क्षैत्र space व समय time दोनों का बड़ा महत्व होता है | कार्य के लिए सम्पन्नता की भी आवश्यकता होती है | जैसे बूँद बूँद गिरती जाती है वैसे ही काल का क्रम चलता रहता है | काल की लाधुतम इकाई का नाम समय है | २०२१ अतीत बन गया है व अब जो भी होना है वह २०२२ में होगा | हमारा २०२१ किसके लिए कैसा रहा, किसने क्या खोया क्या पाया | किसी किसी ने अपनों को भी खो दिया | गुस्सा प्रबल आग, अहंकार भयंकर नाग, माया एक जाल व लोभ नाशकारी तत्व होता है | यदि इनको क्षीण करने में असफलता भी मिले तो पहले अवलोकन करें कि कहीं इस कार्य को करने में हमारी कमी तो नहीं रही व फिर पुनः प्रयास करें | अब २०२२ हमारा एक साल का सहचर व मित्र बन गया है | इससे हम क्या लाभ उठा सकते हैं | योजना-बद्ध कार्य के साथ पुरुषार्थ भी हो ताकि हम २०२२ का अच्छा व आध्यात्मिक साधना में उपयोग कर सकें | कुछ चिंतन से तो कुछ अचिंतन से भी प्राप्त हो सकता है | अचिंतन की अवस्था में हम अपने प्रभु के साथ भी रह सकते हैं | उस स्थिति में आदमी निर्भय रहता है | हम कुछ समय अचिंतन में प्रभु के साथ आध्यात्म साधना में भी बिताएं | डबल २ में एक २ को अर्थात राग-द्वेष को छोड़ें व दुसरे २ में सत्य व मैत्री को संपुष्ट करने का प्रयास करें |
मार सके मारे नहीं ताको नाम मरद
क्रोध (गुस्सा) मान (अहंकार), माया (छलना), लोभ (लालच) ये चार कषाय हैं | कषाय भीतर में रहता है तो पता नहीं चलता, पर जब योग रूप में सामने आता है व प्रवेश करता है तो वह नुकसान करता है | हमें इन चारों को उपशांत करना है | आग प्रज्वलित होती है पर राख आने पर प्रज्ज्वलन कम हो जाता है या नहीं रहता | अभी पंचम अर में इनका पूर्ण क्षय नहीं होता पर इससे हमें निराश नहीं होना है | हमारा कषायों पर नियन्त्रण रहे तो एक दिन मोक्ष की प्राप्ति भी निश्चित ही होनी है | आलस्य मनुष्य का क्षत्रु है तो गुस्सा भी क्षत्रु ही है, हमें इसे उपशांत रखने का प्रयास करना है | तीन तरह के लोग होते है – एक वे जिनकी बोलने की हिम्मत नहीं होती इसलिए शांत रहते है, दूसरे जिनकी हिम्मत होती है इसलिए ईंट का जबाब पत्थर से देते हैं व तीसरे जो ताकतवर व सक्षम होते हुए भी ईंट का जबाब फूलों से देते हैं व सदा शांत रहते है | सक्षम होने पर भी भी गुस्सा न करना व क्षमाशील रहना उत्तम, क्षमाशील व बड़प्पन वाले व्यक्ति का लक्षण है | क्षमा वीरस्य भूषणम | गुस्सा क्षत्रु है, इस पर हमें शांति से विजय प्राप्त करनी है
विद्वता के साथ महानता भी आये
