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Karyasala

प्रशासन - निदर्शन

93. ज्ञान - ध्यान में लीन अनवरत कियां करैला अनुशासन?
कोमल करुण हदय मक्खन - सो कियां चलासी गण शासन?
हो सुजना! हुयो प्रशासन कौशल स्यूं संशय निस्तार हो।।

94. दिल्ली रो बो दृश्य देखकर चिंतन धारा बदली,
विस्फारित- सा नयन हजारां दिन में भी कोंधी बिजली,
हो सुजना! दिप्या शासन में कुशल प्रशासनकार हो।।


ज्ञान- ध्यान में लीन अनवरत........

वि. सं. 2038 नई दिल्ली, मर्यादा महोत्सव का आयोजन। अनेक वक्ताओं ने मर्यादा और अनुशासन के संदर्भ में अपने विचार रखें। कार्यक्रम के मध्य संयोजक महोदय ने शुभकरणजी दसानीजी को आमंत्रित किया। दसानीजी मंच पर पहुंचे। समाज के कुछ युवक इस बात को लेकर क्रुद्ध हो गए। उन्होंने दसानीजी की मंच पर उपस्थिति के विरोध में नारेबाजी शुरू कर दी। गुरुदेव ने देखा, कार्यक्रम में व्यवधान डालने के प्रयत्न हो रहे हैं। गुरुदेव ने तत्काल मर्यादा गीत का संगान शुरू किया। वातावरण शांत होने लगा। कुछ लोगों द्वारा वातावरण को बिगाड़ने के इस प्रयत्न से युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी का मानस आहत हुआ। उनकी सुप्त चेतना जाग उठी। उन्होंने गुरुदेव की विशेष अनुमति लेकर एक ओजस्वी वक्तव्य दिया। उनका यह वक्तव्य उनकी प्रशासन क्षमता को उजागर कर रहा है। उसका सार संक्षेप इस प्रकार है-
' यह हमारा धर्म संघ है। यह कोई राजनैतिक मंच नहीं है, कोई अखाड़ा नहीं है। किसी भी श्रावक के मन में साधु - साध्वी के मन में या किसी के भी मन में कोई बात हो तो वह आचार्यवर को निवेदन कर सकता है किंतु अपनी बात को मनवाने के लिए हो - हल्ला करना, नारेबाजी करना, विघ्न उत्पन्न करना कतई उचित नहीं है। मैं उन बंधुओं से बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि वे स्वप्न में भी न सोचे कि हो - हल्ला करने से, नारेबाजी करने से उनकी बात मान ली जाएगी। न तो हमें उनसे कुछ लेना है, न उनको कुछ देना है। जिनकी श्रद्धा हो, भावना हो, वे प्रवचन सुनें। जिनकी श्रद्धा न हो, वे इस प्रकार धर्मशासन और तेरापंथ के आचार्यों के सामने ऐसा उद्दंडतापूर्वक व्यवहार न करें। वे अपने घर में ही सामायिक करें, धर्म की आराधना करें। इससे उनका भी कल्याण होगा और यहां भी किसी प्रकार का कोई विघ्न नहीं होगा।'
युवाचार्यश्री का यह वक्तव्य जितना संतुलित था, उतना ही गंभीर और अनुशासनात्मक था। आपके इस ओजस्वी प्रवचन से वातावरण में एक अकल्पित बदलाव घटित हो गया। आचार्यश्री के इस वक्तव्य को सुनकर अनेक व्यक्तियों ने कहा- हमने सोचा था युवाचार्यजी की बौद्धिक क्षमता और चारित्रिक निष्ठा प्रबल है पर प्रशासन इनके बश की बात नहीं है। ज्ञान और ध्यान में डूबे रहने वाले व्यक्ति का प्रशासनिक रूप देखकर स्तब्ध रह गए। मांगीलालजी सेठिया ने कहा - 'मैंने युवाचार्यश्री के प्रशासनिक रूप को पहली बार देखा है। मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि महाप्रज्ञ की प्रशासनिक क्षमता ऐसी विलक्षण है। मैं आपका प्रशासनिक रूप देखकर दंग रह गया।'

विशेष सूचना
सभी को सादर जय जिनेंद्र

MMBG द्वारा आयोजित सप्ताहिक कार्यशाला निरंतर प्रेषित हो रही है, बहुत ही हर्ष का विषय है अब तक 83 कार्यशाला पूर्ण हो चुकी है और आने वाले सोमवार 12 अक्टूबर से कार्यशाला लिखीत में नहीं आयेगी। फेसबुक live पर पर प्रसारित की जाएगी आप सभी सोमवार शाम 5:00 बजे Facebook live कार्यशाला में अवश्य सहभागिता निभाएं। मुझे आशा है आप सभी का स्नेह आगे भी इसी तरह मिलता रहेगा

ॐ अर्हम

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

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युवाचार्य चयन

युवाचार्य चयन

91. निज हस्ताक्षर स्यूं आलेखित मनोनयन रो पत्र पढयों,
धारित उत्तरीय ओढ़ाकर गण में नव इतिहास गढयो,
हो सुजना! बैठाया निज आसन पर गण सरदार हो ।।

निज हस्ताक्षर स्यूं आलेखित........

माघ शुक्ला सप्तमी का दिन 115 वां मर्यादा महोत्सव। राजलदेसर, डागा परिवार की बाड़ी। विशाल पंडाल। आचार्यवर का मर्यादा - महोत्सव की आयोजना के लिए वहां ससंघ पदार्पण। आचार्यवर द्वारा मर्यादाओं का विश्लेषण। अकस्मात कार्यक्रम में नया मोड़। आचार्यवर ने कहा - मैं 43 वर्ष से धर्मसंघ का नेतृत्व कर रहा हूं अब मैं 64 वर्ष का हो गया हूं। मैं भी आज मेरे उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा करना चाहता हूं।' इस घोषणा के साथ ही समूची जनमेदिनी उत्कंधर हो गई। आचार्यवर ने आगे कहा - मुनि नथमलजी! खड़े हो जाओ।' निर्देश के साथ ही मुनि श्री खड़े हो गए।
आचार्यवर- 'मैं आज तेरापंथ धर्मसंघ के 115 वें मर्यादा - महोत्सव में अपने उत्तराधिकारी के रूप में महाप्रज्ञ शिष्य मुनि नथमल को नियुक्त करता हूं।'
इस उदघोषणा के साथ ही पूरे समवशरण में हर्ष और उल्लास छा गया। आचार्यवर ने अपने हाथ से लिखित नियुक्ति पत्र मुनि नथमलजी के हाथ में सौंप दिया। संघीय परंपरा के अनुरूप आचार्यवर ने स्वयं नई पछेवडी़ ओढी़। दायित्व की इस प्रतीकात्मक पछेवड़ी को उतारकर मुनि श्री के सक्षम कंधों पर ओढा़ दी। तत्पश्चात आचार्यवर ने मुनिश्री का नाम परिवर्तन किया। महाप्रज्ञ, जो विशेषण था, उसे नाम रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।
परंपरागत संपूर्ण औपचारिक विधि की पूर्णाहुति के बाद आचार्यवर ने फरमाया - 'अब तुम युवाचार्य बन गए हो, मेरे बराबर आसन पर बैठो।'
युवाचार्यश्री मन ही मन सकुचा रहे थे - 'दीक्षा के पहले दिन से लेकर आज तक जिनके चरणों में बैठता रहा, आज उनके बराबर कैसे बैठू।'
आचार्यवर ने युवाचार्यश्री की मानसिकता को पढ़ा और कहा- आओ, दो क्षण के लिए तो बैठो।' आपने उत्तराधिकारी का हाथ पकड़कर अपने पास अपने आसन पर बिठा लिया। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो युवाचार्य श्री निर्विकल्प समाधि में लीन हो गए।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

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युवाचार्य चयन

युवाचार्य चयन

90. राजाणै मर्यादा - महोत्सव रची भूमिका सहज सुखद,
युवाचार्य पद महाप्रज्ञ नै लोगां में अचरज अनहद,
हो सुजना! गुंज्या चीहुं दिशि बाढ़ स्वर जय - जयकार हो।।

राजाणै मर्यादा - महोत्सव........

विक्रम संवत 2035 का चातुर्मास गंगाशहर में था। उसके बाद मर्यादा महोत्सव कहां हो? इसकी जानकारी करने के लिए खेमचंदजी सेठिया कार्यकर्ताओं के साथ पंजाब के क्षेत्रों का निरीक्षण करने के लिए गए हुए थे। अकस्मात गुरुदेव के चिंतन में एक नया मोड़ आ गया। स्वयं गुरुदेव ने इस विषय में लिखा है - 'विक्रम संवत 2035 के चातुर्मास से पूर्व तक मैंने अपनी भावी व्यवस्था के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया। 2035 का चतुर्मास गंगाशहर था। उस समय मेरे मन में आकस्मिक चिंतन आया कि पंजाब यात्रा से पहले मुझे अपने उत्तराधिकारी का निर्णय कर निश्चिंत हो जाना चाहिए और उसके लिए आकस्मिक रूप से पंजाब यात्रा को कुछ विलंबित करने का मानसिक निर्णय लेना पड़ा। उधर चतुर्मास के बाद पूर्व घोषित पंजाब - यात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी। खेमचंद जी सेठियि और पंजाब के कार्यकर्ता यात्रा की दृष्टि से उन - उन क्षेत्रों का सर्वे करके लौट आए। उनकी दृष्टि में भटिंडा क्षेत्र मर्यादा - महोत्सव के लिए सब तरह से उपयुक्त था। पंजाबवासियों तथा विशेषकर भटिंडावासियों ने अपनी ओर से महोत्सव की तैयारी शुरू कर दी थी। इन सारी परिस्थितियों को मोड़ देने में मुझे डॉ. एस. आर. मेहता का सहारा मिला।'
'डॉ. मेहता हमारे श्रद्धालु श्रावक बलवंतराजजी भंडारी के दामाद हैं। वे पिछले कई वर्षों से समय-समय पर मेरे स्वास्थ्य की जांच करते रहे हैं। यात्रा के संबंध में उनका क्या अभिमत है, इस दृष्टि से उनको याद किया गया। वे आए उस समय में गंगाशहर से प्रस्थान कर भीनासर पहुंच गया था। उन्होंने पूरे शरीर की जांच की। स्वास्थ्य सामान्य था फिर भी उनका परामर्श था कि पंजाब यात्रा के लिए शीतकाल का समय टाल दिया जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। मेरी भावना के अनुकूल था। मैंने कहा - डॉक्टर साहब को याद किया है तो इनके सुझाव पर ध्यान देना होगा।'
'मृगसर कृष्णा चतुर्थी (18 नवंबर 1979), भीनासर में प्रातः कालीन प्रवचन का समय। भीनासर, गंगाशहर, बीकानेर आदि क्षेत्रों के हजारों लोगों की उपस्थिति में प्रवचन करने लगा। न तो जनता में कोई नई उत्सुकता थी और न ही कोई मर्यादा - महोत्सव की प्रार्थना थी। किसी को कोई संभावना भी नहीं थी। मैंने अप्रत्याशित रूप से मर्यादा- महोत्सव के लिए राजलदेसर का नाम घोषित कर दिया। लोग देखते रहें गए। यह क्या ? कहां पंजाब और कहां राजलदेसर? उस समय मुनि नथमलजी भी वहां नहीं थे। उन्हें दो दिन पूर्व ही जैन विश्व भारती, लाडनूं के लिए प्रस्थान करा चुका था। उस समय विक्रम संवत 2035 मृगसस् कृष्णा तृतीया शुक्रवार (17 नवंबर 1978), मेरे मन में स्पष्ट अवधारणा हो गई थी कि इस मर्यादा - महोत्सव पर मुझे कोई निर्णय लेना है। पर मैंने इसका आभास किसी को भी नहीं होने दिया।'
उत्तराधिकारी नियुक्त करने से पूर्व गुरुदेव ने इस प्रकार भूमिका का निर्माण किया था।

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युवाचार्य चयन

89. आद्यक्षर जिणरो 'मकार' 'पैसठ वय' तेजस्वी श्रुतधर,
ओजस्वी वर्चस्वी होसी तुलसी गणिवर रा पटधर,
हो सुजना! शुभ भविष्यवाणी ज्योतिर्विद 'जय' अनुसार हो ।।

आद्यक्षर जिणरो 'मकार'........

एक बार डीडवाना निवासी जयसिंहजी मुणोत आचार्यश्री तुलसी के पास आए। वे प्रख्यात हस्तरेखाविद थे। उन्होंने कहा- 'पैसठ वर्ष की आयु में आप अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करेंगे।'
आचार्य श्री- मैंने इस विषय में कोई निर्णयात्मक चिंतन नहीं किया है। यह तुम्हारी भविष्यवाणी कैसे सच होगी?
जयसिंहजी ने विश्वास के साथ कहा - मेरी बात बिल्कुल सही प्रमाणित होगी। आपके उत्तराधिकारी के नाम का पहला अक्षर 'मकार'' होगा।
आचार्यवर ने 'मकार' वाले नामों पर ध्यान दिया पर किसी नाम पर ध्यान केंद्रित नहीं हुआ फिर भी जयसिंहजी के निवेदन को आचार्यवर ने अपनी डायरी में नोट कर लिया। 64 वर्ष की संपन्नता के साथ युवाचार्य की नियुक्ति और महाप्रज्ञ नामकरण ने उस हस्तरेखाविद की भविष्यवाणी को सार्थक बना दिया।

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महाप्रज्ञ अलंकरण

87. गणवेदी पर करया प्रतिष्ठित पायो अतिशायी बहुमान,
'मैं म्हारो दायित्व निभायो' ना कोई पर भी अहसान,
हो सुजना! गुरुवर गुरुता में नहि उपचार लिगिर हो।।

गणवेदी पर करया प्रतिष्ठित........

गुरुदेवश्री ने अपनी डायरी में उल्लेख किया है की मुनि नथमलजी को 'महाप्रज्ञ' विशेषण देकर मैंने दायित्व मात्र का निर्वाह किया है? डायरी की पत्तियां इस प्रकार है-
' मुनि नथमल एक ऐसा व्यक्ति है जो साधक है, विद्वान है, वक्ता है, लेखक है, चिंतक है, अन्वेषक है, प्रयोक्ता है। यश, पद और नाम की भूख से काफी ऊपर है, विनम्र है, विश्वस्त है, भक्त है, समर्पित है। एक व्यक्ति में इतने गुणों का एक साथ समावेश बहुत बड़ी बात है। संघ विकास की मेरी कल्पना के ये कलाकार है। अत: इनको 'महाप्रज्ञ' विशेषण से अलंकृत करके मैंने बहुत बड़ा काम किया हो- ऐसा नहीं, बल्कि अपने दायित्व का निर्वहन मात्र किया है, ऐसा मैं मानता हूं।'

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महाप्रज्ञ अलंकरण

86. मारग में शुभ शकुन सांतरा उभरी मन में जिज्ञासा,
सहसा 'महाप्रज्ञ' संबोधन जागी जन-जन में आशा,
को सुजना! फैलाओ गण में प्रज्ञा सौरभदार हो।।

मारग में शुभ शकुन........

