युद्ध दूसरों से नहीं स्वयं से ही करें
दुनियां में युद्ध की स्थिति व प्रसंग भी आ जाते है व दो समूहों में भी युद्ध की स्थिति बन सकती है | शास्त्रकार ने स्वयं के साथ युद्ध करने की बात बताई है बाह्य युद्ध से कोई लाभ नहीं, अतः हमें आत्म युद्ध के द्वारा आत्मा पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, जिससे सुख व शांति की प्राप्ति हो जाय | इस युद्ध में शस्त्रों से युद्ध की बात नही होती | अकेला आदमी खुद से युद्ध कैसे करे ? आत्मा के आठ भेदों का वर्णन २५ बोल में उपलब्ध है | एक द्रव्य आत्मा व सात भाव आत्माएं | हमें कषाय आत्माओं के साथ युद्ध करके उन्हें परास्त करना है, यह हमारे भीतर का युद्ध है | हमारी भाव आत्मा प्रहार बुराइयों पर प्रहार करने वाली है व युद्ध करके उन पर विजय पा लेती है | वे बुराइयाँ है – गुस्सा, अहंकार, माया व लोभ | हमें उपशम से गुस्से पर, मार्दव व मृदुता से अहंकार पर, आर्जव व सरलता से माया पर व संतोष से लोभ पर विजय प्राप्त करनी है | इन चारों को जीतने के चार मध्यम व साधन हैं | ये क्षत्रु भी बड़े ताकतवर है और इन्हें परास्त करने के लिए सतत प्रयास की अपेक्षा होती है | गुस्सा जीवन में अशांति पैदा करता है, हम मृदु वाणी से अपने व दुसरे के गुस्से को कमजोर बना सकते है |
भक्ति व्यक्ति-परक व तत्व-परक भी
लोग तीर्थंकर को नमस्कार करते हैं | तीर्थंकरों को नमस्कार करने क अर्थ है अर्हतों की नमस्कार करना व उनकी स्तुति करना | नमस्कार करना भी भक्ति का ही एक रूप है | नमस्कार मंत्र में भी ५ विशिष्ट व अर्हता सम्पन्न आत्माओं को नमस्कार किया जाता है | नमस्कार में हमारा मन निर्मल रहे | भक्ति के दो रूप – व्यक्ति परक भक्ति व तत्व परक तथा सिद्धान्त परक भक्ति | व्यक्ति परक भक्ति में अर्हतों की, भगवान महावीर की भक्ति व महान पुरुषों की भक्ति व तत्व-परक भक्ति में यथार्थ साधना व ईमानदारी के प्रति होने वाली भक्ति | लेकिन बाह्य भक्ति की जगह आन्तरिक भक्ति का होना ज्यादा महत्वपूर्ण है | सांसारिक दृष्टी से कुल देवी की भी पूजा की जाती ही | लेकिन भक्ति के साथ समर्पण भी हो तो भक्ति अधिक फलवान बन सकती है | भक्ति से शक्ति की जागरणा हो जाती है | भक्ति यथार्थ, सत्य व ईमनदारी के प्रति भी हो व यथार्थ तथा सत्य का पालन करने वालों के प्रति भी हो | आध्यात्म के प्रति भक्ति का होना भक्ति का एक निर्मल स्वरूप है |
बच्चों में भी सच के संस्कार पुष्ट बने |
पंचेन्द्रिय प्राणी वही हो सकता है जिसके पास श्रवण शक्ति हो, सुनने की क्षमता हो | पंचेन्द्रिय हो तो उसके कान सुनने का साधन व मध्यम होते है | हम अपने कानों का सही उपयोग करें | न बुरा देखें, न बुरा सुनें, न बुरा बोलें व न बुरा सोचें | ये चारों चीजें हमारे लिए बड़ी महत्वपूर्ण है | हम स्व प्रशंसा व पर निंदा में रस न लें, क्योंकि यह अच्छा क्रम नहीं है | सुनकर अच्छे व बुरे दोनों को जाना जा सकता है | ऐसे में हम अच्छे का आचरण करें व बुरे हो छोड़ें | आज यांत्रिक विकास ने साधुओं की वाणी को दूर दूर तक संप्रेषित करने की क्षमता को विकसित कर लिया है | आखों व कानों