मुनि आषाढ़भूति
सात शुक्रवार हो गये ।आषाढ़भूतों की कहानी चल रही है । कहानी का अंतिम भाग ....
अब आषाढ़ भूति विवश हो गए । वे एक खेल और दिखा कर ख़ूब धन उपार्जन करके लाने को सहमत हो गए । वे राजा सिंहरथ के पास गए और उसने कहा —‘ महाराज ! मैं आपको भरत चक्रवर्ती नाटक दिखाना चाहता हूँ ।’ राजा सहर्ष नाटक देखने की स्वीकृति दे दी ।
आषाढ़भूति ने सात दिन में नाटक तैयार किया और फिर नगरी के बाहर विशाल मैदान में इसका मंचन किया ।राजा सिंहरथ, राज परिवार तथा हज़ारों लाखों नगर निवासी देखने आए ।भरत का अभिनय स्वयं आषबभूति ने किया ।भरत का सम्पूर्ण जीवन हूँ ब हूँ अभिनीत किया । दर्शकगण तन्मय हो गए । लेकिन आषाढ़भूति तो पूरी तरह ही इसमें तल्लीन हो गए । शीशमहल में भरतजी के केवल्य ज्ञान के मंचन के क्षणों में तो आषाढ़भूति इतनी ऊर्ध्वमुखी हुई , आत्मचिंतन में इतने तल्लीन हुए कि उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हो गई । नट आषाढ़भूति केवली
आषाढ़भूति हो गए।
इसके बाद उन्होंने पंचमुष्टि लोच किया ,देवताओं द्वारा दिया हुआ मुनि -वेश धारण किया और धर्मदेशना दी । उनके देशना से प्रभावित होकर 5 सौ व्यक्ति प्रतिबद्ध हो गए । उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली । उन पाँच सौ मुनियों के साथ वे अपने गुरुदेव की पदवन्दना करने पहुँचे शिष्य कों कैवल्य- प्राप्ति से आचार्य धर्मरुचि को हार्दिक प्रसन्नता हुई।
आयु पूर्ण कार आषाढ़भूति मुनि मुक्त हो गए ।
इसलिए कहा गया है कि एक भी नियम का पालन दृढ़तापूर्वक किया जाये तो वह भी मुक्ति का हेतु बन सकता है।
—-- उपदेश प्रासाद , भाग 4
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
मुनि आषाढ़ भूति
एक दिन अचानक ही अर्द्धरात्रि के समय आषाढ़ भूति नट लौट आया । वह उस परदेसी नट कों पराजित करके आया था , इसलिए ख़ूब धन भी मिला और वह उमंग में भरा भी था ।लेकिन घर आकर जो देखा कि दोनों स्त्रियां मदिरा के नशे में धुत पड़ी है , इधर - उधर मांस के टुकड़े पड़े हैं तो उसका हर्ष दुख में बदल गया । वह समझ गया कि इन्होंने मेरी ग़ैर-मौजूदगी में अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी है ।’प्रतिज्ञा ‘शब्द मस्तिष्क में आते ही उसे अपनी प्रतिज्ञा याद हो आयी जो उसने गुरुदेव के समक्ष ही ली थी — ‘मांस - मदिरा सेवन करने वाले वालों के साथ भी नहीं करना। इस प्रतिज्ञा के बाद याद आते ही उसने उन दोनों को जगाकर तथा सबके सामने पुनः चारित्र लेने का अपना निश्चय स्पष्ट शब्दों में सुना दिया।
यह निर्णय सुनते ही सब के सब स्तब्ध रह गए । भवनसुंदरी और जयसुंदरी ने बहुत ख़ुशामद की , लेकिन आषाढ़भूति अपने निर्णय पर अटल रहे ।तब अंत में उन दोनों ने कहा — ‘हमें ख़ूब धन कमाकर दे जाओ ,तभी हम तुम्हें दीक्षा की अनुमति देगी , अन्यथा नहीं ।
अब आषाढ़भूति विवश हो गये ‘।
कहानी का अगला भाग अगली पोस्ट में क्रमशः .....
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अब मुनिआषाढ़भूति गृहस्थ बन इन्द्रीय - सुखों को भागने लगे ।आगे .....
अब आषाढ़भूति गृहस्थ थे ।गृहस्थ के योग्य धन का उपार्जन भी वे करते । जब राजा के पास कोई दूसरी नट मंडली आती और प्रदर्शन करती तो वे अपनी लब्धियों द्वारा उससे उत्तम कला का प्रदर्शन करते और विजयी बनकर प्रभूत पुरस्कार पाते ।सचमुच वे महार्दिध्क नट के लिए सोने के अंडे देने वाली मुर्ग़ी बन गए थे । उन्होंने उसका घर धन सेभर दिया था । अब वे आषाढ़ नट के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गए थे । इस तरह 12 वर्ष गुज़र गए।
कलाकार तो एक से एक बढ़कर है । एक दूसरा नट भी अपनी नट कला में बहूत निपूर्ण था उसने 84 नटो पर विजय प्राप्त की थी ।इसके प्रतीक स्वरूप वह 84 पुतलियों के स्वर्ण - घुँघरू पैरों में पहनता था दूसरे देश के नट ने आषाढ़ नट को चुनौती दी और आषाढ़ नट ने वह चुनौती स्वीकार कर ली । राजा के सामने दोनों का मुक़ाबला होना था आषाढ़ नट उस परदेशी नट कों जीतने के लिए परदेश चला गया ।पीछे से दोनों नट कन्याओ — भवनसुंदरी और जय सुंदरी ने सोचा — माँस- मदिरा का सेवन किए बिना बारह वर्ष निकल गए ।आप तो वह आषाढ़ भूति है नहीं ,छ: माह तक भी आने की कोई संभावना नहीं ,क्योंकि इतना समय तो उन्हें जीतने में लग ही जाएगा , इसलिए इस समय में मांस - मदिरा का ख़ूब सेवन कर ले । उसे क्या मालूम पड़ेगा ? इस प्रकार विचार करके वे स्वच्छंदतापूर्वक मांस - मदिरा का सेवन करने लगी।
कहानी का अगला भाग अगली पोस्ट में क्रमशः....
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दो नट कन्याएँ मेरे बिना प्राण छोड़ने को तैयार है ।
आगे-.....
मुनि आषाढ़ भूति की यह बदली हुई प्रवृत्ति देखकर पहले तो गुरुदेव आवाक रह गए। फिर उन्होंने बहुत समझाया ,संयम के लाभ बताये और संयम भ्रस्ट होने की हानियां विस्तार से बताई ,लेकिन आषाढ़भूतों पर कोई प्रभाव न हुआ ।वे नट कन्याओं के पास जाने को अड़े रहे । अंत मैं जब गुरुदेव ने समझ लिया कि आषाढ़भूति को समझाना व्यर्थ है तो काहा— ‘शिष्य ! यदि तुम जानना ही चाहते हो तो मेरे कहने से रुकोगे भी कब ? लेकिन इतना नियम तो ले लो की मांस - मदिरा का सेवन तुम कभी भी न करोगे और उनके सेवन करने वालों का साथ भी नहीं करोगे।’
मुनि आषाढ़भूति ने यह नियम ले लिया और गुरुदेव को वंदन कर के नट कन्याओं के पास चले आए । गुरुदेव ने मन-ही-मन सोचा — इस छोटे से त्याग से भी महान लाभ होगा, पुन: इसका उद्धार हो जाएगा।
मुनि आषाढ़भूति ने नट के घर आकर अपने नियम की बात बताई और स्पष्ट शब्दों में कहा — ‘तुम सब लोग यदि जीवन भर के लिए मध्य- मांस का त्याग करो तो मैं तुम्हारे पास रहूंगा , अन्यथा नहीं रहूंगा । नट और उसके परिवार ने यह बात स्वीकार कर ली । फिर भी मुनि आषाढ़ भूति ने स्पष्ट दृढ़ स्वर में चेतावनी दी —‘जिस दिन भी मैंने इस घर के किसी भी सदस्य को मांस - मदिरा का सेवन करते देख लिया , उसी दिन छोड़कर चला जाऊँगा ।
नट के सभी सदस्यों ने मांस - मदिरा का सेवन न करने का विश्वास दिलाया ।मुनि आषाढ़ भूति आश्वस्त हो गए ।वहीं रहने लगे ।नट महध्दिर्क ने अपनी दोनों कन्याओं — भुवनसुंदरी और जय संदरी का विवाह उनके साथ कर दिया । अब मुनि आषाढ़भूति गृहस्थ आषाढ़भूति थे ।गृहस्थ बनकर वे इन्द्रीय - सुखों को भोगने लगें।
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आप हमें स्वीकार करके यहीं रहिए और सभी प्रकार के सुख भोगिए ।...
आगे—-
आकर्षित तो मुनि आषाढ़ भूति भी थे, उनके मन में भी प्रेम-राग उत्पन्न हो चुका था ,
अत :बोले—‘मैं अपने गुरुदेव और धर्माचार्यों की आज्ञा लेकर है इस बात का जवाब दूँगा।’
नट-कन्याओं ने आधुनिकता दिखाते हुए कहा — ‘आपके विरह की अग्नि हमें तिल - तिल चला रही है । एक पल को भी हमें चैन नहीं पड़ता है ।न जाने आप के गुरुदेव कब आज्ञा दें , दे अथवा नहीं ? लेकिन हमारे है तो आपके वियोग में प्राण ही निकल जाएंगे ।’
ऐसा नहीं होगा ।में गुरुदेव की आज्ञा लेकर शीघ्र ही आऊँगा । ‘यह आश्वासन देकर मुनि सीधे गुरुदेव के पास पहुँचे और रजोहरण तथा मुखस्त्रिका पात्र आदी रखकर बोले — गुरुदेव !आप यह मुनि वेश संभालिए । मैं तो गृहस्थ आश्रम स्वीकार कर रहा हूँ । दो नट - कन्याएं मेरे बिना प्राण छोड़ने को तत्पर हैं । मैं तो उनके पास जा रहा हूँ ।
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आषाढ़भूति मुनि
मोदक लेकर मुनी आषाढ़ भूति जैसे ही बाहर निकले ...
आगे——
मन में सोच लिया —-
‘यह छठा मोदक मेरे लिए होगा ।इस प्रकार अपना मनोरथ सिद्ध करके मुनि आषाढ़ भूति चले आए और अपने गुरु के पास जा पहुँचे।
मुनि आषाढ़ भूति तो चले गए,लेकिन उनका यह सब चरित्र— रूप परिवर्तन करना — झरोखे में बैठा महध्दिर्क नट देख रहा था । उसने तुरंत अपने स्त्री और दोनों पुत्रियों से कहा — यह साधु स्वाद का लोभी मालूम पड़ता है ,इसलिए जब भी आए इसे स्वादिष्ट आहार दिया करो ।स्वाद के लोभ में यह सरलता से हमारे जाल में फँस गाया तो सोने के अंडे देने वाली मुर्ग़ी सिद्ध होगा , क्योंकि इसे अनेक रूप परिवर्तन करने की लब्धि प्राप्त है।
दोनों युवा पुत्रियों ने पिता की बात को हृदयंगम कर लिया ।जब भी मुनि आषाढ़ भूति आते,वे दोनों उन्हें स्वादिष्ट भोजन बहराती और हाव - भाव से ही आकर्षित करती । अब तो मुनि आषाढ़ भूति उन्ही के घर गोचरी के लिए आने लगे । नट कन्याएं आहार देने के साथ-साथ उनसे हाव-भाव विलास पूर्वक हास्य भी करती ।
जब उन्होंने समझ लिया कि मुनि भी हमारे प्रति आकर्षित है तो उन्होंने कहा — ‘ हे स्वामी !हम दोनों आप पर आसक्त हैं । अब हमारे प्राण आपके हाथ में है । आप हमें स्वीकार करके यही रहीए और सभी प्रकार के सुख भोगिए ।’
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आचार्य धर्मरूचि के अनेक शिष्यों में आषाढ़भूति लब्धिकारी थे। उन्हें तप के बल पर अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो गई थी ।वे तपस्वी तो उच्च कोटि के थे, लेकिन चमत्कार - प्रदर्शन की भावना को नहीं जीत पाए थे , साथ ही वे अपनी रसना इन्द्रीय पर भी वश में नहीं कर सके थे।
एक बार आचार्य धर्मरुचि अपने शिष्य- परिवार सहित राज्यगृह नगर में पधारें । उस समय नगरी पर सिन्हरत नाम का राजा राज्य करता था ।गोचरी की बेला में आचार्य श्री की आज्ञा लेकर मुनि आषाढ़भूति अकेले ही आहार की गवेषणा में निकल पड़े ।गवेषणा करते - करते वे महध्दिर्क नाम के नट के आवास पर पहुँचे । महध्दिर्क नट की दो कन्याएं थी — भुवनसुंदरी और जयसुंदरी । दोनों ने मुनि आषाढ़ भूति को एक मोदक बहराया ।मोदक से सुगंध उठ रही थी ।
मोदक लेकर मुनि आषाढ़ भूति जैसे ही बाहर निकलें, उनके मन में विचार आया — ‘यह एक मोदक तो गुरु महाराज के लिए है। ऐसा विचार आते ही उन्होंने लब्धिबल द्वारा नवयुवक का रूप बनाया और दूसरा मोदक ले आए । फिर विचार आया — यह तो धर्माचार्य के लिए हैं । तत्काल काणी आँख वाले साधु का रूप रखा और तीसरा मोदक ले आए । यह तो उपाध्याय महाराज के लिए हैं ; ऐसा सोच कर कूबड़े का रूप रखा और चौथा मोदक ले आए। यह तो संघ के साधुओं को देना पड़ेगा ; ऐसा विचार आते ही पाँचावा मोदक ले आए ।’यह बड़े साधुओं के निमित्त हो गया , यह सोचकर छठा मोदक ले आए ।
मन में सोच लिया ——-
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उसी समय भगवान महावीर वहाँ पधारे ।यों राजगृही की सम्पूर्ण जनता तथा राजा श्रेणीक भी भगवान के दर्शन- वंदन के इच्छुक थे; परंतु अर्जुनमाली के आतंक के कारण उनका साहस नगर के द्वार खोलने का नहीं हो रहा था । भगवान का परम भक्त ‘सुदर्शन ‘सेठ भगवान के दर्शनार्थ लालायित हो उठा । सुदर्शन सेठ के अंतर्द्वंद ने बाहर वाले भय अवगणना करने पर उसे उतारू कर दिया। अत्याग्रह करके राजा की आज्ञा लेकर नगर के बाहर निकला ।अर्जुन ने ज्यों ही देखा , मुद्गर लिए उसकी ओर दौड़ा ।सुदर्शन मारणान्त कष्ट समझकर सागारी अनशन ले ध्यान में खड़ा हो गया ।’अर्जुन ‘ने ज्यों ही ‘सुदर्शन ‘पर मुद्गर उठाया , त्यों ही सुदर्शन के आत्मबल के सामने अर्जुन के शरीर में प्रविष्ट यक्ष उसके शरीर से निकलकर अपने स्थान को चलाया गया। लगभग छ:महीने से भूखा-प्यास ‘अर्जुन ‘यक्ष के चले जाने पर मूर्छित होकर भूमि पर गिर गया ।सुदर्शन ने आश्चर्य से उसे देखा, प्रति बोध दिया और भगवान महावीर के पास ले आया ।प्रभू उपदेस से प्रभावित होकर अर्जुन ने अपने आप को सम्हाला ।अपने किए पर अनुताप करने लगा और मुनिव्रत स्वीकार कर लिया ।
मुनित्व स्वीकार करके बेले - बेले तप उसने प्रारम्भ कर दिया ।भिक्षा के लिए जब नगर में घुसा , तब उसे मूनी- रूप में देखकर लोगों का क्रोध उमड़ना सहज था । अपने परिवारिक सदस्यों का हत्यारा समझकर मुनि पर कोई पत्थर बरसाने लगा ,कोई तर्जना,ताड़ना तथा वचनों से आक्रोश देने लगा । अर्जुनमाली ने इस उपसर्ग को बहुत ही समता से साहा ।वह क्षमा की साकार प्रतिमा ही बन गया तथा उत्कृष्ठ तितिक्षा से सभी कर्मों का क्षय कर दिया । यों 6 महीनों की श्रमण-पर्याय में 15 दिन की संलेखना करके मोक्ष प्राप्त कर लिया।
——— अन्तकृद्दशा ६/३
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अर्जुन का यह उलहाना सुनकर यक्ष ने अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया ।तब पौरुष तो बढ़ना ही था । उसने अपने बंधन कच्चे धागे के सामान तोड़ दिए और उसे यक्ष की प्रतिमा के हाथ में लगे मद्गर को लेकर अर्जुन उन छहों की ओर लपका । उन छहों मित्रों को तथा बंधुमती को समाप्त कर दिया ; पर फिर भी अर्जुन का क्रोध शांत न हुआ ।उन्हें मारकर नगर की ओर दौड़ गया । जो भी मेरा उसे मारने लगा ।नगर में हाहाकार मच गया ।राजा को पता लगते ही नगर के द्वार बंद करवा दिए गए ।अर्जुन हाथ में यक्ष का मद्गगर लिए नगर की चार दीवारी के बाहर घूमता रहाता और वहाँ जो भी मिलता ,उसे यमलोक पहुँचा देता। यों पाँच महीने तेरह दिन तक यक्षावेष्टित अर्जुन वहाँ घूमता रहा और ११४१ मनुष्यों को समाप्त कर कर दिया । मरने के भय से नगर के बाहर निकलने की कोई हिम्मत नहीं करता था।
उसी समय भगवान महावीर वहाँ पधारे ।
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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
अर्जुनमाली ‘ मगध देश की राजधानी राजगृही में रहने वाला एक माली था।इसकी पत्नी का नाम बंधुमती ।दोनों पति पत्नी नगर के बाहर एक बग़ीचे में रहते थे ।उसी बग़ीचे में ‘मद्गरपाणि ‘ नामक यक्ष मंदिर था । अर्जुन अपनी पत्नी के साथ बग़ीचे से फूल बीनती ,बीने हुए फूलों से यक्ष की भक्ति - भाव से पूजा करता और फूलों को ले जाकर नगर में बेच आता । यू वह अपनी आजीविका चलाता था ।
एक दिन दोनों ही पति-पत्नी बग़ीचे में थे ।अर्जुन यक्ष की पूजा में लीन था तथा उसकी पत्नी बंधु मती दूसरी ओर फूल बीन रही थी । इतने में उसी नगर में रहने वाले छ:मित्र वहाँ बग़ीचे में आए । वे छहों वैसे ही दुरात्मा थे ।बन्धुमती को देख कर इन पर कामुकता का नशा बुरी तरह छा गया ।अपना विवेक वे पूर्ण रूप से खो बैठे ।आव देखा न ताव , अर्जुन को उस यक्ष की प्रतिमा से ही बांधकर बंधुमति से बलात्कार करने लगे ।अपने स्त्री का यों पतन अपनी आँखों के सामने भला कौन देख सकता है ? अर्जुन में आप आक्रोश बुरी तरह उमड़ पड़ा और लगा यक्ष की प्रतिमा को आड़े हाथों कोसने। रोषारुण होकर कहने लगा — ‘रे यक्ष ! बचपन से तेरी सेवा करता आया हूँ ।तूने मेरी सेवा ही ली , पर बदले में दिया यह पतन , जो एक पशु भी नहीं देख सकता । यहाँ तो मेरी सहायता कर अन्यथा.....।’
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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
राजा ‘इक्षुकार’ इक्षुकार नगर का स्वामी था। उसकी रानी का नाम ‘कमलावती’ था ।महाराजा के पुरोहित का नाम था ‘भृगु’और उसकी पत्नी का नाम था ‘यशा’। पुरोहित के दो पुत्र भी थे ।पुनर्जन्म मैं ये छाहों प्राणी प्रथम स्वर्ग के ‘नलिनीगुल्म ‘ विमान में थे ।वहाँ से च्यवकर ये सभी यहाँ पैदा हुए थे ।
महाराजा इक्षुकार अपने पुरोहित भृगु को समय-समय पर विविध प्रकार का धन दान दिया करते थे ।पुरोहित सर्वविधि संपन्न था। अपने दोनों पुत्रों के हृदय में वैराग्य जग जाने से माता-पिता भी संयमी बनने को तैयार हुए। पीछे वंश में कोई भी न होने से पुरोहित के घर का सारा धन गाड़ियों के द्वारा राजा भंडार में जाने लगा। राजमहल के झरोखे में बैठी महारानी को यह सब देखकर बहूत आश्चर्य हुआ और महाराज से कहा —‘पतिदेव यह क्या ? क्या कभी दिया हुआ दान भी वापस लिया जा सकता है ? इस धन को लेना तो मानो वमन किए भोजन को पुनः खाना है । हृदयसम्राट ! पुरोहित और उसके पुत्रों ने दु:ख, शौक़-चिंता और अनर्थ का मूल समझकर जिस धर से अपना मुँह मोड़ लिया, आप उसी से जोड़ रहे हैं ।यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? पुरोहित और उसका सारा परिवार नश्वर था तो हम अपना अनश्वर है ? हमें क्या अमर रहना है ?