भगवान पार्श्व पुरुषादानीय व्यक्ति व तीर्थंकर थे | वे जब गृहस्थावस्था में थे तो एक हवन हो रहा था, जिसमें नाग-नागिन का जोड़ा जल रहा था | उन्होंने अपने ज्ञान से जाना और उन्हें बचाकर मंत्र आदि का श्रवण कराया, जिससे वे मर कर धरनेंद्र-पद्मावती के रूप में देव योनि में पैदा हुए | तीर्थकर जैसे महापुरुष देवों के भी पूजनीय होते हैं | आज भगवान पार्श्व का जन्म दिन है | वे आध्यात्म जगत के अधिकृत प्रवक्ता थे | उवसग्ग हरण स्र्तोत्र व कल्याण मंदिर उनके बारे में विशिष्ट रचनाएँ की गई | भक्तामर स्तोत्र की रचना जैसे भगवान ऋषभ की स्तुति में आचार्य मानतुंग ने की वैसे ही आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कल्याण मंदिर स्तोत्र की रचना भगवान पार्श्व के लिए की | आज में प्रभु पार्श्व को श्रद्धा से वंदन करता हूँ | आज हम एक विधा संस्थान में आये हैं | शिक्षक विधार्थियों में संस्कारों का सिंचन करें व अपने जीवन को भी अच्छा बनाएं, जिसे देखकर विधार्थी अच्छे जीवन की प्रेरणा ग्रहण कर सकें | ज्ञान के साथ संस्कार व विद्वता के साथ महानता भी आये | शिक्षा के साथ अच्छे संस्कारों का बीजारोपण होता रहे, यह वांछनीय है |
पन्ना अर्थात प्रज्ञा से संबद्ध शब्द
आगम में पन्ना शब्द का प्रयोग मिलता है | पन्ना यानि प्रज्ञा, धर्म की समीक्षा व तत्व का विनिश्चय किया जाना जरूरी है | प्रज्ञा पुरुष वह होता है जिसके पास ज्ञान का खजाना हो | जयाचार्य तत्व वेता थे, उन्होंने इतना साहित्य सृजन किया कि उसका पूरा पठन भी हम लोग नहीं कर पाए हैं | भगवती सूत्र की जोड़ उनमें एक विशिष्ट ग्रंथ है | उनका यह महाप्रयाण क्षैत्र रहा | उनका स्मारक प्रज्ञा पीठ के रूप में हमारे सामने है | यही उनका दीक्षा क्षैत्र भी था | उन्होंने मर्यादाओ को सदा उजागर किया व आज भी उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया मर्यादा महोत्सव हम लोग माना रहे है | मैं बड़े विनम्र भाव से आज उनका स्मरण कर रहा हूँ | यहीं हमारे दीक्षा प्रदाता मुनि श्री सुमेरमल जी का प्रयाण हुआ, जिन्होंने गुरु के इंगित व आज्ञा से चार संतों को दीक्षित किया, इतने संतों को दीक्षित करने वाले वे तेरापंथ के प्रथम संत थे | जयपुर जहाँ हम लोग अभी प्रवास कर रहे – जय शब्द से संबंधित है | जयपुर के लोगों में धर्म व धार्मिक संस्कारों का विकास होता रहे |
युद्ध बाहर का नहीं, भीतर का हो
शास्त्र में आत्मा के साथ युद्ध करने व व स्वयं से लड़कर स्वयं को जीतने की बात का उल्लेख मिलता है | सुख की प्राप्ति दूसरों नहीं बल्कि स्वयं से लड़ने से हो सकती है | बाहर का युद्ध किसी को मारने के लिए होता है जबकि इस आत्म युद्ध मारने के लिए नहीं बल्कि तरने और तारने ले लिए किया जाता है | जहाँ परिग्रह वहां हिंसा ऐसे में बाहर का युद्ध बाह्य संपदा को पाने व बढ़ाने के लिए होता है, जबकि आत्म युद्ध आंतरिक संपदा को बढ़ाने के लिए | हम कषाय आत्मा व अशुभ योगों के उदय को क्षयोपशम के सहयोग से पछाड़ने का प्रयास करते रहें | मोहनीय कर्म को भी हमें उपशांत बनाना है | आज का पंचमी के दिन आचार्य तुलसी आत्म युद्ध के लिए तैयार हुए व १२ वर्ष की अल्प आयु में कालूगाणी के हाथों संयम दीक्षा ग्रहण की | वे