भिक्षु नगर की १ यात्रा से गुरुदेव अभी अभी लौटे है | उन्होंने फ़रमाया - आज आते समय साध्वी प्रमुखा जी के शब्द मेरे कानों में पड़ रहे थे | अहिंसा के बारे में वे बता रहे थे | उसी विषय को मैं अपने शब्दों में व्यक्त कर रहा हूँ | धर्म के तीन सूत्र – अहिंसा, संयम व तप | अहिंसा शांति प्रदान करने वाला व शांति को प्रसूत करने वाला तत्व है जबकि हिंसा से दुःख प्रसूत होता है | अहिंसा के पथ पर चाहे नास्तिक चले चाहे आस्तिक या ओर कोई वह सबके लिए त्राणदाता व कल्याणकारी होती है | दूसरा तत्व है – संयम | हमारे मन, वचन व वाणी का संयम रहे | अशुभ प्रवृति से निवृत होना संयम है | तीसरा – तप | तप एक तेज है व उससे तेजस्विता बढती है | हम उस तेज का उपयोग किसी को मारने व किसी का बुरा करने में न करें बल्कि किसी का कल्याण के लिए करें |
त्याग ही साधु की सम्पति होती है
आगम वाणी के अनुसार स्ववसता में त्याग करना त्याग है व विवशता में या न मिलने की स्थिति में त्याग करना, त्याग नहीं | किसी गरीब के पास संसाधन ही नहीं तो उनका उपयोग न करना त्याग की कोटि में नहीं आता | विवशता में भोग न त्याग नहीं | आज एक मुमुक्षु बहन साधु दीक्षा स्वीकार कर रही है, किसी दबाव में नहीं बल्कि अपने वैराग्य भाव से | सब साधु व महाव्रती बन जाय यह संभव नहीं लेकिन छोटे छोटे व्रत स्कीकार कर अणुव्रती तो बना ही जा सकता है | में नशा नहीं करूंगा, निरपराध प्राणी की हत्या नहीं करूंगा, ईमानदारी का जीवन जीऊँगा आदि आदि | अभी हमारी अहिंसा यात्रा चल रही है, उसके सात वर्ष पूरे हो गए हैं | इसके तीन मुख्य आयाम हैं – सद्भावना, नैतिकता व नशा-मुक्ति | हर आदमी अच्छा आदमी बने, फिर वह हिंदु हो या मुसलमान | इंसान पहले इंसान फिर हिंदु या मुसलमान | आदमी आदमी के बीच अहिंसा, मैत्री व भाईचारे का संबंध रहे | आज दीक्षार्थी बहन घर, परिवार व संपति को छोड़कर दीक्षा ले रही है, यह कितना बड़ा त्याग है | परिवार छूट जाना एक बात है व स्वेच्छा से छोड़ना दूसरी बात | साधु पांच महाव्रतों की पालना करते हैं | सर्व हिंसा का त्याग, सर्व झूठ का त्याग, सर्व चोरी का त्याग, सर्व मैथुन का त्याग व सर्व परिग्रह का त्याग | सदा पाद विहार, रात्रि भोजन परिहार, न खाना बनाना व न बनवाना | भीक्षाचरी से जीवन यापन करना | ये साधु जीवन के नियम हैं |
हम अपने दिमाग का द्वार खुला रक्खें
सुयगड़ो में अनेक प्रकार के ज्ञान व दर्शन का विवेचन मिलता है | आस्तिक व नास्तिक दोनों प्रकार के दर्शन इस दुनियां में चल रहें हैं | कुछ भूतवादी दर्शन को मानने वाले पांच तत्वों के अलावा कुछ नहीं मानते | वे पांच तत्व हैं – पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु व आकाश | चैतन्य तत्व भी इन्हीं पांच तत्वों में समाहित है अलग से चैतन्य तत्व को स्वीकार नहीं करते, इन्हीं में सब समाविष्ट कर लेते हैं | इन पांच तत्वों के विनाश के साथ ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है | इन पांच तत्वों में एक या उससे अधिक के अभाव में