्तमान में लिया जा सकता है | समय काल का अति सूक्ष्म व लघुतम भाग है, इकाई है | एक पलक झपकने में असंख्य समय बीत जाता है | दूसरी ओर वर्तमान को हम वर्तमान जीवन मान सकते है | साल, महिना व दिन भी वर्तमान की कोटि में आ सकता है | यह सारा सापेक्ष है | यह हमारा वर्तमान जीवन है | इससे पहले हमने अनंत जीवन लिये हैं, जो हमें याद नहीं हैं | पूर्व जन्म की कुछ समृतियाँ भी होनी संभव है, या फिर केवल ज्ञानियों द्वारा बतलाये जाने से भी पिछले जन्म का ज्ञान हो सकता है | इस जन्म में भी कुछ बचपन की बाते किसी को याद रहती है व किसी को नहीं भी | अतीत पर ध्यान देने की अपेक्षा यह जरूरी है कि हम अपने भविष्य के बारे में सोचें कि हमारा भविष्य कैसे अच्छा बन सके | उसके लिए हमें बहुश्रुत व ज्ञानी की पर्युपासना कर ज्ञान प्राप्त करना चाहिए |
अहिंसा परम धर्म है व इसका महत्व भी जीवन के हर क्षैत्र में होता है | यह ऐसा धर्म है जो सब धर्मों में मान्य होता है | अहिंसा मात्र एक धर्म है नहीं, एक निति भी है | अहिंसा धर्म का पालन करके आदमी विश्व मैत्री की परिकल्पना को भी साकार कर सकता है | इसका पालन युद्ध पर भी विराम लगा सकता है | कोई आदमी युद्ध की भावना ना रक्खे व समझौते का प्रयास करता रहे | एक बार में नहीं हो तो दो बार, दो बार में नहीं हो तो बराबर प्रयासरत्त रहे | अहिंसा की परिपालना सामाजिक, पारिवारिक व हर जीवन के लिए सुखदायिनी हो सकती है| साधु व साधना के लिए तो अहिंसा निर्विकल्प रूप से ग्रहणीय है ही, पर गृहस्थ भी उस दिशा में अग्रसर होने का प्रयास करे | अहिंसा की परिपालना के लिए अभय का भाव भी पुष्ट हो | न किसी से डरो व न किसी को डराओ | सहिष्णुता अर्थात समता का भी पालन होता रहे | छोटों के साथ बड़ों में भी समता का भाव रहे | अहिंसा जीव के मरने या न मरने से ज्यादा अपनी भाव-धारा से सम्बन्धित होती है | शिकारी हरिण को मारने के लिए वाण चलाता है, हरिण न भी मरे तो वह पाप का भागी तो बन ही जाती हैं | साधु के जयणा-पूर्वक चलने से कोई जीव मर भी गया तो वह हिंसक नहीं होता | सारा खेल भावना का होता है |
छोड़ना त्याग है, पर छूटना त्याग नहीं
आदमी डरता है और अन्य प्राणी भी डरते हैं | प्रश्न है – डर किस बात का ? प्राणी दुःख से डरते हैं, कष्टों से घबराते है | ऐसे में दुःख-मुक्ति व दुखों से पूर्ण मुक्ति कैसे मिले इस पर चिंतन करना जरूरी है | सब साधु तो बन नहीं सकते और मात्र साधु का वेश धारण करने से भी दुःख मुक्ति नहीं हो सकती | इसलिए आत्म संयम, आत्मानुशासन व आत्म निग्रह करो | आत्म निग्रह व स्व नियन्त्रण दुःख मुक्ति का मार्ग है | खुद पर निग्रह व नियन्त्रण के अभाव में गुस्सा व लड़ाई झगड़ों की स्थितियां बन जाती है तथा मारपीट तक की नौबत भी आ जाती है | जो साधना रत्त है वह सदा शीतलनाथ ही बना रहे, कभी ज्वालानाथ न बने | हम आत्म निग्रह के साथ अपनी इच्छाओं पर भी निग्रह व नियन्त्रण करें और उन्हें सीमा में रखने का प्रयास करते रहें | असल में स्वेच्छा से छोड़ना त्याग है, पर मजबूरी से छूट जाय वह त्याग नहीं | अतः आत्मा पर निग्रह करो, संयम करो व खुद के द्वारा खुद का अनुशासन करो | न हम ज्यादा हंसी मजाक करें, न ही दूसरो की आलोचना करें व न पर निंदा में रस लें | सिद्धि संकल्प से प्राप्त होती है | छोटे छोटे संकल्प भी हमारे जीवन की दिशा बदल सकते हैं, अपेक्षा है उन्हें दृढ़ता से आत्मसात करने की |
नमन, खमन, दीनता व आदर भाव रहे
आदमी के द्वारा गलती भी हो सकती है | गलती साधु से भी संभव है, पर गृहस्थ से तो ओर भी अधिक हो सकती है | पर गलती हो भी जाए तो उनका परिस्कार हो | पद व कद बड़ा होने का महत्व नहीं, न ही मंच पर बैठने का | इन सब से आदमी बड़ा नहीं होता | बड़ा होने के लिए नमन करें – बड़ों को, गुरुओं को व तीर्थंकरों को, उनके आगे तो झुकें पर कठिनाइयों के आगे न झुकें | खमन अर्थात क्षमा का भाव सबके लिए हो व दीनता – गुरुओं के आगे व आराध्य के सामने दीन भी बन जाएँ व गुलाम भी | हर प्राणी के लिए हमारे मन में आदर का भाव रहे, तो वह बड़ा बन सकता है | इस सत्य का वर्णन संत कबीर ने एक दोहे में किया | आदमी न बड़ी आकृति से, न ही गौर वर्ण से बड़ा बनता बल्कि बड़ी प्रकृति से बड़ा बनता है | किसी के सामने गुस्सा करने वाला बड़ा नही होता, क्षमाशील बड़ा होता है | अतः हममें उदारता व क्षमाशीलता का विकास हो | भक्ति ऊपर की नहीं, मन की हो व समर्पण भी साथ में हो | जो रोज शिव पर थूकता, शिव उससे बातें करते, क्योंकि जब उनकी एक आंख किसी नें निकाल ली तो उसने अपनी एक आँख शिव को दे दी, इस सत्य के सामने आने से सबकी आँखें खुल गई |
