हर संसारी की मृत्यु सुनिश्चित है
सुयगड़ो में कहा गया है – सबकी मृत्यु निश्चित है | देवता, राजा, नागकुमार आदि सबको एक दिन अपने पद से च्युत होना पड़ता है | न किसी का जीवन स्थाई होता है न ही पद | जैनत्व के चार सिद्धान्त | १. – आत्मवाद, इसके अनुसार आत्मा सदा शास्वत है, वह थी, है व आगे भी रहेगी | २. कर्म वाद, जिसका चक्र सदा चलता रहता है व अपने कर्मों का फी फल आदमी भोगता है ३. क्रियावाद – क्या करने से क्या होता है ४. लोकवाद-अलोकवाद | लोकाकाश व अलोकाकाश सबसे बड़ा होता है परिमाण में उससे बड़ा कुछ नहीं होता, आत्मा भी नहीं | एक दार्शनिक ने बताया – दुनियां में सबसे आसान काम है – दूसरे की निंदा, आलोचना, सबसे कठिन काम है – खुद की पहचान व सबसे गतिशील है - हमारा मन | कर्मवाद के अनुसार उत्थान व पतन का क्रम चलता रहता है | संस्थाओं में भी हर पद का कार्यकाल होता है | लेकिन श्रावक का एक ऐसा पड़ होता है जिसका कोई कार्यकाल नहीं होता, वह सदा हमारे पास रह सकता है | भौतिक प्राप्ति से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है – ज्ञान तथा आध्यात्म की प्राप्ति | हम अपने इस पद को सदा सुरक्षित रक्खें व उस दिशा में विकास करते रहें |
जहाँ आत्मा और शरीर का संयोग हो - वह जीवन, जहाँ आत्मा और शरीर का वियोग हो - वह मृत्यु और दोनों का सदा-सदा के लिए अलग हो जाना – मोक्ष | हमें जी दिखाई देता है वह हमारा स्थूल अर्थात औदारिक शरीर है इसके अतिरिक्त हमारे दो ओर शरीर होते है, वे हैं – तेजस शरीर अर्थात इलेक्ट्रिक बोडी और दूसरा कर्माण शरीर – जो अति सूक्ष्म होता है | हमारी जीवन शैली ऐसी हो कि इस दिखाई देने वाले औदारिक शरीर के साथ ही साथ मानसिक व भावात्मक स्वास्थ्य भी स्वस्थ रहे | वह शरीर स्वस्थ रह सकता है - जो हितकर आहार, विहार के साथ चलता रहे | हमारे जीवन में खाने का भी संतुलन हो तथा भ्रमण का भी संतुलन रहे, न ये बहुत ज्यादा हो न बहुत कम | हर काम सोच-समझ कर समीक्षा के साथ हो | समता, अनासक्ति व उदारता जीवन के आवश्यक तत्व हैं | झूठ, कपट व छल-प्रपंच से बचने वाला रोग-मुक्त मुक्त जीवन जी सकता है | हम आधि, व्याधि व उपाधि से समाधि की ओर प्रस्थान करते रहें | हमारी बीमारी का मूल है – कार्मण शरीर अतः बाह्य चकित्सा के साथ आंतरिक चिकित्सा भी जरूरी है |
सुयगड़ो में कहा गया हैं – कई बार संताने माता-पिता की उपस्थिति में चले जाते हैं, व माता-पिता के सामने प्रस्थान कर देते हैं | सुगति भी सब को सुलभ नहीं होता | इन सब स्थितियों को देखकर आदमी हिंसा व परिग्रह से विरत रहे | नरक गति के तीन कारणों में १. महा-आरंभ २. महा-परिग्रह ३. पंचेन्द्रिय वध | ऐसे में हमें जागरूकता पूर्वंक हिंसा व परिग्रह से बचना है | साधु तो हिंसा व परिग्रह के पूर्ण त्यागी होते ही हैं पर गृहस्थों की भी इस दिशा में ध्यान देने की अपेक्षा है | जागरूक रहने से हम छोटे-छोटे जीवों की हिंसा से सहज बच सकते है – देखकर चलें ताकि हमारे पैर के नीचे आकर कोई जीव ना मरे व नहाते समय भी कोई जीव पानी