स्कूल में भी मोनिटर रहे व दीक्षित होने के बाद आचार्य महाप्रज्ञ आदि अनेक साधुओं के शिक्षक भी रहे | आज से ९६ वर्ष पूर्व मात्र २२ साल की अवस्था में वे आचार्य पद का भार संभाला | अणुव्रत आन्दोलन, जीवन विज्ञान, प्रेक्षा ध्यान आदि अनेक उपक्रम व समण श्रेणी आदि अनेक उपक्रमों का प्रारम्भ किया | उन्होंने अपने आचार्य पद का भी विसर्जन कर दिया, जिसे एक उत्कृष्ट समर्पण की संज्ञा दी जा सकती है |
बाहर भीतर दोनों ही दृष्टियों का महत्व
अध्यात्म जगत में ज्ञान और चारित्र के साथ दर्शन क भी बड़ा महत्व है | दर्शन शब्द के कई अर्थ है इनमे एक अर्थ है – देखना, दूसरा दिखाना, प्रर्दशन करना, तीसरा अर्थ आँख | नेत्र का जीवन में बड़ा महत्व है | आँख है तो आदमी देख सकता है, उसका इलाज भी हो सकता है व शल्य चिकित्सा भी | नेत्र-दान भी किया जाता है जो ज्योति हस्तांतरण का एक रूप है,पर आँख का सदा सदुपयोग हो, उसका कोई दुरूपयोग न हो और ऐसा तब होता है जब बाहर के साथ भीतर की आँख भी खुल जाय | हमारी विवेक की आँख भी खुले तो आदमी करणीय व अकरणीय का ज्ञान हो | दर्शन का चौथा अर्थ है – सामान्य अवबोध | दर्शन शब्द का पांचवां अर्थ – श्रद्धा, निष्ठा, रूचि व आकर्षण | इस शब्द का छटा अर्थ है – दर्शन, फिलोसोफी | अपेक्षा है – ज्ञान और चारित्र के बीच दर्शन का सेतु बने ताकि आचार और विचार के साथ संस्कार का भी निर्माण हो | सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्ष का मार्ग है | धर्म में न श्वेताम्बर मात्र से, न दिगम्बर मात्र से व न तार्किक बनने से मुक्ति मिलती है, मुक्ति के लिए सबसे जरूरी है – कषायों से मुक्ति |
आदमी भी जीवन जीता है व अन्य प्राणी भी जीते है | यहाँ कर्तव्य व अकर्तव्य दोनों का क्रम चलता है | जो व्यक्ति अपने कर्तव्य व अकर्तव्य को नहीं जानता, उसका बोध नहीं होता व उसका पालन नहीं करता वह न अपना हित कर सकता है और न ही देश का हित | हर व्यक्ति को अपने कृत कर्मों का फल भोगना पड़ता है | वह इस आजाद भारत का नागरिक होने पर भी मन-मानी न करे | गाँव, समाज व देश के व्यवस्थित संचालन के लिए हर व्यक्ति अनुशासित रहे, यह बहुत जरूरी है | भारत एक लोकतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष देश है, हर नागरिक को स्वतन्त्रता प्राप्त है पर अनुशासन का अंकुश तो होना चाहिए ही | विभिन्न विषयों के पठन-पाठन के साथ विधार्थियों को अच्छे संस्कारों का ज्ञान दिया जाना भी बड़ा जरूरी है, जिससे अहिंसा, विनय तथा मैत्री का विकास हो सके | बड़ों के प्रति सम्मान की भावना भी पुष्ट बने | पहले सोचे और फिर बोले तो परस्पर विवाद के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा | खान-पान व नशे से बचे तथा तोड़फोड़ आदि पृवृतियों की भी कोई संभावना न रहे | कर्तव्य पालन के साथ संयम का ब्रेक भी हो व विवेक का प्रकाश भी तो हमारा अपना जीवन व देश का भविष्य दोनों अच्छे होंगे |