राग द्वेष मुक्ति ही दुःख मुक्ति है
यह संसार दुःख प्रचुर है, अध्रुव है व अशाश्वत है | दुःख का कारण है हमारे कर्म व राग-द्वेष व कषायों की मात्रा की प्रबलता | तो इनसे बचने के लिए हम क्या करें व किस बात पर ध्यान दें यह हमें सोचना है | मनुष्य, देव, तिर्यंच व नारक ये चारों गतियाँ पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेंगी | गतियों शास्वत है लेकिन जीवन अशास्वत है | दुख हर गति में होता है लेकिन यह कामानुवृद्धि से पैदा होता है | जन्म, बुढ़ापा, रोग व मृत्यु ये दुःख के चार कारण हैं | इनके आलावा आर्थिक अभाव आदि से भी दुःख हो सकता है | पर दुःख हमारे मन पर हावी न हो | ओर तो क्या रामचन्द्रजी के जीवन में भी सीता का हरण व लक्षमण को शक्ति का लगना उन्हें दुःख से नहीं उबार सका व वे सुध-बुध खो बैठे | लेकिन एक ओर दुःख है तो दूसरी ओर दुःख मुक्ति भी | हम राग-द्वेष, मोहनीय कर्म व कषायों को पतला करके दुःख मुक्त हो सकते हैं | एक ही व्यक्ति की चार स्थितियों – बुढ़ापा, बीमारी व मृत्यु की स्थिति को देखकर राजकुमार को वैराग्य उत्पन्न हो गया वह साधु बन गया | हम साधु नहीं बन सकते तो कम से काम श्रावक तो बनें व जीवन को अच्छी दिशा में अग्रेसित तो करते रहें ।
सेवा लेने वाला, वापिस सेवा दे भी
आदमी दूसरे की शरण में तब जाता है जब वह कमजोर होता है वर्ना क्यों किसी की शरण ले | शरण में आना दुर्बलता का प्रतीक है व किसी को शरण देना क्षमता व सामर्थ्य का प्रतीक है | सहयोग देना व पारस्परिक सहयोग की भी एक परम्परा है होती है | जीव का ही नहीं अजीव का भी हमें सहयोग मिलता है | धर्मास्तिकाय गति में सहयोगी होती है जो सब जीवों को भी व पुद्गलों को भी गति करने में सहयोग देती है | अधर्मास्तिकाय स्थिति अर्थात स्थिर रहने व ठहरने में सहयोग करती है | आकाश सबको अवगाह देता है, यहाँ तक कि धरती को भी | यह सबसे बड़ा व विशाल होता है | काल वर्तन करता है | पुद्गल भी हर काम में हमारे काम आते हैं | जीवों का भी एक दूसरे को सहयोग मिलता है | परस्परोपग्रह जीवानाम | सहयोग धार्मिक भी व सांसारिक भी | बिना सहयोग की किसी का काम नहीं चलता | हम सोचें की हम सहयोग लेते तो हैं पर वापिस किसी को सहयोग देते भी हैं या नहीं | तीर्थंकर, ज्ञानी गुरू व शिक्षक हमें ज्ञान का सहयोग देते है व आध्यात्मिक व आत्म कल्याण का पथ बताने में साथ देते हैं | धर्म का सहयोग व शरण सबसे बड़ी है व परम तक पहुँचाने वाली भी | एक रोटी के पीछे कितने लोगों के हाथ लगते हैं व सहयोग रहता है |
मुस्कान से मुस्कान प्राप्त होती है
किसके पास क्षमा का खड़क है, दूसरा आदमी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता | बाह्य शास्त्र का प्रयोग बाहरी विजय के लिए किया जाता है | हिंसा और परिग्रह का आपस में बड़ा संबंध है | हिंसा कार्य और परिग्रह कारण | परिग्रह हिंसा का मूल है, जड़ है | लोहे के शस्त्रों से आदमी को मारने का प्रयास किया जाता है | दूसरा शस्त्र है – मार्दव व मैत्री का शस्त्र, जिससे आदमी के मन को जीता जा सकता है, जो बाहर के शस्त्रों से संभव नहीं होता | मीठी वाणी व मैत्री एक बड़ा शस्त्र है | अहिंसा जब आदमी का मन आप्लावित हो जाता है तो दूसरों पर विजय आसान हो जाती है | दूसरों को झुकाने के लिए पहले खुद को झुकना पड़ता है | मुस्कान से मुस्कान का निर्माण होता है | दूसरों के मन को जीतने के लिए हमें क्षमा व मैत्री का प्रयोग करना है | हम सदा शांत रहें, गुस्सा न करें, राजा हो या रंक गुस्सा किसी के काम का नहीं | क्षमा धर्म उत्तम धर्म है | शांति व क्षमा मुक्ति का द्वार है | हम क्षमा के गुणगान की अपेक्षा जीवन में उसका प्रयोग करें व अपनी कमियों का परिस्कार करें | जो उपयोगी हो उसे ग्रहण करें व अनुपयोगी को कूड़ेदान में फेंक दें | हमारी शक्ति का अच्छा उपयोग हो यह जरूरी है |