के माध्यम से हम ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, पर ज्यादा सुनें व कम बोलें | प्रतिकूल बात को भी धैर्य से सुनें | जानी हुई हर बात बोलने की नहीं होती | जो कहने लायक बात हो वह कहें व बाकि छोड़ दें | जीता वहीँ है जो जागरूक रहता हो | साधु संगत से ज्ञान की भी प्राप्ति होती है व विशेष ज्ञान की भी, जिसमें हेय, ज्ञेय व उपादेय का ज्ञान निहित होता है | हम ज्ञान को सुनकर जागरूकता जा जीवन जीना सीखें |
सोचने की क्षमता विकास का प्रतीक
पैर हमारी गति के साधन हैं | सभी आगम हमारे लिए उपयोगी है, उनमें एक उतरझायाणं भी बड़ा उपयोगी है, जिसमें प्रमाद विरमण की बात का उल्लेख मिलता है | जीवन में शरीर, वाणी व मन ये तीन चीजें है | शरीर के द्वारा कार्य करना, लिखना, पढना | वाणी का काम विचारों की अभिव्यक्ति व बोलना तथा मन का काम सोचना, चिंतन करना, भले वह दिखाई न भी दे | चिंतन का चक्का चलता रहता है – आवश्यक चिंतन भी व अनावश्यक भी | बिना चिंतन के हमारे जीवन का बहुत कम समय बीतता है | सोचने की क्षमता विकास का प्रतीक है | बहुत से ऐसे भी प्राणी भी है जिनके मन नहीं होता पर हम समनस्क प्राणी हैं, मन वाले हैं व चिंतन भी कर सकते हैं | मन वाला प्राणी ही एक ओर ज्यादा धर्म व पुण्यार्जन कर सकते हैं तो दूसरी ओर ज्यादा पाप भी मन वाला ही कर सकता है | कैसे सोचें ? सोचने के अनेक तरीके हो सकते हैं | प्रशस्त तरीका – १. ज्यादा व व्यर्थ न सोचें २. चिंतन के समय आवेश मुक्त रहें ३. न अति करुणाहो न अति भावुकता हो ४. चिंतन न्याय पूर्ण हो व उसकी भी समयबद्धता रहे | चिंता नहीं, चिंतन करो | अचिंतन से भी नई स्फुरणा निकल सकती है | जो जीना जानता है, उसे कोई मार नहीं सकता | हम अभाव को नहीं, भाव को देखें |
१७ चरित्रात्माओं के संयम पर्याय के २५ वर्षों की सम्पन्नता
आर्हत वाड्मय में कहा गया है – आत्मा ही हमारे सुखों व दुखों की कर्ता है और मित्र व क्षत्रु भी आत्मा ही है | दुष्प्रवृति में संलग्न आत्मा अमित्र व क्षत्रु तथा सद्प्रवृति में संलग्न आत्मा मित्र होती है | आज से २२५ वर्ष पूर्व मुनि हेमराज में ने दीक्षा ग्रहण की व २५ वर्ष पूर्व उनका दीक्षा का द्विश्ताब्दी वर्ष मनाया गया | किसी भी साधु-साध्वी का इस तरह का समारोह मनाया जाना, धर्म संघ इतिहास की एक विरल घटना है क्योंकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ | मुनि हेमचंद जी हमारे धर्म संघ के एक विलक्षण संत हुए और उनकी दीक्षा के बाद चारित्रात्माओं के संख्या में भी श्री वृद्धि हुई | आज से २५ वर्ष पूर्व हमारे संघ में आज के दिन १७ दीक्षाएँ हुई, जिनमें १० यहाँ मौजूद हैं व उसने हमने प्रस्तुतियां भी सुनी | वे सारे हमारे धर्म संघ के अंग हैं | वे इस धर्म संघ को विभिन्न प्रकार की सेवाएँ देते रहते है | वे हर कार्य के लिए सदा तत्पर रहते है, चाहे संस्थागत कार्य हो, विज्ञप्ति का कार्य हो या फिर अन्य कार्य | जहाँ दिमाग, मनोबल व कार्यकुशलता का योग होता है वहां अनेक रूपों में धर्म संघ की सेवाएँ की जा सकती है | शांति व समर्पण के साथ मनोबल हो तो हर काम संभव है | सेवा व स्वाध्याय दोनों में संतुलन रहे व संस्कृत भाषा का भी विकास होता रहे |