अतीत में अनंत तीर्थंकर हो गए और भविष्य में अनंत होंगे | उन सबका आधार है – शांति, जैसे प्राणी का आधार है – धरती | शांति के बिना बुद्ध नहीं बना जा सकता | जब तक मोहनीय कर्म क्षय महीं होगा, केवल ज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होगी | केवल-ज्ञानी तो ओर भी हो सकते हैं पर तीर्थंकर से बड़ा कोई आध्यात्म का प्रवक्ता नहीं हो सकता | उन्होंने बतलाया है कि हम स्वयं भी शांत रहें व दूसरों की भी शांति भंग न करें तथा उसमें वाधक न बनें, शांति प्रदान करें | शांत रहें व शांत रहने दें | शांति भंग होने के चार मुख्य कारण – क्रोध, लोभ, भय व चिंता | गुस्सा न करें, यदि गुस्सा आ जाय तो बोलें नहीं व कुछ देर के लिए चुप हो जाएँ, लोभ की वृति को कम करने का प्रयास करें व संतोष में रहें, भय से भी दूर रहें व अभय में रहें, चिंता से मुक्त रहे | यदि ऐसा हो तो हम शांति में रह सकते हैं | हमारा दिमाग पर कोई भार न रहे, दिमाग हल्का रहे तो शांति भी रह सकती है | हम सहन करना सीखें | सहना चाहिए, तरीके के कहना चाहिए व शांति से रहना चाहिए | यदि मैत्री व प्रमोद भावना रहे तो शांति भी रह सकती है | शांति धन से ज्यादा मन से सम्बन्धित होती है |
हमारे जीवन में कान का भी बड़ा महत्व है – कान युक्त प्राणी पांच इन्द्रियों वाला अर्थात पंचेन्द्रिय प्राणी होता है | कानों के अभाव में वह पंचेन्द्रिय नहीं हो सकता | जिसके केवल स्पर्शेन्द्रिय हो वह एक इन्द्रिय वाला, जिसके जिभ्य अर्थात रसनेन्द्रिय जुड़ गई वह दो इन्द्रियों वाला द्वीन्द्रिय, सूंघने की शक्ति अर्थात नाक जुड़ा तो तीन इन्द्रिय वाला, आँखें जुडी कि वह चार इन्द्रिय वाला व कान जुड़ते ही पांच इन्द्रिय वाला बन गया | मनुष्य पंचेन्द्रिय प्राणी है, सकलेंद्रिय प्राणी है | कानों के माध्यम से सुनकर वह अच्छी चीजों को जान लेता है व बुरी की भी जान लेता है | ज्ञान बड़ी पवित्र चीज है, ज्ञेय सब है – पुन्य भी पाप भी आश्रव, संवर व निर्जरा भी | हेय – जो छोड़ने लायक हो व उपादेय जो ग्रहण करने लायक हो | आश्रव को छोड़ें व संवर तथा निर्जरा को ग्रहण करें | कान से सुनी हुई श्रेय बातों को अपनाएं व हेय को छोड़ें | वृद्ध सेठ के साथ बीती एक धटना – नाटक में “बहुत गई, थोड़ी रही अब रंग में भंग मत करो” ने बेटी, बेटे व सन्यासी के जीवन को नई दिशा प्रदान कर दी | सेठ का ज्यादा जीवन बीत गया व थोड़ा बचा है अब कोई ऐसा कार्य न करें जिससे सेठ को दुःख हो | सन्यासी ने भी पुनः सन्यास रत्त होकर जीने का मन बना लिया |
त्याग : ,केक/ पेस्ट्री खाने का त्याग करें ।
9/11 (या धारणा अनुसार) द्रव्यों से ज्यादा खाने का त्याग करें।
संकल्प :-एक घंटा मौन या स्वाध्याय करने का संकल्प करे।
प्रत्याख्यान -- नवकारसी (सुर्योदय से ४८:०० मिनट बाद) /पोरसी / एकासन/उपवास करने का प्रत्याख्यान कर सकते।