वि. सं. 2035 (12 नवंबर 1978) गंगा शहर में चातुर्मासिक प्रवास, दीक्षा - समारोह का भव्य आयोजन। तेरापंथ भवन का खुला मैदान। परम पूज्य गुरुदेव ने मुनि नथमलजी से कहा - 'तुम घंटा भर आगम का काम करो, फिर कार्यक्रम में आ जाना।' मुनिश्री को यह निर्देश देकर आचार्यवर ने दीक्षा - स्थल की ओर प्रस्थान कर दिया। लगभग एक घंटे तक आगम संपादन का कार्य कर मुनिश्री प्रवास - स्थल से बाहर पधारे। दीक्षा - स्थल की ओर मुड़ रहे थे कि सामने से एक वृषभ आया और उन्हें देखते ही उसने दड़ुकना शुरू किया। मुनिश्री ने मुनि दूलहराजजी से कहा - शकुन बहुत अच्छे हुए हैं। कुछ नया होगा? मुनि वृंद ने स्वीकृतिसूचक सिर हिला दिया।

मुनिगण के साथ मुनिश्री आचार्यवर की सन्निधि में पहुंचे। उस समय आचार्यवर साधना की सुंदर व्याख्या कर रहे थे। उसी प्रसंग में प्रज्ञा का भी विवेचन किया। आचार्यवर ने कहा - 'आज मैं प्रज्ञा शब्द को साकार रूप देना चाहता हूं।'
आचार्यवर ने मुनिश्री की ओर दृष्टिक्षेप करते हुए कहा- 'मुनि नथमलजी! खड़े हो जाओ। मुनिश्री खड़े हो गए।
आचार्यवर ने फरमाया - जैन परंपरा में 'प्रज्ञा' शब्द का बहुत महत्व है। इस शब्द का प्रयोग तीर्थंकरों, गणधरों और मेधावी आचार्यों के लिए हुआ है। मुनि नथमलजी ने अपनी प्रज्ञा के द्वारा कुछ नए तथ्य खोजे हैं। साहित्य उनका साक्षी है। प्रेक्षाध्यान युवापीढ़ी और बौद्धिक जगत को आकृष्ट कर रहा है। अध्यात्म के प्रति जनमानस में आकर्षण बढ़ा है। मैं मानता हूं कि अध्यात्म की भूमिका पर काम करने वाले व्यक्ति को किसी उपाधि या विशेषण की अपेक्षा नहीं होती किंतु संघ को उसकी अपेक्षा होती है इसलिए मैं अपने दायित्व का अनुभव करते हुए मुनि नथमल को 'महाप्रज्ञ, विशेषण से विभूषित करना चाहता हूं। महाप्रज्ञ मुनि नथमलजी ने आचार्यवर से प्रार्थना की - जो व्यक्ति निर्विशेषण और निरूपाधिक सत्ता की और आगे बढ़ना चाहता है, उसे निर्विशेषण ही रहने दें। आप मेरी प्रज्ञा को बढ़ाएं।'
आचार्यवर महाप्रज्ञ मुनि नथमलजी की प्रार्थना को उत्तरित करते हुए कहा - 'मैं आज बहुत प्रसन्न हूं। मैं केवल व्यक्ति नहीं हूं, संघ का नायक हूं। मुनि नथमलजी ने संघ की जो सेवा की है उसके अंकन का यह प्रारंभ मात्र है। इन्होंने संघ की आंतरिक सेवा की है उसका मूल्यांकन करना मेरा कर्तव्य है।'
आचार्यवर मुनिश्री को आशीर्वाद देते हुए कहा - 'अब तुम महाप्रज्ञ बन गए हो, धर्म संघ में प्रज्ञा की रश्मियां बिखेरो'

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जीवन विज्ञान

जीवन विज्ञान

85.शिक्षा जग री यक्ष समस्या सुलझावै जीवन विज्ञान,
अभिभावक -शिक्षक -विद्यार्थी त्रिण आयामी ओ अभियान,
हो सुजना! संस्कारी बणसी भावी कर्णधार हो।।

शिक्षा जग री यक्ष समस्या........

शिक्षा का उद्देश्य है - समग्र व्यक्तित्व की संरचना। जीवन विज्ञान उसकी संपूर्ति का संकल्प है। जीवन विज्ञान बौद्धिक विकास को उपेक्षित नहीं करता किंतु उसके साथ मानसिक एवं भावनात्मक विकास पर बल देता है। भावात्मक विकास के बिना शिक्षा अधूरी है, अपूर्ण है। जीवन विज्ञान इस अपूर्णता को मिटाता है। न केवल बौद्धिक विकास व्यक्तित्व को सर्वांग बना सकता है, और न केवल भावात्मक विकास ही उसे निखार सकता है। व्यक्तित्व का समग्र रूप तभी बनता है जब बौद्धिक एवं भावात्मक विकास का संतुलन हो। ये दोनों एक दूसरे के पूरक बनकर ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं भावात्मक विकास से युक्त व्यक्ति का सृजन कर सकते हैं।
अध्यापक विद्यार्थी एवं अभिभावक- इस त्रिकोण को प्रभावित एवं संतुष्ट करने वाला यह उपक्रम शिक्षा का अभिनव प्रयोगिक क्रम है। इस प्रायोगिक पद्धति को विद्यालयी पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाकर वर्तमान शिक्षा के अधूरेपन को मिटाया जा सकता है, चारित्रिक एवं नैतिक व्यक्तित्व के निर्माण की प्रकल्पना को साकार किया जा सकता है।

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प्रेक्षाध्यान

82. जैन धर्म में ध्यान योग री परंपरा क्यूं लुप्त हुई?
जागै जिण स्यूं आत्मबोध बा शक्ति आज क्यूं सप्त हुई?
हो सुजना! करणो है जैन योग रो पुनरुद्धार हो ।।

83.पढया योग रा ग्रंथ पुराणा, पहली खुद पर करयो प्रयोग,
प्रेक्षा -अनुप्रेक्षा, लेश्या, चेतन्यकेंद्र रो शुभ संयोग,
हो सुजना! प्रेक्षा पद्धति रो कीन्हों आविष्कार हो।।

84.दीर्घ साधना रे अनुभव री निष्पत्ती है प्रेक्षाध्यान,
आधि- व्याधि री जड़ उपाधि है सफल चिकित्सा रों वरदान,
हो सुजना! अनुपम आधार बण्यो आगम 'आयार' हो।।


सन 1962 उदयपुर। मुनिश्री नथमलजी उत्तराध्ययन सूत्र के तीसवें अध्ययन का संपादन कर रहे थे। प्रकरण ध्यान का था। ध्यान के संदर्भ में विस्तृत टिप्पण लिखने के लिए मुनिश्री ने अनेक श्वेतांबर - दिगंबर ग्रथों का अनुशीलन किया। विभिन्न ग्रंथों में बिखरी ध्यान सामग्री का यथावकाश सन्निवेश किया। सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात मुनिश्री ने पूज्य गुरुदेव से निवेदन किया - 'जैन आगमों में ध्यान की प्रचुर सामग्री है।'
गुरुदेव- 'जैन धर्म में ध्यान योग की समृद्ध परंपरा रही है किंतु आज वह विच्छिन्न हो गई है। उसका पुन:अनुसंधान करना चाहिए।'
पूज्य गुरुदेव की यह छोटी- सी प्रेरणा प्रेक्षाध्यान की आधारशिला बन गयी। प्रेक्षाध्यान के अभ्युदय का एक मंत्र मिल गया।
मुनिश्री ने हठयोग, तंत्र- साधना आदि से संबंधित ग्रंथों का पारायण किया तथा जैन आगमों व आगमेतर साहित्य का गहराई से अध्ययन किया। शास्त्रों का दोहन, तथ्यों का समाकलन, वैज्ञानिक तथ्यों के साथ अपने अनुभवों का उपयोग किया। फलत: प्रेक्षाध्यान सामने आ गया। इसका मुख्य आधार जैनागम 'आचारांग' रहा है


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मां की भविष्यवाणी

81. मुनी नथमलजी बणसी इक दिन तेरापंथ शासन सम्राट,
मैं देखूं नहीं देखूं सतीयां! निरखोला थे रूप विराट,
हो सुजना! सफल करी मां री वाणी बण गच्छाधार हो ।।

मुनि नथमलजी बणसी इक दिन........

साध्वी बालूजी ने स्वर्गवास के 15 दिन पूर्व साध्वी मालूजी की ओर संकेत करते हुए कहा - 'तुम्हारा भाई राजा (अचार्य) बनेगा। मैं तो कुछ नहीं देख सकूंगी, तुम लोग सब कुछ देखोगे।'
साध्वी बालूजी का यह कथन यथार्थ में परिणित हो गया। मुनि नथमलजी महाप्रज्ञ बने, युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ बने, तत्पश्चात तेरापंथ धर्मसंघ के सर्वोच्च पद (आचार्य पद) पर प्रतिष्ठित हुए।

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मातृ मिलन

80. 'आत्मा भिन्न शरीर भिन्न' ओ मंत्र सहज साताकारी,
'देव दिराओ हस्तालम्बन' गीत सुणायो सुखकारी,
हो सुजना! सांस - सांस में मानो आत्मा री गुंजार हो ।।

आत्मा भिन्न शरीर भिन्न.......

एक दिन बालूजी ने मुनिश्री से कहा - आप दो गीतिकाएं बना दें- एक आचार्य भिक्षु की स्मृति में और दूसरी आचार्य तुलसी के प्रति। मुनिश्री ने उस भावना को स्वीकार कर लिया। मुनिश्री प्रारंभ से कविताएं तो लिखते थे पर गीतिकाएं कम लिखते थे। साधुओं का आग्रह होता तो कभी - कभार लिख देते। मां की भावना को स्वीकार करते हुए उन्होंने दो गीतिकाओं की रचना की -
1.चैत्य पुरुष जग जाए.........
2. देव दो हस्तावलम्बन.........
महाप्रज्ञ ने इन दोनों गीतों का साध्वी बालूजी के सामने सस्वर संगान किया। साधु - साध्वीयां सब स्वर में स्वर मिला रहे थे। आध्यात्मिक प्रकंपन्नों से सारा वातावरण प्रकंपित हो गया।श्रद्धा, वैराग्य और भेद विज्ञान का मंत्र साध्वीश्री बालूजी के माध्यम से सभी को मिल गया।

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मातृ मिलन

78. करी विदेह साधना माजी गंगाशहर हुयो स्थिरवास,
दरसण दिया पुत्र माता नै डेढ़ मास तक करयो प्रवास,
हो सुजना! ऋणो चुकायो मां रो सेवा फर्ज निभार हो ।।

79.च्यार तीर्थ री तीव्र प्रार्थना 'मुनिवर करो नहीं प्रस्थान',
चौमासो गुरु तुलसी सागै मां स्यूं पहलो गुरु रो स्थान,
हो सुजना! गुरुवर भवसागर पार लगावणहार हो।।

करी विदेह साधना माजी........

आठवें दशक में साध्वी बालू जी का स्वास्थ्य कमजोर हो गया। उनके गले में कैंसर था। उन दिनों वे गंगाशहर में प्रवास कर रही थी। मुनिश्री आचार्यवर के साथ दक्षिण यात्रा संपन्न कर राजस्थान आए। उस समय गुरुदेव की इच्छा थी और स्वयं मुनिश्री की इच्छा थी कि वे गंगाशहर जाकर साध्वी बालूजी को दर्शन दें। अनेक साधुओं ने व श्रावकों ने भी परामर्श दिया - 'बालूजी की अंतिम अवस्था है, अतः वह पूरा समय लगाना चाहिए।'
वि. सं. 2028 वैशाख कृष्णा 14 को कुछ संतो के साथ मुनिश्री गंगाशहर पधारे। मुनिश्री दुलहराजजी ने गुरुदेव का मौखिक संदेश सुनाया - 'कुछ जरूरी कामों से में मुनि नथमलजी को पहले नहीं भेज सका। अब वे तुम्हारे पास पर्याप्त समय लगाएंगे।'
साध्वी बालूजी ने पूछा- आप यहां कितने दिन रहेंगे?
मैं यहां तीन सप्ताह रहना चाहता हूं।
साध्वी बालूजी - 'आचार्यवर ने एक मास के लिए कहा है फिर तीन सप्ताह ही क्यों? एक मास ही रहे, उससे अधिक नहीं रोकूंगी।,
मुनि श्री ने मातुश्री की भावना को स्वीकार कर लिया। मासिक प्रवास संपन्न होने वाला था। स्थानीय श्रावकों ने आग्रहपूर्ण शब्दों में कहा - 'यदि आप प्रार्थना करें तो मुनिश्री यहां कुछ दिन और ठहर सकते हैं।'
साध्वी बालूजी - मैं अर्ज नहीं करूंगी। मुनि श्री की ओर अभिमुख होकर उन्होंने कहा - अब आपको विहार करना है।
कुछ श्रावकों ने कहा - हम आचार्यवर के दर्शन करने जाते हैं। मुनिश्री के चातुर्मासिक प्रवास के लिए प्रार्थना करेंगे।
साध्वी बालूजी ने दृढ़ता के स्वर ?में कहा - 'चौमासा यहां नहीं होगा।'
आचार्यवर के साथ ही होगा। पहले गुरु, फिर मां।
मुनि श्री ने लगभग 50 दिन मातुश्री बालूजी को सेवा का दुर्लभ अवसर प्रदान कर उन्हें प्रवर चित्त समाधि का लाभ प्रदान किया तथा मातृ ऋण से उऋण होने का प्रयास किया।

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निकाय सचिव व्यवस्था

77. प्रवर निकाय व्यवस्था में प्रभु दियो निकाय सचिव रो स्थान,
गुरु चरणां कर पूर्ण समर्पण चडग्या प्रगति शिखर सोपान,
हो सुजना! मुनिवर रो कुरब बढा़यो जोरदार हो।।

प्रवर निकाय व्यवस्था में ........