हम अनासक्ति की साधना करते रहें
आर्हत वाड्मय में कहा गया है – आसक्ति आर्द मिटटी के गोलक के समान व अनासक्ति सूखे गोले के समान | हम इस जीवन में प्रवृति से तो पूर्णतः मुक्त नहीं रह सकते पर प्रवृति करते हुए भी अनासक्त तो रह ही सकते हैं | पदार्थों के प्रति हमारे मन में अनासक्ति रक्खो और व्यक्तियों के प्रति अनपेक्षित आसक्ति मत रक्खो | हमारा मन ही बन्धन व मुक्ति का कारण बनता है व उसमें भी मन के भावों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है | धाय माता बच्चे को खिलाती है, यह जानते हुए भी कि बच्चा मेरा नहीं है | यहाँ दायित्व बोध के साथ अपना स्वार्थ भी मुख्य बन जाता है | पदार्थों के प्रति हमारे मन में रागात्मक भाव न रहे | यह शरीर भी हमारा नहीं है फिर उसे ज्यादा अच्छा दिखाने की भावना क्यों ? यह शरीर मात्र चमड़ी हैं | अतः इसे बहुत अच्छा दिखाने की इच्छा न हो | साधु-साध्वियों के दरवाजे सदा खुले हों, इस बात पर वे ज्यादा ध्यान दें | वे अपनी साधना व व्यवस्थाओं के के प्रति सदा जागरूक रहे व अपने दायित्व का निर्वहन करते रहे |
थोड़े के लिए बहुत को खो देना असमाचीनता है | तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य में ज्यादा नुकशान हो ऐसा काम करना कोई बुद्धिमता नहीं | हमें सदा दीर्घकालीन व बड़े लाभ की बात सोचनी चाहिए व थोड़ा पाने के लिए ज्यादा खोने की बात नहीं | एक कांकाणी को पाने के लिए करोड़ों को खो देने वाला वैसा ही मूर्ख होता है जैसा एक कांकाणी को वसूल करने के लिए चारों में से एक मित्र ने एक हजार कार्शापण गवां दिये | हमें जो मानव जीवन मिला है, उसका सही उपयोग करना चाहिए | साधु के लिए संयम एक रत्न के समान है | अपने चारित्र व शीलव्रतों की उसे सदैव रक्षा करनी चाहिए | इस संयम रत्न का उपयोग कौवे को उड़ाने में नहीं होना चाहिए | अपने संयम के पालन के बदले व साधना किसी प्रकार का निदान नहीं करना चाहिए | निदान करना एक प्रकार की सौदेबाजी है | सिर्फ मोक्ष की प्राप्ति के लिए ही हमारी साधना चले, न तीर्थंकर जन्म के लिए और न ही चक्रवर्ती पद की प्राप्ति के लिए | गृहस्थ भी अपनी व्रत साधना में तल्लीन रहें व समय का सम्यक उपयोग करते रहें | हमारी आत्मा ही हमारा सच्चा मित्र है अतः आत्म कल्याण ही हमारा ध्येय रहे |
यह पुरुष अनेक चित्तों वाला है | अनेक प्रकार के सद व असद भावों का संगम भी होता है | भाव-जगत का संबंध मोहनीय कर्म के साथ जुड़ा हुआ है | उदय-भाव व विलय-भाव में युद्ध सा चलता है | मोहनीय कर्म प्रबल होता है तो दुष्प्रभाव सामने आता है और ज्यों-ज्यों विलय की ओर बढ़ता है त्यों-त्यों आचार, विचार व संस्कार अच्छे बनते जाते हैं | उदय व विलय का अंत तो आगे के गुणस्थानों में संभव है | हमारे शरीर में शीश का जो स्थान होता है व वृक्ष में मूल का जो स्थान होता है वह स्थान हमारे जीवन में ध्यान का होता है | सारे कर्म जगत में मोहनीय कर्म व चार घाति कर्म क्षीण हो जाये तो बाकि चार अघाति कर्म अपने आप क्षीण हो जायेंगे, क्योकि