रानी के इस कथन से राजा प्रतिबद्ध हुआ । राजा और रानी भी पुरोहित के साथ ही संयमी बन गए । मुनि जीवन की उत्कृष्ट अराधना करके इक्षुकार राजा मोक्ष गया ।
——उत्तराध्ययन, १४
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
एक बार एक युवक अपनी पत्नी के साथ रथ में बैठकर उधर से निकला।उसने अर्जुन चोर यानी हमारे भाई को मार गिराया । हम छहो उसका पता लगाता हुए उज्जयिनी आ गए । उस दिन उद्यान में उत्सव में आया । वह युवक भी अपनी पत्नी के साथ उत्सव में आया ।लेकिन उसकी पत्नी को सर्प ने काट लिया और वह मूर्छित हो गई।वह युवक अपनी पत्नी के मूर्च्छित स्त्री के पास बैठा आधी रात तक रोता रहा ।इतने में दो विद्याधर आकाश मार्ग से उधर आ निकले ।उन्होंने उसकी पत्नी को निर्विष कर दिया ।वह रात्री व्यतीत करने के लिए पत्नी को वहीं छोड़कर शमशान से अंगारे लेने चला गया।
हमें उसी युवक की तलाश थी ।हम छहो भाई भी उद्यान में पहुँच चुके थे ।हम पाँचों तो देव कुल में तथा इधर- उधर छिप गए थे और अपने छोटे भाई पर उसे मारने का उत्तरदायित्व डाल दिया था। उसने उस युवक की पत्नी को धमकी दी है कि ‘मैं तुझे तथा तेरे पति दोनों को मार डालूंगा ‘।
उस स्त्री ने घबराकर कहा मैं ही अपने पति को मार दूंगी पर तुम मुझे मारना मत।’
यह सुनकर हमारा छोटा भाई आश्वस्त हो गया और देव कुल के अंदर चला आया ।वह हाथ के दीपक को ढक भी नहीं पाया था कि वह युवक आ गया ।उसने अपनी पत्नी से पूछा कि ‘देव कुल में प्रकाश कैसा है ?’तो उसने बहाना बना दिया कि आपके हाथ की अग्नि की परछाई है।
फिर वह युवक अपनी तलवार अपनी पत्नी के हाथ में देखकर आग सुलगने लगा पत्नी ने उसे मारने के लिए तलवार उठायी इतने में हमारे छोटे भाई का हृदय द्रवित हो गया की स्त्री का हृदय कितना क्रूर होता है की जो पति उसके शव पर बैठा आधी रात तक रोता रहा , उसी को वह किस निर्दयता से मारने को तैयार है ।यह सोचकर उसने उस स्त्री को तलवार वाले हाथ प्रहार किया ।तलवार उसके हाथ से छूट कर गिर गई ।उस युवक ने अपनी पत्नी से फिर पूछा — ‘क्या हुआ ? उसने फिर बहाना बना दिया ‘घबराहट में तलवार हाथ से छूट गई।’
——वसुदेव हिंडी पिठिका
—-धम्मिल हिंडी
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विवाह किये बिना यों मुड़ते देखकर श्री कृष्णा ,समुद्र विजय ,उग्रसेन आदि सभी ने विवाह कर लेने का पुरज़ोर आग्रह किया ।परंतु प्रभू को तो विवाह करना ही कब था ? वे तो यादवों में बढ़ी हुई विलासिता पर तीव्र प्रहार करने के लिए सामूहिक अवसर की तलाश में थे । जब साभी यादवों ने उन्हें घेर लिया , तब अपना स्पष्ट मन्तव्य बताकर द्वारिका लौट आये ।
वर्षी-दान देकर हज़ार राजाओं के साथ मुनिव्रत स्वीकार किया।
तोरण पर पहुँचकर भी करुणा से प्रेरित होकर नौ भावों से संबंधित राजुल का परित्याग करके आर्दश उपस्थित किया।
राजुल को विरह से व्याकुल होना ही था ।अंत में राजुल ने भी वही कर दिखाया जो आर्य कन्याएं बहुधा किया करती है।
प्रभु ने दीक्षा ली ,उसी दिन उन्हें मन:पर्यवसान तथा चौवन दिन का केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई । प्रभु के धर्म में परिवार में
‘ वारदत्त ‘आदि ग्यारह प्रमुख गणधर तथा 18, हज़ार साधु थे और य़ाक्षा प्रमुख 40, हज़ार साध्वियाँ थी ।दस दशार्ह आदि प्रमुख श्रावक 1,69,000 तथा शिवादेवी आदि 3,36,000
प्रमुख श्राविकाएँ थी । अंत में 700 वर्ष केवलज्ञान की पर्याय का पालन कर 526 साधुओं के साथ गिरनार पर्वत के ऊपर अनशनपूर्वक मोक्ष पधारे ।तीन सौ वर्ष गृहस्थवास तथा सात सौ वर्ष साधु जीवन में बिताकर एक हज़ार वर्ष आयु का पालन किया । जैन सूत्रों में श्रीकृष्ण और नेमिनाथ के अनेक प्रेरक और उद्बोधक जीवन प्रसंग संकलित है।
—- उत्तराध्यायन 22 त्रिशक्ति शलाकापुरुष चरित्र , पर्व 8
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
सत्यभामा के सुझाव के अनुसार उसकी छोटी बहन ‘राजीमती ‘नेमिनाथजी के लिए जब विधि समुचित कन्या जँची तब श्री कृष्ण ने स्वयं जाकर अपने श्वसुर श्री उग्रसेन के भाई के लिए कन्या की याचना की और उग्रसेन के कथानुसार बारात लेकर श्रीकृष्ण वहाँ गए।
अरिष्टनेमि कि वह विशाल बारात ज्योंही उग्रसेन के यहाँ विवाह - मंडप के पास पहुँची त्योही वहाँ बाड़ों और पिंजड़ों में बंद हुए पशु - पक्षियों का करुण क्रंदन प्रभु को सुनाई दिया । वह करुणामय चीत्कार सुनकर प्रभू चौंक ।सारथी से पूछने पर पता लगा कि इन सबको बारातियों के भोजनार्थ यहाँ इकट्ठा किया गया है। ज्यों-ज्यों बारात निकट आ रही है ,त्यों - त्यों इन्हें अपनी मृत्यु नज़दीक आती-सी लग रही है ।बस इसीलिए ये बेचारे छटपटा रहे हैं ।
नेमिनाथ जी सारथी की यह बात सुनकर सिहर उठे ।साहसा उनका चिंतन बदला ।सारथी को रथ मोड़ने को करते हुए बोले — मुझ एक के लिए इतने अगणित जीवों के प्राण जा रहे हैं । यह कार्य मेरे लिए कदापि उचित नहीं है —- भर पाया ऐसे भी वहाँ से । यों कहकर विवाह से विरक्त होकर अपना रथ पुनः द्वारिका की ओर लौटाने का सारथी को आदेश दे दिया ।
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सोरियपुर के महाराजा समुद्रविजय के वंशभास्कर ‘अरिष्टनेमी ‘जैन जगत के बीसवें तीर्थंकर है ।इन का दूसरा नाम नेमीनाथ भी है ,किन्तु ये ‘अरिष्टनेमि ‘ के नाम से ही अधिक विश्रुत है। ये अपराजित नामक चौथे अनुत्तर वीमान से च्यवन करके यहाँ आए । समुद्र विजय के सभी पत्रों में ये छोटे थे । नवम वासुदेव श्रीकृष्ण इनके चचेरे भाई थे।
नेमिनाथ तीर्थंकर होने के कारण अमित बली है ।बल में श्रीकृष्ण इनसे बहूत पीछे हैं ।इस रहस्य का उद्घाटन उस समय हुआ जब प्रभू ने आयुधशाला में जाकर दिव्य
"अग्निभूति" भगवान् महावीर के दूसरे गणधर थे । ये ‘ गोबर ‘ गाँव के निवासी ‘ वसुभूति ‘ विप्र के आत्मज और माता पृथ्वी के अंगजात थे । वैसे ये इन्द्रभूति के छोटे भाई थे । उन्हीं के साथ सोमिल ब्राह्मण के यहाँ यज्ञ करने अपापा नगरी गये । ‘ कर्म है या नहीं ‘ इस शंका का समाधान भगवान् महावीर से पाकर अपने ५०० छात्रों सहित संयमी बने । उस समय इनकी आयु ४७ वर्ष की थी । ५६ वर्ष की आयु में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ ओर ७४ वर्ष की आयु में एकमासिक अनशनपूर्वक वैभारगिरि पर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया ।
- आवश्यकचुर्णि
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मुनिव्रत स्वीकार कर नलिनीगुल्म विमान में कैसे पहुँच सकूँ , बस इसी तड़प को लिये आचार्यश्री से प्रार्थना की —‘गुरुदेव ! में इस शरीर की कोमलता के कारण अधिक श्रमणाचार के कष्ट सह सकूँ, ऐसा नहीं लगता ।अत: मुझे अनशनपूर्वक साधना करने की आज्ञा दीजिए।।’
यों साग्रह अनशन स्वीकार करके निर्जन स्थान की ओर चल दिया। मुनि कंथारिका वन (कँटीली झाड़ियों) की ओर बढ़ गया ।मार्ग कंटीला था। जिस सुकुमाल ने भूमि पर कभी पैर भी नहीं रखा था,वही तीखे कांटों से भरी भूमि पर चलकर श्मशान भूमि में पहुँचा ।कायिक कष्टों की अवगणना कर वहाँ ध्यानस्थ हो गया । उस समय एक श्रृगालिनी अपने बच्चों के साथ वहाँ पहुँची और मुनिश्री के पैर चाटने लगी । पैरों से रक्त निकलने लगा।रक्त के साथ -साथ श्रृगालिनी और उसके बच्चों को माँस का स्वाद भी आने लगा ।फिर वह मुनिश्री के पैरों से माँस के टुकड़े तोड़ - तोड़कर खाने लगी ।पैरों के खाते ही मुनिश्री नीचे गिर गये।यह भी संयोग ही था कि वह श्रृगालिनी मुनि अयवंती सुकुमाल के किसी पूर्वजन्म की पत्नी थी।श्रृगालिनी ने सारा शरीर ही भक्षण कर लिया।
मुनि समता से मृत्यु को प्राप्त कर नलिनीगुल्म विमान में पैदा हो गये।यद्यपि गुरुदेव ने निष्काम तपस्या करने का आदेश दिया था, पर मुनिजी ने नलिनीगुल्म विमान पाने का संकल्प कर लिया था।
दुसरे दिन आचार्य के मुँह से ‘ भद्रा ‘ ने जब मुनिश्री की रोमांचक साधना का वर्णन सुना , तब वह संसार से उव्दिग्न हो उठी । भद्रा स्वयं और इकतीस पत्नियाँ दीक्षित हो गईं।केवल एक पत्नी साध्वी नहीं बनी , क्योंकि वह गर्भवती थी।उसके पुत्र पैदा हुआ।उस पुत्र ने अपने पितृ मुनि के प्रति भक्ति दिखाकर उसी स्थान पर एक प्रतिमा स्थापित की जो आगे चलकर महाकाल प्रासाद के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
—दशर्नशद्धि प्रकरण
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इतिहास-प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी में ‘धन’ सेठ के यहाँ’भद्रा’
के उदर से एक पुत्र का जन्म हुआ।वह पहले स्वर्ग के निलिनीगुल्म विमान से आया।वह सौभागी तथा सुकोमल था।अत:इसका नाम रखा गया ‘अयवंती सुकुमाल’।
युवावस्था प्राप्त कर बत्तीस सुन्दरियों के साथ आमोद -प्रमोद में जीवन व्यतीत कर रहा था ।ठीक उसी समय ‘ आर्य सुहस्ति’नाम के धर्माचार्य उस नगरी में पधारे और ये अयवंती सुकुमाल के मोहलों के ठीक नीचे उसकी वाहनशाला में विराजे।
एक दिन आचार्यदेव पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय में लीन होकर सस्वर नलिनीगुल्म विमान के अधिकार का स्वाध्याय कर रहे थे । ऊपर सातवीं मंज़िल में लेटे कुमार को आचार्यदेव का वह मृदु स्वर बहुत प्रिय लगा । कुछ देर बाद वह नीचे आया और पाठ सुनने लगा।उस वर्णन को सुनते -सुनते उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया ।अपने पूर्वजन्म को देखा तो पता लगा कि मैं उसी नलिनीगुल्म विमान से यहाँ आया हूँ ,जिसका वर्णन आचार्यदेव कर रहे हैं।’उसने विनयपूर्वक पूछा
—‘प्रभुो! क्या आप भी नलिनीगुल्म विमान से आये हैं ?’
बात का भेद खोलते हुए गुरुदेव ने कहा —‘ मैं वहाँ से नहीं आया हूँ अपितु उस प्रसंग का स्वाध्याय कर रहा हूँ।’
कुमार ने वहाँ पहुँचने का मर्म जानना चाहा।आर्य सुहस्ति ने धर्मोपदेश दिया ।उपदेश इतना प्रभावशाली था कि उसे लग गया ।माता -पिता , पत्नियों की आज्ञा लेकर मुनिव्रत स्वीकार कर लिया।
कहानी का अगला भाग अगली पोस्ट में ........क्रमशः ..........