आचार्य भिक्षु से किसी ने पूछा - भगवान महावीर के समय संघ - व्यवस्था में सात पद होते थे। आपके संघ में कितने पद हैं और उनका दायित्व कौन संभाल रहा है?
आचार्य भिक्षु ने कहा- सातों पदों का दायित्व में अकेला संभाल रहा हूं।
यह प्रसंग उस समय का है जब तेरापंथ का बहुत विस्तार नहीं हुआ था। गुरुदेव तुलसी के समय तेरापंथ धर्मसंघ न्यापक हो गया और उसका कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया। इस स्थिति में गुरुदेव ने एक सहयोगी व्यवस्था की अपेक्षा अनुभव की और उसको विक्रम संवत 2022 माघ शुक्ला षष्ठी, हिसार में क्रियान्वित किया गया। निकाय - व्यवस्था के माध्यम से कुछ साधु - साध्वियों को दायित्व सौंपे गए। चार निकाय निर्धारित किए गए-
1. एक साधना निकाय
2. शिक्षा निकाय
3.साहित्य निकाय
4.प्रबंध निकाय
इन चारों निकायों पर व्यवस्थापकों की नियुक्ति की गई। एक निकाय सचिव का स्थान निर्धारित हुआ। यह निर्णय किया गया कि निकाय व्यवस्थापक निकाय सचिव के संबद्ध रहेंगे। निकाय सचिव आचार्य की आज्ञा के अनुसार कार्य को क्रियान्वित करेंगे।
सर्वप्रथम निकाय - सचिव के रूप में मुनिश्री नथमलजी की नियुक्ति की। इस अवसर पर पूज्य गुरुदेव ने फरमाया - 'निकाय सचिव की नियुक्ति से पहले भी ये काम करते रहे हैं। मैंने जब कभी और जिस किसी भी काम को करने का निर्देश दिया, इन्होंने पूरे मनोयोग से उसका पालन किया। अब मैं चाहता हूं - ये इस नए दायित्व को अपनी जिम्मेदारी समझकर निभाएं।'

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द्वितीय प्रथक चातुर्मास

76. दिल्ली चतुर्मास में पहलो लंबो अणुव्रत शिविर सघन,
हरिभाऊ, जैनेंद्र और यशपाल आदि सब करयो मनन,
हो सुजना! कियां हुवै नैतिकता रो बिरवो फलदार हो।।

दिल्ली चतुर्मास में पहलो........

विक्रम संवत 2021 में मुनिश्री नथमलजी ने दिल्ली में दूसरा चतुर्मास परमश्रद्धेय आचार्यश्री तुलसी से पृथक किया था। इसका मुख्य उद्देश्य अणुव्रत शिविर का संचालन था। यह धर्म संघ का पहला सार्वजनिक शिविर था। अणुव्रत शिविरों की सीमा में आज भी वह अंतिम बना हुआ है। उसमें लगभग 250 व्यक्तियों ने भाग लिया। जैनेंद्रजी, दादा धर्माधिकारी, गोपीनाथ 'अमन' मोहनलाल कठोतिया, रामेश्वर ठेकेदार आदि दिग्गज व्यक्ति भी सहभागी थे। यशपाल जैन, कविवर हरिवंशराय बच्चन, मोरारजी देसाई, श्रीमन्नारायण आदि अनेक साहित्यकार, पत्रकार और राजनेता समय-समय पर सहभागी बनते थे। चार सप्ताह का शिविर सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। एक बार श्रीमन्नारायण ने कहा- 'मैं अनुभव कर रहा हूं कि यहां से निकलने वाला अध्यात्म का स्वर पूरे विश्व को प्रभावित करेगा।' जयप्रकाश नारायण, काका कालेकर, राष्ट्रकवि दिनकर, वियोगी हरि, प्रो. हुमायूं कबीर, गुलजारीलाल नंदा, डॉ राममनोहरलाल लोहिया आदि अनेक चिंतक मनीषी व्यक्तियों से मुनिश्री का आत्मीय संपर्क बना।

अणुव्रत शिविर में उच्चस्तरीय विद्वान मुनिश्री को घंटों तक सुनते। उस शिविर में मानवीय संबंधों और पारस्परिक व्यवहारों पर विस्तार से चर्चा हुई। 'मैं: मेरा मन: मेरी शांति' पुस्तक इसी शिविर का प्रतिफलन है। इस प्रवास में मुनिश्री के व्यक्तित्व एवं कतृत्व को व्यापक परिवेश मिला।

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व्यवस्था में सहभागिता

75. गण रै अंतरंग कार्या में अब थानै सागै रहणो,
जठै उचित आवश्यक लागै यथासमय खुलकर कहणो,
हो सुजना! 'आत्मा' में गण - हित चिंतन साझीदार हो।।

गण रै अंतरंग........

विक्रम संवत 2019 उदयपुर में चातुर्मास समाप्ति के पश्चात मेवाड़ के छोटे-छोटे गांवों की यात्रा। आचार्यवर का 'आतमा' गांव में प्रवास। मध्याह्न का समय। आहार के पश्चात 'गत दिवस वार्ता' का निवेदन करने के लिए मुनिश्री गुरुदेव की सन्निधि में पधारे। गुरुदेव ने कहा -'इधर आओ, देखो।' मुनिश्री निकट आए आचार्यवर ने उनके हाथ में पत्र थमा दिया। उसमें साधु - साध्वीयों की व्यवस्था के संकेत लिखे हुए थे। मुनिश्री ने उसे गौर से देखा।

आचार्यवर ने कहा - 'इतने दिन में संघीय व्यवस्था का कार्य अकेला करता रहा। आज पहली बार तुम्हें यह पत्र सौंप रहा हूं। इसे देखो और व्यवस्था के बारे में चिंतन शुरू करो।

उपरोक्त निर्देश के बाद मुनिश्री संघीय व्यवस्था में अंतरंगता से पूर्णरूपेण जुड़ गए। संघ के विषय में हित - चिंतन तो मुनिश्री बचपन से ही करते थे। वह नैसर्गिक संस्कार अब कार्यक्षेत्र में प्रस्फुटित होने लगा।

प्रस्तुत घटना के संदर्भ में गुरुदेव श्री तुलसी ने अपनी डायरी में उल्लेख किया है - 'आत्मा गांव में मैंने पहली बार उक्त कार्य में नया सहयोग लिया। कौन साधु किस सिंघाड़े के साथी बैठ सकता है? इस विषय में मुनि नथमलजी के साथ विचार - विमर्श किया। सहचिंतन से मुझे हलकेपन का अनुभव हुआ।'

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समय प्रबंधन भाग 2

74. समय प्रबंधन कला अनुतर हर वासर रा तीन विभाग,
ज्ञान - शक्ति - आनंद साधना स्यूं जाग्यो अंतर अनुराग,
हो सुजना! 'नि:शेषम्' सूत्र सदा रखतो निर्भार हो ।।

नि:शेषम् सूत्र........

मुनिश्री प्रतिदिन अनेक कार्यों में अपना समय नियोजित करते। प्रत्येक कार्य के लिए प्राय: समय निश्चित होता। जैसे ही एक कार्य पूरा होता, उस कार्य को वहीं समाप्त कर देते। उस कार्य का फिर मुनिश्री के मन पर कोई भार नहीं होता।
आगम संपादन के संदर्भ में मुनिश्री ने अपने जीवन का एक सूत्र निर्धारित किया- 'नि:शेषम्।' निश्चित समय पर कार्य के लिए प्रस्तुत होना, निश्चित समय पर कार्य से विरत हो जाना और इस भावना के साथ विरत होना - आज का कार्य शेष हो गया, कुछ भी बाकी नहीं बचा। उस कार्य की स्मृति पुन: दूसरे दिन उसी निश्चित समय पर ही करना - उससे पूर्व कार्य के संदर्भ में न सोचना, न चिंतन करना और न अनावश्यक चर्चा में उलझना। मुनिश्री कि इस सुगम चर्या का वाचक शब्द है - नि:शेषम्।

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समय प्रबंधन भाग 1

74. समय प्रबंधन कला अनुत्तर हर वासर रा तीन विभाग,
ज्ञान - शक्ति - आनंद साधना स्यूं जाग्यो अंतर अनुराग,
हो सुजना! 'नि:शेषम' सूत्र सदा रखतो निर्भार हो ।।

समय प्रबंधन कला अनुत्तर........

उज्जैन में परम पूज्य गुरुदेव के सानिध्य में आगम - संपादन की यात्रा शुरू हुई। मुनि नथमलजी के निर्देशन में यह कार्य चल रहा था। उन्होंने सोचा - कार्य बहुलता के कारण कई स्वास्थ्य पर असर ना जाए। इस चिंतन के साथ उन्होंने दिन को तीन भागों में विभाजित कर दिया-
1. प्रात:काल- आनंदोपासना, ध्यान, स्वाध्याय आदि के रूप में व्यक्तिगत साधना। इसके द्वारा मोहकर्म का विलय होता है।
2.मध्याह्न- ज्ञानोपासना, आगम- संपादन आदि कार्य। इससे ज्ञानावरणीय कर्म का विलय होता है।
3.रात्रि - शक्ति -उपासना। जप आदि का प्रयोग। इसके द्वारा अंतराय कर्म का विलय होता है।

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आगम संपादन

73. जैनागम पर भाष्य लिख्या श्री संघदास जिनदासगणी,
भद्रबाहु रै क्रम में ओपै महाप्रज्ञ गण - मुकुटमणी,
हो सुजना! जैन धर्म में विरला एह्वा भाष्यकार हो ।।

जैन धर्म में विरला........

आगम साहित्य में भाष्य का महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग का संस्कृत में भाष्य लिखा। हजारों वर्षों बाद किसी आगम का संस्कृत में भाष्य लिखा गया। इस भाष्य का आलेखन कर आचार्य महाप्रज्ञ जैन आगम के भाष्यकारों की पंक्ति में अवस्थित हो गए। भाष्यकारों की बहुत विश्रुत और गरिमापूर्ण परंपरा रही है। आचार्य महाप्रज्ञ के प्रस्तुत भाष्य ने प्राचीन आगम की भाष्य परंपरा का पुनरुज्जीवन किया है। आचारांगभाष्यम् का आलेखन कर आचार्य महाप्रज्ञ अनेक आगमिक रहस्यों के अनावरण मौलिक प्रस्थापनाओं के प्रस्तुतीकरण और महावीर के दर्शन - चिंतन को एक नया आयाम देने में सफल रहे। तीन वर्ष के अनवरत श्रम से निष्पन्न यह ग्रंथ भारतीय प्राच्य विद्या की अनमोल धरोहर है।
आचारांग भाष्य की भूमिका में गुरुदेव ने इस विषय को स्पष्ट किया है - 'आचारांग के व्याख्या ग्रंथों में इसका अपना विशिष्ट स्थान है। अनेक वर्षों से मेरे मन में कल्पना थी कि आगम पर भाष्य लिखा जाए। मेरी भावना महाप्रज्ञ तक पहुंची और इन्होंने सरल संस्कृत भाषा में आचारांग भाष्य का प्रणयन कर दिया। इन्होंने चूर्णि और वृत्ति से हटकर अनेक शब्दों, पदों और सूत्रों का सर्वथा नया अर्थ किया है। वह अर्थ स्वकल्पित नहीं, किंतु सूत्रगत गहराई में पैठने की सूक्ष्म मेधा से प्राप्त है।'

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आगम संपादन

72. पदयात्रा नियमित दिनचर्या सुलभ कठै हा संसाधन,
बिना रुक्यां अरु बिना थक्यां ही करता रहता संपादन,
हो सुजना! भरता प्रतिभा बल स्यूं जिनमत भंडार हो ।।

पदयात्रा नियमित दिनचर्या...........

एक और सुदूर प्रदेशों की यात्राएं, दूसरी और आगम - संपादन का कार्य। दोनों प्रवृत्तियों में सामंजस्य कैसे खोजा जा सकता है? एक स्थान पर दीर्घकालिक प्रवास हो, बृहत्तम पुस्तकालय और शोधोपयुक्त सामग्री की सुलभता हो तो आगम संपादन जैसे भगीरथ कार्य में अनुकूलता होती है। प्रतिदिन विहार करना, आवश्यक धर्मोपकरण अपने कंधो पर रखकर चलना, स्थान की अनुकूलता और प्रतिकूलता के साथ समायोजन करना, अपेक्षित साहित्य की सुगमता नहीं होना - इस तरह की अनेक स्थितियों में भी आगम - संपादन का काम चलता रहा।

एक बार राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू ने जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम - ग्रंथ देखकर कहा - आचार्यश्री! आप यात्रा में इतना दुरूह कार्य कैसे करते हैं?

आचार्यश्री तुलसी - 'हमारे पास बाह्य साधन सामग्री कम है पर सौभाग्य से हमें अंतर्दृष्टि प्राप्त है इसलिए यह कार्य निर्बाध गति से चल रहा है। यदि हम साधन - सामग्री पर निर्भर होते तो यात्रा में इतना बड़ा काम कभी नहीं होता।' आचार्यवर की यह वाणी यथार्थ पर आधारित थी।

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आगम संपादन

71. टिप्पण देख 'नियाग' शब्द रो महाप्राण स्यूं मिल्यो प्रसाद,
दवा विगय बगसीस कराई व्यक्त करयो अंतर आह्लाद,
हो सुजना! समय-समय पर प्रोत्साहित करता जगतार हो।।

टिप्पण देख नियाग शब्द रो........

आचार्य तुलसी कानपुर में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। दसवैकालिक के संपादन का कार्य चल रहा था। उसके तीसरे अध्याय के एक शब्द 'नियाग' पर मुनिश्री ने पर्याप्त चिंतन किया। अनेक ग्रंथों के अध्ययन के बाद उसका अर्थ किया और उस पर एक वृहद टिप्पण लिखा। उसे देखकर आचार्यवर ने प्रसन्नता के साथ उन्हें पुरस्कृत किया।

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आगम संपादन

69. मूलपाठ रो संशोधन, अनुवाद और संस्कृत छाया,
पाठांतर, टिप्पण, व्याख्या, संपादन रा मौलिक पाया,
हो सुजना! हुवै न इणमें कदै मत्ता ग्रह अऔरो संचार हो।।

हुवै न इणमें कदे मताग्रह........

आगम संपादन के प्रति आचार्यश्री तुलसी का दृष्टिकोण शोधपरक रहा। सांप्रदायिक आग्रह किचिंत भी नहीं था। उज्जैन चातुर्मास में मुख्य लक्ष्य आगम संपादन का था। एक दिन साधु - साध्वियों को संबोधित करते हुए आचार्य वर ने कहा-
'हम आगम संपादन का एक बहुत बड़ा काम हाथ में ले रहे हैं। हमें गहरी निष्ठा और शक्ति के नियोजन से इस कार्य को संपन्न करना है। इसमें हमें पूरी तटस्थता रखनी है। आगमों के साथ न्याय करना है। यह काम करते समय हमारी दृष्टि में कोई सांप्रदायिक आग्रह न हो। आगम के मूल अर्थ से कहीं कोई सांप्रदायिक परंपरा भिन्न हो तो उसका उल्लेख हम पाद -टिप्पण में कर सकते हैं।'
मुनि नथमल जी (आचार्य महाप्रज्ञ) ने आचार्यवर के इस निर्देश के अनुसार आगम- संपादन के कार्य को आगे बढ़ाया।

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आगम संपादन

68. दो हजार बारह रो पावस उज्जयिनी नगरी अभिराम, च्यार मास तक चल्यो ठाठ स्यूं आगम संपादन रो काम, हो सुजना! गुरु- आज्ञा मुनि नथमल निर्देशनकार हो।।

दो हजार बारह रो पावस........