में न बहे | सांप भी निकल जाय तो उसे मारें नहीं बल्कि किसी दूर स्थान पर छोड़ दें, मच्छर आदि को भी मारने वाली दवा का प्रयोग न हो | जमीकंद खाने का त्याग करने से असंख्य जीवों की हिंसा से बचा जा सकता है | परिग्रह गृहस्थ के लिए जरूरी होता है पर उसका सीमाकरण तो किया ही जा सकता है | श्रावक के लिए बारह व्रतों की साधना का प्रवधान है और उससे भी ज्यादा संयमित बनने के लिए सुमंगल साधना ग्रहण की जा सकती है | मुख्य बात है व्रतों ग्रहण करना व पदार्थ के प्रति आसक्ति को कम करना |
शास्त्रकार ने बतलाया है कि मृत्यु जीवन का शास्वत सत्य है | मृत्यु से किसी को छुटकारा नहीं मिल सकता | न मरने की अभी तक कोई दवा पैदा नहीं हुई | बालक, युवक, व बूढ़े सब चले जाते है, यहाँ तक की गर्भस्थ शिशु को भी मौत अपनी चपेट में ले लेती है | बाज पक्षी जैसे बटेर का हरण लेता है वैसे ही मौत आदमी को निगल लेती है | न कोई उसे बचा सकता है न कोई त्राणदाता बन सकता है | डाक्टर भी उसे नहीं बचा सकते है और न ही डाक्टर अपने आप को बचा सकते हैं | जब बच्चा जन्म लेता है तो उत्सव में गाये जाने वाले गीत बड़े मधुर होते है पर उसकी मृत्यु का रुदन बड़ा कर्कश होता है व सारा उत्सव का माहौल बदल जाता है | मौत से बचने का कोई रास्ता नहीं होता है | ऐसे में आदमी को पापों से बचने के लिए अपने गुस्से, अभिमान व अपने कषायों पर नियन्त्रण करने का प्रयास करना चाहिए | हम हमेशा इस मौत की सच्चाई को देखते रहें व इस सत्य का भान करते रहें | मौत की सच्चाई का अनुभव करने वाला गलत कार्यों से बच सकता है | अनित्यता की अनुप्रेक्षा भी हमें सही दिशा प्रदान करती है| हम अनित्यता के अनुभव से वैराग्य भाव को पुष्ट करते रहें |
आज का दिन अनेक आयामों से संबद्ध
गुरु का हमारे जीवन में बड़ा महत्व होता है | कहा भी गया है – जो गुरु मुझे सतत अनुशिष्टि देते है वे सदा पूजनीय होते हैं क्योंकि वे गुरु लज्जा, संयम
व ब्रह्मचर्य की शिक्षा देते रहते हैं | जैसे चन्द्रमा तारों व नक्षत्र के बीच सुशोभित होता है वैसे ही गुरु शिष्य समुदाय के बीच शोभित होते हैं | आज का कार्तिक शुक्ता द्वितीया का यह दिन तेरापंथ के अनेक आयामों से सम्बन्धित है | आज आचार्य तुलसी जैसे सपूत के जन्म से लाडनूं की धरा धन्य हो गई | उनका चेहरा, आकृति व व्यक्तित्व अलग ही था | शरीर के सौन्दर्य के साथ उनमें सक्षमता व साहस भी था | पूरी रात भी धम्म जागरण आदि में बिराजित रह जाते | उनमें प्रतिभा व प्रज्ञा की संपदा का भी वैशिष्ट्य था | अनेक अवदानों के साथ उन्होंने आज के दिन समण श्रेणी का भी उद्भव हुआ, जो अपने क्षैत्र में अच्छा कार्य कर रही है | वे भी अपनी आध्यात्म साधना में आगे आयें | अणुव्रत आचार्य तुलसी का प्रिय विषय था व उस दिशा में उन्होंने काम भी बहुत किया | अणुव्रत की अनेक संस्थाएं थी | आज अणुव्रत न्यास अणुव्रत भवन व महरोली की देख रेख कर रहा है | अनुविभा के अंतर्गत अणुव्रत समितियां भी अपने कार्य व प्रचार प्रसार कर रहे हैं | सबके आध्यत्मिक विकास की मंगल-कामना |