आदमी की मृत्यु हो जाती है और वे सारे तत्व अपने अस्तित्व में समाहित होकर समाप्त हो जाते हैं व विलीन हो जाते हैं | चरवाह दर्शन वाले पहले चार सूत्रों को ही मानते हैं | वे उसी को मानते हैं जो दिखाई देता है और आकाश हमें दिखाई नहीं देता | आत्मा भी दिखाई नहीं देती अतः वे आत्मा को भी नहीं मानते व न परलोक को मानते हैं | जब परलोक नहीं तो धर्म व साधना की क्या जरूरत है | आज जो है उसी को स्वीकार करो | आज कबूतर मिल रहा है तो कल के मयूर को छोड़ दो | हमारा मानना है – पांच इन्द्रिय व मन से ज्ञान प्राप्त करें पर अपनी बात का आग्रह व दुराग्रह न करें | मैंने जो मान लिया वहीं सत्य है, ऐसा मानने से खोज के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं व हम यथार्थ तक नहीं पहुंच सकते | कूप मेंढक न बनों व यथार्थ की खोज करते रहो |
हम सहिष्णुता की अनुप्रक्षा करते रहें
हम अपने दिमाग को ठंडा रखने का प्रयास करें | गले से ऊपर का भाग व मन का स्थान भावों का स्थान होता है | हम गले के ऊपर के भाग को देखने का प्रयत्न करते रहें | मूंह, आँख व चेहरा हमारा दर्पण है, उसको देखने से हमारे भीतर के भावों का पता लग जाता है | हमारे भीतर चल रहा हर्ष, शोक व भय के भावों का अनुमान चेहरा देखकर लगाया जा सकता है, इसे देखने से पता लग सकता है कि हमारे भीतर कौनसा भाव चल रहा है | हम दर्शन, ज्योति आदि केन्द्रों पर ध्यान का अभ्यास करें | इस दिशा में हमारी पीनियल ग्रन्थि की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है | जब हम दर्शन केंद्र पर ध्यान करते है तो अपेक्षित परिवर्तन घटित हो सकता है | कंठ पर ध्यान करके उसे ढीला छोड़ दें | न बोलने से भी बड़ा मौन है स्वर यंत्र को ढीला करके उसे निष्क्रिय कर देना | मन, वचन व काया को शिथिल कर यह अनुभव करो कि मेरी सहिष्णुता की शक्ति का विकास हो रहा है | मस्तिष्क में यह लिखकर लगातार पढ़ते रहो | आहार विवेक भी जरूरी है व श्वास का संयम भी | भाव-शुद्धि के बिना कोई क्रिया फलित नहीं होती अतः भाव शुद्धि हमारा मुख्य ध्येय होना चाहिए | सब तत्वों का संतुलन व नकारात्मक भावों पर भी नियन्त्रण बना रहे |
सुयगड़ो पर आधारित प्रवचन चल रहा है | दुनियां में साधु भी होते है व असाधु भी | हर समय साधुओं का विधमान होना दुनियां का सौभाग्य है | कुछ साधु वेश में भी साधु नहीं होते और कुछ असाधु वेश में भी साधु होते है | कुछ ऊपर से तक त्याग कर लेते है पर त्याग उनके अंतर तक प्रवेश नहीं कर पाता और जब तक त्याग का प्रवेश भीतर तक नहीं होता आत्मा का कल्याण भी संभव नहीं होता | हम भगवान ऋषभ की माता मोरां देवी के बारे में सब जानते हैं – जो गृहस्थ वेश में हाथी के होदे पर बैठी बैठी ही मोक्ष-गामी हो गई | त्याग का असली रूप है हमारे भावों में उसका प्रवेश | आसक्ति के भावों का कमजोर पड़ना या छूट जाना ही त्याग का असली रूप होता है | जहाँ व्यक्ति राग-द्वेष की तरंगों से मुक्त होता है वहीं आत्मा का दर्शन प्राप्त हो सकता है | जिस तालाब में तरंगें हों