उज्जैन चातुर्मास में आचार्य श्री तुलसी ने साधु - साध्वियों की सभा में कहा- 'हमें यह कार्य वेतनभोगी पंडितों से नहीं कराना है। इसमें हमें अपने पुरुषार्थ का नियोजन करना है। आगम कार्य के संपादन का समग्र दायित्व मुनि नथमलजी (टमकोर) को सौंप दिया गया है और उनके साथ कुछ सहयोगी साधुओं की भी नियुक्ति कर दी।'

आगम संपादन

आगम संपादन

66. बौद्ध धर्म रा पिटकां रै संपादन रो संवाद पढयो,
जैन आगमां रै संपादन रो प्रशस्त प्रारूप गढयों,
हो सुजना! बोलो नथमलजी! के हो थे तैयार हो।।
हो सुजना। फरमायो गुरुवर तुलसी कृपा करार हो ।।

67. गुरु री अणमापी ऊर्जा स्यूं सब कुछ संभव हो ज्यासी,
सदा समर्पित गुरु - चरणां में करस्यूं जो प्रभु फरमासी,
हो सुजना! 'सृष्टी संकल्पजा' सूक्ति साकार हो।।

बौद्ध धर्म रा पिटकां रै........

गुरुदेवश्री तुलसी की महाराष्ट्र यात्रा। मंचर गांव। अपराह्न का समय। अनायास ही गुरुदेव के हाथ में 'धर्मदूत' नामक पत्र आया। उसमें बोद्ध - पीटकों के संपादन और प्रकाशन की बात थी। उस संवाद को पढ़ते ही गुरुदेवश्री के मस्तिष्क में जैन आगम आ गए। गुरुदेव ने सोचा - 'बौद्ध साहित्य पर अब तक काफी काम हो चुका है, काफी प्रसार भी हो चुका है फिर भी बौद्ध विद्वान निश्चिंत नहीं है। उन्होंने बौद्ध- पीटकों के संपादन की एक व्यवस्थित योजना बनाई है। जैन आगम भी इतने ही महत्वपूर्ण है किंतु जैन विद्वानों का उनकी ओर ध्यान ही नहीं गया।
जैन आगम पर अब तक काम क्यों नहीं हुआ?
गुरुदेव के मस्तिष्क में उथल-पुथल मच गई। कुछ करने के लिए मन आतुर हो गया। उन्होंने तत्काल मुनि नथमल जी को बुलाया। वे आए। 'धर्मदूत' पत्र उनके हाथ में थामते हुए गुरुदेवश्री ने फरमाया - पढ़ो क्या लिखा है?
मुनि नथमलजी - बौद्ध पिटकों के संपादन और प्रकाशन की बात है।'
गुरुदेव - 'क्या हम भी जैन आगमों का कार्य हाथ में लें?'
बिना एक क्षण सोचे मुनि नथमलजी ने कहा- 'अवश्य ले। चिंतन बहुत सुंदर है।'
चिंतन को क्रियान्वित करने के लिए एक बार फिर गुरुदेव ने मुनिश्री से कहा- 'यह काम हो सकेगा? तुमने पूरा सोच तो लिया है?'
मुनि नथमलजी - 'इसमें सोचने की क्या अपेक्षा है? आपका जो भी संकल्प होगा, वह अवश्य फलवान बनेगा।'
गुरुदेव-' नथमलजी! यह चिंतन कोरा उपचार नहीं है। इसे गंभीरता से लो। एक बार फिर गहराई से सोच लो। हमें वही काम हाथ में लेना है, जिसे हम कर सकें।
मुनि नथमल जी ने दृढ़ता के साथ कहा - 'आप जो चाहेंगे वह होगा।'
मुनि नथमलजी की निर्विकल्प चित् की सहमति के पश्चात रात्रि में गुरुदेव ने सब साधुओं को संबोधित करते हुए फरमाया - 'जैन आगमों के संपादन का काम हमें करना है। यद्यपि इस काम का कोई अनुभव नहीं है, कार्य - पद्धती भी निश्चित नहीं है फिर भी मन में उमंग है। मैं यह भी चाहता हूं कि हमारा काम ऐसा - वैसा नहीं होना चाहिए। मूलपाठ का संपादन, हिंदी अनुवाद, आधुनिकतम टिप्पणियां, शब्दकोश आदि जितने काम आवश्यक प्रतीत होंगे, वे सब करने होंगे? बताओ, किसकी तैयारी है?
उपस्थित सभी साधुओं ने हार्दिक भाव से कार्य करने की इच्छा व्यक्त की।

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प्रथम पृथक् चातुर्मास

64. बहिर्विहारी बण आयो सरदारशहर पहलो पावस,
प्रस्फोटन कर्तृत्व शक्ति रो पायो पुर में घणो सुयस,
हो सुजना! मुख-मुख पर मुखरित मंजुल मृदु व्यवहार हो।।

65. दिन में कर कंठस्थ रात रामायण रो रसमय व्याख्यान,
परिषद में विज्ञाता श्रोता सुणणे में रहता इकतान,
हो सुजना! वाणी कल्याणी बरसी धारासार हो।।

दिन में कर कंठस्थ........

परम पूज्य आचार्य श्री तुलसी ने मुनिश्री नथमल नजी का विक्रम संवत 2001 का चातुर्मास सरदारशहर घोषित किया। यह मुनिश्री का आचार्यवर से पृथक प्रथम वर्षावास था। सरदारशहर का श्रावक समाज, प्रबुद्ध, जागरूक और तत्वज्ञ है। ऐसा माना जाता है कि सरदारशहर में जो सफलतापूर्वक चातुर्मास व्यतीत कर देता है, वह सफल अग्रगण्य कहलाता है। कौन - सा अग्रगण्य कैसा है? सरदारशहर इसका निर्णाय क्षेत्र होता था।

उस समय रात्रि के समय रामचरित का व्याख्यान अनिवार्य रूप से होता था। प्रकाश आदि की सुविधा उस समय नहीं हुआ करती थी। हजारों- हजारों लोगों की उपस्थिति में मुनिश्री रामायण सुनाया करते। वहां के अनेक श्रावकों को भी रामायण कंठस्थ थी। एक भी गाथा छूट जाती तो श्रावक तत्काल कहते - 'महाराज! यह गाथा छूट गई!' इसलिए प्रत्येक व्याख्याता को पूरी तैयारी के साथ प्रवचन करना होता था। मुनिश्री प्रतिदिन रामायण कंठस्थ करते, रात्रि में उसका व्याख्यान करते। सरदारशहर का प्रथम सफल पावस जनता के मन में एक गहरी और अमिट छाप छोड़ गया।

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कविता लेखन

कविता लेखन

  1. पारायण गहरा ग्रंथां रो कविता लेखन में विश्राम,

 काव्यात्मक स्फुरणा स्यूंं खुलता चिंतन रा प्रेरक आयाम,

 हो सुजना! ऋषभायण महाकाव्य है रम्याकार हो।।

 

भाग 1

 

पारायण गहरा ग्रंथां रो........

 

 दर्शन की जटिल गुत्थियोंं को सुलझाने के लिए मुनिश्री को अनेक ग्रंथों का अनुशीलन करना होता। इस प्रक्रिया में कभी-कभी श्रम का अतिरेक हो जाता। कार्यान्तर को विश्राम मानने वाले मुनिश्री के विश्रांति के क्षण उनके कवि मानस को प्रबुद्ध करने वाले हो जाते। ऐसा ही एक प्रसंग है - जैन सिद्धांत दीपिका के संपादन का। दर्शन की किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए आपने अनेक ग्रंथों का आवगाहन किया। अत्यंत बौद्धिक श्रम के बाद मुनिश्री नगर के बाहर उद्यान में गमन योग के लिए पधारे। उद्यान के मनोरम वातावरण में विश्राम किया। इन क्षणोंं में मुनिश्री का कवि - मानस बोल उठा-

 

आनंदस्तव रोदनेऽपि  सुकवे! मे नास्ति तद्व्याकृतौ,

  दृष्टिर्दार्शनिकस्य संप्रवदतो जाता समस्यामयी।

 किंं सत्यंं त्वितिचिन्तया ह्रतमते! क्वानन्दवार्ता तव,

 तत् सत्यं मम यत्र नंदति  मनोनैका हि भूरावयो:।।

 

 दार्शनिक का प्रतिनिधित्व करते हुए मुनिश्री ने कवि से कहा - कविशेखर! तुम्हारे रोने में भी आनंद है और मुझे आनंद की व्याख्या करने में भी आनंद नहीं आता। मैं जैसे-जैसे आनंद को समझने और उसकी व्याख्या करने का प्रयास करता हूं, वैसे - वैसे मेरी दृष्टि समस्याओं से भर जाती है।

 

 कवि ने कहा - दार्शनिक! तुम इस बात में उलझ जाते हो कि 'सत्य क्या है? तुम्हारी बुद्धि उसी में लग जाती है। तुम्हारे लिए आनंद की बात ही क्या है? किंतु मेरा अपना सूत्र यह है कि जिसमें मन आनंदित हो जाए, वह सत्य है। मेरे लिए सर्वत्र सत्य ही है, आनंद ही आनंद है। दार्शनिक तुम्हारी और मेरी भूमिका एक नहीं है।'

 

 एक सृजन की थकान मिट गई और नया सृजन प्रस्फुटित हो गया। सृजन का यह क्रम निर्बाध गति से चलता रहा।।

 

 

भाग 2

 

ऋषभायण महाकाव्य........

पूज्य गुरुदेवश्री की प्रेरणा की फलश्रुति है - 'ऋषभायण' का   प्रणयन। तेरापंथ धर्मसंघ में हिंदी भाषा में आलेखित यह प्रथम महाकाव्य है। इस महाकाव्य से केवल हिंदी जगत ही समृद्ध नहीं हुआ अपितु इसके माध्यम से जैनधर्म, दर्शन, इतिहास और संस्कृति का अभिनव आलेख प्रस्तुत हुआ।।

 

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पारायण गहरा ग्रंथां रो........

कविता लेखन

63. पारायण गहरा ग्रंथां रो कविता लेखन में विश्राम,
काव्यात्मक स्फुरणा स्यूंं खुलता चिंतन रा प्रेरक आयाम,
हो सुजना! ऋषभायण महाकाव्य है रम्याकार हो।।

पारायण गहरा ग्रंथां रो........

दर्शन की जटिल गुत्थियोंं को सुलझाने के लिए मुनिश्री को अनेक ग्रंथों का अनुशीलन करना होता। इस प्रक्रिया में कभी-कभी श्रम का अतिरेक हो जाता। कार्यान्तर को विश्राम मानने वाले मुनिश्री के विश्रांति के क्षण उनके कवि मानस को प्रबुद्ध करने वाले हो जाते। ऐसा ही एक प्रसंग है - जैन सिद्धांत दीपिका के संपादन का। दर्शन की किसी गुत्थी को सुलझाने के लिए आपने अनेक ग्रंथों का आवगाहन किया। अत्यंत बौद्धिक श्रम के बाद मुनिश्री नगर के बाहर उद्यान में गमन योग के लिए पधारे। उद्यान के मनोरम वातावरण में विश्राम किया। इन क्षणोंं में मुनिश्री का कवि - मानस बोल उठा-

आनंदस्तव रोदनेऽपि सुकवे! मे नास्ति तद्व्याकृतौ,
दृष्टिर्दार्शनिकस्य संप्रवदतो जाता समस्यामयी।
किंं सत्यंं त्वितिचिन्तया ह्रतमते! क्वानन्दवार्ता तव,
तत् सत्यं मम यत्र नंदति मनोनैका हि भूरावयो:।।

दार्शनिक का प्रतिनिधित्व करते हुए मुनिश्री ने कवि से कहा - कविशेखर! तुम्हारे रोने में भी आनंद है और मुझे आनंद की व्याख्या करने में भी आनंद नहीं आता। मैं जैसे-जैसे आनंद को समझने और उसकी व्याख्या करने का प्रयास करता हूं, वैसे - वैसे मेरी दृष्टि समस्याओं से भर जाती है।

कवि ने कहा - दार्शनिक! तुम इस बात में उलझ जाते हो कि 'सत्य क्या है? तुम्हारी बुद्धि उसी में लग जाती है। तुम्हारे लिए आनंद की बात ही क्या है? किंतु मेरा अपना सूत्र यह है कि जिसमें मन आनंदित हो जाए, वह सत्य है। मेरे लिए सर्वत्र सत्य ही है, आनंद ही आनंद है। दार्शनिक तुम्हारी और मेरी भूमिका एक नहीं है।'

एक सृजन की थकान मिट गई और नया सृजन प्रस्फुटित हो गया। सृजन का यह क्रम निर्बाध गति से चलता रहा।

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प्रेमी पाठक और प्रयोक्ता........

62. वरदपुत्र मांं सरस्वती रा ध्रुवतारा दर्शन युग रा,
प्रेमी पाठक और प्रयोक्ता अटलबिहारी - सा सखरा,
हो सुजना! मिल्यो अचिंतन स्यूं चिंतन रो नवउजियार हो।।

प्रेमी पाठक और प्रयोक्ता........

श्री अटलबिहारी वाजपेयी महाप्रज्ञ - साहित्य के अध्येता हैं। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो, महाप्रज्ञ की नवीन प्रकाशित पुस्तक वाजपेयीजी को न मिली हो। जब भी कोई संत वाजपेयीजी से मिलते, वाजपेयीजी कह देते - महाप्रज्ञजी की अमुक नवीन प्रकाशित पुस्तक मिल गई है। क्या उसके बाद कोई नई कृति आई है?

13 मई 1994 । भारत की राजधानी दिल्ली, अक्षय तृतीया का पावन पर्व, विशाल जनमेदिनी को संबोधित करते हुए श्री वाजपेयीजी ने कहा - 'मैं महाप्रज्ञ के साहित्य का प्रेमी पाठक हूं। अपने भाषणों में उनकी कथाओं, दृष्टांतो और मौलिक विचारों का बहुत उपयोग करता रहा हूं। आज पहली बार महाप्रज्ञ की कथा उनके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।' यह कहते हुए उन्होंने महाप्रज्ञ द्वारा प्रयुक्त एक मार्मिक कथा सुनाई, जिसमें समस्या की जड़ का स्पर्श था। विशिष्ट अंदाज में प्रस्तुत उस कथा को सुन श्रोता मंत्रमुग्ध हो उठे।

कर्तृत्व की गूंज

कर्तृत्व की गूंज

60. लोक कला मंडल में जाता लेवण जैन कला शिक्षण,
सुण प्रश्नां री दीर्घ श्रृंखला विस्मित रहग्या दर्शक गण,
हो सुजना! हुया समर्पित सब बहगी उलटी रसधार हो।।
हो सुजना! श्रद्धा स्यूं चरणां में नत आखिरकार हो।।

लोक कला मंडल में........