पिछले पापों का भी हिसाब चुकाना है *
सुयगडो में यहाँ साधु कैसा हो व क्या करें, इसे उल्लेखित किया गया है | साधु समित हो, अर्थात पांच समितियों की साधना करने वाला हो | किसी भी प्राणी की हिंसा न करने वाला हो | मूल है पांच संवरों से संवृत होना | पांच महाव्रत पांच संवर है इनकी सुरक्षा में पांच समितियां सुरक्षा कर्मियों की भूमिका अदा करती है | समितियों के पालन से महाव्रतों को पुष्टिकरण प्राप्त हो जाता है | व्रतों के परिपालन में जागरूकता का होना भी जरूरी है | कई बार अपराध नहीं करने वालों को जेल जाना पड़ सकता है और अपराध करने वाले छूट जाते है | यह पूर्व जन्म के कर्मों से भी सम्बन्धित होता है, व पिछला पुन्य-पाप भी इसका हेतु बन जाता है | भगवान महावीर यहाँ तो भगवान थे लेकिन पिछले कर्मों के कारण ग्वाले ने भी उन्हें कितना कष्ट दिया व अन्य कितने उपसर्ग भी सहन करने पड़े | साधु को गृहस्थों के बीच में रहकर भी उनके प्रति मोह व लगाव व ममत्व न हो | हम मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक परिमार्जन व परिवर्तन करें | भगवान महावीर को मोक्ष जाने में तो एक समय ही लगा लेकिन उसके पीछे कितने जन्मों की साधना का हाथ था | भगवान महावीर के मोक्ष गमन के साथ ही गौतम स्वामी को केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई | उनसे दीक्षित साधुओं को तो केवल्य प्राप्ति हो गई, पर भगवान महावीर का मोह उसमें वाधक बन रहा था |
आज दीपावली का दिन भगवान महावीर का निर्वाण दिवस है | उन्होंने बैशाख शुक्ला दशमी को केवल्य ज्ञान की प्राप्ति की व कार्तिक कृष्णा अमावस्या को निर्वाण प्राप्त किया | यह अमावस्या की पुन्य तिथि भगवान महावीर के साथ जुड़कर धन्य हो गई | दीपों की पंक्ति आँखों को भी अच्छी लगती है | यह ज्योति पर्व ज्योति का प्रतीक है | महावीर की भाव ज्योति तो ऊपर चली गई | हम अज्ञान के अंधकार में ज्ञान का दीपक जलाएं | आज आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी के श्रम से आगम नए प्रकाश के रूप में हमारे सामने है | अभी भी कार्य चल रहा है | उसका अनुवाद और टिप्पण आदि हमारे सामने आ जाने से यह हर आदमी के लिए पठनीय बन जायेगा और उसका अर्थ समझने में भी किसी को दिक्कत नहीं होगी | हमें स्वाध्याय के दीप को प्रज्ज्वलित करना है | आज के दिन एक ओर मिठाइयाँ भी चलती है और दूसरी ओर तपस्या भी | हम दीपावली को आध्यामिक रूप व दिशा प्रदान करें | जप आदि का प्रयोग भी चलता रहे | “लोगुत्त्मे समणे णाय पुत्ते” का जप भी किया जाय | “महावीर स्वामी केवल ज्ञानी गौतम स्वामी चौंनाणी” यह जाप भी चलता है | सब अपने जीवन को अध्यात्मिक दिशा प्रदान करें |