— दर्शन शुद्धि प्रकरण
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एक बार ऐसा प्रसंग बना कि चेलणा ने उद्यान में एक मूनी को ध्यान में खड़े देखा।रात के समय राजा और रानी सोये हुए थे।सर्दी बहुत अधिक थी। रानी का हाथ कम्बल से बाहर रह गया और ठंड से ठिठुर गया। नींद में ही रानी के मुँह से निकला—-‘उसका क्या हाल होगा ?’ राजा चौंका और शंका का शिकार हो गया। राजा सोचने लगा—- हो न हो रानी किसी अन्य पुरुष पर मुग्ध है।उसकी चिन्ता के लिए ऐसा कह रही है उसका हाल क्या होगा ? राजा का मन फट गया और ‘अभय कुमार ‘ को प्रातः का आदेश दिया कि चेलणा के माहलों को जला दो। यों आदेश देकर श्रेणिक भगवान् का उपदेश सुनने चला गया।भगवान ने राजा के संशय को मिटाने के लिए प्रसंगवश कहा —-‘महाराज चेतक की सोतों पुत्रियाँ सती हैं।यह सुनकर श्रेणिक चौंका और अपने किये पर अनुपात करने लगा।
उधर अभयकुमार ने बहुत ही चातुर्य से काम लिया और महारानी के महलों के पास घास फूस की झोपड़ियाँ जलाकर प्रभु के दर्शनार्थ चल पड़ा । वह भी इसलिए की मुन्नीत्व के आदेश प्राप्ति के लिए यही समय सर्वथा उपयुक्त है। उधर समवसरण से लौटते हुए श्रेणिक ने दूर से महलों से उठता धुआँ देखा तो विहल हो उठा और सामने से अभकुमार आता हुआ मिला , तब श्रेणिक ने ग़ुस्से से कहा—-‘जा रे जा।’अभयकुमार को और क्या चाहिए था ? प्रभु के पास पहुंचकर सारी स्थिति कही और संयम धारण कर लिया।पाँच वर्ष तक संयम का पालन कर विविध तपस्याओं के द्वारा कर्मों के भार को हल्का किया।फिर आयुष्य पूर्ण कर विजय नामक अनुत्तर विमान में पैदा हुआ ।वहाँ से महाविदेह में मनुष्य बनकर संयम का पालन करके मोक्ष प्राप्त करेगा।
महाराजा श्रेणिक को अभयकुमार की दीक्षा से एक अमिट आघात लगा; क्योंकि वैसा बुद्धिमान मंत्री उसको मिलाना कठिन था ।
जैन परंपराओं में आज भी , दीपमालिका के दिन पूजन करते समय बहियों में लिखते हुए याचना की जाती है—‘अभयकुमार जैसी बुध्दि ।’
—धर्मपत्न प्रकरण
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
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‘अभयकुमार’ राजगृही के महाराजा ‘श्रेणिक’ की रानी ‘ नन्दा ‘ का पुत्र था ।महाराजा श्रेणिक ने अपने पाँच सौ प्रधानौं में अभय कुमार को मुखिया बनाया।अभकुमार अपनी बुद्धिमत्ता ,निपुणता व कर्त्तृत्व के बल पर सारी जनता का प्रिय बन गया ।अनेक अपराधियों को अपने बुद्धि -कौशल से खोज -खोजकर उसने उन्हें उचित दण्ड दिलवाया और जनता को निश्चिंत बना दिया ।
धरिणी ,चेलणा आदि विमाताओं के दोहद भी अपने तप और युक्ति से पूरे करके उन्हें सन्तुष्ट किया।
वैशाली नगरी के महाराजा ‘चेटक’ की यह प्रतिज्ञा थी कि वे अपनी किसी भी पुत्री की शादी किसी विधर्मी राजा के साथ नहीं करेंगे । महाराजा ‘श्रेणिक’ की इच्छा हुई कि मैं महाराजा ‘चेटक’की पुत्री ‘सुज्येष्ठा ‘ से शादी करुँ। सुज्येष्ठा भी महाराजा श्रेणिक के प्रति आकर्षित थी। इस चिन्ता को भी ‘अभयकुमार ‘ ने अपनी कुशलता से मिटाने का प्रयत्न किया और ‘सुज्येष्ठा ‘का हरण हो —-ऐसा साज -बाज बनाया। लेकिन एन वक़्त पर सुज्येष्ठा पीछे रह गई और उसके बदले उसकी छोटी बहन चेलणा का हरण हुआ और उसके साथ ही राजा का प्राणि-ग्रहण हुआ।
भगवान् महावीर का उपदेश सुनकर अभय कुमार संयम लेने को उत्सुक हुआ और पिता से आज्ञा चाही।महाराज श्रेणिक ने अभय कुमार को राज्य सौंपना चाहा ,पर अभय कुमार का आग्रह संयम के लिए ही रहा ।तब राजा ने कहा —- ‘जब मैं तुझे ‘ जा ‘कह दूँ , तब दीक्षा ले लेना।’
कहानी का अगला अंश अगली पोस्ट में ...... क्रमशः
—धर्मपत्न प्रकरण त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र*
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‘ भद्दिलपुर ‘ के ‘नाग गाथापति की पत्नी का नाम ‘ सुलसा ‘ था ।
सुलसा को भी अन्य स्त्रियों की भाँति पुत्र -प्राप्ति की सहज अभिलाषा थी ।
एक नैमित्तिक ने उसे बताया कि तेरे मृत संतान होगी । इसलिए उसने हरिणगमेषी देव की आराधना की।
आराधना से प्रसन्न होकर हरिणगमेषी देव उसका संकट मिटाने को तत्पर हो गया ।
उसने अवधिकज्ञान से विचार करके जान लिया की याद्यपि कंस ने देवकी के सभी पुत्रों को मारने का संकल्प कर लिया है , लेकिन उसके छहों पुत्र पूर्ण आयुष्य वाले हैं ।
अत: हरिणगमेषी देव ने देवकी के छः पुत्रो का हरण कर ‘ सुलसा ‘ के यहाँ रखा तथा सुलसा के मृत पुत्रों को देवकी के यहाँ रख दिया ।
देवकी के छ: पुत्र चरम शरीरी होने से कंस के हाथ मरने से बच गये ।
वे सुलसा के यहाँ पलने लगे । बड़े होने पर उनकी शादी कर दी गई ।
सारे वैभव को ठुकराकर वे छहों नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षित हुए ।
उग्रतप तप: साधना द्वारा सभी कर्मों का नाश किया । उन छहों के नाम है ।
१. अजितसेन
२. अनिकसेन
३. अनन्तसेन आदी ....
छ: भाइयों में अजितसेन सबसे बड़े थे । बीस वर्ष तक संयम पालन कर एक महीने का अनशन कर शत्रुंजय पर्वत से मोक्ष पधारे ।
- अन्तकृद्दशा ८
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‘जयन्ती’श्रमणोपासिका ‘कौशाम्बी ‘ नगरी के महाराज ‘शतानीक’की बहन तथा महाराजा ‘उदयन’ की बुआ।वह भगवान महावीर के साधुओं की प्रथम शय्यातर तथा तत्त्व की मर्मज्ञा थी।जैन इतिहास में जिज्ञासामूलक प्रश्न करने वाली स्त्रियों में ‘जयन्ती’का प्रमुख स्थान है।
एक बार भगवान महावीर ‘कौशाम्बी’ पधारे।’जयन्ती ‘प्रभु के समवसरण में पहुँची ।अपने मन की जिज्ञासाएं प्रभु के सामने रखते हुए विनम्र भाव से उन सबका समाधान चाहा ।प्रश्न बहुत उपयोगी तथा पैने थे ।
जयन्ती—जीव भारी कैसे होता है ?
भगवान महावीर —प्रणातिपात आदि पापस्थानों में प्रवृति करने के कारण ।
जयन्ती—जीव हल्का कैसे होता है ?
भगवान महावीर— पापस्थानों से विरमण होने से।
जयन्ती—जीव दुर्बल,आलसी व प्रसुप्त अच्छे हैं या बलवान ,
उद्यमी व जागृत अच्छे हैं ?
भगवान महावीर -जो व्यक्ति अधर्मनिष्ठ है ,वे दुर्बल ,आलसी और प्रसुप्त अच्छे हैं तथा जो व्यक्ति धर्मनिष्ठ है ,वे बलवान् उद्यमी तथा जागृत अच्छे हैं ।
जयन्ती— जीव भवि स्वभाव से होते हैं या परिणाम से ?
भगवान महावीर —स्वभाव से होता है।अभवि का भवि या भवि का अभवि रूप में कभी परिणमन नहीं हो सकता ।
जयन्ती ने अनेकानेक ऐसे प्रश्न किए ,जिन्हें सुनकर सारे लोग चमत्कृत हो उठे । उस समय तो वह अपने मोहलों में चली गई ।कुछ समय के बाद भगवान महावीर के पास दीक्षित होकर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में पहुँची ।
* —भगवती,१२/२*
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उदायन सिंधु सौवीर देश का राजा था।वीतभयनगर उनकी राजधानी थी।राजा चेटक की पुत्री प्रभावती उनकी रानी थी।रानी परम श्रमणोपासिका थी, किन्तु राजा उदायन तापसधर्म का अनुयायी था।प्रभावती मृत्यु पाकर देवी बनी और उसने राजा उदायन को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया।
एक बार राजा उदायन पौषधशाला में बैठा धर्म-चिंतन कर रहा था, तब उसके मन में ये विचार उठे—-यदि भगवान् महावीर वीतभय नगरी में पधारें तो मैं गृहस्थ - धर्म को त्यागकर मुनि-धर्म ग्रहण कर लूँगा।
भगवान् महावीर वीतभय नगरी पधारे ।राजा उदायन प्रतिबुद्ध हुआ।उसने अपने पुत्र अभीचिकुमार को राज्य न देकर, भान्जे केशी को राजसिंहासन पर बिठाया और श्रामणी दीक्षा ग्रहण कर ली ।
दीक्षित होकर राजर्षि उदायन दुष्कर तप करने लगे।उनका शरीर बहुत कृश हो गया।फिर भी उन्होंने तपस्या में कमी न आने दी।
एक बार बिहार करते हुए वे वीतभय नगरी पधारे ।केशी को उसके मंत्रियों ने भड़का दिया कि राजर्षि उदायन पुन:अपना राज्य छीनने आये हैं।केशी भड़क गया।उसने उदघोषणा करवा दी कि राजर्षि को कोई भी ठहरने का स्थान न दे।परिणामस्वरूप उन्हें नगर में कहीं भी स्थान न मिला।एक कुम्भकार ने साहस करके उन्हें ठहरने योग्य स्थान दे दिया।
केशी इतने पर भी चुप न हुआ।राजर्षि को मरवाने के लिए उसने अनेक बार विषमिश्रित भोजन दिया , लेकिन रानी प्रभावती ,जो देवी बनी थी, उसने उस भोजन को निर्विष कर दिया।
एक बार देवी कहीं दुसरे स्थान पर गई हुई थी। उसकी अनुपस्थित में राजर्षि के पात्र में विषमिश्रित आहार आ गया ।उसे खाने से राजर्षि के शरीर में विष फैल गया ।
राजर्षि ने अनशन किया, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे मुक्त हो गए ।
—(क) त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र १०,११
—- भगवती १३,६
—(ग)उत्तराध्ययन भावविजय गणी की टीका ,१८/५
—(घ) आवश्यकचूर्णि,उत्तरार्ध ,पत्र१६४
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वसुदेवजी कंस के शिक्षा - गुरू थे और उस पर पुत्रवत् स्नेह रखते थे । उन्होंने ही उसे अस्त्र - शस्त्र विधा सिखाई थी तथा अन्य कलाओं का भी ज्ञान कराया था। जब सिंहरथ को वसुदेव ने वश में किया और उसकी विजय का यश कंस को दे दिया ; तब कंस का राजा जरासंध की पुत्री से विवाह हो गया और उसे मथुरा का राज्य भी मिल गया । इस घटना से कंस वसुदेवजी के उपकार से दब ही गया । कंस ने मुत्तिकावती के राजा देवक, जो उसका काका लगता था, की पुत्री देवकी से वसुदेवजी का विवाह करा दिया ।
इस विवाह की ख़ुशी में मथुरा दुल्हन की तरह सज गई । चारों ओर आमोद - प्रमोद मनाये जाने लगे । नगरी में रास - रंग का वातावरण था । कंस - पत्नी जीवयशा ने छककर शराब पी और नशे में झूमने लगी ।
उसी समय अतिमुक्तक मुनि गोचरी-हेतु आये। अतिमुक्तक संसारी नाते से राजा उग्रसेन के पुत्र और कंस के छोटे भाई थे। जब कंस ने उग्रसेन को बन्दी बना कर मथुरा का सिंहासन छीना तब इस घटना से दु: खी होकर वे प्रव्रजित हो गये और घोर तपस्या के कारण उन्हें अनेक लब्धियाँ भी प्राप्त हो गई थीं । मुनि अतिमुक्तक ( देवर ) को देखकर जीवयशा भान भूल गई । उसे नशे में देखकर मुनिश्री वापस मुड़ने लगे तो वह दरवाज़े में अड़ गई और उनसे शराब पीकर नाचने - गाने का आग्रह करने लगी ।मुनि तो क्षमा के सागर थे।उन्होने बहुत प्रयास किया कि वे बचकर निकल जाएं ,लेकिन मदान्ध जीवयशा ने उन्हें निकलने नहीं दिया ,आमोद -प्रमोद मनाने का आग्रह करती रही । तब मुनिश्री ने गंभीर वाणी से कहा दिया -‘जिस के निमित्त यह उत्सव हो रहा है, उसी का सातवॉ पुत्र तुम्हारे पति का काल होगा ।
यह सुनते ही जीवयशा का नाश्ता हिरन हो गया और मुनि अतिमुक्तक बाहर निकल गये।
उस समय तो परिस्थितिवश मुनि अतिमुक्क के मुख से ऐसे शब्द निकल गए ,लेकिन बाद में उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ है ।
उन्होंने इस वचन-दोष की सम्यक आलोचना की और तपस्या करके उसी भव में मुक्त हुए ।
* - त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र , पर्व ८
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सच है—-उद्वेलित और अन्तर्व्यथित मन तनिक- सा प्रलोभन पाकर बहुत जल्दी फिसलता है।मुनिजी गृहवासी बन गये ।कंटकाकीर्ण संयम - पथ से आये हुए मुनी ने इस रूपसी की शीतल छाया में सुख की साँस ली।
उधर अरणिक की माता ‘ भद्रा’ साध्वी ने जब अरणिक मुनि को नहीं देखा तब पागल -सी बनी ‘ अरणिक-अरणिक ‘ की पुकार करती हुई तीन दिनों तक गली - गली में फिरती रही । तीसरे दिन क्रंदन करती हुई जब उस महल के नीचे से जाने लगी, जिस महल में अरणिक था,उसने माता का क्रंदन सुनकर बाहर झाँका।अपनी माँ की यह अवस्था देखकर सहसा नीचे उतर आया और माँ के पैरों में गिरकर बोला—‘ माँ ,धैर्य धरो,अरणिक यह रहा।’
अरणिक को देखकर माँ का मानस - पंकज खिलना ही था।माँ के शिक्षा -सूत्रों से अरणिक पुन: प्रबुद्ध हुआ।उस ऐयाशी से उदासी आ गई।पुन: संयम ले लिया।मन में आया- मेरी यह सुकुमारता ही मेरी साधना में बाधक बनी है।अत:अच्छा होगा इस सुकुमारता को ही छोडूँ ।यही सोचकर चिलचिलाती धूप में अपने आपको आतापना में झोंक दिया।यों कुछ समय तक आतप और तप से अपनी आत्म - शक्ति को प्रदीप्त करके कर्ममल का समूल नाश किया। अन्तत: केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जा विराजे।
—-आवश्यक कथा
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‘अग्निभूति' भगवान् महावीर के दूसरे गणधर थे। ये ‘गोबर' गाँव के निवासी ‘वसुभूति' विप्र के आत्मज और माता पृथ्वी के अंगजात थे। वैसे ये इन्द्रभूति के छोटे भाई थे। उन्हीं के साथ सोमिल ब्राह्मण के यहाँ यज्ञ करने अपापा नगरी गये। 'कर्म है या नहीं' इस शंका का समाधान भगवान् महावीर से पाकर अपने ५०० छात्रों सहित संयमी बने। उस समय इनकी आयु ४७ वर्ष की थी। ५६ वर्ष की आयु में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ ओर ७४ वर्ष की आयु में एकमासिक अनशनपूर्वक वैभारगिरि पर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
- आवश्यकचुर्णि
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अकम्पित गणघर
‘अकम्पित ‘ मुनि भगवान् महावीर के आठवें गणधर थे ।ये ‘विमलापुर’ के रहने वाले ब्राह्मण जाति के थे ।इनके पिता का नाम ‘ देव ’ तथा माता का नाम ‘ जयन्ती ’था । ये अनेक विद्याओं में निष्णात थे । एक बार ये इन्द्रभूमि के साथ ‘अपापा नगरी’ में ‘ सोमिल ’ ब्राह्मण के यहाँ यज्ञ करने गये। ‘*नरक है या नहीं* इनके मन में यह सुगुप्त शंका थी । इस शंका का निवारण भगवान् ने किया ; क्योंकि उनका समवसरण भी अपापा के बाह्म भाग में था । शंका मिट जाने के उपरान्त ये भगवान् महावीर के पास अपने 300 शिष्यों सहित दीक्षित हुए । ये 49 वर्ष की प्रोढा़वस्था में संयमी बने । 58 वें वर्ष में इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई तथा 78 वें वर्ष में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया ।
- आवश्यकचुर्णि
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मुनि अतिमुक्कतक कुमार
अतिमुक्कतक पोलासपुर के महाराजा ‘विजय’ के पुत्र तथा माता’ श्रीदेवी ‘के आत्मज थे।
एक दिन कुमार चौक में खेल रहे थे, उस समय उन्होंने भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी को भिक्षार्थ उधर से जाते देखा। जैन मुनि को देखकर कुमार ने पूछा - आप कौन हैं? कहाँ जा रहे हैं ? गौतम स्वामी ने कहाँ - हम जैन मुनि है, भिक्षा लेने जा रहे हैं। कुमार ने अपने घर चलने की प्रार्थना की प्रार्थना ही नहीं गौतम स्वामी की उंगली पकड़कर अपने घर ले आए। राजमहल से भिक्षा लेकर गौतम स्वामी जब उद्यान में भगवान् महावीर के पास जाने लगे तब अतिमुक्तक साथ आया। प्रभु के दर्शन किये, उपदेस सुना और संयम लेने के लिए तैयार हो गया। माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर साधु बन गया।
एक बार अतिमुक्कतक बालमुनी शौचार्थ गए और वाहॉ बहते हुए पानी को देखकर अपने श्रमणत्व को भूल गये । दोनों ओंर मिट्टी से पानी पर पाल बाँधकर अपनी पात्री उसमें छोड़ दी।
पात्री को जल में तैरती देखकर कुतूहल से बाँसों छलकने लगे और ज़ोर ज़ोर से पुकारने लगे - मैं तैरता हूँ, मेरी पात्री (नाव )तैरती है। आवाज़ सुनकर इधर उधर से स्थविर मुनि आये और उनको उलहाना दिया ।उन्हें प्रभु के पास लाकर नाव की सारी कहानी सुनाई और पूछा- ‘ आपके इस बाल मुनि के कितने भव शेष है?