गुरुदेव श्री तुलसी का चातुर्मास उदयपुर में था। अणुव्रत प्रवक्ता देवीलालजी सामर भारतीय लोक कला मंडल के संस्थापक निर्देशक थे। इस संस्था के कलाकारों ने भारतीय संस्कृति को कठपुतलियों के माध्यम से अभिव्यक्त कर अनेक राज्यों के नृत्यों का भाव, भाषा शैली में रोचक प्रदर्शन कर पूरे विश्व में ख्याति अर्जित की है। श्री सामर गुरुदेव के परम भक्त थे। गुरुदेव ने एक दिन श्री सामरजी की प्रार्थना पर मुनिश्री नथमलजी को आदेश दिया - जैन दर्शन में कला की क्या उपयोगिता है, इसका अध्ययन तुम्हें करना है। इसके लिए तुम प्रतिदिन लोक कला मंडल में जाया करो। मुनिश्री गुरुदेव के आदेश को स्वीकृत कर प्रतिदिन लोक कला मंडल जाने लगे। वहां वे अपनी जिज्ञासाऐं सामरजी के सामने प्रस्तुत करते और सामरजी उनका समाधान करते। मुनि श्री के उर्वर चिंतन को देख सामरजी विस्मित रह गए। उन्होंने एक दिन आपसे कहा - मुनिश्री! मुझे आप प्रश्न लिखकर दें, मैं दूसरे दिन उनका समाधान कर दिया करूंगा। अहं पोषण का यह उपाय भी असफल रहा। जैसे तैसे दस दिन बीते। ग्यारहवें दिन सामरजी ने गुरुदेव को निवेदन करते हुए कहा - गुरुदेव! आपने मेरी यह परीक्षा क्यों ली? मैं तो मुनिश्री नथमलजी का शिष्य हूं, वे मेरे गुरु हैं।

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कर्तृत्व की गूंज

59. विद्या परिषद संगोष्ठयां में प्राच्य संपदा रो मंथन,
आयारो भगवई आदि पर शोध पत्र चर्चा चिंतन,
हो सुजना! अणचिंती होती प्रश्नां री बौछार हो।।
हो सुजना! महाप्रज्ञ पर देख्यो सारो दारमदार हो।।

विद्या परिषद संगोष्ठया में........

साधु - साध्वियों की प्रतिभा को प्रस्तुत करने का एक सशक्त माध्यम - जैन विद्या परिषद का आयोजन बना। इसके अधिवेशनों में जैन जगत के मूर्धन्य विद्वानों को आमंत्रित किया जाता था। वे चुने हुए विषयों पर अपने शोधपूर्ण पत्र पढ़ते थे। जैन विद्या परिषद के इन अधिवेशनो में साधु - साध्वियों को विषय देना, विषय से संबद्ध सामग्री को व्यवस्थित रुप देना आदि -आदि कुछ ऐसे कार्य होते, जिनको संपादित करने में मुनिश्री अपने समय और सामर्थ्य का नियोजन करते।

जैन विद्या परिषदों में तेरापंथ का बौद्विक पक्ष अत्यंत प्रभावी ढंग से सामने आया। प्रत्येक शोध - पत्र पर होने वाले प्रश्नोत्तर एवं विचार- मंथन ने अनेक विद्वानों को विस्मित किया। पंडित दलसुखभाई मालवाणिया आदि अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों ने गुरुदेव तुलसी के सानिध्य में होने वाली इन विद्या परिषदों पर टिप्पणी करते हुए कहा - 'हमने अन्य संस्थाओं द्वारा आयोजित अनेक विद्या परिषदों में भाग लिया है पर आचार्य तुलसी के सानिध्य में होने वाली इस परिषद का रूप हमने कुछ दूसरा ही देखा है। अन्य विद्या परिषदों में भी हम शोध - पत्र पढ़ते हैं, चर्चा करते हैं किंतु अनेक प्रश्नों पर अटक जाते हैं। उनका कोई संतोषजनक समाधान हमें नहीं मिल पाता। इस विद्या परिषद की यह विशेषता है कि यहां कोई भी प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहता, सारे प्रश्न समाहित हो जाते हैं। इन समाधानो के मूल में हैं मुनिश्री नथमलजी। यह एक ऐसा आकर्षण है, जो यहां आयोजित होने वाली प्रत्येक परिषद में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करता है।'

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कर्तृत्व की गूंज

भाग 2nd

58, वाग्वर्धिनी सभा विलक्षण दिग्गज विद्वाना रो ठाठ,
पूना संस्कृत भाषा रो गढ़ आशु कविता रो पाठ,
हो सुजना छंद स्रग्धरा रचना सुण कवि चित्राकार हो।।

छंद स्रग्धरा रचना सुण........

संस्कृत में धाराप्रवाहवक्तव्य देना एक महान उपलब्धि है किंतु संस्कृत में तत्काल काव्य की रचना कर देना उससे भी विशिष्ट उपलब्धि है। मुनिश्री किसी भी विषय पर, किसी भी छंद में तत्काल कविता करने में समर्थ हो गए। यह उनके बौद्धिक व्यक्तित्व का दुर्लभ पृष्ठ है।

27 फरवरी 1955 वाग्वर्धिनी सभा पूना में आंशुकवित्व के लिए विषय देते हुए डॉ. के.एन वाटवे ने कहा-
समयज्ञापकं यंत्रं नव्यानां हस्तभूषणम्।
स्रग्धरावृतमालम्ब्य, घटीयंत्रं हि वर्ण्यताम्।।

जो सदा समय बताती है, जो नवजवानों के हाथ का आभूषण बनी हुई है, उस घड़ी का स्रग्धराछंद में वर्णन करें।

स्रग्धराछंद संस्कृत भाषा का एक बृहद छंद है। इस छंद में संस्कृत श्लोक का निर्माण भी सहज नहीं होता, उसमें आशुकवित्व करना भारी कार्य है।

गुरुदेव उस सभा में उपस्थित थे। गुरुदेव ने मुनिश्री से कहा- क्या छंद में आशुकविता कर लोगे ? यदि संभव न हो तो दूसरा छंद देने के लिए कह दे।

मुनिश्री ने कहा- 'नहीं, मैं इस छंद में कविता कर सकता हूं।

मुनि श्री द्वारा स्रग्धरा छंद में आंशुकवित्व का पहला अवसर था। आत्मविश्वास की प्रबलता के कारण वह चुनौती समस्या नहीं बनी। तत्काल प्रस्तुत विषय पर चार श्लोक बना दिए।मुनिश्री द्वारा उदगीत एक श्लोक निदर्शन के लिए प्रस्तुत है-

यद्वाज्ञात: पुराणैनिखिलऋषिवरैव्याेंमवीक्ष्यापि काल:,
ज्ञाता तज्जायते वा प्रकृत्तिविवशता साम्प्रतं वर्धमाना।
स्वातंत्र्यस्य प्रणादो बहुजनमुखग: किंतु कार्यरूपे,
हस्ते बद्धवा घटीस्ता भवति च मनुजश्चित्रमासाधीन:।।

प्राचीन ऋषि-मुनियों ने आकाश को देखकर काल का ज्ञान किया था किंतु आज बढ़ती हुई प्रकृति की विवशता स्वयं ज्ञात है या ज्ञात हो सकती है। वर्तमान में स्वतंत्रता का स्वर जन - जन के मुख पर है, किंतु वह कार्यरूप मेंं परिणत नहीं है। आश्चर्य है कि मनुष्य हाथ पर घड़ीबांध कर उसके अधीन हो रहा है।
मुनिश्री द्वारा आंशुकवित्व के रूप में स्रग्धरा छंद में चार श्लोको को सुनकर विद्वद वर्ग विस्मित रह गया।

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कर्तृत्व की गूंज

58, वाग्वर्धिनी सभा विलक्षण दिग्गज विद्वाना रो ठाठ,
पूना संस्कृत भाषा रो गढ़ आशु कविता रो पाठ,
हो सुजना छंद स्रग्धरा रचना सुण कवि चित्राकार हो।।

वाग्वर्धिनी सभा विलक्षण........

आचार्यश्री तुलसी यात्रा के दौरान पूना पधारे। पूना प्रवेश से पूर्व अनेक लोगो ने कहा - महाराज! यह पंडितों की नगरी है। आप इसमें सार्वजनिक कार्यक्रम न करें। इन्हें केवल अपने समाज तक ही सीमित रखें। गुरुदेव ने उनकी इस प्रार्थना को महत्व नहीं दिया। जब भंडारण इंस्टिट्यूट, तिलक विद्यापीठ, संस्कृत वाग्वर्धिनी सभा, डेक्कन कॉलेज आदि राष्ट्रविश्रुत विद्या केंद्रों में मुनि नथमल (आचार्य महाप्रज्ञ) के संस्कृत में संभाषण तथा आशुकवित्व के प्रेरक प्रसंग बने, तब दक्षिण की काशी - पुना नगरी के विद्वान हर्ष विभोर हो उठे।पूना गुरुदेव श्रीतुलसी केवल नौ दिन ठहरे। इस दौरान लगभग सताईस संगोष्ठीयों का आयोजन हुआ।विद्या-क्षेत्र पूना में समायोजित इन महत्वपूर्ण कार्यों को दृष्टि में रख पूज्य गुरुदेव ने कहा - बंबई के नौ मास और पूना के केवल नौ दिन बराबर है।

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कर्तृत्व की गूंज

57.संस्कृत महाविद्यालय प्रांगण अनेकांत पर संभाषण,
झड़ी लगी तार्किक प्रश्ना री जाणक चर्चा समरांगण,
हो सुजना! संशयवाद न स्यादवाद, आया समझार हो।।

संस्कृत महाविद्यालय प्रांगण........

गुरुदेव श्री तुलसी कोलकाता यात्रा के दौरान बनारस पधारे। वहां संस्कृत महाविद्यालय के प्रांगण में प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित था। मंगलदेव शास्त्री उस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। पंडितो, प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों ने 'स्यादवाद' विषय पर वक्तव्य देने की प्रार्थना की। मुनिश्री ने संस्कृत में एक घंटा तक धाराप्रवाह प्रवचन किया। स्यादवाद संशयवाद नहीं है इसे स्पष्टता के साथ समझाया। उपस्थित पंडितों में से अधिकांश प्रसन्न हुए किंतु कुछ अप्रसन्न भी हुए। उन्होंने मुनिश्री को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर दिया। संस्कृत में ही प्रश्न और संस्कृत में ही उत्तर। यह क्रम काफी समय तक चलता रहा।

आपकी प्रतिभा से सारा विद्वद वर्ग चमत्कृत रह गया। आपके विद्वतापूर्ण उत्तरो से विद्यार्थी व प्राध्यापक वर्ग झूम उठा। कुछ पंडित अपने प्रभाव को घटता देख क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने मुनिश्री को आशुकवित्व के लिए निमंत्रित किया। आशुकवित्व के लिए विषय दिए जाने लगे। किसी ने राष्ट्रसंत पर आशुकवित्व चाहा तो किसी ने और - और विषयों पर। मुनिश्री सफलतापूर्वक आंशुकविता प्रस्तुत करते रहे।

सारी परिषद मंत्रमुग्ध हो गई। इस प्रकार यह क्रम संध्या तक चलता रहा। पंडित व अन्य बौद्धिक व्यक्ति यह जानते थे कि जैन मुनि रात में न खाते हैं, न इधर- उधर जा सकते हैं। उन्होंने अपनी पराजय को जय में बदलने के लिए इसे स्वर्णिम अवसर समझा। उन्होंने पूज्य गुरुदेव से कहा- 'हम संस्कृत में आपसे चर्चा, प्रश्नदि करना चाहते हैं।'

गुरुदेव - 'हमारा सारा कार्यक्रम निर्धारित है।'
विद्वान - 'हमारी प्रबल भावना अवश्य पूरी होनी चाहिए।'

गुरुदेव- हम रात्रि में यहां रहे, यह संभव नहीं है फिर भी आपकी इच्छा को पूर्ण करने के लिए मुनि नथमलजी यही रहेंगे। आप चाहे तो रात - भर इनसे चर्चा कर सकते हैं। इसके बाद सभा विसर्जित कर दी गई। रात्रि में प्रतिक्रमण के पश्चात मुनिश्री विद्वानों का इंतजार करते रहे। कोई भी विद्वान चर्चा के लिए नहीं आया। कुछ समय पश्चात कुछ विद्यार्थी आए। उन्होंने मुनीश्री को विनम्र प्रणाम करते हुए कहा- 'मुनिजी! आपने बाजी मार ली। अब आप आराम से सो जाएं कोई नहीं आएगा।'

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कर्तत्व की गूंज

56.प्रोफ़ेसर नॉर्मन बोल्या - 'सुणणो चाहूं प्राकृत भाषण'
' नथमलजी! बोलो, खोलो थांरी प्रज्ञा रो वातायन,'
हो सुजना! प्राकृत भाषा में प्रवचन ज्यूं जलधार हो ।।

प्रोफ़ेसर नॉर्मन बोल्या........

वि. सं. 2011में गुरुदेवश्री तुलसी का चातुर्मास मुंबई था। वहां पर पेनसिलवीनिया यूनिवर्सिटी के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ. नॉर्मन ब्राउन पहली बार दर्शनार्थं आए। उन्होंने गुरुदेव के साथ विविध विषयों पर वार्ता की। वार्तालाप के दौरान डॉ. नॉर्मन ब्राउन ने कहा - 'मेरे जीवन की एक चिर अभिलाषा है कि मैं भगवान महावीर की मूल भाषा - प्राकृत में प्रवचन सुनूं। आज तक मैं अनेक जैन मुनियों, आचार्यों के पास इस अभिलाषा के साथ गया, किंतु मेरी इच्छा आज तक पूरी नहीं हुई। आप ही इसे पूर्ण कर सकते हैं।'

उनकी उत्कृष्ट भावना को देखते हुए पूज्य गुरुदेव ने मुनिश्री नथमलजी को प्राकृत में प्रवचन करने का आदेश दिया। दूसरे दिन मध्याह्न में निर्धारित समय पर मुनि श्री ने भगवान महावीर के मुख्य सिद्धांत - स्यादवाद पर बीस मिनट तक धाराप्रवाह प्रवचन किया। उसे सुनकर डॉ. ब्राउन स्तब्ध रह गए।

डॉ. नॉर्मन ब्राउन ने गदगद होकर कहा - 'आचार्यजी! मैं आपका बहुत - बहुत कृतज्ञ हूं। आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है। मेरी भारत यात्रा सफल हो गई। मेरी प्राकृत में प्रवचन सुनने की चिरपोषित आशा पूर्ण हो गई। अब मैं चाहे अभी मरू या बाद में, मुझे कोई दु:ख नहीं होगा क्योंकि मेरी अंतिम मनोकामना पूरी हो गई है।'

पूज्य गुरुदेव ने उनकी बात सुनकर आह्लाद का अनुभव किया।

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महाप्रज्ञ प्रबोध, मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा

तुलसी यूनिवर्सिटी

55. कुणसी यूनिवर्सिटी में पढया भण्या थे बण्या बड़ा विद्वान,
'तुलसी यूनिवर्सिटी' सुण चौंक्या, कठै बताओ बो संस्थान ?
हो सुजना! देखो बो आगे चालै मम कृतिकार हो।।
हो सुजना! किन्हों मिट्टी स्यूं घट, गुरु - कुंभकार हो।।

कुणसी यूनिवर्सिटी में........