हमारे पास प्रवृति के तीन साधन हैं - शरीर, वाणी व मन | आत्मा व चेतना मुखिया तथा राजा व ये तीन इसके कर्मचारी | शरीर कार्यकारी व कर्मकार है, वाणी के माध्यम से विचारों की प्रस्तुति व भावों का संप्रेषण होता है जबकि मन गुप्त रहने वाला कर्मकार है जो परोक्ष रहता है | मन के विचारों व भावों को जानना कठिन है | आँखें व चेहरे को देखकर कुछ अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है | ये राजा के दिवान की भूमिका अदा करने के रूप में कार्य करते हैं | मन सुमन व दुर्मन दोनों प्रकार का हो सकता है | हम अपने चिंतन चिंतन व सोच सोच से दुखी व सुखी दोनों बन सकते हैं | सकारात्मक चिंतन प्रसन्नता पैदा करने वाला व नकारात्मक चिंतन निराशा व दुःख पैदा करने वाले होते हैं | हम जो नहीं है उसको लेकर दुखी न बनें बल्कि जो है उसको प्राथमिकता देकर प्रसन्न रहें व सुखी बनें | वे मन के भाव ही होते हैं जो हमें सुख और दुःख की स्थितियों तक पहुंचा देते हैं | एक आदमी के हाथ पैर दोनों नहीं थे फिर भी वह बड़ा प्रसन्न रहता | उसका सोचना यह था कि मेरे हाथ-पैर नहीं है तो क्या हुआ – मेरे दिमाग, वाणी, आँखें आदि सब ठीक है तो फिर इनका उपयोग करूं व प्रसन्न रहूँ | अभाव को देखकर दुखी न बनूं बल्कि भाव को देखकर ख़ुशी रहूँ | फांसी के सजा मिलने पर मंत्री सोचता फांसी ६ बजे लगनी है, मरना है तो ही क्यों मरूं, अभी तो सुख से जी लूं |उसकी फांसी माफ़ हो गई। जो जीना जानता है उसे कोई नहीं मार सकता।
हमारा मन ही संतोष और लोभ दोनों स्थितियों में चला जाता है | वे मन के भाव ही होते हैं जो हमें सुख और दुःख की स्थितियों तक पहुंचा देते हैं | यदि मन प्रमाद में रहेगा तो प्रमाद के कारण कभी गुस्से में, कभी अहंकार में तो कभी अन्य विकारो से आदमी घिर जाता हैं | ऐसे में सुख व शान्ति नहीं रहती | मन नियन्त्रण में रहता है तो दुःख वैसे ही गायब हो जाता है जैसे सूर्य के ताप के कारण सर्दी गायब हो जाती है | सूर्य के ताप से बर्फ भी पिघल सकती है व सर्दी भी कम हो सकती है | भाव जगत के साथ अनेक श्रृंखलाएं जुडी हुई है तो हमारे भाव सदा शुद्ध रहें | भाव नीचे की ओर जाने से अधोगति व भाव अच्छे होने से ऊर्ध्वगति में जा सकता है | एक बहुत छोटा सा प्राणी होता है – तेन्दुलमत्स जो भावो की निम्नता से सातवीं नरक तक का बंध कर लेता है | तो हमारे भाव सदा शुद्ध रहें | जिसके मन होता है वही प्राणी ज्यादा पाप भी कर सकता है व ज्यादा धर्म भी | सामान्य कीड़े मकौड़े जो मन विहीन होते हैं वे न ज्यादा पाप कर सकते हैं और न ही ज्यादा धर्म | आदमी ही सबसे शक्तिशाली होता है जो सर्वार्थ-सिद्धि व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है | देवता भी चौथे गुणस्थान से आगे नहीं जा सकते जबकि मनुष्य चौहदवें गुणस्थान तक जा सकता है |