प्रभु ने कहाँ-‘ यह बाल मुनी इसी भव में मोक्ष जाने वाला है, इसकी निंदा मत करो बल्कि इनकी भक्ति करो।’
अतिमुक्कतक मुनि ने अपना स्वरूप संभाला और किये हुए दोष की आलोचना की। संयम - पथ पर बढ़ते - बढ़ते ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अंत में गुणरत्न संवत्सर नामक तब करके विपुलगिरि पर्वत पर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारे।
- अन्तकृद्दशा सूत्र
- भगवती ४१८
अगला भाग अगले अंक में प्रसारित होगा
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अंजना सती
अंजना अपने कृतकर्मों को दोष देती हुई अपनी सखी के साथ जंगल में जा पहुँची ।वहाँ एक गुफा का आश्रय लेकर धर्मध्यान में अपने दिन बिताने लगी ।गुफा में ही अंजना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया ।पुत्र का जन्म होते ही सारी स्थितियों ने मोड़ लिया । हनूपुर का स्वामी राजा प्रतिसूर्य ,जो अंजना का मामा था ,संयोगवश वहाँ आ पहुँचा । अंजना को विमान मैं बिठाकर अपने नगर में ले आया ।अंजना के पुत्र का नाम रखा —-‘हनुमान’ ।
बारह महीनों तक पवनंजय और वरुण का युद्ध चलता रहा । वरुण को परास्त कर विदय- दुन्दुभि बजाते हुए पवनंजय अपने नगर में आए ।माता - पिता से मिले ,परंतु अंजना को नहीं देखकर बात का भेद जानना चाहा । बात का भेद जानने पर पवनंजय को भारी अनुताप हुआ । उन्होंने अंजना के न मिलने तक कुछ भी नहीं खाने- पीने की प्रतिज्ञा की । चारों और अंजना का पता लगाने के लिए लोग दौड़े । अंत में हनूपुर नगर से धूमधाम के साथ आंजना को आदित्यपुर नगर में ले आये ।सास - ससुर आदि सबने अपने किए हुए कार्य पर अनुताप किया । हनुमान को देखकर सभी पुलकित हो उठे । प्रह्लाद की मृत्यु के बाद पवनंजय महाराज के अतुल राज्य वैभव का उपभोग किया तथा अंत में दोनों ने दीक्षा ली और स्वर्गगामी बने।
—- त्रिषष्टि शलाकापुरूष ,
चरित्र पर्व ७
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अंजना सती
सात महीने युद्ध में लग गए , पवनंजय वापस नहीं आए ।पीछे से अंजना को गर्भवती देखकर उसकी सास केतुमती आग - बबूला हो उठी।उसे व्यभिचारिणी क़रार दे दिया गया ।अंजना ने
बहुत विनम्रता से सारी बात कही , पर माने कौन ? प्रह्लाद ने देश निष्कासन का आदेश दे डाला ।पवनंजय जब तक नहीं आ जाये , तब तक अंजना ने वही रहने को कहा , परंतु उसकी इस प्रार्थना को भी स्वीकार नहीं किया गया ।काले कपड़े पहनाकर काले रात में बिठा केतुमती ने अंजना को उसके पीहर महेंद्रपूर की और वन में छोड़ आने के लिए सारथी को आदेश दे दिया । सारथी भी उसे जंगल में छोड़ आया ।
अंजना महेंद्रपूर की ओर चली ।रास्ते में शुभ - संयोग से एक माहमुनि के दर्शन हुए ।मुनि ने धैर्य रखने की प्रेरणा दी ।अंजना अपनी सखी- तुल्य दासी वसंततिलका को लेकर पिहर की ओर बढ़ी ।काष्ट के समय पिहर में आश्रय पाने में अंजना संकोच कर रही थी ,पर वसंततिलका के आग्रह से वहाँ पहुँची ।काले वस्त्रों में अंजना को देखकर माता - पिता ,भाई - भाभियाँ , यहाँ तक कि नगर - निवासी भी उसे रखना तो दूर पानी पिलाने को भी तैयार नहीं हुए ।दिन कहकर थोड़े ही बदलते हैं । सभी ने इस निर्णय पर अपने आप को अटल रखा की ऐसी व्यभिचारिणी से हमारा क्या संबंध है । इसका तो मुँह भी नहीं देखना चाहिए । उसे वहाँ भी आश्रय नहीं मिला ।
कहानी का अगला भाग अगली पोस्ट में ...क्रमशः.....
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अंजना सती
पवनंजय वहाँ से आगे चले मार्ग में एक वृक्ष के नीचे रात्रि-विश्राम किया ।अधिक तनाव होने से रात का पहला प्रहर बीतने पर नींद नहीं आ रही थी ।लेटे - लेटे करवटें बदलते रहे ।उस समय एक चकवा - चकवी का जोड़ा अलग - अलग टहनियों पर बैठा था। चकवी अपने साथी के वियोग में बुरी तरह करुण क्रंदन कर रही थी। उसके दिल बहलाने वाला आक्रंदन सुनकर पवन जय के दिल में उथल - पुथल मच गयी ।चिंतन ने मोड़ लिया ।सोचा —एक रात के प्रिय -वियोग में ही इस चकवी की यह दशा है तो उस बेचारी अंजना पर क्या बीतती होगी, जिस नीरपराध का 12 वर्षों से मैंने बिल्कुल बहिष्कार कर रखा है ? मेरा मुँह भी उसने पूर्णतः नहीं देखा है ।अतः मुझे उससे मिलना चाहिए ।पवनंजय ने अपने मित्र प्रहसित से सारी मनोव्यथा कही ।मित्र ने भी उसकी पवित्रता मैं कोई संदेह नहीं करने को कहा तथा यह भी कहा— इतना निरादर सहकर भी आप के प्रति कल्याण -कामना लिए शाकुन देने आयी ,इससे अधिक और उसके सतीत्व का क्या प्रमाण होगा ? मित्र को साथ लेकर पावनंजय छावनी से विद्या - बल द्वारा आकाशमार्ग से चल पड़े और अंजना के महलों में एक प्रहर में ही पहुँच गए । अंजना उन्हें देखते ही आकर्षित हो गई ।वह ख़ुशी के आँसू बहाने लगी ।पवनंजय ने अतीत को भूल जाने के लिए कहा ।शेष रात्रि महलों में रहकर पवनंजय प्रातःकाल छावनी में जाते समय अपने हाथ के अंगूठी निशानी के रूप में देखकर चले गये ।
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अंजना सती
एक बार अंजना के पिता के यहाँ से ज़ेवर मिष्ठान और राजसी पोशाक पवनंजय के लिए आए ।अंजना ने वह सामग्री पवनंजय के पास दास के हाथ भेजी ।पवनंजय देखकर आग - बबूला हो उठा ।कुछ वस्तुएँ नष्ट कर दी और कुछ वास्तुएं चाण्डालों को देख देखकर अंजना के प्रति आक्रोश प्रदर्शित किया ।दासी ने जब आकर सारी बात अंजना से कही तब उसके दुःख का पार नहीं रहा ।अपने भाग्य को दोष देती हुई और पति के प्रति शुभकामना व्यक्त करती हुई वह समय बिताने लगी यू 12 वर्ष पूरे हो गए।
एक बार लंकेश्वर ‘रावण ‘ने राजा प्रह्लाद से कहलाया कि इन दिनों ‘वरुण ‘काफ़ी उद्दण्ड हो गया है ,उस पर क़ाबू पाना है, अतः आप सेना लेकर वहाँ ज़रिये । ‘प्रह्लाद’ जब जाने लगे तब अपने पिता को रोक कर ‘पवनंजय ‘स्वयं युद्ध में जाने के लिए तैयार हुए।माता पिता को प्रणाम कार जाने लगे, माता पिता को प्रणाम कर जाने लगे,परंतु विदा लेने अंजना के महलो में फिर भी नहीं आए । व्यथित हृदय अंजना पति को समरांगण मैं जाते समय शाकुन देने के लिए हाथ में दही से भरा स्वर्ण कटोरा लिए द्वार के पास एक ओर खड़ी हो गई।पवनंजय ने जब उसे देखा तब उससे न रहा गया ।सभी तरह से आपमानित करता हुआ बुदबुदाया —‘अभी कुलटा ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा है ।ऐसे समय में भी अपशकुन करने चली आयी ।अंजना आँखों में आँसू बहाती हुई महलों में चली गई ,फिर भी पति के प्रति उसने कोई अनिष्ट कामना नहीं की ,केवल अपने भाग्य को ही दोष देती रही।
कहानी का अगला भाग अगली पोस्ट में ...क्रमशः ....
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अंजना सती
उस समय अंजना अपनी सखियों से गिरी बैठी थी । सखियाँ भी अंजना के सामने उसके भावी पति की ही चर्चा कर रही थी ।चर्चा में जब एक सखी पवनंजय की सरहाना कर रही थी तो दूसरी विद्युत्प्रभ की प्रशंसा कर रही थी ।उस समय अंजना के मुँह से सहसा निकला —विद्युतप्रभ तो धन्य हैं जो भोग को त्यागकर मोक्ष प्राप्त करेगा ।’अंजना के ये शब्द पवनंजय के कानों में कांटों से चुभे । सोचा —हो न हो ,यह विद्युतप्रभ के प्रति आकर्षित है , अन्यथा मेरी अवगणना करके उसकी सराहना क्यों करती ?एक बात तो मन में आया कि इसका अभी परित्याग कर दूँ ,पर दूसरे ही क्षण सोचा —अभी इसे छोड़कर चला जाऊँगा तो इससे मेरे पिता का वचन भंग होगा ,मेरे कुल का अपयश होगा ।अच्छा यह रहेगा की शादी कर के मैं इसका परित्याग दूँ। यही सोचकर अपने निर्णय को मन ही मन समेटे अंजना से विवाह करके अपने नगर में आ गया पर अंजना के महलों में पवनंजय ने पैर भी नहीं रखा पति की पराड्मुखता से अंजना का व्यथित होना स्वाभाविक ही था ,पर वह पवनंजय के रूठने का कारण समझ नहीं पा रही थी ।वह सोचती —मेरी ओर से कोई त्रुटी हो गई हो ,ऐसा मुझे लगता तो नहीं है । वह बहुत सोचती ,किंतु पति की नाराज़गी का कोई कारण उसकी समझ में न आता ।
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अंजना सती
अंजना महेंद्र कपूर के महाराजा ‘महेंद्र ‘की पुत्री थी । उसकी माता का नाम हृदयसुंदरी था। महाराजा महेंद्रा के प्रश्नकीर्ति आदि सौ पुत्र तथा एक पुत्री राजकुमारी ‘अंजना’ थी।
जब रूपवती ‘अंजना ‘के विवाह का प्रस्ताव आया तब मंत्री ने राजा से कहा राजन राजकुमारी के लिए बहूत खोज करने पर दो राजकुमार की समुचित जँचे हैं । एक है हिरण्याभ राजा के पुत्र ‘विद्युतप्रभ ‘तथा दूसरे हैं विद्याधर महाराजा प्रह्लाद के पुत्र ‘पवनजय। दोनों में अंतर यह है कि जहाँ विद्युतप्रभ की आयु केवल 18 वर्ष की ही शेष हैं ,वह चरमशरीरी भी है ; वहाँ पवन जय दीर्घजीवी है।
राजा ने दीर्घजीवी और
सुयोग्य समझकर ‘पवनजय ‘ के साथ राजकुमारी का संबंध कर दिया । यथासमय पवनंजय की बारात लेकर महाराजा प्रह्लाद वहाँ आ पहुँचे । विवाह में केवल तीन दिन की देरी थी कि एक दिन पवनंजय के मन में अपनी भावी पत्नी को देखने की उत्सुकता जागी । बस ,फिर क्या था ,अपने मित्र ‘प्रहसित ‘को लेकर ‘अंजना' के राजमहलों के पास पहुँच कर दीवार की ओट में छिप कर अंजना को देखने लगे ।
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अगड़दत्त मुनि
एक बार एक युवक अपनी पत्नी के साथ रथ में बैठकर उधर से निकला।उसने अर्जुन चोर यानी हमारे भाई को मार गिराया । हम छहो उसका पता लगाता हुए उज्जयिनी आ गए । उस दिन उद्यान में उत्सव में आया । वह युवक भी अपनी पत्नी के साथ उत्सव में आया ।लेकिन उसकी पत्नी को सर्प ने काट लिया और वह मूर्छित हो गई।वह युवक अपनी पत्नी के मूर्च्छित स्त्री के पास बैठा आधी रात तक रोता रहा ।इतने में दो विद्याधर आकाश मार्ग से उधर आ निकले ।उन्होंने उसकी पत्नी को निर्विष कर दिया ।वह रात्री व्यतीत करने के लिए पत्नी को वहीं छोड़कर शमशान से अंगारे लेने चला गया।
हमें उसी युवक की तलाश थी ।हम छहो भाई भी उद्यान में पहुँच चुके थे ।हम पाँचों तो देव कुल में तथा इधर- उधर छिप गए थे और अपने छोटे भाई पर उसे मारने का उत्तरदायित्व डाल दिया था। उसने उस युवक की पत्नी को धमकी दी है कि ‘मैं तुझे तथा तेरे पति दोनों को मार डालूंगा ‘।
उस स्त्री ने घबराकर कहा मैं ही अपने पति को मार दूंगी पर तुम मुझे मारना मत।’
यह सुनकर हमारा छोटा भाई आश्वस्त हो गया और देव कुल के अंदर चला आया ।वह हाथ के दीपक को ढक भी नहीं पाया था कि वह युवक आ गया ।उसने अपनी पत्नी से पूछा कि ‘देव कुल में प्रकाश कैसा है ?’तो उसने बहाना बना दिया कि आपके हाथ की अग्नि की परछाई है।
फिर वह युवक अपनी तलवार अपनी पत्नी के हाथ में देखकर आग सुलगने लगा पत्नी ने उसे मारने के लिए तलवार उठायी इतने में हमारे छोटे भाई का हृदय द्रवित हो गया की स्त्री का हृदय कितना क्रूर होता है की जो पति उसके शव पर बैठा आधी रात तक रोता रहा , उसी को वह किस निर्दयता से मारने को तैयार है ।यह सोचकर उसने उस स्त्री को तलवार वाले हाथ प्रहार किया ।तलवार उसके हाथ से छूट कर गिर गई ।उस युवक ने अपनी पत्नी से फिर पूछा — ‘क्या हुआ ? उसने फिर बहाना बना दिया ‘घबराहट में तलवार हाथ से छूट गई।’
——वसुदेव हिंडी पिठिका
—-धम्मिल हिंडी
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अगड़दत्त मुनि
उस समय रात आधी से अधिक हो चुकी थी ।इसलिए अगड़दत्त ने शेष रात्रि वहीं उद्यान में बने
देवकुल के पास ही व्यतीत करने का निर्णय किया ।लेकिन रात्रि की कालीमा को कम करने तथा शीत से बचने के लिए अग्नि की आवश्यकता होती है ।इसलिए वह पत्नी श्यामदत्ता को वहीं बिठाकर शमशान से अंगारे लेने चल दिया ,जिससे रात्रि प्रकाश के सहारे वे व्यतीत की सके।
जब अगड़दत्त श्मशान से अंगारे लेकर लौटा तो उसे देवकुल में प्रकार दिखाई दिया ।तब उसने पत्नी से पूछा ‘देवकुल में प्रकाश कैसा है ‘?पत्नी ने कह दिया कि ‘आपके हाथ की अग्नि की परछाई है।’अगड़दत्त ने उस पर विश्वास कर लिया । रात उस दोनों ने वही व्यतीत की और सुबह अपने घर लौट आये ।
एक दिन अगड़दत्त के घर दो मुनि गोचरी हेतु आए ।उसने उन्हें आहार से प्रतिलाभि किया।
तत्पश्चात तीसरे दिन दो मुनि आये ।उन्हें भी उसने प्रासुक आहार बाहराआ ।इसके बाद वाहा उद्यान पहुँचा ,उनकी देसना सुनी और फिर पूछा —‘आप छहों मुनि समान रूप वाले हैं , आयु भी आपकी कम है , फिर आपने इतनी छोटी उम्र में वैराग्य क्यों ले लिया ? ‘ ...