सन 1954 का वर्ष। मुंबई में परम पूज्य गुरुदेव आचार्य तुलसी का चातुर्मासिक प्रवास। कार्तिक का महीना। भारतीय विद्या भवन में संस्कृत संगोष्ठी का समायोजन। उच्च कोटि के विद्वानों का समागम। गोष्ठी में सम्मिलित होने के लिए आचार्यवर को भी आमंत्रण मिला। आचार्यवर वहां पधारे। मुनि नथमलजी भी उनके साथ थे। उन्होंने संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह वक्तव्य दिया। आशुकविता भी की। कार्यक्रम संपन्न हो गया। सबने वहां से प्रस्थान कर दिया।

मुनि नथमलजी कुछ पीछे रह गए। पांच - सात प्रोफेसर उनके निकट आए और बोले - 'मुनिजी! आपने किस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया है ? प्रश्न सामने आए और मुनिश्री उसका समाधान ना दे, यह उनको कभी भी मान्य नहीं था।

मुनिश्री नथमलजी की स्वत: मैधा से जवाब उभरा - 'तुलसी विश्वविद्यालय में' सर्वथा अश्रुत, अपरिचित और नया नाम। प्रोफ़ेसर उनकी ओर देखने लगे। उन्होंने अपनी स्मृति पर बहुत जोर डाला पर उक्त नाम का कोई विश्वविद्यालय उनके ध्यान में नहीं आया। आखिर उन्होंने पूछा - 'मुनिजी यह विश्वविद्यालय है कहां ?'

परम पूज्य गुरुदेव तुलसी मुनि नथमलजी से कुछ कदम आगे चल रहे थे। उन्होंने गुरुदेव की ओर इंगित करते हुए कहा - 'वह आगे चल रहा है। हमने उस चलते-फिरते विश्वविद्यालय में पढ़ाई की है।' विद्वान आश्चर्यचकित हो देखते से रह गए।

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महाप्रज्ञ प्रबोध, (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

परिवर्तन

54. केवल सतियां री गोष्ठी में नत्थू क्यूं बोलै गुरुवर!
प्रज्ञाबल पर मनै भरोसो इण खातिर देवूं अवसर,
हो सुजना! ऊर्ध्वारोहण री तेज चली रफ्तार हो।।

केवल सतियां री गोष्ठी में........

मर्यादा महोत्सव के अवसर पर शिक्षा गोष्ठियों के तीन रूप बनते हैं-
1.केवल साधुओं की गोष्ठी
2. केवल साध्वियों की गोष्ठी
3. साधु- साध्वियों की संयुक्त गोष्ठी

मर्यादा महोत्सव के अवसर पर होनेवाली शिक्षा गोष्ठियों में आचार्य ही शिक्षा - प्रवचन करते हैं। वि. सं. 2005 के मर्यादा- महोत्सव से मुनि नथमलजी ने भी गोष्ठियों में वक्तव्य देना शुरू कर दिया। प्रारंभ में साधु - साध्वियों की गोष्ठी में विचार व्यक्त करते। संघीय दायित्व के साथ जुड़ने के बाद केवल साध्वियों की गोष्ठी में भी उनके वक्तव्य होते। मुनिश्री के विषय रहते - साधना का विकास, व्यवस्था के प्रति जागरूकता, सेवा और बौद्धिक विकास। मुनिश्री का इस प्रकार गोष्ठियों में बोलना चर्चा का विषय बन गया।

एक दिन सेवाभावी मुनिश्री चंपालाल जी ने आचार्यवर से निवेदन किया- 'जब केवल साध्वियों की गोष्ठी होती है तो उसमें आपका ही शिक्षा- प्रवचन होना चाहिए। उसमें मुनि नथमलजी के वक्तव्य की अपेक्षा क्या है ?

आचार्यवर ने मुनिश्री चंपालालजी के निवेदन को ध्यान से सुना और संक्षिप्त उत्तर देते हुए कहा- 'उनका बोलना मुझे आवश्यक लगता है।'

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परिवर्तन

53. दो हजार पांच छापर पुर में प्रारंभ्यो योगाभ्यास,
आयो नयो मोड़ जीवन में पल-पल अध्यात्मिक आयास,
हो सुजना! परिवर्तन - परिष्कार आयो अणधार हो ।।

दो हजार पांच छापर........

विक्रम संवत 2005 के छापर चातुर्मास से पूर्व पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी सुजानगढ़ में विराज रहे थे। उस समय मुनि नथमल जी को प्रतिश्याय हुआ और वह बिगड़ गया। साथ में ज्वर भी रहने लगा। एलोपैथिक और आयुर्वेदिक इलाज कराएं किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। प्राकृतिक चिकित्सा करवाई ,उससे मुनिश्री अतिशीघ्र स्वस्थ हो गए। उसके पश्चात मुनिश्री ने प्राकृतिक चिकित्सा की अनेक पुस्तकें पढ़ी। यहीं से उनकी जीवन शैली में परिवर्तन प्रारंभ हो गया।

पहले तेरापंथ धर्मसंघ में आसन - प्राणायाम का क्रम प्राय: नहीं था। वि. सं. 2005 में मुनि नथमलजी ने आसन - प्राणायाम का प्रयोग प्रारंभ किया। भोजन में भी परिवर्तन किया। गरिष्ठ व तले हुए पदार्थों का परिहार किया, जैसे - दाल का हलवा, बादाम का हलवा, घेवर, जलेबी, बड़े - पकोड़े, कचौरी आदि।

आसन - प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान की रुचि भी जागृत हुई। मुनिश्री ने बीज मंत्रों की ध्वनि के प्रयोग भी किए। उदात स्वर में बीज मंत्रों की ध्वनि करने से लोग उनको हास्य का विषय भी बनाते फिर भी उन्होंने प्रयोग को नहीं छोड़ा। गुरुदेव तुलसी का प्रोत्साहन मिलता रहा। गुरुदेव तुलसी ने स्वयं प्रकृतिक चिकित्सा का प्रयोग किया। आसन - प्राणायाम और ध्यान के प्रयोगों का भी उन्होंने समर्थन किया। धीरे-धीरे उन सबकी जड़े हमारे धर्म संघ में गहरी होती चली गई।

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हिंदी भाषा

51.'आत्मा नै नहि जाणूं मानूं' वाक्य बण्यो सहसा वातूल,
नास्तिक पूरा मुनि नथमलजी, क्षम्य कियां होवै आ भूल,
हो सुजना! केवल मान रह्मा तब कुण है जाणणहार हो।।

आत्मा नै नहि जाणूं मानूं........

जैन व जैनेतर समाज में मुनि नथमलजी की एक दार्शनिक, चिंतक, साहित्यकार और कवि के रूप में पहचान हो रही थी। अनेक मनीषी उनके प्रत्यक्ष सानिध्य में गहन विषयों पर चिंतन - मनन करते। बहुत से विद्वान परोक्ष रूप से उन तक अपनी जिज्ञासा पहुंचा कर समाधान प्राप्त करते। एक बार जुगलकिशोर मुख्तार की प्रश्नावली मुनिश्री के पास आई। उसमें आत्मा के संदर्भ में प्रश्नों की एक लंबी सूची थी। उन्होंने उन सबका समाधान मांगा था। मुनिश्री ने विमर्शपूर्वक सब प्रश्नों को समाहित किया। उनमें एक बात लिख दी - 'मैं आत्मा को मानता हूं, जानता नहीं।'

यह लेख प्रख्यात पत्रिका कादंबिनी में प्रकाशित हुआ। चर्चा का वातूल खड़ा हो गया। आचार्यवर के पास लब्ध प्रतिष्ठ श्रावकों के पत्र आने शुरू हो गए। उन पत्रों का सार - संक्षेप यह था की एक जैन मुनि कैसे कह सकता है कि मैं आत्मा को नहीं जानता। जो आत्मा को नहीं जानता, वह जैन मुनि कैसे हो सकता है ?

उस समय आचार्यवर बिदासर में विराज रहे थे। पश्चिम रात्रि में मुनिश्री वंदना करने के लिए पधारे। आचार्यवर मुनि श्री को कहा - तुमने क्या लिख दिया! देखो, यह कागजों का पुलिंदा। प्रमुख - प्रमुख श्रावकों के पत्र आ रहे है।

मुनि श्री ने विनम्र स्वर में कहा - 'आचार्यवर! मैंने जो लिखा, संभवत: श्रावक उसे समझ नहीं पाए हैं और वे नहीं समझ पाए, उसका कारण भी मैं जानता हूं। वे संभवत: मानने और जानने के भेद को नहीं समझ पा रहे हैं इसलिए उनके मन में द्वंद पैदा हुआ है।'

मुनि श्री के लेख के विषय में प्रबल प्रतिवाद किया गया किंतु जैसे ही जानने और मानने का भेद स्पष्ट हुआ, सारी शंकाएं निरस्त हो गई।च

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हिंदी भाषा(2)

50.पहलो लेख लिख्यो हिंदी में सुक्ष्म 'अहिंसा' रो संदेश,
'जीव - अजीव' जिसी पोथी लिख सृर्जन क्षेत्र में करयो प्रवेश,
हो सुजना! बण ग्या तात्विक बोलां रा व्याख्याकार हो ।।

'जीव - अजीव' जिसी पोथी लिख........

मुनि नथमलजी के लिए वि. सं. 2000 का वर्ष नए उन्मेष का वर्ष था। चौबीसवें वर्ष में प्रवेश के साथ ही संस्कृत, प्राकृत और दर्शनशास्त्र के ग्रंथों का अध्ययन किया। उसी वर्ष हिंदी में भी लिखना शुरु कर दिया। उन्होंने सबसे पहले हिंदी भाषा में 'पच्चीस बोल' की व्याख्या लिखी। श्रीडूंगरगढ़ के कुछ युवकों और कुछ तत्व - रसिक प्रौढ़ व्यक्तियों ने उसका अध्ययन प्रारंभ किया। अध्ययन क्रम में संशोधन और परिवर्धन के साथ पूरी पुस्तक तैयार हो गई। उसका नाम रखा गया जीव -अजीव। हिंदी और दर्शन के क्षेत्र में मुनिश्री की यह प्रथम रचना थी।

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हिंदी भाषा

49. परामर्श दस्साणीजी रो लिख्यो राष्ट्रभाषा में लेख,
सुणकर चकित देखकर निजरां घोर अमां में विद्युल्लेख,
हो सुजना! ल्याया हिंदी भाषा री नई बयार हो।।

परामर्श दस्साणीजी रो........

गुरुदेवश्री तुलसी का वि. सं. 2001 का चातुर्मास सुजानगढ़ था। आपश्री के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में शुभकरणजी दसानी ने हिंदी में कुछ निबंध लिखें। उनमें साहित्यिक भाषा और भावों का प्रवाह था। कुछ साधुओं ने उनको पढ़ा। पढ़ने में वे रुचिकर लगे। उन्होंने अन्य साधु - साध्वियों से इसकी चर्चा की। निबंध पढ़ने की उत्सुकता जागी। अनेक साधु - साध्वियों ने उसको पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। निबंध पढ़े गए। सबको पसंद आए। इससे हिंदी पढ़ने और लिखने की प्रेरणा मिली। आचार्यश्री तुलसी के मन में एक विचार उभरा कि हमारे धर्म संघ में इतने साधु - साध्वियां हैं परंतु इनमें एक भी उच्च कोटि का चिंतक, लेखक और वक्ता नहीं है। काश हमारे साधु - साध्वियां आधुनिक भाषा में बोल पाते, लिख पाते। उस समय तेरापंथ में हिंदी का वातावरण नहीं था। हिंदी बोलना और लिखना - दोनों ही प्रचलन में नहीं थे। हिंदी बोलने वाले व्यक्तियों को अहंकारी माना जाता था। उस समय राजस्थानी एवं संस्कृत भाषा का ही प्रचलन था और उसे आदर की दृष्टि से देनखा जाता था। अनेक साधु हिंदी में पढ़ने की अपनी अभिरुचि एवं इच्छा को अभिव्यक्ति देने से घबराते थे। इस दौरान श्री शुभकरण दसानी ने आचार्यश्री तुलसी से कहा - कुछ साधु हिंदी में बहुत अच्छा लिखते हैं। उनके द्वारा लिखे गए निबंध और कविताएं मैंने पढ़ी है। उनका लेखन स्तर भी काफी अच्छा है। वे आपसे संकोच करते हैं, भय खाते हैं, इसलिए आपको नहीं दिखाते।

आचार्यवर ने इस बात को सुनकर लिखने वाले साधुओं को प्रोत्साहित किया और अब तक किए गए लेखन कार्य को नि:संकोच दिखाने के लिए कहा। लिखने वाले मुनियों में मुनिश्री नथमलजी भी थे। आचार्यवर मुनिश्री के निबंध एवं कविताएं पढ़कर प्रसन्नता व्यक्त की।

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संस्कृत भाषा

48. कल्पवृक्ष संस्कृत भाषा रो गण उपवन में हरयो- भरयो,
श्री कालू रो सपनों साचो पौरुष प्रतिमा बण निखरयो,
हो सुजना! लेखण - बोलण पर पायो वर अधिकार हो ।।

लेखण बोलण पर पायो........

वि. सं. 2002 का आचार्यप्रवर का चातुर्मासिक प्रवास श्रीडूंगरगढ़ में था। एक दिन संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान बुद्धदेव आर्य गुरुदेव के दर्शनार्थ आए। उन्होंने प्रातः कालीन प्रवचन में संस्कृत में भाषण दिया। उनका धाराप्रवाह भाषण सुन गुरुदेव के मन में चिंतन आया- 'हमारे धर्म संघ में संस्कृत के विद्वान साधु - साध्वीयां अनेक है, पर संस्कृत बोलने का अभ्यास कम है। यदि संस्कृत में धाराप्रवाह भाषण करना हो तो कठिनाई अनुभव होती है।' यह चिंतन प्रकर्ष पर पहुंच गया। आचार्यवरने विद्यार्थी साधुओं को निर्देश दिया - 'तुम संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने का अभ्यास करो।' गुरुदेवश्री के इंगित को समझकर कुछ साधुओं ने संस्कृत में बोलने का अभ्यास प्रारंभ कर दिया। श्रीडूंगरगढ़ में कस्बे के चारों और रेत के बहुत ऊंचे - ऊंचे टीले हैं। मुनिश्री ने उन ऊंचे टीलों पर खड़े होकर संस्कृत में भाषण करना शुरू कर दिया। कोई श्रोता नहीं था। चारों तरफ बालू के टीले। ऊपर आकाश, नीचे धरती। मुनि श्री ही वक्ता, मुनि श्री ही श्रोता। यह सिलसिला लगभग दो मास तक चला। उसके पश्चात मुनिश्री ने गुरुदेव से निवेदन किया- 'अब हम संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह बोल सकते हैं।' संस्कृत में लिखने का अभ्यास तो मुनिश्री को प्रारंभ से ही था।

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संस्कृत भाषा

48. कल्पवृक्ष संस्कृत भाषा रो गण उपवन में हरयो- भरयो,
श्री कालू रो सपनों साचो पौरुष प्रतिमा बण निखरयो,
हो सुजना! लेखण - बोलण पर पायो वर अधिकार हो ।।

लेखण बोलण पर पायो........