सुयगड़ो में यहाँ साधु को निर्देश दिया गया है कि वे तीन स्थानों में ईर्या, भाषा, एषणा के प्रति जागरूक रहे | चलते समय आपस ने या दूसरों से बात न करें, गीतिकाओं का भी संगान न करें, सारा ध्यान चलने में व हिंसा से बचाव में लगे, रास्ता देर से भी कटे तो भी कर्मों को जल्दी काटें | मौनपूर्वक चलना भी एक साधना है | अपने शरीर प्रमाण भूमि पर को देखकर चलने से एषणा-समिति का सही पालन हो सकता है | चलते समय साधु वाहनों से भी सावधान रहे, सड़क के बीच में न चलें | दूसरी समिति में आसान-शयन की पालना | अनावश्यक उपकरणों का भी संग्रह न हो व ज्यादा मूल्यवान वस्तुओं के प्रति भी साधु का ज्यादा आकर्षण न रहे | तीसरी एषणा समिति में भोजन-पानी लेने में पूरी गवेषणा व पूछताछ करें | कोई भी सामग्री आज्ञापूर्वक व इंगित देकर बनवाना दोषपूर्ण कार्य है | किससे कितनी मात्रा में लेना इसका भी विवेक रहे | इन तीन समितियों के आलावा साधु-साध्वियां चार कषायों – क्रोध, मान. माया व लोभ से भी बचने का प्रयास करते रहें व इनसे दूर रहने का लक्ष्य रक्खे | वस्तुओं का ज्यादा आकर्षण न होकर ज्ञान व स्वाध्याय प्राप्ति का आकर्षण हो व आगम वाचन आदि का क्रम बराबर चलता रहे व हम स्वाध्याय को जीवन की खुराक समझें |
आत्मा की रक्षा करो, संरक्षण करो
सुयगड़ो में यहाँ कहा गया है – संयमी पुरुष धर्म में स्थित रहे, इन्द्रियों की विषयासक्ति में असक्त न बने व एषणा आदि के विषय में भी जागरूक रहे | साधु का तो पूरा जीवन धर्म व संयम के प्रति समर्पित व स्थित रहता है | इन्द्रिय में विषयों में आसक्त न रहें | धर्म और इन्द्रिय विषयासक्ति में परस्पर विरोध होता है, जहाँ धर्म वहां इन्द्रिय विषयासक्ति नहीं और जहाँ विषयासक्ति है वहां धर्म नहीं | धर्म में स्थित रहने वाला अपने आप में स्थित रहता है | आत्मा में ठहरना ही आत्मा में स्थित होना है | आत्मा की रक्षा करें व उसका संरक्षण करें | संयम ही आत्म-रक्षण है, उसके अभाव में आत्मा रक्षित नहीं होती | कछुए की तरह खुद को नियन्त्रित करो, भ्रमर की तरह भीक्षा करो व श्वान से अनिद्रा की प्रेरणा लो | खान-पान में साधु को तो संयम रखना ही चाहिए, गृहस्थ भी इसका ध्यान व यथा संभव संयम रख सकता है | रात्रि भोजन विरमण भी संयम व द्रव्य सीमा आदि भी संयम के रूप है | दिन में धंटे धंटे का त्याग भी किया जा सकता है | लिखने में कोई निराधार बात ना लिखे व बोलने में न ज्यादा बोले न ही अयथार्थ व प्रमाण शून्य बात बोलें | धार्मिक के हर कदम पर जागरूकता व विवेक रहे |
दुःख मुक्ति का मार्ग है – अप्रमाद
सुयगड़ो में यहाँ अहिंसा के संदर्भ में दो बातें – सब प्राणी जीना चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता व दुःख से हर प्राणी डरता है, भयभीत रहता है भय किस बात का है ? महावीर के पूछने पर सब मौन थे तो उन्होंने बताया – सबको दुःख का भय लगता है, दुखी होना कोई नहीं चाहता दूसरा दुःख को पैदा करने वाला भी आदमी स्वयं ही होता है जो अपने प्रमाद के कारण खुद ही को दुःख पैदा कर लेता है | ऐसे में दुःख मुक्ति का मार्ग है – अप्रमाद | ज्ञान का सार है – किसी की हिंसा मत करो, किसी को मत मारो | सबके प्रति समता रक्खो, सोचो – जो मुझे अप्रिय है – वह दूसरों को प्रिय कैसे हो सकता है ? जो मुझे प्रिय है वह दूसरों को भी प्रिय है | प्रमत्त हिंसक व अप्रमत्त अहिंसक होता है | वीतराग अप्रमत चेतना के धनी व राग द्वेष से मुक्त होते है, अतः उनके पैर से कोई जीव मर भी जाये तो वह हिंसा नहीं और दूसरी ओर एक शिकारी ने किसी हरिण को मारने के लिए तीर चलाया व हरिण न भी मरा तो उसके भाव हिंसा तो हो ही गई और वह पाप भी भागी बन गया | न जीव का जीना दया है, न जीव का मरना हिंसा बल्कि उसे मारने वाला हिंसा की कोटि में आता है | दीपावली आ रही है - हमें अहिंसा की अखंड ज्योति जलानी है |