——वसुदेव हिंडी पिठिका
—-धम्मिल हिंडी
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अगड़दत्त मुनि
कौशांबी निवासी ‘यक्षदत्त ‘ गृहपति की पुत्री ‘श्यामदत्ता’ के साथ उसका विवाह हुआ ।कौशांबी से वह ‘उज्जयिनी ‘अपनी पत्नी के साथ रथ में बैठकर जा रहा था ।मार्ग में उसे एक सार्थ मिला ।वे दोनों सार्थ के संग हो लिए ।इसी सार्थ में एक परीव्राजक भी आ मिला ।अगड़दत्त परिव्राजक की चेष्टाओं
से समझ गया कि यह कोई धूर्त ठग और चोर है ।मार्ग में उस परीव्राजक ने सार्थ वालों को विश - मिश्रित खीर खिलाई।
परिणामस्वरूप सभी काल के गाल में समा गए । लेकिन अपनी सावधानी के कारण अगड़दत्त और शायामदत्ता बज गए ।अगड़दत्त के साथ संघर्ष में परिव्राजक मरण - शरण हो गया
इसी प्रकार मार्ग में बाघ ,
सर्प, अर्जुन चोर पर विजय प्राप्त करके अगड़दत्त श्यामदत्ता से साथ उज्जयिनी पहुँच गया और राजा की सेवा करते हुए इस सुख से रहने लगा ।
एक बार राजाज्ञा से उद्यान में उत्सव मनाया गया ।उस उत्सव में अगड़दत्त भी अपनी पत्नी श्यामादत्ता के साथ सम्मिलित हुआ ।लेकिन श्यामादत्ता को नाग ने डस लिया वह अचेत हो गई ।अगड़दत्त को अपनी पत्नी श्यामा दत्ता से बहुत प्यार था ।इसलिए वह अपनी पत्नी के शव के पास बैठा आधी रात तक आँसू बहाता रहा ।उसी समय आकाश मार्ग से दो विद्यार्थियों निकले। उन्हें अगड़दत्त पर दया आ गई ।वे भूमि पर उतरे और विद्याबल से श्यामा दत्ता को निर्विष कर दिया ।अगड़दत्त ने उनका बहुत उपकार माना।
—-वसुदेव हिंडी पीठिका
—-धम्मिल हिंडी
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अगड़दत्त मुनि
अवंती जनपद में ‘उज्जयिनी’ नाम की समृद्ध नगरी थी ।वहाँ राजा ‘जीतशत्रु ‘राज्य करता था।उसके सारथी कानाम’अमोघरथ ‘था । आमोघरथ की पत्नी का नाम ‘यशोमती ‘और उसके पुत्र का नाम ‘आगड़दत्त ‘था ।
आगड़दत्त के पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था ।इसीलिए वह ‘कौशाम्बी ‘मैं अपने पिता के मित्र और सहपाठी ,दृढप्रहारी ‘के पास सारथी विद्या सीखने गया ।वहां से शिक्षा प्राप्त करके जब अगड़दत्त उज्जयिनी लौटा और राजा जीतशत्रु से मिला तथा अपना परिचय दिया तो राजा ने कहा—‘तुम्हारी शिक्षा हिंसाप्रधान है, इसमें कोई विशेषता नहीं है। सच्ची शिक्षा तो महाव्रतों का पालन ही है'।
इतने मैं जनपद के निवासियों ने आकर प्रार्थना की — ‘महाराज ! हम लोग एक चोर से बहुत दु:खी है ।हमें चोर के आतंक से मुक्ति कराइये ।’
इस पर अगड़दत्त ने चोर को पकड़ने का प्रण कर लिया ।उसने चोर को ठिकाने लगा दिया ।उसके गुप्त स्थान का पता लगाया ,जहां उसने चोरी का धन रखा था और पजा का कष्ट मिटाया ।
—वसुदेव हिंडी पीठिका धम्मिल हिंडी
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अरणिक मुनि
सच है—-उद्वेलित और अन्तर्व्यथित मन तनिक- सा प्रलोभन पाकर बहुत जल्दी फिसलता है।मुनिजी गृहवासी बन गये ।कंटकाकीर्ण संयम - पथ से आये हुए मुनी ने इस रूपसी की शीतल छाया में सुख की साँस ली।
उधर अरणिक की माता ‘ भद्रा’ साध्वी ने जब अरणिक मुनि को नहीं देखा तब पागल -सी बनी ‘ अरणिक-अरणिक ‘ की पुकार करती हुई तीन दिनों तक गली - गली में फिरती रही । तीसरे दिन क्रंदन करती हुई जब उस महल के नीचे से जाने लगी, जिस महल में अरणिक था,उसने माता का क्रंदन सुनकर बाहर झाँका।अपनी माँ की यह अवस्था देखकर सहसा नीचे उतर आया और माँ के पैरों में गिरकर बोला—‘ माँ ,धैर्य धरो,अरणिक यह रहा।’
अरणिक को देखकर माँ का मानस - पंकज खिलना ही था।माँ के शिक्षा -सूत्रों से अरणिक पुन: प्रबुद्ध हुआ।उस ऐयाशी से उदासी आ गई।पुन: संयम ले लिया।मन में आया- मेरी यह सुकुमारता ही मेरी साधना में बाधक बनी है।अत:अच्छा होगा इस सुकुमारता को ही छोडूँ ।यही सोचकर चिलचिलाती धूप में अपने आपको आतापना में झोंक दिया।यों कुछ समय तक आतप और तप से अपनी आत्म - शक्ति को प्रदीप्त करके कर्ममल का समूल नाश किया। अन्तत: केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जा विराजे।
—-आवश्यक कथा
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अरणिक मुनि
अरणिक ‘तगरा’नगर के सेठ ‘ दत्त ‘ के पुत्र थे।इनकी माता का नाम ‘ भद्रा ‘ था । एक बार मित्राचार्य नाम के धर्माचार्य से उपदेश सुनकर पिता, पुत्र और माता — तीनों ही दीक्षित हो गये । ‘ दत्त ‘ मुनि और ‘ अरणिक ‘ मुनि दोनों ही पिता - पुत्र साथ -साथ रहते थे। पिता का पुत्र के प्रति वात्सल्य सहज ही होता है ।भिक्षा के लिए भी पीता अरणिक मुनि को नहीं भेजते और अन्यान्य कार्य भी उनसे न करवाकर स्वयं कर लेते ।यों अरणिक मुनि का पालन पर्याप्त प्यार में हो रहा था। इस दुलार - भरे प्यार ने अरणिक मुनि को अधिक आराम - तलबी बना दिया ।कार्यजा शक्ति से आने वाली कष्ट-सहिष्णुता अरणिक मुनि में नहीं आ सकी ।
कुछ समय के बाद ‘ दत्त ‘ मुनि दिवंगत हो गये। अब अरणिक मुनि की भिक्षा लाने की बारी आयी । गर्मी की अधिकता , शारीर की सुकुमारता नया - नया प्रसंग पाकर अधिक खिन्नता पैदा करने वाली बन गई ।शरीर पसीने से तरबतर हो रहा है।ऊपर से सिर और नीचे से पैर बहूत बुरी तरह झुलस रहे हैं ।यों घर- घर में पर्यटन करते मुनि एक विशाल अट्टालिका के नीचे कुछ पलों के लिए विश्राम हेतु बैठे। उस विशाल अट्टालिका में रहने वाली गृहस्वामिनी अपने पति- वियोग से व्यथित थी।मुनि को देखते ही उन पर मुग्ध हो गई।दासी द्वारा मुनिश्री को ऊपर बुलवाया और अपने प्रेम- पाश में फँसाने लगी । अपने हाव - भाव दिखाकर भ्रू - विलास के साथ बोली—- ‘ मुनिवर! इस सुकोमल शरीर को यों बर्बरतापूर्वक तिलतिल जलाना कहाँ की समझदारी है ?यह बचकानापन सिखाने वाला कौन शिक्षा गुरू मिला ? आइये , यह चरण - चेटिका आपके श्रीचरणों में उपस्थित है ।यह वैभव , यह राजसी से ठाट-बाट आपके इंगित पर न्यौछावर हैं।मुनिश्री देखते ही रह गये।
—आवश्यक था
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अयवंती सुकुमाल
मुनिव्रत स्वीकार कर नलिनीगुल्म विमान में कैसे पहुँच सकूँ , बस इसी तड़प को लिये आचार्यश्री से प्रार्थना की —‘गुरुदेव ! में इस शरीर की कोमलता के कारण अधिक श्रमणाचार के कष्ट सह सकूँ, ऐसा नहीं लगता ।अत: मुझे अनशनपूर्वक साधना करने की आज्ञा दीजिए।।’
यों साग्रह अनशन स्वीकार करके निर्जन स्थान की ओर चल दिया। मुनि कंथारिका वन (कँटीली झाड़ियों) की ओर बढ़ गया ।मार्ग कंटीला था। जिस सुकुमाल ने भूमि पर कभी पैर भी नहीं रखा था,वही तीखे कांटों से भरी भूमि पर चलकर श्मशान भूमि में पहुँचा ।कायिक कष्टों की अवगणना कर वहाँ ध्यानस्थ हो गया । उस समय एक श्रृगालिनी अपने बच्चों के साथ वहाँ पहुँची और मुनिश्री के पैर चाटने लगी । पैरों से रक्त निकलने लगा।रक्त के साथ -साथ श्रृगालिनी और उसके बच्चों को माँस का स्वाद भी आने लगा ।फिर वह मुनिश्री के पैरों से माँस के टुकड़े तोड़ - तोड़कर खाने लगी ।पैरों के खाते ही मुनिश्री नीचे गिर गये।यह भी संयोग ही था कि वह श्रृगालिनी मुनि अयवंती सुकुमाल के किसी पूर्वजन्म की पत्नी थी।श्रृगालिनी ने सारा शरीर ही भक्षण कर लिया।
मुनि समता से मृत्यु को प्राप्त कर नलिनीगुल्म विमान में पैदा हो गये।यद्यपि गुरुदेव ने निष्काम तपस्या करने का आदेश दिया था, पर मुनिजी ने नलिनीगुल्म विमान पाने का संकल्प कर लिया था।
दुसरे दिन आचार्य के मुँह से ‘ भद्रा ‘ ने जब मुनिश्री की रोमांचक साधना का वर्णन सुना , तब वह संसार से उव्दिग्न हो उठी । भद्रा स्वयं और इकतीस पत्नियाँ दीक्षित हो गईं।केवल एक पत्नी साध्वी नहीं बनी , क्योंकि वह गर्भवती थी।उसके पुत्र पैदा हुआ।उस पुत्र ने अपने पितृ मुनि के प्रति भक्ति दिखाकर उसी स्थान पर एक प्रतिमा स्थापित की जो आगे चलकर महाकाल प्रासाद के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
— दशर्नशद्धि प्रकरण
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अयवंती सुकुमाल
इतिहास-प्रसिद्ध उज्जयिनी नगरी में ‘धन’ सेठ के यहाँ’भद्रा’
के उदर से एक पुत्र का जन्म हुआ।वह पहले स्वर्ग के निलिनीगुल्म विमान से आया।वह सौभागी तथा सुकोमल था।अत:इसका नाम रखा गया ‘अयवंती सुकुमाल’।
युवावस्था प्राप्त कर बत्तीस सुन्दरियों के साथ आमोद -प्रमोद में जीवन व्यतीत कर रहा था ।ठीक उसी समय ‘ आर्य सुहस्ति’नाम के धर्माचार्य उस नगरी में पधारे और ये अयवंती सुकुमाल के मोहलों के ठीक नीचे उसकी वाहनशाला में विराजे।
एक दिन आचार्यदेव पश्चिम रात्रि में स्वाध्याय में लीन होकर सस्वर नलिनीगुल्म विमान के अधिकार का स्वाध्याय कर रहे थे । ऊपर सातवीं मंज़िल में लेटे कुमार को आचार्यदेव का वह मृदु स्वर बहुत प्रिय लगा । कुछ देर बाद वह नीचे आया और पाठ सुनने लगा।उस वर्णन को सुनते -सुनते उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया ।अपने पूर्वजन्म को देखा तो पता लगा कि मैं उसी नलिनीगुल्म विमान से यहाँ आया हूँ ,जिसका वर्णन आचार्यदेव कर रहे हैं।’उसने विनयपूर्वक पूछा—‘ प्रभुो! क्या आप भी नलिनीगुल्म विमान से आये हैं ?’
बात का भेद खोलते हुए गुरुदेव ने कहा —‘ मैं वहाँ से नहीं आया हूँ अपितु उस प्रसंग का स्वाध्याय कर रहा हूँ।’
कुमार ने वहाँ पहुँचने का मर्म जानना चाहा।आर्य सुहस्ति ने धर्मोपदेश दिया ।उपदेश इतना प्रभावशाली था कि उसे लग गया ।माता -पिता , पत्नियों की आज्ञा लेकर मुनिव्रत स्वीकार कर लिया।
उदायन राजर्षि
उदायन सिंधु सौवीर देश का राजा था।वीतभयनगर उनकी राजधानी थी।राजा चेटक की पुत्री प्रभावती उनकी रानी थी।रानी परम श्रमणोपासिका थी, किन्तु राजा उदायन तापसधर्म का अनुयायी था।प्रभावती मृत्यु पाकर देवी बनी और उसने राजा उदायन को प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया।
एक बार राजा उदायन पौषधशाला में बैठा धर्म-चिंतन कर रहा था, तब उसके मन में ये विचार उठे—-यदि भगवान् महावीर वीतभय नगरी में पधारें तो मैं गृहस्थ - धर्म को त्यागकर मुनि-धर्म ग्रहण कर लूँगा।
भगवान् महावीर वीतभय नगरी पधारे ।राजा उदायन प्रतिबुद्ध हुआ।उसने अपने पुत्र अभीचिकुमार को राज्य न देकर, भान्जे केशी को राजसिंहासन पर बिठाया और श्रामणी दीक्षा ग्रहण कर ली ।
दीक्षित होकर राजर्षि उदायन दुष्कर तप करने लगे।उनका शरीर बहुत कृश हो गया।फिर भी उन्होंने तपस्या में कमी न आने दी।
एक बार बिहार करते हुए वे वीतभय नगरी पधारे ।केशी को उसके मंत्रियों ने भड़का दिया कि राजर्षि उदायन पुन:अपना राज्य छीनने आये हैं।केशी भड़क गया।उसने उदघोषणा करवा दी कि राजर्षि को कोई भी ठहरने का स्थान न दे।परिणामस्वरूप उन्हें नगर में कहीं भी स्थान न मिला।एक कुम्भकार ने साहस करके उन्हें ठहरने योग्य स्थान दे दिया।
केशी इतने पर भी चुप न हुआ।राजर्षि को मरवाने के लिए उसने अनेक बार विषमिश्रित भोजन दिया , लेकिन रानी प्रभावती ,जो देवी बनी थी, उसने उस भोजन को निर्विष कर दिया।
एक बार देवी कहीं दुसरे स्थान पर गई हुई थी। उसकी अनुपस्थित में राजर्षि के पात्र में विषमिश्रित आहार आ गया ।उसे खाने से राजर्षि के शरीर में विष फैल गया ।
राजर्षि ने अनशन किया, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे मुक्त हो गए ।
—(क) त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र १०,११
—- भगवती १३,६
—(ग)उत्तराध्ययन भावविजय गणी की टीका ,१८/५
—(घ) आवश्यकचूर्णि,उत्तरार्ध ,पत्र१६४
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अभयकुमार
एक बार ऐसा प्रसंग बना कि चेलणा ने उद्यान में एक मुनि को ध्यान में खड़े देखा।रात के समय राजा और रानी सोये हुए थे।सर्दी बहुत अधिक थी। रानी का हाथ कम्बल से बाहर रह गया और ठंड से ठिठुर गया। नींद में ही रानी के मुँह से निकला—-‘उसका क्या हाल होगा ?’ राजा चौंका और शंका का शिकार हो गया। राजा सोचने लगा—- हो न हो रानी किसी अन्य पुरुष पर मुग्ध है।उसकी चिन्ता के लिए ऐसा कह रही है उसका हाल क्या होगा ? राजा का मन फट गया और ‘अभय कुमार ‘ को प्रातः का आदेश दिया कि चेलणा के महल को जला दो। यों आदेश देकर श्रेणिक भगवान् का उपदेश सुनने चला गया।भगवान ने राजा के संशय को मिटाने के लिए प्रसंगवश कहा —-‘महाराज चेटक की सातों पुत्रियाँ सती हैं।यह सुनकर श्रेणिक चौंका और अपने किये पर अनुपात करने लगा।
उधर अभयकुमार ने बहुत ही चातुर्य से काम लिया और महारानी के महल के पास घास फूस की झोपड़ियाँ जलाकर प्रभु के दर्शनार्थ चल पड़ा । वह भी इसलिए की मुनित्व के आदेश प्राप्ति के लिए यही समय सर्वथा उपयुक्त है। उधर समवसरण से लौटते हुए श्रेणिक ने दूर से महलों से उठता धुआँ देखा तो विहल हो उठा और सामने से अभयकुमार आता हुआ मिला , तब श्रेणिक ने ग़ुस्से से कहा—-‘जा रे जा।’अभयकुमार को और क्या चाहिए था ? प्रभु के पास पहुंचकर सारी स्थिति कही और संयम धारण कर लिया।पाँच वर्ष तक संयम का पालन कर विविध तपस्याओं के द्वारा कर्मों के भार को हल्का किया।फिर आयुष्य पूर्ण कर विजय नामक अनुत्तर विमान में पैदा हुआ ।वहाँ से महाविदेह में मनुष्य बनकर संयम का पालन करके मोक्ष प्राप्त करेगा।
महाराजा श्रेणिक को अभयकुमार की दीक्षा से एक अमिट आघात लगा; क्योंकि वैसा बुद्धिमान मंत्री उसको मिलाना कठिन था ।
जैन परंपराओं में आज भी , दीपमालिका के दिन पूजन करते समय बहियों में लिखते हुए याचना की जाती है—‘अभयकुमार जैसी बुध्दि ।’
—धर्मपत्न प्रकरण
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
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अभयकुमार
‘अभयकुमार’ राजगृही के महाराजा ‘श्रेणिक’ की रानी ‘ नन्दा ‘ का पुत्र था ।महाराजा श्रेणिक ने अपने पाँच सौ प्रधानौं में अभय कुमार को मुखिया बनाया। अभयकुमार अपनी बुद्धिमत्ता ,निपुणता व कर्त्तृत्व के बल पर सारी जनता का प्रिय बन गया ।अनेक अपराधियों को अपने बुद्धि -कौशल से खोज -खोजकर उसने उन्हें उचित दण्ड दिलवाया और जनता को निश्चिंत बना दिया ।धरिणी ,चेलणा आदि विमाताओं के दोहद भी अपने तप और युक्ति से पूरे करके उन्हें सन्तुष्ट किया।
वैशाली नगरी के महाराजा ‘चेटक’ की यह प्रतिज्ञा थी कि वे अपनी किसी भी पुत्री की शादी किसी विधर्मी राजा के साथ नहीं करेंगे । महाराजा ‘श्रेणिक’ की इच्छा हुई कि मैं महाराजा ‘चेटक’की पुत्री ‘सुज्येष्ठा ‘ से शादी करुँ। सुज्येष्ठा भी महाराजा श्रेणिक के प्रति आकर्षित थी। इस चिन्ता को भी ‘अभयकुमार ‘ ने अपनी कुशलता से मिटाने का प्रयत्न किया और ‘सुज्येष्ठा ‘का हरण हो —-ऐसा साज -बाज बनाया। लेकिन एन वक़्त पर सुज्येष्ठा पीछे रह गई और उसके बदले उसकी छोटी बहन चेलणा का हरण हुआ और उसके साथ ही राजा का प्राणि-ग्रहण हुआ।
भगवान् महावीर का उपदेश सुनकर अभय कुमार संयम लेने को उत्सुक हुआ और पिता से आज्ञा चाही।महाराज श्रेणिक ने अभय कुमार को राज्य सौंपना चाहा ,पर अभय कुमार का आग्रह संयम के लिए ही रहा ।तब राजा ने कहा —- ‘जब मैं तुझे ‘ जा ‘कह दूँ , तब दीक्षा ले लेना।’
कहानी का अगला अंश अगली पोस्ट में ...... क्रमशः
— त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
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अर्हन्नक
जिस समय उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान् मल्लिनाथ मल्लिकुमारी के रूप में अपने पिता मिथिलापति कुम्भ राजा के यहाँ राजमहल में रहते थे, उसी समय चम्पानगरी का रहने वाला ऋध्दिसम्पन्न एक धनी श्रेष्ठी का पुत्र था अर्हन्नक ।अर्हन्नक स्वयं भी अच्छा तत्वज्ञ था। वह जीवाजीव का ज्ञाता और दृढ़ सम्यक्त्वी था ।केवली - प्ररूपित आर्हंत धर्म पर उसकी अचल श्रध्दा थी।