वि. सं. 2002 का आचार्यप्रवर का चातुर्मासिक प्रवास श्रीडूंगरगढ़ में था। एक दिन संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान बुद्धदेव आर्य गुरुदेव के दर्शनार्थ आए। उन्होंने प्रातः कालीन प्रवचन में संस्कृत में भाषण दिया। उनका धाराप्रवाह भाषण सुन गुरुदेव के मन में चिंतन आया- 'हमारे धर्म संघ में संस्कृत के विद्वान साधु - साध्वीयां अनेक है, पर संस्कृत बोलने का अभ्यास कम है। यदि संस्कृत में धाराप्रवाह भाषण करना हो तो कठिनाई अनुभव होती है।' यह चिंतन प्रकर्ष पर पहुंच गया। आचार्यवरने विद्यार्थी साधुओं को निर्देश दिया - 'तुम संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने का अभ्यास करो।' गुरुदेवश्री के इंगित को समझकर कुछ साधुओं ने संस्कृत में बोलने का अभ्यास प्रारंभ कर दिया। श्रीडूंगरगढ़ में कस्बे के चारों और रेत के बहुत ऊंचे - ऊंचे टीले हैं। मुनिश्री ने उन ऊंचे टीलों पर खड़े होकर संस्कृत में भाषण करना शुरू कर दिया। कोई श्रोता नहीं था। चारों तरफ बालू के टीले। ऊपर आकाश, नीचे धरती। मुनि श्री ही वक्ता, मुनि श्री ही श्रोता। यह सिलसिला लगभग दो मास तक चला। उसके पश्चात मुनिश्री ने गुरुदेव से निवेदन किया- 'अब हम संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह बोल सकते हैं।' संस्कृत में लिखने का अभ्यास तो मुनिश्री को प्रारंभ से ही था।

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अध्ययन का क्रम

43. संस्कृत प्राकृत भाषावां पढ़ गहरो शास्त्राभ्यास करयो,
ज्ञान - ध्यान री अलख जगाई कंचन कुंदन बण निखरयो,
हो सुजना! रघुनंदन योग मिल्यो पहुंच्या गिरनार हो।।

रघुनंदन योग मिल्यो........

मुनि श्री का संस्कृत प्राकृत के अध्ययन के पश्चात दर्शन के अध्ययन का क्रम शुरू हुआ। उन्होंने गुरुदेव के पास स्यादवाद मंजरी पढ़ी और प्रमाणनयतत्वलोकालंकार गुरुदेव के साथ पढ़ा। वि. सं. 1995 में पूज्य गुरुदेव का चतुर्मास सरदारशहर था। वहां पंडित रघुनंदनजी का आगमन हुआ। पंडितजी संस्कृत के धुरंधर विद्वान, आशुकवि और आयुर्वेदाचार्य थे। पंडितजी के पास प्रमाणनयतत्वलोकालंकार का अध्ययन प्रारंभ किया। दर्शन उनका विषय नहीं था। जैन न्याय और दर्शन के अध्ययन का गुरुदेव का प्रथम प्रयास था। समस्या का समाधान खोजा गया। भाषा का अर्थ पंडितजी करते और अर्थ का प्रतिपादन गुरुदेव करते। इस पारस्परिक योग ने दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

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मुनि तुलसी का पधाभिषेक

42. पाट बिराज्या तुलसी मुनिवर छात्रां रो मनडो मुरझ्यो,
कठै बैठस्यां उठस्यां सोस्यां चिंतन में चितडो़ उलझ्यो,
हो सुजना! गुरुवर समझाया सबनै निकट बुला'र हो ।।

पाट विराज्या मुनिवर तुलसी........

भाद्रपद शुक्ला नवमी के दिन युवाचार्य तुलसी का उल्लासपूर्ण वातावरण में आचार्य - पदाभिषेक किया गया। मुनि तुलसी, अब तक जो कुछ संतो के शिक्षक व आत्मीय मार्गदर्शक थे, अब सबके बन गए। पहले उनका सारा समय अपने विद्यार्थी साधुओं के विकास हेतु समर्पित था, किंतु अब उनके सामने समग्र तेरापंथ की प्रगति का दायित्व था। मुनि तुलसी का आचार्य तुलसी बनना बाल साधुओं को कुछ अटपटा - सा लगा। अटपटा लगने का कारण यह नहीं था कि मुनि तुलसी आचार्य तुलसी बन गए। इसका कारण यह था कि पहले मुनि तुलसी उनको हर समय उपलब्ध थे। दायित्व की चादर ओढ़ने के बाद उसमें बहुत लोग संविभागी बन गए। इस संविभाग से बाल मुनियों की अनेक प्रवृत्तियां, जो विद्या - गुरु मुनि तुलसी के साथ जुड़ी हुई थी, बाधित - सी हो गयी। पहले आहार मुनि तुलसी के साथ होता था। अब आहार साथ में संभव नहीं था। पदे - पदे ऐसी स्थिति थी। अध्ययन की व्यवस्था का कुछ समय के लिए गड़बड़ा जाना भी एक मुख्य कारण बना। बाल- साधुओं के अध्ययन में एक बार अवरोध सा आ गया। उस स्थिति का चित्रण स्वयं आचार्य श्री तुलसी ने 'मेरा जीवन: मेरा दर्शन' भाग 1 में किया है-

'पूज्य गुरुदेव की कृपा से मुझे विद्यार्थी साधुओं की पाठशाला संचालित करने का सौभाग्य मिला था। वि. सं. 1987 से 1993 के प्रथम भाद्रपद मास के प्रथम पक्ष तक पाठशाला व्यवस्थित रूप से चली। संघीय दायित्व से जुड़ते ही मेरा वह काम छूट गया। यद्यपि अध्यापन मुझे बहुत प्रिय था, किंतु हर काम की अपनी सीमाएं होती है। अध्यापन का क्रम टूटने से मुझे अटपटा- सा लग रहा था। विद्यार्थी साधुओं की बहुत अटपटा लगा। वे अन्यमनस्क - से रहने लगे। उनका मन नहीं लगता। मैंने उनकी मन: स्थिति को पढा़। एक दिन मुनि नथमलजी, मुनि बुद्धमलजी, मुनि दुलीचंदजी, मुनि जंवरीमलजी आदि को अपने पास बुला कर पूछा - तुम लोग आजकल क्या करते हो? स्वाध्याय, अध्ययन आदि का क्रम कैसे चलता है?' साधु बोले- 'हमारा मन नहीं लगता। हम क्या करें? मैंने उनको आश्वस्त करते हुए कहा - 'मेरी बहुत इच्छा है कि मैं अपनी पाठशाला चलाऊं, तुम लोगों को पढ़ाऊं। पर तुम्ही सोचो, अभी यह कैसे संभव है? अब तक मैं दिन - रात तुम्हारी निगरानी रखता था। अब तो मेरे सामने दूसरे काम भी है। मैं चाहता हूं कि अब तुम स्वावलंबी बनो। अध्ययन का क्रम बंद मत करो। स्वयं पढ़ो। अपेक्षा हो तो मेरे पास आ जाओ। मैं तुम्हें समय दूंगा। मैंने उन साधुओं की आकृति पढी़। उनकी भावना सुनी। थोड़े से दिनों में वे बहुत अव्यवस्थित हो गए थे। मैंने उनको आश्वासन दिया। उनके उखड़े हुए मन को जमाने का प्रयास किया और उन्हें पुनः अध्ययनरत होने की प्रेरणा दी।'

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मुनि तुलसी का सानिध्य

40. कालू पटोत्सव पर नयो छंद रच इमरत बरसायो,
शब्द -अर्थ गांभीर्य भरयो पर नत्थू रे नहि मन भायो,
हो सुजना! कविता अब नहीं लिखूं पक्को इकरार हो ।।

कालू पटोत्सव पर.......

वि. सं. 1991 मैं पुज्य का लूगणी जोधपुर में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा को उनका पदारोहण दिवस था। विद्यार्थी साधु भी गुरुदेव के अभिनंदन ने कुछ बोलना चाहते थे। उन्होंने मुनि तुलसी से पद्य बनाने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने सबके लिए पद्य बना दिए। बाल मुनि नथमल के लिए भी प्रद्य बनाया गया, पर वह उन्हें पसंद नहीं आया।

बाल मुनि नथमल ने कहा - 'आपने दूसरे साधुओं के लिए पद्य अच्छे बनाए हैं, मेरे लिए बना पद्य वैसा नहीं है।'

मुनि तुलसी - 'तुम्हारा पद्य बहुत अच्छा है।'

बाल मुनि अपने आग्रह पर अड़े रहे और मुनि तुलसी उन्हें समझाते रहे। आखिर बाल हठ था। बाल मुनि नहीं समझे। तब मुनि तुलसी ने कहा - 'आज से प्रतिज्ञा है कि भविष्य में कभी भी तुम्हारे लिए पद्य नहीं बनाऊंगा।

इस प्रतिज्ञा ने मुनिश्री के लिए कविता - सृजन का द्वार उद्घाटित कर दिया और एक दिन आया, जब मुनिश्री काव्य जगत् में उत्कृष्ट कोटि के कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए।

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मुनी तुलसी का सानिध्य

39. आओ संता! पाणी लेवण छप्पर नीचै पायो स्थान,
हुई शिकायत, चोट दूतरफी ओलम्भै स्यू मनडो़ म्लान,
हो सुजना! किणविध कर दी थे आज्ञा अस्वीकार हो।।
हो सुजना! मंत्रीश्वर बोल बण्या सहज्यां उपचार हो ।।

आओ संता! पाणी लेवण.......

गंगापुर चातुर्मास की समाप्ति के बाद आचार्य तुलसी बागोर पधारे। आहार के समय एक आदेश प्रसारित हुआ - पानी लाने वाले साधु पांच मिनट के भीतर उस स्थान पर चले जाएं, जहां गोचरी का विभाग होता है। सभी साधु अपने - अपने पात्र लेकर उस स्थान पर पहुंच गए जहां गोचरी का संविभाग हो रहा था। संविभाग स्थल के पास ही केलू का एक छपरा था। बाल - मुनि उस स्थान पर बैठ गए। शिवराजजी स्वामी ने उनको वहां बैठे देखकर कहा यहां - बैठने की मनाही है। तुम कैसे बैठ गए ? मुनि नथमलजी ने कहा - अपने स्थान पर बैठने की मनाही है, यहां बैठने का निषेध नहीं है। यह विभाग का स्थल है, यहां कोई खड़ा रहे या बैठे, इससे आपको क्या?

मुनि शिवराज जी तेरापंथ धर्म संघ के कोतवाल कहलाते थे। धर्म संघ में आचार - विचार की क्रियान्विति और आचार्य के आदेश /अनुशासन का सम्यक पालन हो रहा है या नहीं? इन बातों का ध्यान रखना उनका दायित्व था और वे अपने इस कार्य में पूर्ण सजग थे। बाल मुनि से उन्हें इस उत्तर की आशा नहीं थी। यद्यपि बाल मुनि का उत्तर तर्क संगत था पर विनय परंपरा की मांग कुछ और थी। वे तत्काल गुरुदेव के पास पहुंचे सारी घटना गुरुदेव के सामने रख दी। पूज्य गुरुदेव ने बाल मुनि को बुलाया और पूछा - तुम वहां क्यों बैठे?

बाल मुनि ने अपना तर्क फिर दोहरा दिया। व्यवहार में इस तरह के तर्क का प्रवेश अपेक्षित न जानकर पूज्य गुरुदेव ने उन्हें उपालंभ दिया। बाल मुनि ने उपालंभ को विनम्र भाव से सुना और सहा। वहां वे कुछ नहीं बोले, चुपचाप अपने स्थान पर लौट आए।

इस घटना से बाल मुनि का मन बहुत भारी हो गया। अपनी मन: स्थिति का चित्रण करते हुए स्वयं लिखते हैं-' मैं मन ही मन सोचता रहा- मेरा कोई प्रमाद नहीं हुआ, न मैंने कोई गलती की। शिवराजजी स्वामी ने और अकारण मुझे फंसा दिया। आचार्यवर ने भी उनकी बात को मानकर मुझे उपालंभ दे दिया। यह प्रतिक्रिया लंबे समय तक मेरे मन पर होती रही। मैं काफी समय तक इस बात को अपने मन से नहीं निकाल सका। यह कोई बड़ी बात नहीं थी, पर मेरे लिए यह बड़ी बात इसलिए बन गई कि मेरी भावना पर दोहोरी चोट पहुंची। मैं कल्पना नहीं करता था कि आचार्य श्री से इतनी प्रियता होते हुए भी और अकारण ही उनसे कड़ा उलाहना सुनना पड़ेगा। दूसरी बात, मेरे मन पर एक छाप थी - कालूगणी के व्यवहार की। मैंने सुना था -पूज्य कालूगणी को आचार्यों से कभी उलाहना नहीं मिला। मेरे मन का भी संकल्प था कि मैं भी कभी आचार्यवर से उलाहना नहीं सुनूंगा। मेरा संकल्प टूटता सा लगा, इससे मुझे बहुत आघात पहुंचा। मैं कोई प्रमाद न करूं, कभी उलाहना न सुनूं, किसी के प्रति कोई अनिष्ट चिंतन न करूं, अध्ययन में किसी से पीछे न रहूं - इन छोटे-छोटे संकल्प सूत्रों ने मेरी चेतना के जागरण में योग दिया, ऐसा मैं अनुभव करता हूं।

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मुनि तुलसी का सानिध्य

38. प्रवचन सामग्री- संग्रह री करणी मांडी तैयारी,
नाराजी लख महर - नजर में ठेस लगी मन में भारी,
हो सुजना! तुलसी नै राजी करणो दुक्करकार हो ।।

प्रवचन सामग्री - संग्रह री........

मुनि छत्रमलजी व्याख्यान की सामग्री का संकलन कर रहे थे। बाल मुनि नथमलजी के मन में भी यह भावना जागृत हुई। उन्होंने भी सामग्री - संकलन करने का निर्णय किया। मुनि तुलसी को इस बात की अवगति मिल गई। उन्होंने मनाही कर दी। इससे उनके शिशु मन को ठेस लगी। उस समय सामग्री - संकलन की जरूरत नहीं थी, पर विद्यार्थी - साधुओं में प्रतिस्पर्धा चल रही थी। कोई एक विद्यार्थी साधु व्याख्यान की सामग्री संकलित करें तो दूसरा कैसे नहीं करें। बाल मुनि ने आग्रह किया। मुनि तुलसी अप्रसन्न हो गए। मुनिश्री का यह दृढ़ संकल्प था कि मुझे अपने विद्या गुरु को कभी भी अप्रसन्न नहीं करना है। पर यदा कदा वे अप्रसन्न हो जाते तो उन्हें प्रसन्न किए बिना उन्हें भी चैन भी नहीं मिलता। उन्होंने बहुत विनयपूर्वक मुनि तुलसी को प्रसन्न किया।

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मुनि तुलसी का सानिध्य

37.म्हारे सरखा बणष्यो के थे? विद्यागुरु ओ प्रश्न करयो,
' आप बणास्यो तो बण ज्यास्यूं' पूर्ण समर्पण भाव भरयो,
हो सुजना! चोरडिया महफिल बणगी की यादगार हो ।।

म्हारे सरखो बणस्यो के थे.......