वहां उसके अन्तः-स्थल के दर्शन नहीं हो पाते | उसके अन्तः-स्थल का साक्षात्कार करने के लिए हमें उसके जल को शांत, उज्ज्वल व निष्तरंग बनाना होगा | दर्पण में भी हम अपना चेहरा तभी साफ़ देख पाते हैं जब दर्पण साफ को, स्थिर हो, आवरण मुक्त हो व देखने वाले के आँखों की रौशनी भी सही हो | हम सफ़ेद कपडों में रहते है, क्योंकि यह महावीर की परम्परा में जी रहे है व सफ़ेद कपडे सादगी के प्रतीक हैं | मुख्य बात यह है कि हमारे भावों में शुक्लता रहे |
सुयगड़ो में हिंसा व परिग्रह को बन्धन का हेतु बताया गया व हमने उसका जिक्र भी किया | जीवन में धन भी होता है व एक माँ के उदर से जन्मे भाई बहन भी होते हैं | लेकिन इनमें से कोई किसी का त्राण नहीं होता | एक सीमा तक हम व्यवहार में उन्हें अपना मानकर उनके साथ ममत्व स्थापित कर लेते हैं पर अंत में अपनी वेदना तो स्वयं को ही भोगनी पड़ती है इसे बंटाने में न धन सक्षम होता है न ही भाई-बहन | हिंसा नरक का हेतु है व इसमें किसी की हिस्सेदारी संभव नहीं | कालशौकरी कसाई के बेटे सुलश को जब उत्तराधिकार सौंपने की बात आई तो उसने अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी चला दी व कोई दुसरे कसाईयों ने जो हिस्सेदारी की बात करते थे, कोई उसका दर्द नही बंटा सका | धन परिवार भी अपनी जगह होते हैं पर हमारा जीवन मृत्यु की ओर दौड़ रहा है, इस बात का चिंतन सदा हमारे दिमाग में सदा रहे | हम जन्म दिन मानते है, पर सच यह है कि हर जन्म दिन हमारे जीवन का एक साल छीन कर चला जाता है | ऐसे में जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए हम कर्मों के बन्धन जो तोड़ने की साधना करें व चौबीस धंटों में कुछ समय तो आत्म साधना व धर्म ध्यान में लगायें | ज्यदा नहीं तो शनिवार की सामायिक तो अवश्य करने का प्रयास करें |
जीवन के दो पक्ष – एक अंधकार का व दूसरा प्रकाश का | एक के साथ निराशा का कुहासा व सघन अंधकार व दूसरे के साथ प्रसन्नता का प्रकाश व आशा की किरणें | यह जीवन अध्रुव है, ऐसे में आदमी सोचे कि इस जीवन के बाद मेरा क्या होगा ? मैं क्या करूं जिससे मेरे अगले जीवन अच्छे हों व भविष्य अच्छा हो | यह जीवन तो बहुत छोटा है, इसका कालमान १०० वर्ष भी मान लें तो देव गति व नरक गति के ३३ सागरोपम की अपेक्षा बहुत छोटा है | हम ऐसा जीवन जीयें कि ज्यादा जनम-मरण न करना पड़े व जल्दी मोक्ष मिल जाए | ऊंचे देवलोक-गमन से ज्यादा महत्वपूर्ण है – मोक्ष का जल्दी मिलना | वर्तमान केवल वर्तमान के लिए न हो बल्कि त्याग की ओर गतिमान बनने के लिए हो | त्याग धर्म व भोग अधर्म की बात जीवन में गहरी उतरे | चार चीजें – अर्थ, काम, धर्म व मोक्ष | अर्थ और काम के रथ पर धर्म का सारथी हो तो वह अंकुश लगा सकता है व उसे नियन्त्रित कर सकता है | हम वर्तमान के साथ भविष्य को भी देखें यह काम्य है |