*पैसा संयम से ही शोभित होता है
वित्त और वृत्त ये काफी समान शब्द है | वित्त अर्थात पैसा और वृत्त अर्थात चारित्र, आचरण | इन दोनों के बीच ज्यादा दूरी न रहे | साधु तो परिग्रह के पूर्ण त्यागी हैं उनके स्वामित्व में न धन-वैभव, न पैसा है, न जमीन न मकान | वे तो परिग्रह के पूर्ण त्यागी होते हैं लेकिन गृहस्थ के लिए अपनी आजीविका निर्वाह के लिए पैसा भी चाहिए | पर अर्थ का अर्जन यदि न्याय के किया जाय तो वह अर्थ और यदि अन्याय के किया जाय तो वह अर्थाभास | गृहस्थ के लिए पैसे का अर्जन कोई निन्दनीय कार्य नहीं लेकिन अर्थ के अर्जन में ईमानदारी रहे तथा झूठ, चोरी व धोखाधड़ी से बचा जाय, यदि ऐसा है तो वह अशुद्ध पैसे से बचाव | पैसे का उपयोग करते हुए भी उसमें अति आसक्ति न रहे तथा उसके उपभोग में भी संयम रहे | श्रावक के बारह व्रत का पांचवां व्रत है - इच्छा-परिमाण व्रत तथा सातवाँ व्रत है – भोगोपभोग परिमाण व्रत | उपभोग करते हुए भी इच्छाओं व उनके उपभोग का सीमाकरण रहे | पैसा संयम से शोभित होता है | पैसे के साथ नैतिकता, अनासक्ति व संयम जुड़े | व्यवसाय का दर्शन है – भरण-पोषण के साथ सेवाका जुड़ाव हो व लोभ की मात्रा भी अति न हो | वित्त व वृत्त का संतुलन होने से ग्राहक का विश्वास भी अर्जित किया जा सकता है
सुयगड़ो में कहा गया है – कोई मिथ्या दृष्टि व अनार्य संसार से पार पाना चाह पर भी वह वैसे ही पार नहीं पा सकता जैसे कोई अँधा व्यक्ति नौका को लक्षित मंजिल तक व किनारे तक नहीं पहुंचा सकता | क्योंकि आँखों के अभाव में न वह मार्ग को देख पाता है, न ही नौका को आगे बढ़ा पाता है | यदि आश्रावणी नौका हो तो खतरा ओर बढ़ जाता है | बिना सम्यक्त्व के मोक्ष की प्राप्ति तो संभव नहीं हो सकती लेकिन प्रथम चार गुणस्थानों में भी निर्जरा का लाभ तो मिल ही सकता है | अभव्य को भी ज्ञान प्रदान किया जाय तो कुछ सहारा तो मिल ही सकता है, पर वह लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता | यदि बस ड्राइवर अँधा न हो, दृष्टिमान हो, नींद से घिरा न हो व नशे में न हो तो ५० अंधों को भी वह मंजिल तक पहुंचा सकता है | इसलिए जरूरी है कि हमारा नेता व नेतृत्व प्रदाता सक्षम हो, चाहे समाज का क्षैत्र हो, राष्ट्र का हो, संस्था का या फिर आध्यात्म का | अज्ञान के अंधे को ज्ञान की श्लाका से नैत्रवान बनाने का प्रयास करे | अंधकार को दूर करने वाले गुरु होते है | हम गुरु द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलें | पर खुद की आँख और खुद का ज्ञान तो खुद का ही होता है, इस सच्चाई को विस्मृत न करें |