एक बार व्यापार के निमित्त उसने लवण समुद्र की यात्रा की। लवण समुद्र में जाते-जाते अकस्मात् एक बहुत भयंकर तुफान आया। तुफान आने का कारण था एक मिथ्यात्वी देव का कुपित होना। जहाज़ वालों का भयभीत होना सहज था पर ‘अर्हन्नक’ अविचल रहा । देवकृत उपसर्ग समझ जहाज में एक ओर बैठकर सागारी अनशन लेकर वह धर्मध्यान में लीन हो गया ।
उस देव ने विकराल पिशाच का रूप बनाया ।अट्टहास करता हुआ अपने रौद्र रूप में ‘’अर्हन्नक’ को सम्बोधित करके बोला—‘रे अधम ! तू अपने यमनियमों को तिलांजलि दे दें , अन्यथा तुझे मारकर समाप्त करता हूँ और तेरे साथ ही तेरी सारी सम्पत्ति को भी नष्ट कर दूँगा ।’ यों दो -तीन बार देव के धमकी देन पर भी अर्हन्नक यही सोचकर अचल रहा कि नश्वर तन , धन, परिजनों के लिए मैं अपना अविनश्वर धर्म नहीं छोड़ सकता ।
उसे मौन देखकर पिशाच कुपित हुआ। उस विशाल जहाज़ को अधर आकाश में उठाकर ले गया और बोला —‘अब मैं तेरे इस जहाज़ को समुद्र में फेकता हूँ। बोल , अब क्या कहता है? ‘ पर अर्हन्नक के एक रोम में भी भय या कमजोरी नहीं थी। देव ने अपने ज्ञान से उसके धैर्य को देखा और हैरान रहा ।अपनी पराजय मानकर जहाज़ को सुरक्षित स्थान पर ला दिया। अर्हन्नक की सराहना करते हुए अपने अपराध की क्षमा -याचना की । देव- दर्शन अमोघ होते हैं —यही सोचकर अपनी ओर से दो दिव्य - कुण्डल युगल अर्हन्न्नक को भेंट किये ओर अपने स्थान को चला गया ।
अर्हन्नक ने इस कुण्डल- युगलों में एक कुण्डल-युगल मल्लिकुमारी को भेंट किया तथा श्रावकधर्म का पालन कर स्वर्ग में गया ।
——ज्ञाता सुत्र ८
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अरनाथ भगवान
अरनाथ प्रभु की माता ने चौदाह स्वप्नों के अतिरिक्त चक्र के आरे भी देखे थे ।अत:अपने पुत्र का नाम रखा -अरनाथ ।युवावस्था में आरनाथ ने अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया।जब आयुधशाला में चक्र - रत्न पैदा हुआ, तब छ: खण्डों के शास्ता बनकर चक्रवर्ती बने।इक्कीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती पद पर रहे । बाद में वर्षी-दान देकर दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान का उपार्जन करके तीर्थ की स्थापना की —तीर्थंकर बने ।एक महीने के अनशन के पश्चात् एक हज़ार साधुओं के साथ सम्मेद शिखर पर मोक्ष पधारे।यों एक ही जन्म में कर्म - चक्रवर्ती (सातवें) और धर्म - चक्रवर्ती (अठारहवें) के गौरवशाली पद का उपभोग किया।
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
अभिनन्दन भगवान
अभिनन्दन प्रभु इस चौबीसी के चौथे तीर्थंकर हैं।यह जयंत नामक तीसरे अनुत्तर विमान से आये थे ।प्रभु के गर्भ में आते ही सबका अभिनन्दन हुआ , सबको आनन्द हुआ ,इसीलिए प्रभु का नाम भी अभिनन्दन रखा गया ।युवावस्था में अनेक रानियों के साथ प्रभु का पाणिग्रहण संस्कार हुआ ।बहुत लम्बे समय तक राज्य का आप परिपालन कर प्रभु ने दीक्षा स्वीकार की । १८ वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहे ।पौष सुदी १४ को केवलज्ञान प्राप्त किया।आयु के अन्त में एक मासिक अनशन पूर्ण कर एक हजार साधुओं के साथ सम्मेद-शिखर पर्वत पर प्रभु का परिनिर्वाण हुआ।
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
अनन्तनाथ भगवान
भगवान् ‘अनन्तनाथ’अयोध्या नगरी के महाराज सिंहसेन के पुत्र थे।महारानी ‘सुयशा’के उदर में श्रावण बदी ७के दिन प्राणत(दसवाँ )देवलोक से आये।वैशाख बदी १३ को प्रभु का जन्म हुआ ।जिस समय पुत्र का जन्म हुआ,उस समय अयोध्या नगरी शत्रुओं से घिरी हुई थी।उस अमित बल वाली शत्रु -सेना को ‘सिंहसेन’ने सहज में हरा दिया ।महाराजा ने इस अप्रत्याशित विजय की श्रेय का हेतु अपने नवजात शिशु को माना ।इसलिए पुत्र का नाम रखा ‘अनन्तजित ‘।पिता को संतुष्ट करने के लिए युवावस्था में कुमार अनन्तजित ने विवाह भी किया और राजसिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन भी किया।
वर्षीदान कर एक हजार राजाओं के साथ वैशाख बदी १४ को संयम स्वीकार किया।तीन वर्ष तक छद्मस्थ रहकर वैशाख बदी १४ को कैवल्य प्राप्त किया ।अन्त में सम्मेद शिखर पर एक मास के अनशन में सात हजार साधुओं के साथ चैत्र सुदी ५ को मोक्ष पधारे।
अनन्तनाथ जैन परम्परा के चोदहवें तीर्थंकर थे।
— त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
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अजितनाथ भगवान
अजितनाथ भगवान वर्तमान चौबीसी के दूसरे तीर्थंकर हैं ।ये विनीता नगरी के महाराज ‘जितशत्रु’ के पुत्र थे ।आप महारानी ‘विजया देवी ‘के गर्भ में विजय नामक दूसरे अनुत्तर विमान से च्यवकर वैशाख सुदी १३ को आये।माता ने चौदह स्वप्न देखे।माघ सुदी ८ को प्रभु का जन्म हुआ ।जब प्रभु गर्भ में थे , तब सारि - पासा के खेल में महाराज से महारानी पराजित नहीं हो सकी ।महाराजा हैरान रहे ।महाराजा ने महारानी के अजित रहने का कारण गर्भस्थ शिशु का प्रभाव माना ,अत: पुत्र का नाम भी ‘अजित’रख दिया ।अजितनाथ १८ लाख पूर्व २ तक कुमार पद पर रहे , ५३ लाख पूर्व और एक पूर्वाग३ के समय तक राज्य किया।इसके उपरान्त अपने चाचा सुमित्रविजय के पुत्र ‘सगर’को राज्य देकर मुनित्व स्वीकार किया ।सगर दूसरा चक्रवती बना ।अजितनाथ प्रभु ने १२ वर्ष छदमस्थ रहकर तपश्चरण किया और फिर केवलज्ञान प्राप्त किया।
आपकी दीक्षा पर्याय १ पूर्वांग एक लाख पूर्व की रही ।इस प्रकार आपकी संपूर्ण आयु ७२ लाख पूर्व की थी।आयु का अन्तिम समय जानकार 1 हज़ार साधुओं के साथ एक महीने के अनशन में चैत्र सुदी ५ को मोक्ष पधारे।स्मरण रहे आपके शासन काल में सभी बातें उत्कृष्ट थी।
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चिरित्र, पर्व २
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जयन्ती श्रविका
‘जयन्ती’श्रमणोपासिका ‘कौशाम्बी ‘ नगरी के महाराज ‘शतानीक’की बहन तथा महाराजा ‘उदयन’ की बुआ।वह भगवान महावीर के साधुओं की प्रथम शय्यातर तथा तत्त्व की मर्मज्ञा थी।जैन इतिहास में जिज्ञासामूलक प्रश्न करने वाली स्त्रियों में ‘जयन्ती’का प्रमुख स्थान है।
एक बार भगवान महावीर ‘कौशाम्बी’ पधारे।’जयन्ती ‘प्रभु के समवसरण में पहुँची ।अपने मन की जिज्ञासाएं प्रभु के सामने रखते हुए विनम्र भाव से उन सबका समाधान चाहा ।प्रश्न बहुत उपयोगी तथा पैने थे । जयन्ती—जीव भारी कैसे होता है ?
भगवान महावीर —प्रणातिपात आदि पापस्थानों में प्रवृति करने के कारण ।
जयन्ती—जीव हल्का कैसे होता है ?
भगवान महावीर— पापस्थानों से विरमण होने से।
जयन्ती—जीव दुर्बल,आलसी व प्रसुप्त अच्छे हैं या बलवान ,
उद्यमी व जागृत अच्छे हैं ?
भगवान महावीर -जो व्यक्ति अधर्मनिष्ठ है ,वे दुर्बल ,आलसी और प्रसुप्त अच्छे हैं तथा जो व्यक्ति धर्मनिष्ठ है ,वे बलवान् उद्यमी तथा जागृत अच्छे हैं ।
जयन्ती— जीव भवि स्वभाव से होते हैं या परिणाम से ?
भगवान महावीर —स्वभाव से होता है।अभवि का भवि या भवि का अभवि रूप में कभी परिणमन नहीं हो सकता ।
जयन्ती ने अनेकानेक ऐसे प्रश्न किए ,जिन्हें सुनकर सारे लोग चमत्कृत हो उठे । उस समय तो वह अपने मोहलों में चली गई ।कुछ समय के बाद भगवान महावीर के पास दीक्षित होकर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में पहुँची ।
—भगवती १२/२
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
नंदिनीपिता(श्रमणोंपासक)
‘नंदिनीपिता ‘’सावत्थी ‘नगरी में रहने वाला एक रिद्धि सम्पन्न गाथापति था ।उसके ‘ अश्विनी नाम की एक सुशील और गुणवती पत्नी थी।’नन्दिनी पिता’ के पास बारह कोटि सोनैये तथा दस-दस हज़ार गायों के चार गोकुल थे । भगवान् महावीर का वहाँ पदार्पण हुआ । ‘नंदिनीपिता’ ने प्रबुद्ध होकर श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए । पन्द्रह वर्ष तक श्रावक व्रतों का निरतिचार पालन करके अपने जेष्ठ पुत्र को घर का भार सौंप स्वयं सांसारिक कार्यों से अलग हो गए हो गया। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ धारण करके सभी तरह से आत्माभिमुख़ होकार जीवन यापन करने लगा ।अंतिम प्रतिमा में जब उसे अपना तन क्षीणप्राय लगने लगा ,तब वर्धमान भावों से अनशन स्वीकार कर लिया ।उसे एक महीने का अनशन आया। अंत में अनशनपूर्वक समाधिमरण प्राप्त करके प्रथम स्वर्ग के अरुणाभ विमान में पैदा हुआ । वहाँ से महाविदेह में होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा।
*उपासकदशा ,अध्ययन ९*
नन्दन बलभद्र
नन्दन बलभद्र वाराणसी नगरी के राजा अग्निसिंह के पुत्र थे । राजा अग्निसिंह के दो रानियाँ थीं—जयंती और शेषवती ।रानी जयंती ने चार उत्कृष्ट सपना देखकर गर्भधारण किया ।वे स्वप्न बलभद्र के उत्पन्न होने के सूचक थे ।रानी जयंती के गर्भ में पांचवें स्वर्ग से च्यवकर मुनि वसुंधर का जीव आया।
नंदन बलभद्र ही पूर्वभव मैं वसुंधर थे ।वसुंधर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र की सूसीमा नगरी का राजा था ।उसने मुनी सुधर्म से संयम लिया और निरतिचार संयम का पालन कर आयु पूर्ण की और ब्रम्हदेवलोक में देव बने ।वहाँ से च्यवकर रानी जयंती के गर्भ में आए।
यथासमय पुत्र का जन्म हुआ और उनका नाम नंदन रखा गया ।योग्य समय पर नंदन 72 कलाओं में निष्णात हो गए ।
इनके छोटे भाई ,जो रानी शेषवती के अंगजात थे ,उनका नाम था दत्त, जो दत्त वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
नंदन ने अपने छोटे भाई दत्त वासुदेव के साथ मिलकर प्रति वासुदेव प्रहार के साथ युद्ध किया ।
छोटे भाई दत्त की मृत्यु के बाद कुछ दिनों तक तो ये मोहग्रस्त होने के कारण विवेकशून्य बने रहे और फिर शोक़ कम होने पर इन्होंने दीक्षा ले ली ।अनेक प्रकार के तप करके केवलज्ञान का उपार्जन किया और आयु पूर्ण होने पर मोक्ष पद प्राप्त किया ।इनकी कुल आयु ६५००० वर्ष की थी ।
— त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र ,पर्व ६/५
नारद मुनि
वासुदेव ,प्रतिवासुदेव की भाँति नारद भी एक पद है ।वे भी नौ होते हैं ।प्रत्येक वासुदेव के समय मैं एक नारद होता है ।इनके नाम हैं —भीम ,माहाभीम ,रुद्रा ,माहारुद्रा ,काल ,महाकाल ,चतुर्मुख ,नवमुख और उन्मुख ।इनमें से कई स्वर्ग गए हैं और कई मोक्ष गए हैं ।
नारद बाबा पहुँचे हुए होते हैं एक दूसरे को उकसाने में ,परस्पर कलह लगाने में यह सिद्धहस्त होते हैं ।तापस की-सी वेशभूषा होती हैं इनकी ।ब्रह्मचर्य के पक्के होते हैं तथा सत्यवादी भी होते हैं । इसलिए इनकी सब स्थानों में अप्रतिहार गति —बेरोक - टोक सब जगह जा सकते हैं ।
प्रमुख रूप में एक नारद वे थे ,जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के इस समय ‘कौशल्या’आदि माताओं को सांत्वना देने के लिए लंका में जाकर ‘श्रीराम ‘को अयोध्या लौट आने के लिए कहा था तथा राम - लवकुश-युद्ध में हताश बने ‘राम ‘की और ‘लक्ष्मण ‘को सारी बात का भेद बताया ।दूसरे नारद वे थे ,जिन्होंने पांण्डवों के महलों में द्रौपदी के द्वारा समुचित सम्मान न पाकर द्रौपदी का हरण पद्मनाभ के द्वारा कराया तथा सत्यभामा के द्वारा अपमानित होकर रुक्मणी की खोज करके श्रीकृष्ण के साथ पाणिग्रहण करकर ‘भामा’ का मान भंग किया ।इनका नाम कच्छुल नारद भी था ।वे वहाँ से स्वर्ग गए और वहाँ से एक भवावतारी होकर मोक्ष जाएंगे।
—-*आवश्यक कथा*
चण्डकौशिक
एक बार गुरू -शिष्य दोनों एक गाँव से दूसरे गाँव को जा रहे थे।मार्ग में गुरूजी के पेर से एक मृत मेंढक के कलेवर का स्पर्श हो गया । शिष्य ने सचेत किया ।”वह तो मारा हुआ ही था “—- गुरू ने शान्त स्वर में शिष्य से कहा।
स्वस्थान पर आकार शिष्य ने फिर उस पाप का प्रायश्चित करने के लिए कहा। गुरुजी मौन रहे ।शिष्य ने सोचा —यह मेरी ही गलती है ,मुझे अभी न कहकर सांध्य प्रतिक्रमण के समय कहना चाहिए । प्रतिक्रमण के समय फिर कहा,तब गुरुजी ग़ुस्से से आग - बबूला हो उठे। गुस्से में तमतमाते हुए बोलने लगे —-मेंढक कहते -कहते मेरे पीछे ही पड़ गया । लें , मैं तुझे अभी बता दूँ कि मेंढक कैसे मरता है ? यों कहकर शिष्य को मारने दौड़े।शिष्य तो इधर -उधर छिप गया , अँधेरा अधिक था, अत:स्तम्भ से टक्कर खाकर गुरूजी वहीं गिर पड़े । चोट गहरी आयी , तत्काल प्राण -पखेरू उड़ गए ।मरकर चण्डकौशिक सर्प बने।सर्प भी इतने भयंकर थे जिसकी दाढ. में उग्र जहर था।यह चण्डकौशिक वही है जिसने भगवान महावीर के डंक लगाए थे और वहीं पर भगवान के संबोधन से जातिस्मरणज्ञान करके अनशन स्वीकार कर लिया और मरकर देवयोनि में पैदा हुआ।
—महावीर चरियं
—आवश्यक कथा
—आवश्यक चूर्णि
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र,पर्व १०/१२
जय चक्रवर्ती
इक्कीसवें तीर्थंकर श्री ‘नेमिनाथ ‘ के शासनकाल में गयारहवाँ चक्रवर्ती हुआ , जिसका नाम था ‘जय’।
चक्रवर्ती जय राजगृही के महाराजा विजय के पुत्र थे ।इनकी माता का नाम ‘विप्रा’था।चौदह स्वप्नों से सूचित पुत्र होने से चक्रवर्ती होगा,ऐसा सबका अनुमान था ।
पिता के बाद ये राजगद्दी पर बैठे ।जब आयुधशाला में चक्र उत्पन्न हो गया , तब छह :खंडों पर इन्होंने अपना आधिपत्य जमाया ।अंत में तीन हजार वर्ष का सर्वायु भोगकर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष में विराजमान हुए।
—त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र, पर्व ७**
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |
चेटक
महाराज चेटक वैशाली के एक कुशल शास्ता थे । वैशाली गणतंत्र में ९ मल्ली ,९ लिच्छवी जाति के १८ राजा थे । उन सबके प्रमुख थे महाराज ‘ चेटक’।भगवान महावीर के ये मामा थे ।यह केवल जैनधर्मी ही नहीं , अपितु बारह व्रतधारी श्रावक भी थे । उन्हें अनेक राजाओं के साथ युद्ध में उतारना पड़ा । इनका संकल्प था कि नीरपराधी पर ये प्रहार नहीं करते थे तथा एक दिन में एक बार ही एक बाण छोड़ते ।इनका निशाना अचूक रहता।कूणिक के साथ किये गये महाभयंकर युद्ध में कालीककुमार आदि दस भाइयों को इन्होंने प्रतिदिन एक बाण छोड़कर दस दिन में समाप्त कर दिया था। इतिहासप्रसिद्ध चेटक - कूणिक युद्ध को देवेंद्रो की सहायता से कूणिक ने जीत लिया । वहाँ इन्हें विजित होना पड़ा । फिर भी अपनी नितमत्ता से पीछे नहीं हटे। विरक्त होकर इन्होंने समाधिमरण किया और बारहवें स्वर्ग में गये ।
महाराजा चेटक के सात पुत्रियां थी।
(१) प्रभावती (२) पद्मावती
(३) मृगावती (४)ज्येष्ठा
(५) शिवा (६) सुज्येष्ठा— साध्वी बनी।(७) चेलना
——आवश्यक कथा
गर्दभाली मुनि
‘ गर्दभाली ‘ मुनि एक महान् समर्थ आचार्य थे । एक बार वे पांचाल देश के ‘ कांपिलपुर ‘ नगर के ‘ केशर ‘ नाम के उधान में ध्यानस्थ खड़े थे। इतने में संयती’ राजावहाँ शिकार करने आया।मूनि झाड़ी की ओट में खड़े थे।दूर से राजा ने एक हरिण पर बाण छोड़ा। बाण ने हरिण को बींध डाला ।तड़पता हुआ हरिण ध्यानस्थ ‘ गर्दभाली ‘ की गोद में आ गिरा।
संयती राजा ने जब हरिण को मुनि की गोद में छटपटाता देखा, तब राजा यह सोचकर भयभीत हो उठा—- हो न हों यह हरिण इन महामुनि का है।मैंने अनर्थ कर डाला । मुनिवर के हरिण को मार डाला ।अवश्य मुनिवर मुझ पर कुपित होंगे और मुझे श्राप देकर भस्म कर देंगे । इस प्रकार भय से काँपता हुआ संयती राजा मुनि के पैरों में आ गिरा । अपने अपराध की क्षमायाचना करता हुआ बोला —- “ मैंने अनजान में आपके इस हरिण का वध कर दिया , आप मुझे क्षमा कर दें । संत लोग सहज क्षमाशील होते हैं।”
यों पुनः पुनः वन्दना करता हुआ , क्षमा माँगता हुआ संयती राजा मुनि के प्रति भक्ति दिखाने लगा ।
मुन्नी ने ध्यान समाप्त किया घबराते हुए राजा को आश्वस्त करते हुए बोले—— ‘राजन् ! घबराओ मत ! मैं तुम्हें अभय देता हूँ और मैं चाहूंगा तुम भी इस मुख निरीह पशुओं को अभय दो ।सभी प्राणी सुख चाहते है, दु:ख कोई नहीं चाहता । जैसे तुम्हें अपने प्राण प्रिय हैं, वैसे ही सभी को अपने प्राण प्रिय हैं । तनिक से जिह्वा के स्वाद के लिए यों पशुओं का हत्यारा बन जाना कहाँ तक समुचित है ?