हम मनुष्य हैं, मनुष्यों में मन वाले व बिना मन वाले दोनों प्रकार के प्राणी होते हैं | समुर्छिम बिना मन वाले व गर्भज मन वाले होते हैं | उसी प्रकार तीर्यंच भी दो प्रकार के होते हैं | बिना मन वाला न बहुत बड़ा पुन्य कर सकता है और न ही बहुत बड़ा पाप भी | मन हमारी बहुत बड़ी शक्ति है जिसका सही उपयोग अपेक्षित होता है | मन वाला ही नरक व देव गति का वरण कर सकता है | अहिंसा, मैत्री व कषाय मुक्त परिणाम उत्थान व उच्च गति का कारण व ठीक इसके विपरीत हिंसा, वैर व कषाय की तीव्रता पतन व नीच गति का कारण होता है | महा-आरम्भ, महा-परिग्रह व पंचेन्द्रिय वध नरक गति की ओर ले जाने के कारण होते हैं | छल, कपट, ईर्ष्या आदि तीर्यंच गति बंध के कारण होते है | सन्यासी तीर्थ-यात्रा करने वालों को एक तुंबा देकर उसे भी स्नान कराकर शुद्ध करने का बोले | यात्रियों ने उस तुम्बे को भी स्नान कराकर सन्यासी को जब सौंपा तो सन्यासी ने चाकू मंगाकर उसे काटने का कहा, और फिर उसे तीर्थ यात्रियों को खिलाया तो वह उन्हें खारा लगा | सन्यासी ने बोला इसे स्नान कराकर इसका खारापन दूर नहीं किया ? जब इसका खारापन नहीं मिटा तो आपके मन व विचारों की शुद्धि कैसे हुई | यात्रियों को सत्य का भान हो गया | मन की शुद्धि के लिए हमें अपने मन को प्रशिक्षित करना होगा, बुरे विचारों का प्रतिकार करना होगा व यह सोचना होगा कि ये विचार मेरे नहीं है, मुझे स्वीकार्य नहीं है | हम दुर्मन को नियन्त्रित कर उसे निर्मल बनायें |
सिद्धों के जीवन नहीं होता क्योंकि उनके आयुष्य कर्म-बंध भी नहीं होता | जीवन जीने का परम लक्ष्य होता है – जीवन से मुक्ति व सिद्धत्व की प्राप्ति | जिनका आचरण उच्च हो, मद और मदन को जीतने वाले हों वे सुविहित होते हैं | न ज्ञान, न पद और न पैसे का धमंड न मदन (काम-भोग) की आकांक्षा | वह पर की आशा से मुक्त रहता हुआ यह समझता है कि मैं ही आत्मा हूँ व बाकि सारे अन्य है | अतीत की चिंता, भविष्य की अनावश्यक कल्पना व राग द्वेष से मुक्त रहना साधना की स्थिति है | आज आश्विन शुक्ला पूर्णिमा है, जिसे शरद पूर्णिमा का गौरव प्राप्त है | आज का चन्द्रमा व चांदनी श्वेत होती है – जिसमें महीन अक्षरों को भी पढ़ा जा सकता है | यह एक प्राकृतिक आई टेस्ट है | अर्हतों की अर्हता को इस चांदनी के साथ उपमित किया गया है | हमारा जीवन इस चांदनी के समान निर्मल हो, निष्कपट हो व संयमित हो | हमें अहिंसा के प्रति निष्ठावान रहना है | यदि घास-मुक्त रास्ता हो तो हम घास पर न चलें, कीड़े-मकोड़ों से भी बचकर चलने का प्रयास करें तथा गुस्से को नियन्त्रित रक्खें | हर कदम पर जागरूक रहना ही मुक्ति की ओर होने वाली हमारी गति है, इसका सदा ध्यान रहे |
सुयगड़ो के प्रथम अध्याय में बंधन के बारे में सतत निर्देश दिया जाता है | ममत्व भी एक प्रकार का बंधन है | जिसके साथ आदमी रहता है उसके साथ उसका ममत्व का बंधन भी हो सकता है | लोभ के कारण भी आदमी हत्या व दुष्कर्म कर सकता है | ममत्व स्वार्थ जनित भी हो सकता है, स्वार्थ पूरा नहीं होने से भी ममत्व विच्छिन्न हो सकता है | यदि किसी से स्वार्थ पूरा न हो तो मोह टूट जाता है | पर सत्य यह है कि सारा ममत्व ऊपर का व स्वार्थ पर आधारित होता है | यदि