अघाति कर्म आत्म घाति नहीं है | ज्यादा खतरा मोहनीय कर्म से है अतः चित्त शुद्धि के लिए इसे हल्का करना है व कालान्तर में इसे समाप्त कर देना है | कर्म-बंध में इस मन की मुख्य भूमिका है | हमारा मन व मन के भाव शुद्ध रहे | भावों-भावों से मोक्ष व नरक दोनों का वरण संभव है | ध्यान का उद्देश्य है – चित्त व भाव की शुद्धि | जीवन विज्ञान व अणुव्रत भी भाव शुद्धि का माध्यम है | चारित्र-आत्माओं की कषाय मंदता ओर बढे | शरीर शुद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण है – चित्त शुद्धि, हमें इस ओर ध्यान देना है |
मोक्ष प्राप्ति के साधक व वाधक तत्व
आध्यात्म जगत में मोक्ष का उल्लेख मिलता है | जीवन का लक्ष्य मोक्ष होना चाहिए | भौतिक व लक्ष्मी के वरण का लक्ष्य बना भी लिया तो कौनसा बड़ा काम कर लिया, यह नश्वर है वह इस जन्म के बाद साथ नहीं जाने वाला है | अतः हमें ६ मोक्ष के साधक तत्वों पर विचार कर उनका अनुसरण करना चाहिए | वे हैं - साध्य, साधन, साधु, साधना सिद्धि व सिद्ध | साध्य – मोक्ष, साधन – सम्यक दर्शन, ज्ञान व चारित्र, साधु – उनका पालन करने वाला, साधना मोक्ष की दिशा में होने वाला प्रस्थान, सिद्धि – लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्ध – मुक्त आत्मा | उसी प्रकार मोक्ष के कुछ वाधक तत्व भी हैं – चंडता, गुस्सा, आवेश | गुस्सा हमारी कमजोरी है, हार है इससे बचकर हमें शांति के पथ पर अग्रसर होना चाहिए | कम खायें, नम जायें | मस्त, स्वस्थ तथा प्रशस्त रहें | होठों को सीना सीखें | महान वह जो कठोर वचन सुनकर अधीर न हो व उसे पीना जानता है व मौन रहना भी | हर श्वास को देखें, जीना सीखें व शुभ भावों में प्रवृत हों तथा दीर्घ श्वास का अभ्यास भी करें | आचार्य महाप्रज्ञजी नें ध्यान के कई शिविर लगाये | गर्व व घमंड भी मोक्ष प्राप्ति में वाधक बन जाता है | हम चुगली आदि से बचकर आत्मानुशासन का जीवन जीयें व क्रमशः मोक्ष की ओर अग्रसर होते रहें |
आगम वाड्मय में ज्ञान का बड़ा महत्व है और उसकी प्राप्ति के लिए विधा का अभ्यास करना पड़ता है | ज्ञान प्राप्त करने वाले के पास योग्यता हो व ज्ञान देने वाले के पास गुणवत्ता हो, सम्यकत्व हो तथा सहायक सामग्री हो तो ज्ञान लेने वाला ज्ञानवान बन सकता है | लेकिन ज्ञान ग्रहण करने वाला जिज्ञासु व पुरुषार्थी होना चाहिए | ज्ञान प्राप्ति के पांच वाधक तत्व है – १. अहंकार व ज्ञान तथा ज्ञान-दाता के प्रति विनय का अभाव २. क्रोध, गुस्सा व आक्रोश वाला ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता ३. प्रमाद – ज्ञान प्राप्ति में रूचि का न होने वाला व अनावश्यक बातों में समय गंवाने वाला | घोखने, चितारने, पूछने, पुनरावर्तन व लेखन न करने वाला ४. शारीरिक बीमारी, रोग व अस्वस्थता ५. आलस्य – परिश्रम व पुरुषार्थ से जी चुराना व ज्ञान प्राप्ति में मन न लगना | ज्ञान प्राप्त करने वाला ज्ञान की दिशा में पुरुषार्थ करता रहे, इतिहास भी पढ़े, अर्थ समझकर सीखें दत्त चित्त होकर ज्ञान पाने की लगन रहे | व्याख्यान से भी ज्ञान की वृद्धि संभव है व लेखन आदि से भी | कार्य के साथ समय की नियमितता भी रहे व ज्ञान प्राप्ति का उत्साह भी |