मुनि के शांत-प्रशान्त उपदेश से संयती राजा प्रबुद्ध हुआ।गर्दभाली मुनि के पास संयम स्वीकार किया
गर्दभाली मुनि भी चरित्र की उत्कृष्ट अाराधना करके मोक्ष पधारे
——-*उत्तराध्ययन सुत्र’ अध्ययन१८*
गर्गाचार्य
गर्गाचार्य एक ऋध्दिसम्पन्न उत्कृष्टचार्य आचार्य थे ।उनकी शिष्य परम्परा में 500 सौ शिष्य थे ।परंतु संयोग की बात थी की सभी शिष्य अविनीत , उच्छृंखल और असमाधिकारक थे ।
एक बार ऐसा प्रसंग आया कि गर्गाचर्य अस्वस्थ हो गए ।किसी भी कार्य के लिए किसी शिष्य कों कहाँ जाता तो सब टालमटोल कर देते ।कोई कहता —- वहाँ कोई मिलता ही नहीं है ।कोई कहता — आप मुझे ही कहते हैं , इतने और बैठे हैं , इनसे तो आप कुछ कहते ही नहीं हैं।गर्गाचार्य की असमाधि प्रतिदिन बढ़ने लगी ।गर्गाचार्य ने सोचा — ऐसे कूशिष्यों से क्या भला होने वाला है ? साहस करके सभी शिष्यों का परित्याग करके एकल विहारी बन गए ।पूर्णतः समाधिस्थ होकर क्षपकश्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध -बुद्ध- मुक्त बने ।
—-उत्तराध्ययनसूत्रवृत्ति ,अध्ययन २६
आनन्द (बलदेव)
दक्षिण भरतक्षेत्र में चक्रपुर नाम का एक समृद्धि - सम्पन्न नगर था । वहाँ राजा बुद्धि , कला और प्रतिभा में अपने समकालीन राजाओं में अग्रगण्य था। उनकी दो रानियाँ थी — एक वैजयंती और दूसरी लक्ष्मीवती।रानी वैजयंती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया ,उसका नाम आनन्द रखा गया।
आनन्द छठे बलदेव थे और वे छठे वासुदेव पुरूष पुंडरीक के बड़े भाई थे ।इन्होंने अपने छोटे भाई पुरूष पुंडरीक के साथ प्रतिवासुदेव बलि से युद्ध किया ।इसके बाद इन्होंने छोटे भाई पुरूष पुंडरीक वासुदेव के साथ विजय -यात्रा की।
बाद में जब इनके छोटे भाई पुरूष पुंडरीक का देहांत हो गया तो इन्हें बहुत दु:ख हुआ।छह महीने तक ये मोहग्रस्त होकर शोकाभिभूत रहे, इन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही ,विवेक लुप्त हो गया।
तत्पश्चात् जब इनका शोकावेग कम हुआ तो इन्होंने तीर्थंकर अरनाथ के शासन में दीक्षा ग्रहण कर ली।इन्होंने घोर तप किया और केवलज्ञान का उपार्जन करके निर्वाण पद प्राप्त किया।
इनका कुल आयुष्य ८५ हजार वर्ष का था ।
——त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
इक्षुकार-कमलावती
राजा ‘इक्षुकार’ इक्षुकार नगर का स्वामी था। उसकी रानी का नाम ‘कमलावती’ था ।महाराजा के पुरोहित का नाम था ‘भृगु’और उसकी पत्नी का नाम था ‘यशा’। पुरोहित के दो पुत्र भी थे ।पुनर्जन्म मैं ये छाहों प्राणी प्रथम स्वर्ग के ‘नलिनीगुल्म ‘ विमान में थे ।वहाँ से च्यवकर ये सभी यहाँ पैदा हुए थे ।
महाराजा इक्षुकार अपने पुरोहित भृगु को समय-समय पर विविध प्रकार का धन दान दिया करते थे ।पुरोहित सर्वविधि संपन्न था। अपने दोनों पुत्रों के हृदय में वैराग्य जग जाने से माता-पिता भी संयमी बनने को तैयार हुए। पीछे वंश में कोई भी न होने से पुरोहित के घर का सारा धन गाड़ियों के द्वारा राजा भंडार में जाने लगा। राजमहल के झरोखे में बैठी महारानी को यह सब देखकर बहूत आश्चर्य हुआ और महाराज से कहा —‘पतिदेव यह क्या ? क्या कभी दिया हुआ दान भी वापस लिया जा सकता है ? इस धन को लेना तो मानो वमन किए भोजन को पुनः खाना है । हृदयसम्राट ! पुरोहित और उसके पुत्रों ने दु:ख, शौक़-चिंता और अनर्थ का मूल समझकर जिस धर से अपना मुँह मोड़ लिया, आप उसी से जोड़ रहे हैं ।यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? पुरोहित और उसका सारा परिवार नश्वर था तो हम अपना अनश्वर है ? हमें क्या अमर रहना है ?
रानी के इस कथन से राजा प्रतिबद्ध हुआ । राजा और रानी भी पुरोहित के साथ ही संयमी बन गए । मुनि जीवन की उत्कृष्ट अराधना करके इक्षुकार राजा मोक्ष गया ।
——**उत्तराध्ययन, १४ *
अभीचिकुमार
अभीचिकुमार वितभय नगरी के राजा उदायन का पुत्र था वितभय नगरी सिंधु - सौवीर देश की राजधानी थी । राजा उदायन भगवान महावीर के उपदेश से प्रतिबुद्ध हो गया । उसने दीक्षा ग्रहण करने से पहले सोचा कि राज्य करना तो पाप का कारण है , साथ ही शासक में दृढ़ता तथा उचित मात्रा में कठोरता भी होनाी चाहिए । अभीचिकुमार सरल और कोमल हृदय वाला है । वह शासन को सही ढंग से नहीं संभाल सकता , इसलिए उसने अपने भांजे को केशी को सिंहासन दिया , अभीचिकुमार को नहीं दिया।
अभीचिकुमार ने अपने पिता की इस भावना को नहीं समझा । अपना अधिकार यानी राज्यसिंहासन न मिलने से वह बड़ा निराश हुआ । उसे पिता पर क्रोध भी आया , किंतु वह अपने क्रोध को प्रकट न कर सका । केशी के अधीन रहना उसे अपना अपमान लगा । इसलिए उसने वितभय नगरी छोड़ दी । वहाँ से वह राजगृही आ गया ।
राजगृही में उस समय श्रेणिक का पुत्र कूणिक राज्य कर रहा था । कूणिक उसकी मौसी का पुत्र यानी उसका भाई था , क्योंकि कूणिक की माता चेलना और उसकी मातापद्मावती दोनों बहनें थी।
अभीचिकुमार राजगृही में रहने लगा । वहाँ उसका सम्पर्क जैन - मुनियों से हुआ । मुनियों के प्रभाव से उसने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये और श्रावकधर्म का पालन करने लगा ।
आयु के अंत समय में उसने पन्द्रह दिन का अनशन किया । लेकिन अपने हृदय से पिता के प्रति रोष को न निकाल सका , इस दोष की उसने आलोचना भी नहीं की ; और मन में पिता के प्रति क्रोध लिए हुए ही उसने कालधर्म प्राप्त कर लिया । श्रावकव्रतों को पालने के कारण उसे देवगति प्राप्त हुई ।
देवगति से च्यवकर वह महाविदेह में उत्पन्न होगा और वहाँ से अपने इस पूर्वकृत्य अर्थात पिता के प्रति रोष की आलोचना करेगा तथा संयम की अराधना करके मुक्त होगा।
—- त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र पर्व , १०
अभग्गसेन चोर
पुरिमताल नगर में ‘ महाबल ‘ नाम का राजा था। उस नगर से थोड़ी दूर पर एक चोर पल्ली थी। गुफ़ाओं और पर्वतों के बीच में आ जाने से वह स्थान अत्यधिक भयावह हो गया था। उस चोर पल्ली का मुखिया विजय चोर ५०० चोरों का स्वामी था ।
वह महा अधर्मी था। लोगों को लूटना और नृशंसता से गाँवों को जलाना आदि उसका प्रतिदिन का कार्य था । उसके पुत्र का नाम था अभग्गसेन ‘ जो क्रूरता में अपने पिता से भी बहुत बढ़ - चढ़कर था ।’ अभग्गसेन ‘ पूरिमताल की प्रजा को बहुत पीड़ित कर रहा था। पूरीमतालवासियों ने अपने महाराज ‘ महाबल ‘ के सामने सारा दुखड़ा रोया ।राजा ने भी ‘ अभग्गसेन ‘ को पकड़ने के बहुत प्रयत्न किये , पर उसके सभी प्रयत्न निष्फल रहे ।अन्त में राजा ने एक युक्ति निकाली। दस दिन का महोत्सव मनाने की घोषणा की और उसमें अभग्गसेन को भी अपने साथियों सहित आमंत्रित किया । राजा ने अवसर पाकर उन सब को मध और और मांस खिलाकर बेजान बना दिया । यों बेहोशी में उन्हें पकड़ लिया और शहर में घुमाकर शुली पर चढ़ाने का दंड दे दिया।
उधर से भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी भिक्षार्थ जा रहे थे ।उसे यों वध - स्थल की ओर जाते हुए देखकर मन में खिन्न हुए । भगवान महावीर के पास आकर उन्होंने पूछा—— ‘ भंते ! इस अभग्गसेन चोर ने क्या पाप किए थे , जिसके कारण यह शूली पर लटकाया जा रहा है ?’ प्रभू ने कहा —‘ गौतम ! पूर्वभव में यह इसी नगरी में निन्हव नामका वणिक था । अंडों का बहुत बड़ा व्यापारी था । अंडों को सेंककर व तलकर ख़ुद भी खाता और दूसरों को भी खिलाता था । एक हज़ार वर्ष की आयु पूर्ण कर उस क्रूर के कारण तीसरी नरक में गया । वहाँ से निकलकर यह अभग्गसेन चोर हुआ है। यहाँ भी इसके घृणित कायौ से राजा ने इसकी यह दशा की है । अधिक क्या ? आज तीसरे प्रहर में अपनी २७ वर्ष की आयु में मारकर यह प्रथम नरक में जायेगा । वहाँ से निकलकर अनेक भावों में भ्रमण करता हुआ अंत में वाराणासी नगरी में एक सेठ के यहाँ जन्म लेगा और वहाँ संयम का पालन कर मोक्ष में जाएगा ।’
——- वीपाकसूत्र ३
अंबड संन्यासी
अंबड नाम का एक संन्यासी था।वह बेले (२ दिन ) का व्रत करता था।संन्यासी होते हुए भी श्रावक के बारह व्रतों का पालन करता। तप के बल से उसे वैक्रियलब्धि, अवधिज्ञान-लब्धि तथा सौ घरों का भोजन पचा सके,ऐसी लब्धि प्राप्त हो गई थी। वह अपनी वैक्रियलब्धि से एक ही समय में १०० घरों का भोजन प्राप्त कर सकता था और अलग - अलग सौ स्थानों पर एक ही समय में दिखाई दे सकता था। उसके तपोजन्य ऋद्धि प्रभाव से आकर्षित होकर उसके सात सौ शिष्य बन गये ।
एक बार अंबड अपने सात सौ शिष्यों के साथ गंगा नदी पार करके कंपिलपुर नगर से पुरिमताल नगर जाने के लिए चल पडा़। गर्मी अधिक थी ।सभी रास्ता भूलकर भयंकर जंगल में जा पहुँचे । पास में जो पानी था , वह समाप्त हो गया । सभी प्यास से व्याकुल हो उठे।यधपि गंगा नदी पास में बह रही थी , वे सचित जल भी पी सकते थे , पर कोई वस्तु वे तब ही लेते थे जब कोई उन्हें आज्ञा देने वाला हो अर्थात वे आद्त्त वस्तु नहीं ले सकते थे।आज जंगल में पानी लेने की आज्ञा देने वाला कोई नज़र नहीं आ रहा था।कुछ देर तो इधर-उधर देखते रहे , जब कोई आता नज़र नहीं आया तो वे सारे प्याज़ से व्याकुल हो बैठे । प्राण - पखेरू शीघ्र ही उड़ जाएंगे , ऐसा लग रहा था। तब सभी ने उस नदी के रेत में भी बिछाना बिछाकर भगवान महावीर की वन्दना की और अनशन स्वीकार कर लिया । मन-ही-मन अपने पूर्वकृत्यों की आलोचना की और संथारा ग्रहण कर लिया । थोड़े ही समय में सब-के- सब कालधर्म को प्राप्त होकर पंचम स्वर्ग में पैदा हुए।अंबड भी पांचवें स्वर्ग में पैदा हुआ।वहाँ से महाविदेहक्षेत्र में उत्पन्न होकर मुक्त होगा ।
—— औपपातिक सूत्र
अनाथीमुनि
अनाथी कौशाम्बी नगरी के ‘ धन-संचय ‘ नामक सेठ के पुत्र थे ।इनका नाम ‘ गुणसुन्दर ‘ था ।माता-पिता के लाड़-प्यार में पोषित कुमार का युवावस्था में अनेक सुन्दर नवयुवतियों के साथ विवाह किया गया ।सम्पन्न परिवार था , घर में धन के अम्बार थे । सभी प्रकार के सुख का संचार था , फिर भी पूर्वजन्म के दुष्कर्मों के कारण कुमार की आँखों में वेदना शुरू हो गई ।वेदना इतनी भयंकर थी कि उसने सारे शरीर पर अपना अधिकार जमा लिया । क्षण- भर का चैन भी कुमार को नहीं मिल रहा था ।अभिभावकों ने पैसे को पानी की तरह बहाया , वैद्यों से चिकित्सा करवाई परन्तु ‘ज्यों ज्यों’ दवा की ,मर्ज़ बढ़ता ही गया’ सारे उपचार बेकार सिद्ध हुए कुमार अपने आपको आनाथ आसाह्य मानने लगा ।उसी मर्मान्तक वेदना में चिंतन करते- करते अनाथी ने संकल्प किया - ‘यदि मेरी वेदना मिट जाने जाए तो में प्रातः काल साधु बन जाऊँगा ।’संकल्प में शक्ति होती है ।उसी बल पर वेदना रात्रि को ही शांत हो गयी ।अनाथी को रोग-मुक्त देखकर सभी पुलकित हो उठे। माता-पिता ,पत्नी आदि को सारा वृत्तांत बताकार और उनकी आज्ञा लेकर आपने मुनिव्रत स्वीकार किया ।
अनाथी मुनि विहार करते करते रातगृही के मण्डीकुक्षी उद्यान में ध्यानस्थ बैठे थे ।वहाँ महाराज भ्रमण हैतु आए , लेकिन मुनिश्री का रूप लावण्य देखकर आश्चर्यचकित हो उठे और मुनि का परिचय जानना चाहा ।श्रेणिक उस समय तक बौद्ध थे ।उन्होंने मुनिश्री से उनके दीक्षा लेने का कारण पूछा।मुनिश्री ने बताया - ‘ में अनाथ हूँ ।’इस उत्तर से राजा श्रेणिक ने अनुमान लगाया कि मुनिश्री का संरक्षण करने वाला कोई नहीं है और आपने आप को अनाथ समझकर साधु बने हैं।तब वह स्वयं उनका नाथ बनने को तैयार हुआ और अपने राज्य में चलने के लिए कहा। अनाथी मुनि ने कहा - ‘तू स्वयं ही जब आनाथ है, तब मेरा नाथ कैसे बनेगा?’ यह सुनकर राजा चौंका । मुनिश्री ने आगे कहा - धन-सम्पत्ति के बल पर तुम यदि नाथ बनना चाहते हो तो वेभव की कमी तो मेरे घर में भी नहीं थी ।’रहस्य का उद्घाटन करते हुए मुनिश्री ने अपनी सारी आपबीती कह सुनाई , साथ ही यह भी बताया कि संयम लेने मात्र से कोई नाथ नहीं हो जाता है - वह भी वैसा ही अनाथ है जो व्रतों के साथ अठखेलियाँ करता है ।
श्रेणिक प्रबुद्ध हुआ और जैन-धर्म को स्वीकार कर अपने महल को लौट आया ।
अनाथी महानिग्रंर्न्थ कर्मक्षय कर मोक्ष में गए। मुनिश्री ‘अनाथी’ के नाम से ही जैन- जगत् में अति विश्रुत हुए।
अदीनशत्रु
अदीनशत्रु कुरुदेश के हस्तिनापुर नगर का राजा था।पूर्व भव मे यह राजा महाबल का मित्र था । इसका नाम उस भव में वैश्रमण था। इसने भी राजा
महाबल के साथ दीक्षा ली थी और उग्र तप किया था । संयम के प्रवास से यह अनुत्तरोपपातिक विमान में उत्पन्न हुआ था और वहाँ से च्यवकर हस्तिनापुर का राजा अदीनशत्रु बना था।
राजा महाबल का जीव मिथिला के राजा कुंभ के यहाँ मल्लिकुमारी ( उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ ) के रूप में उत्पन्न हुआ था।
कुंभ राजा का मल्लदिन्न नाम का एक पुत्र था । उसने अपने महल के बग़ीचे में अनेक स्तम्भों से सुशोभित एक सभामंडप बनवाने का विचार किया। सभामंडप के स्तंभों को चित्रों से सुसज्जित करने के लिए अनेक चित्रकार लगा दिये गए । उसमें से एक चित्रकार विशेष प्रतिभाशाली था।वह किसी व्यक्ति के शरीर के एक की अंग को देखकर ऐसा सजीव चित्र बना सकता था कि देखने वाला चकित रह जाये, और यह भेद न कर सके कि वह चित्र देख रहा है अथवा व्यक्ति स्वयं ही खड़ा है।
चित्रकार तो सौंन्दर्य - प्रेमी होते ही हैं । सुन्दरता को चित्रित करना उनका स्वभाव होता है । उस चित्रकार को भी एक बार मल्लिकुमारी के पैर का अंगूठा दिखाई दे गया । इस पर से उसने मल्लिकुमारी का चित्र ही स्तंभ पर बना दिया ।