उसकी परीक्षा की जाय तो यह ममत्व का भ्रम टूट भी जाता है | हमारे साधु साध्वी इस सत्य का ज्ञान देते रहते है | अलग के विचरण करने वाले साधु साध्वी अपने प्रवचन द्वारा गृहस्थ लोगों को बोध पाठ बराबर देते रहें व प्रवचन की समय बद्धता भी रहे | समय पर प्रवचन का प्रारम्भ हो और समय पर सम्पन्नता भी हो | तत्व ज्ञान आदि के बारे में भी गृहस्थों की सार-संभाल होती रहे | पुरुषार्थ के सूर्य के सामने आलस्य के बादल न आये, कुहासा न आये व उनके प्रकाश की लौ कभी मंद न पड़े | सुनने का क्रम भी चलता रहे व पुनरावर्तन की भी निरंतरता रहे ताकि प्राप्त ज्ञान विस्मृत न हो | ज्ञान का विकास होता रहे व हमारा ज्ञान पुष्ट होता रहे व हम आत्म कल्याण की दिशा में अग्रसर होते रहें |
पद व पदार्थों के प्रति ममत्व कम हो
सुयगड़ो के प्रथम अध्याय में बोधि प्राप्ति के लिए बंधन मुक्ति की बात कल प्रस्तुति की गई | बंधन मुक्ति के लिए हमें परिग्रह व उसके साथ जुड़ी आसक्ति, मूर्छा व ममत्व पर सदा विचार करते रहना है | इन तीनों के युक्त व दबी चेतना वाला दुःख मुक्त नहीं हो सकता | प्राप्त सामग्री के गुम हो जाने, उसकी सुरक्षा का भय होने व अप्राप्त के लिए दुखी होना भी एक प्रकार का ममत्व ही है | प्राप्त को पाने की लालसा व उसकी प्राप्ति का अभाव भी हमें दुखी बनाता है | इच्छा का परिमाण व उसे संकुचित करना दुःख मुक्ति का एक सशक्त माध्यम है | शरीर की पकड़ को छोड़ो, परिग्रह की पकड़ को छोड़ो, परिग्रह के ममत्व को छोड़ो व पद की पकड़ को भी छोड़ो | पद-प्राप्ति की लालसा भी एक प्रकार का परिग्रह है | वस्तु, पद, पैसा व प्रतिष्ठा जा अल्पीकरण होना अपेक्षित है | कई बार पद तो उपयोगी हो सकता है पर पद की लालसा का कामना कभी उपयोगी नहीं हो सकती | पद को छोड़ने व न छोड़ने का भी विवेक रहे
ठाणं आगम के वाचन की संपन्नता के बाद आज से सुयगड़ो का प्रारम्भ | सुधर्मा स्वामी नें कहा – बुद्ध बनो, बुद्धि प्राप्त करो व कर्म बन्धनों को तोड़ डालो | यहाँ तीन बातों की ओर संकेत किया गया है – पहली बोध प्राप्त करो, दूसरी तोडना जानो और बंधनों को तोड़ो | बोधि को जानो का अर्थ है – ज्ञान प्राप्त करो जीवन में ज्ञान का बड़ा महत्व है | कहीं आचार को प्रथम धर्म तो कहीं ज्ञान को लेकिन ज्ञान और आचार को अलग मानने पर ज्ञान प्रथम धर्म है | पहले ज्ञान और फिर आचरण | ज्ञान के बिना व सत्य को जाने बिना आचार का पालन कैसे हो ? ज्ञान-सम्पन्न ही आचार और अनाचार का विवेक रख सकता है | ज्ञान जितना सपष्ट व निर्मल होगा, आचार भी उतना ही निर्मल होगा | बंधन क्या है, किसे कहा गया है व कैसे तोडा जा सकता है, इस बात को जानो | परिग्रह, हिंसा व ममत्व ये बन्धन है तथा इन्हें तोड़ने का उपाय है – धन, परिवार व शरीर की अत्राणता का अनुभव करना | दुःख-निवृति व सुख की उपलब्धि के लिए आध्यात्म की भाषा में बन्धन से मुक्ति पाना आवश्यक है व इसके लिए प्रयास-रत्त रहने की अपेक्षा होती है | शरीर पिंजरा व आत्मा तोता, हमें इस शरीर के बंधन से मुक्त बनना है |