एक आचार, एक विचार, एक सिद्धांत
आगम वाणी के अनुसार वीर पुरुष महान पंथ के प्रति समर्पित हो जाते हैं | आध्यात्म और भौतिक मार्ग भिन्न है | हमने आध्यात्म का मार्ग स्वीकार किया है | आध्यात्म का मार्ग शांति एवं सुख का जबकि भौतिकता का मार्ग दुःख व अशांति का | जैन भैक्षव शासन का प्रारंभ करीब २६२ वर्ष पूर्व हुआ | उन्होंने २१९ वर्ष पूर्व जो मर्यादाएं बनाई उनका यह पत्र है | मर्यादा महोत्सव का आधार इस पत्र की भावनाओं को माना जा सकता है | इस महोत्सव के प्रारम्भ-कर्ता जयाचार्य थे व आने वाले सभी आचार्यों ने इसे स्वीकार किया | हमारी आध्यात्म निष्ठा सुदृढ़ रहे व उसके साथ शासन व संघ निष्ठा भी बढे | मर्यादा में एक संघ शिरोमणि आचार्य होता है व सब उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं | किसी साधु-साध्वीयों की कोई स्वतंत्र शिष्य-शिष्याएं नहीं होती | आचार्य की आज्ञा ही सबके लिए मान्य होती है | हमारे संघ के साधु-साध्वियां आचार्य की आज्ञा की पूर्ण अनुपालना करते है, यह मेरे लिए संतोष का विषय है | समणि वर्ग व मुमुक्षु बहनें भी पूरा दायित्व निभाती है | हमारे श्रावक व श्राविकाएं भी अपनी धर्माराधना के प्रति जागरूक है | सुमंगल साधना भी चलती है व शनिवारीय सामायिक की प्रेरणा की भी अनुपालना होती है | आचार्य की आज्ञा सर्वोपरी रहे, आचार्य भी योग्य व्यक्तियों को ही दीक्षित करे | किसी से कोई गलती हो जाय तो प्रायश्चित कर ले | आचार्य की आज्ञा के प्रति सबका विनय रहे | हमारी संस्थाएं भी अच्छा कार्य कर रही है व करती रहे | ज्ञान-शालाएं भी ओर अच्छी चले व ज्ञानार्थियों की संख्या बढे | उपासक श्रेणी की विधा भी अच्छी है | अणुव्रत व जीवन-विज्ञान आदि का कार्य भी अच्छा चले व संध का बहुमुखी विकास होता रहे |
आज त्रीदीवसीय मर्यादा महोत्सव का शुभारम्भ हो रहा है | मर्यादाओं के प्राकार में रहने वाला सुरक्षित रहता है | जहाँ साधना, संगठन व समूह बद्धता हो वहां सेवा का विशेष महत्व होता है | इस धर्मसंघ में सेवा व सम्मान की भावना प्रचुर मात्रा में है, इस बात का मुझे बड़ा आत्म-तोष भी है | सेवा भावना संघ के लिए मंगलकारी व कल्याणकारी है | सेवा के अनेक संदर्भ हो सकते हैं – ज्ञान देना व पढ़ाना भी सेवा है | ज्ञान-दान एक बड़ा दान है | चारित्र आत्माओं के द्वारा दूसरों को ज्ञान बांटना भी सेवा है, यह ज्ञानात्मक सेवा का रूप है | धर्म प्रचार व श्रावक-श्राविकाओं की संभाल भी सेवा है | व्याख्यान देना व बोध देना भी सेवा का ही एक रूप है | श्रावक-श्राविकाएं भी साधु-साध्वियों की मार्गवर्ती सेवा करते रहते है | रुग्ण, बीमार व जरूरत मंदों की अग्लान भाव से सेवा करना भी सेवा का एक विशिष्ट रूप है | नव दीक्षितों को संभालना, उठाना भी एक सेवा है | आज हम समाधि केंद्र में बैठकर सेवा की बात की जा रही है | वृद्ध व अक्षम साधु साध्वियों की मन से सेवा करना हर साधु-साध्वी का दायित्व होता है | अपेक्षितों को सेवा मिले | सेवा व समाधि केंद्र एक तीर्थ है | सेवा के साथ समता, सहानुभूति व सम्मान भी रहे |