मल्लदिन्न जब सभामंडप की सजा-सज्जा देखने आया तो मल्लिकुमारी के चित्र को देखकर चकित रह गया । उसने इसे चित्रकार की गुस्ताखी समझा और उसे प्राणदण्ड का आदेश दे दिया । यह दण्ड सुनकर अन्य चित्रकारों और प्रजाजनों ने मल्लदिन से प्रार्थना की यह —चित्रकार बिल्कुल निर्दोष हैं । इसने राजकुमारी को नहीं देखा । यह तो इतना प्रभावशाली है कि पैर का अंगूठा देखकर ही व्यक्ति का चित्र बना सकता है । इस पर मल्लिदिन ने उस चित्रकार का अँगूठा काटकर उसे देश -निकाले की सजा दे दी।
चित्रकार वहाँ से चालकर हस्तिनापुर पहुँचा । वहाँ उसने मल्लिकुमारी का चित्र बनाकर राजा अदीनशत्रु को दिखाया ।अदीनशत्रु मल्लिकुमारी के प्रति आकर्षित हो गया । उसने इस सन्देश के साथ अपना दूत मिथिला भेजा कि राजकुमारी मल्लि का विवाह मेरे साथ कर दिया जाये; लेकिन कुंभ राजा ने उसके दूत को तिरस्कृत कर लौटा दिया ।
इसके बाद राजा अदीनशत्रु ने अन्य राजाओं के साथ मिलकर मिथिला को घेर लिया ।
लेकिन मल्लिकुमारी से प्रतिबोध पाकर इसने दिक्षा ग्रहण कर ली और तप करके मोक्ष गया ।
त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र
अवन्ती नगरी में धन नाम का श्रेष्ठी निवास करता था । उसकी पत्नी का नाम कमलश्री था । कमलश्री ने आठ पुत्रों के बाद एक पुत्री को जन्म दिया । आठ पुत्रों के बाद पुत्री होने से माता-पिता को बहुत खुशी हुई ।आठों भाई फूले न समाये । श्रेष्ठी ने उसका नाम भट्टा रखा । भट्टा पिता को इतनी प्यारी थी कि उसने सबसे कह जिया— ‘ इसे कोई ‘ तू ‘ कहकर नहीं पुकारेगा इसलिए उसका नाम अतूंकारी भट्टा पड़ गया
माता - पिता और भाईयों के लाड़ - प्यार में अतूंकारी भट्टा बढ़ने लगी । उसने स्त्रियोचित ६४ कलाएँ पढ़ी । उसका रूप रति - रंभा जैसा था । लेकिन अतिशय लाड़ - प्यार से उसके अन्दर अहंकार का दुर्गुण प्रवेश कर गया था । वह अपनी ओर से किसी को ‘ तू ‘ कहती नहीं थी और किसी से ‘ तू ‘ सुनना भी नहीं चाहती थी । साथ ही वह चाहती थी कि सभी उसकी आज्ञा का पालन करें । यद्यपि वह किसी को अनुचित आज्ञा नहीं देती थी , लेकिन अपनी आज्ञा की अवहेलना भी नहीं सह सकती थी । यह दुर्गुण उसमें आयु के साथ- साथ बढ़ता गया ।
अतूंकारी भट्टा युवती हो गई । माता -पिता उसके विवाह की चिन्ता में लगे और योग्य वर की खोज करने लगे । इस बात से भट्टा भी अनजान नहीं थी । उसने माता से स्पष्ट शब्दों में कह दिया— ‘ मैं विवाह उसी वर के साथ करूंगी, जो मेरी आज्ञा का पालन करेगा।’ ये बात लोक - रीति के विरूद्ध थी । माता ने उसे बहुत समझाया लेकिन वह अपनी हठ पर अड़ी रही । आखिर माता - पिता चुप हो गये । उसकी यह हठ सम्पूर्ण नगरी में विख्यात हो गई, इसलिए कोई उसके साथ विवाह करने को राजी नहीं हुआ । परिणामस्वरूप काफी समय तक वह कुंवारी ही रही , लेकिन फिर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी ।
उसकी इस हठ की चर्चा नगर-नरेश जितशत्रु के कानों तक पहुँच गई । उन्होंने यह बात अपने सुबुद्धि नाम के मंन्त्री से कही विचित्रता उत्सुकता की जननी होती ही है। मंन्त्री सुबुद्धि अतूंकारी के साथ विवाह करने को उत्सुक हो गया। शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया ।
एक दिन अंतूकारी ने अपने पति से कहा—-‘आप राज्यसभा विसर्जित होते ही सीधे घर आ जाया करें। आपका देर से आना मुझे सहन नहीं होता।’
मन्त्री अब जल्दी ही घर आने लगा।एक दिन राजा से विचार -विमर्श में काफी देरी हो गई , यहाँ तक कि आधी रात हो गई । आधी रात के बाद ही मन्त्री अपने घर पहुँचा ।आज्ञा की अवहेलना से अंतूकारी तो भरी बैठी ही थी। उसने पति के लिए दरवाजा खोला और स्वयं बाहर निकल गई । पति ने उसे मनाने का बहुत प्रयास किया , लेकिन उसने उसकी एक न सुनी।
वह क्रोध से भरी हुई जंगल में चली जा रही थी कि उसे चोरों का गिरोह मिल गया। चोरों ने उसे पकड़कर पल्लीपति के सुपुर्द कर दिया।पल्लीपति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा , लेकिन वह पतिव्रता थी। उसने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया।पल्लीपति ने पहले उसे प्यार से समझाया और फिर भयंकर त्रास दिये, पर अंतूकारी टस से मस न हुई।निराश होकर पल्लीपति ने उसे एक रक्त व्यापारी के हाथ बेच दिया।रक्त व्यापारी उसका रक्त निकालकर बेचने लगा । इससे भट्टा पंजर मात्र रह गयी ।
इस भयंकर वेदना से अंतूकारी का ह्रदय परिवर्तन हो गया । वह समझ गई कि क्रोध ही मनुष्य का सबसे प्रबल शत्रु है। उसने क्रोध का त्याग करके क्षमा धारण कर ली ।अब वह क्षमा की मूर्ति बन गई ।
एक बार उसका भाई उस नगरी में पहुँच गया , जहाँ वह रक्त व्यापारी अंतूकारी का रक्त निकालकर बेचा करता था। भाई ने बहिन को पहचान लिया और बहन ने भाई को। भाई उसे अपने साथ ले आया। अब अंतूकारी अपने पति की अनुगामिनी बनकर रहती और बिल्कुल भी क्रोध नहीं करती थी।
उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा देवराज इन्द्र ने अपनी सभा में की तो एक देव मुनि का वेश रखकर उसकी परीक्षा लेने आया।उसने लक्षपाक तेल माँगा।अंतूकारी की आज्ञा से उसकी दासी लक्षपाक तेल का घडा़ लेकर आयी।लेकिन देव ने अपनी माया से वह घडा़ फोड़ दिया ।तदुपरान्त एक के बाद एक इस प्रकार तीन घडे़ देव ने अपनी माया से फोडे़। इतनी कीमती वस्तु के नष्ट हो जाने पर भी अंतूकारी को तनिक भी क्रोध न आया ।तब देव ने अपना रूप प्रकट किया , कंचन की वर्षा की और उसकी क्षमाशीलता की प्रशंसा करता हुआ चला गया ।
उपदेशमाला : धर्मदासगणि
लेखक - मुनिछत्रमल्ल जी
अतिमुक्तक मुनि
( उग्रसेन पुत्र )
वसुदेवजी कंस के शिक्षा - गुरू थे और उस पर पुत्रवत् स्नेह रखते थे । उन्होंने ही उसे अस्त्र - शस्त्र विधा सिखाई थी तथा अन्य कलाओं का भी ज्ञान कराया था। जब सिंहरथ को वसुदेव ने वश में किया और उसकी विजय का यश कंस को दे दिया ; तब कंस का राजा जरासंध की पुत्री से विवाह हो गया और उसे मथुरा का राज्य भी मिल गया । इस घटना से कंस वसुदेवजी के उपकार से दब ही गया । कंस ने मुत्तिकावती के राजा देवक, जो उसका काका लगता था, की पुत्री देवकी से वसुदेवजी का विवाह करा दिया ।
इस विवाह की ख़ुशी में मथुरा दुल्हन की तरह सज गई । चारों ओर आमोद - प्रमोद मनाये जाने लगे । नगरी में रास - रंग का वातावरण था । कंस - पत्नी जीवयशा ने छककर शराब पी और नशे में झूमने लगी ।
उसी समय अतिमुक्तक मुनि गोचरी-हेतु आये। अतिमुक्तक संसारी नाते से राजा उग्रसेन के पुत्र और कंस के छोटे भाई थे। जब कंस ने उग्रसेन को बन्दी बना कर मथुरा का सिंहासन छीना तब इस घटना से दु: खी होकर वे प्रव्रजित हो गये और घोर तपस्या के कारण उन्हें अनेक लब्धियाँ भी प्राप्त हो गई थीं । मुनि अतिमुक्तक ( देवर ) को देखकर जीवयशा भान भूल गई । उसे नशे में देखकर मुनिश्री वापस मुड़ने लगे तो वह दरवाज़े में अड़ गई और उनसे शराब पीकर नाचने - गाने का आग्रह करने लगी ।मुनि तो क्षमा के सागर थे।उन्होने बहुत प्रयास किया कि वे बचकर निकल जाएं ,लेकिन मदान्ध जीवयशा ने उन्हें निकलने नहीं दिया ,आमोद -प्रमोद मनाने का आग्रह करती रही । तब मुनिश्री ने गंभीर वाणी से कहा दिया -
‘जिस के निमित्त यह उत्सव हो रहा है, उसी का सातवॉ पुत्र तुम्हारे पति का काल होगा ।
यह सुनते ही जीवयशा का नाश्ता हिरन हो गया और मुनि अतिमुक्तक बाहर निकल गये।
उस समय तो परिस्थितिवश मुनि अतिमुक्क के मुख से ऐसे शब्द निकल गए ,लेकिन बाद में उन्हें बहुत पश्चात्ताप हुआ है ।
उन्होंने इस वचन-दोष की सम्यक आलोचना की और तपस्या करके उसी भव में मुक्त हुए ।
- त्रिषष्टि शलाकापुरूष चरित्र , पर्व ८
लेखक - मुनिछत्रमल्ल जी
अजित सेन
‘ भद्दिलपुर ‘ के ‘नाग गाथापति की पत्नी का नाम ‘ सुलसा ‘ था । सुलसा को भी अन्य स्त्रियों की भाँति पुत्र -प्राप्ति की सहज अभिलाषा थी ।एक नैमित्तिक ने उसे बताया कि तेरे मृत संतान होगी । इसलिए उसने हरिणगमेषी देव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर हरिणगमेषी देव उसका संकट मिटाने को तत्पर हो गया । उसने अवधिकज्ञान से विचार करके जान लिया की याद्यपि कंस ने देवकी के सभी पुत्रों को मारने का संकल्प कर लिया है , लेकिन उसके छहों पुत्र पूर्ण आयुष्य वाले हैं । अत: हरिणगमेषी देव ने देवकी के छः पुत्रो का हरण कर ‘ सुलसा ‘ के यहाँ रखा तथा सुलसा के मृत पुत्रों को देवकी के यहाँ रख दिया । देवकी के छ: पुत्र चरम शरीरी होने से कंस के हाथ मरने से बच गये । वे सुलसा के यहाँ पलने लगे । बड़े होने पर उनकी शादी कर दी गई । सारे वैभव को ठुकराकर वे छहों नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षित हुए । उग्रतप तप: साधना द्वारा सभी कर्मों का नाश किया । उन छहों के नाम है - १. अजितसेन
२. अनिकसेन , ३. अनन्तसेन
आदी । छ: भाइयों में अजितसेन सबसे बड़े थे । बीस वर्ष तक संयम पालन कर एक महीने का अनशन कर शत्रुंजय पर्वत से मोक्ष पधारे ।
- अन्तकृद्दशा ८
लेखक - मुनिछत्रमल्ल जी
अचल बलदेव
‘ अचल ‘ पोदनपुर के महाराजा ‘ प्रजापति ‘ के पुत्र तथा माता ‘ भाद्रा ‘ के आत्मज थे । ये ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयान्स नाथ के समय में पहले बलदेव बने । भगवान महावीर का जीव पूर्वजन्म में त्रिपृष्ठ नाम के वासुदेव के रूप में इनका छोटा भाई था । इनकी सम्पूर्ण आयु ८५ लाख वर्ष की थी । जीवन के अंतिम समय में त्रिपृष्ठ की मृत्यु के बाद इन्होंने संयम लिया और केवल्य प्राप्त कर मुक्त हुए ।
- त्रिशष्टि शलाखापुरूष चरित्र ,पर्व ४ ,सर्ग १
अचलभ्राता गणधर
‘ अचलभ्राता ’ भगवान महावीर के नौवें गणधर थे ।ये कौशाम्बी ‘ नगरी के निवासी ‘वसु ‘ ब्राह्मण के पुत्र थे । इनकी माता का नाम ‘ नान्दा था । ये भी ‘सोमिल ‘ के यज्ञ में गये थे । पुण्य और पाप के सम्बंध में अपनी गुप्त शंका का समाधान भगवान महावीर से पाकर अपने ३०० शिष्यों के साथ इन्होंने संयम स्वीकार किया । इन्होंने ४७ वर्ष की आयु में दीक्षा ली तथा ५९ वर्ष की आयु में केवलज्ञान प्राप्त कर
७२ वर्ष की आयु में मोक्ष प्राप्त किया ।
लेखक - मुनिछत्रमल्ल जी
*अग्निभूति गणधर
‘ अग्निभूति ‘ भगवान् महावीर के दूसरे गणधर थे । ये ‘ गोबर ‘ गाँव के निवासी ‘ वसुभूति ‘ विप्र के आत्मज और माता पृथ्वी के अंगजात थे । वैसे ये इन्द्रभूति के छोटे भाई थे । उन्हीं के साथ सोमिल ब्राह्मण के यहाँ यज्ञ करने अपापा नगरी गये । ‘ कर्म है या नहीं ‘ इस शंका का समाधान भगवान् महावीर से पाकर अपने ५०० छात्रों सहित संयमी बने । उस समय इनकी आयु ४७ वर्ष की थी । ५६ वर्ष की आयु में इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ ओर ७४ वर्ष की आयु में एकमासिक अनशनपूर्वक वैभारगिरि पर इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया ।
लेखक - मुनिछत्रमल्ल जी
अकम्पित गणघर
‘अकम्पित ‘ मुनि भगवान् महावीर के आठवें गणधर थे ।ये ‘विमलापुर’ के रहने वाले ब्राह्मण जाति के थे ।इनके पिता का नाम ‘ देव ’ तथा माता का नाम ‘ जयन्ती ’था । ये अनेक विद्याओं में निष्णात थे । एक बार ये इन्द्रभूमि के साथ ‘अपापा नगरी’ में ‘ सोमिल ’ ब्राह्मण के यहाँ यज्ञ करने गये। ‘*नरक है या नहीं* इनके मन में यह सुगुप्त शंका थी । इस शंका का निवारण भगवान् ने किया ; क्योंकि उनका समवसरण भी अपापा के बाह्म भाग में था । शंका मिट जाने के उपरान्त ये भगवान् महावीर के पास अपने 300 शिष्यों सहित दीक्षित हुए । ये 49 वर्ष की प्रोढा़वस्था में संयमी बने । 58 वें वर्ष में इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई तथा 78 वें वर्ष में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया ।
- आवश्यकचुर्णि
लेखक - मुनी छत्रमल्ल जी
मुनि अतिमुक्कतक कुमार
अतिमुक्कतक पोलासपुर के महाराजा ‘विजय’ के पुत्र तथा माता’ श्रीदेवी ‘के आत्मज थे ।
एक दिन कुमार चौक में खेल रहे थे, उस समय उन्होंने भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम स्वामी को भिक्षार्थ उधर से जाते देखा।जैन मुनि को देखकर कुमार ने पूछा - आप कौन हैं ?कहाँ जा रहे हैं ? गौतम स्वामी ने कहाँ - हम जैन मुनि है , भिक्षा लेने जा रहे हैं ।कुमार ने अपने घर चलने की प्रार्थना की प्रार्थना ही नहीं गौतम स्वामी की उंगली पकड़कर अपने घर ले आए। राजमहल से भिक्षा लेकर गौतम स्वामी जब उद्यान में भगवान् महावीर के पास जाने लगे तब अतिमुक्तक साथ आया । प्रभु के दर्शन किये, उपदेस सुना और संयम लेने के लिए तैयार हो गया। माता पिता से आज्ञा प्राप्त कर साधु बन गया
एक बार अतिमुक्कतक बालमुनी शौचार्थ गए और वाहॉ बहते हुए पानी को देखकर अपने श्रमणत्व को भूल गये । दोनों ओंर मिट्टी से पानी पर पाल बाँधकर अपनी पात्री उसमें छोड़ दी ।
पात्री को जल में तैरती देखकर कुतूहल से बाँसों छलकने लगे और ज़ोर ज़ोर से पुकारने लगे - मैं तैरता हूँ, मेरी पात्री (नाव )तैरती है।आवाज़ सुनकर इधर उधर से स्थविर मुनि आये और उनको उलहाना दिया ।उन्हें प्रभु के पास लाकर नाव की सारी कहानी सुनाई और पूछा- ‘ आपके इस बाल मुनि के कितने भव शेष है ?
प्रभु ने कहाँ-‘ यह बाल मुनी इसी भव में मोक्ष जाने वाला है , इसकी निंदा मत करो बल्कि इनकी भक्ति करो ।’
अतिमुक्कतक मुनि ने अपना स्वरूप संभाला और किये हुए दोष की आलोचना की। संयम - पथ पर बढ़ते - बढ़ते ग्यारह अंगों का अध्ययन किया ।अंत में गुणरत्न संवत्सर नामक तब करके विपुलगिरि पर्वत पर केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष पधारे।
- अन्तकृद्दशा सूत्र
- भगवती ४१८