लाडनूं में पूज्य कालूगणी का प्रवास। तीसरी पट्टी में चौरडिया महफिल। व्याख्यान के बाद प्राय: साधु गोचरी - पानी के लिए गए हुए थे। बाल मुनि नथमल, मुनि तुलसी के पास बैठे थे। मुनि तुलसी ने उनको अध्ययन की प्रेरणा दी और जीवन विकास के कुछ सूत्र बताते हुए पूछा - तुम भी मेरे जैसा बनोगे? बाल मुनि ने कहा - 'मुझे क्या पता? आप बनाएंगे तो बन जाऊंगा।'

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कालू कृपा प्रसाद

36. छत पर थापी थेपडियां ज्यूं लागे कंवरां रा आखर,
रात- दिवस मेहनत कर पायो दो महीना में फल सुंदर,
हो सुजना! पाश्र्व - स्तोत्र लिख कहलाया चारू लिपिकार हो।।

छत पर थापी थेपड़ियां स्युं..........

प्राचीनकाल में हस्तलिखित ग्रंथों के सृजन की परंपरा थी। जिसकी लिपि सुंदर होती, उसके लेखन का अधिक मूल्य होता। वि. सं. 1989 की घटना है। पूज्य कालूगणी बीदासर में विराज रहे थे। उन्होंने सभी बाल साधुओं की हस्तलिपि सुंदर करने का निर्देश दिया। मुनि श्री के सहपाठी और समवयस्क सभी साधुओं की हस्तलिपि सुंदर हो गई थी। मुनिश्री की हस्तलिपि जैसे ही सामने आई, उसमें सौंदर्य नहीं पाकर पूज्य गुरुदेव मुस्कुरा दिए। उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी वहीं बैठे थे। उन्होंने कहा - 'नाथूजी के अक्षर तो छत पर सुखाने जैसे हैं। छत पर उपले सुखाए जाते हैं। अक्षर भी वैसे ही टेढे़ - मेढे़ हैं।' इन शब्दों को सुनकर मुनिश्री को संकोच की अनुभूति हुई। उन्होंने संकल्प किया - 'मुझे अपनी हस्तलिपि को अच्छा बनाना है।' उसके लिए उन्होंने तीव्र प्रयास किया।

पाली में मुनिश्री ने पार्श्वनाथ स्तोत्र की प्रतिलिपि कि। वह प्रति पूज्य गुरुदेव के सामने प्रस्तुत की। उन्होंने उसे देखा और प्रसन्न मुद्रा में कहा - अब तुम्हारी लिपि ठीक हो गई है।

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कालू कृपा प्रसाद

35. 'याद करो अध्याय आठवों' श्री कालू फरमान करै,
तन्मय बणकर घोक लगाई सफल देव अरमान करै,
हो सुजना! जैनागम समझण हित प्राकृत अनिवार हो ।।

याद करो अध्याय आठवों.........

उन दिनों कंठस्थ करने की परंपरा बहुत प्रचलित थी। बालमुनि नथमलजी से पूज्य कालूगणी ने पूछा - धातु पाठ कंठस्थ किया या नहीं?

बाल मुनि - नहीं किया।

कालूगणी - उसे कंठस्थ करो।

बाल मुनि ने धातु पाठ कंठस्थ कर लिया।

वि. सं. 1992 उदयपुर चतुर्मास, प्रातः काल का समय। बाल मुनि नथमलजी ने पूज्य कालूगणी को वंदना कर अपने स्थान पर जा रहे थे। उसी समय कालूगणी ने कहा - तूने आठवां अध्याय (हेमशब्दानुशासन का आठवां अध्याय, जिसमें प्राकृत शौरसेनी आदि भाषाओं का व्याकरण है) कंठस्थ किया या नहीं?

बाल मुनि- नहीं किया?

कालूगणी - 'आज से कंठस्थ करना शुरू करो।'

बाल मुनि ने गुरु - आदेश को शिरोधार्य कर उसी समय उसका अध्ययन करना शुरू कर दिया।

मुनि तुलसी उन दिनों उसे कंठस्थ कर रहे थे। बाल मुनि ने कालूगणी के पास जाकर कहा - 'मुनि तुलसी ने आचार्य हेमचंद्र का प्राकृत व्याकरण कंठस्थ करना शुरू कर दिया है। मैं अपने विद्यागुरु के साथ कैसे चल पाऊंगा। पर मुनि तुलसी चाहते थे कि बाल मुनि उनके साथ प्राकृत व्याकरण सीखें। मुनि तुलसी की प्रेरणा से बाल मुनि ने त्वरता के साथ आठवां अध्याय सीख लिया।


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34.कालू कृपा प्रसाद

सूयगडो री पढ़ टीका तूं उच्चारण सुणणो च्हावां,
लल्लर - पल्लर नहीं सुहावै सही बात म्हैं बतलावां,
हो सुजना! घोष - शुद्धि है शिक्षा रो प्रारंभिक द्वार हो।।

सूयगडो री पढ टीका तूं........

वि.स.1991 में पूज्य कालूगणी मांढा में प्रवास कर रहे थे। वहां एक दिन पूज्यप्रवर विद्यार्थी साधुओं के पाठ - उच्चारण की परीक्षा ले रहे थे। मुनि मगनलालजी पास में बैठे थे। कुछ विद्यार्थी साधुओं की परीक्षा हो चुकी थी। बाल - मुनि नथमलजी पंचमी समिति (शौच)से निवृत्त होकर कुछ विलंब से आए।

मुनि मगनलालजी - नाथूजी! आओ और इस पाठ (सूत्रकृतांग की टीका) का उच्चारण करो।

बाल मुनि ने उस पाठ को पढा़ और वे उसमें सफल हो गए।
मुनि मगनलालजी - 'आज तो यह बहुत सफल रहा है ।'

पूज्य कालूगणी -'अभी बच्चा है। अभी सफलता का क्या पता चले? उस वक्त पूज्यश्री ने एक दोहा कहा-

लाखां लोहां चम्मड़ां, पहलां किसा बखाण।
बहू बछेरा डीकरा, नीवड़ियां निरवाण।।

स्नेहा - दुलार और विनोदी वातावरण में बाल मुनि उत्तरोत्तर विकास के पथ पर अग्रसर होते रहे।


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कालू कृपा प्रसाद

33. संत हेम रै संरक्षण में आंख्यां रो उपचार चल्यो,
जोधाणै स्वाध्याय - योग स्यूं भीतरलो दिवलो प्रजल्यो,
हो सुजना! जागृत अन्तश्चक्षु री धुर टंकार हो।।

संत हेम रै संरक्षण में........

वि.स.1990 में पूज्य कालूगणी का प्रवास डीडवाना में था। वहां बाल मुनि नथमल की दोनों आंखों में दाने हो गए। इस वजह से प्राय: आंखों में दर्द रहता था तात्कालिक उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ। आंखों से पानी बहने लगा। पढ़ना - लिखना बंद हो गया। सहपाठी साधुओं को अनायास ही बाल मुनि से आगे बढ़ने का अवसर मिल गया।

कालूगणी का जोधपुर चतुर्मास निश्चित हो चुका था। पूज्यप्रवर जसोल, बालोतरा होकर जोधपुर पधारने वाले थे। विहार करते - करते लूणी जंक्शन पधारे। वहां बाल मुनि की आंखों से अधिक पानी गिरने लगा इसलिए उनको मुनि हेमराजजी (आत्मा) के साथ जोधपुर भेज दिया गया। उस समय उनका पढ़ना सर्वथा बंद था। मुनि हेमराज जी ने उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहा - 'तुम प्रतिदिन कंठस्थ पाठ का जितना प्रत्यावर्तन करोगे, उतना ही अंकित कर पूज्य कालूगणी को निवेदन कर दूंगा।' मुनि श्री की यह बात बाल मुनि की समझ में आ गई। वे प्रतिदिन हजारों गाथाओं का पुनरावर्तन करने लगे।

ढाई मास के बाद पूज्य कालूगणी चतुर्मास के लिए जोधपुर पधारे। मुनि श्री हेमराजजी ने बाल मुनि के पुनरावर्तन का लेखा-जोखा पूज्यप्रवर के समक्ष प्रस्तुत किया। वह प्रत्यावर्तन कई लाख श्लोकों का हो गया। पूज्यप्रवर बहुत प्रसन्न हुए। जब प्रत्यावर्तन की बात मुनि तुलसी ने सुनी तब वे प्रसन्न हुए पर पूरे प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने सोचा - इन्होंने अशुद्ध पाठ का ही प्रत्यावर्तन किया होगा। पर जब मुनि तुलसी को उन्होंने बिलकुल विशुद्ध पाठ सुनाएं तब तो उन्हें भी अत्यधिक आश्चर्य हुआ। यह बाल मुनि के रूपांतरण का समय था।

अशुद्ध उच्चारण की समस्या का समाधान हो गया किंतु बाल मुनि आंख की समस्या से अब भी जूझ रहे थे। आंखों में दानों की चुभन और पानी गिरना, दोनों चल रहे थे। इससे बाल मुनि हताश हो गए किंतु विद्या - गुरु मुनि तुलसी ने उपचार की ओर अधिक ध्यान दिया। धीरे-धीरे नेत्र - स्वस्थता हो गयी और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो बाल मुनि का अंतश्चक्षु जागृत हो गया हो।

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कालू कृपा प्रसाद

32.करु न कोई काम इसो मैं विद्यागुरु नाराज हुवै,
क्यूं अनिष्ट चिंतन औरां रो, निज पर निज रो राज हुवै,
हो सुजना! जीवन को सहज संतता रै अनुहार हो ।।

करूं न कोई काम इसो मैं........

बाल - मुनि नथमल अपने और अपने हितों के प्रति सतत जागरूक थे। उन्होंने बचपन से ही सफलता के कुछ सूत्र निश्चित किए थे। वे सूत्र इस प्रकार है-

1. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जो मेरे विद्यागुरु को अप्रिय लगे।

2. मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिससे मेरे विद्या गुरु को यह सोचना पड़े कि मैंने जिस व्यक्ति को तैयार किया, वह मेरी धारणा के अनुरूप नहीं बन सका।

3.मैं किसी भी व्यक्ति का अनिष्ट - चिंतन नहीं करूंगा। उनकी यह निश्चित अवधारणा थी - दूसरे का अनिष्ट चाहने वाला उसका अनिष्ट कर पाता है या नहीं, अपना अनिष्ट निश्चित ही कर लेता है।

मुनि अवस्था में ग्रहण किए गए इन संकल्पों का मुनिश्री ने आजीवन अनुपालन किया। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे अपने संकल्प पर अविचल रहे।

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कालू कृपा प्रसाद

31. साध्वी प्रमुखा झमकूजी पूछे क्यू चंदेरी प्रस्थान ?
बहिर्विहारी बण जास्यो फिर गुरुकुलवास नहीं आसान,
हो सुजना! तुलसी स्यूं न्यारो रहणो है दुश्वार हो।।

साध्वी प्रमुखा झमकूजी........

छापर में मर्यादा - महोत्सव का आयोजन। पूज्य कालूगणी ने धवल सेना के साथ अपनी जन्मभूमि छापर में पदार्पण किया। मुनि तुलसी की कुछ अस्वस्थता के कारण उन्हें लाडनूं छोड़ दिया। वहां से मुनि सुखलालजी और मुनि अमोलकचंदजी छापर आए। उन्होंने पूज्यप्रवर से बाल मुनि नथमल को लाडनूं भेजने के लिए प्रार्थना की। आचार्यवर ने उसे स्वीकार कर लिया। बाल मुनि लाडनूं जाने के लिए तैयार हो गए।

बाल- मुनि के रजोहरण का प्रतिलेखन साध्वीप्रमुखा झमकूजी करती थी। जब उन्होंने यह सुना कि बाल मुनि लाडनूं जा रहे हैं तब उन्होंने बालमुनि को कहा - फिर आपको गुरुदेव अपने पास नहीं रखेंगे, बहिर्विहारी साधुओं के साथ भेज देंगे।

मुनि श्री ने इस सारी चर्चा को पूज्य कालूगणी को निवेदित किया। पूज्यश्री ने मंद मुस्कान के साथ कहा - तुम तुलसी के पास लाडनूं चले जाओ। कोई चिंता मत करो।

मुनिद्वय के साथ बाल मुनि ने लाडनूं की ओर प्रस्थान कर दिया। बाल मुनि को मुनि तुलसी मिल गए। मुनि तुलसी से पृथक् रहने में जो कठिनाई हो रही थी, उसका समाधान हो गया।

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कालू - कृपा प्रसाद ( 2nd)

30. उच्चारण सिंदूरप्रकर रो सायं प्रतिक्रमण पश्चात,
अर्थबोध देता मुनि तुलसी सन्निधि गुरुवर री साक्षात्,
हो सुजना दीन्हो उपदेश मुनि नथमल दोफार हो ।।

दिन्हो उपदेश........


परम पूज्य कालूगणी चित्तौड़ से प्रस्थान कर गंगापुर पधारे।हाथ का व्रण उत्तरोत्तर विकराल रूप ले रहा था। मुनि नथमलजी मध्यान्ह में घंटा, दो घंटा पूज्यश्री की सेवा में बैठते। दोपहर में व्याख्यान होता। प्रारंभ में मुनिश्री उपदेश देते। एक दिन जब उपदेश देकर आए, पूज्य कालूगणी ने फरमाया - 'तू उपदेश कैसा देता है ? हमें यहां सुनाई नहीं देता। सुनाई देता तो पता चलता कि ठीक देता है या नहीं।' इन प्रश्नात्मक वाक्यों में भी प्रबल विश्वास की प्रतिध्वनि है। मध्यान्ह के व्याख्यान का निर्देश गुरु के अमित विश्वास का परिचायक था।

वि. स. 1993 परम पूज्य कालूगणी गंगापुर में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। उस समय बाल मुनि नथमल यदा कदा उपदेश दिया करते थे। वि. स. 1996 से 2004 तक मुनि श्री का मध्यान्ह में व्याख्यान हुआ करता। रात्रि में भी रामायण से पूर्व व्याख्यान देते। चूंकी बाल मुनि के कंठ सुरीले थे इसलिए 'राजा चंद' आदि का व्याख्यान देते थे।

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कालू - कृपा प्रसाद

30. उच्चारण सिंदूरप्रकर रो सायं प्रतिक्रमण पश्चात,
अर्थबोध देता मुनि तुलसी सन्निधि गुरुवर री साक्षात्,
हो सुजना दीन्हो उपदेश मुनि नथमल दोफार हो ।।

उच्चारण सिंदूरप्रकर रो........


परम पूज्य कालूगणी की सन्निधि में सायंकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् बाल मुनि सिंदूरप्रकर के श्लोकों का शुद्ध उच्चारण करते। उच्चारण के बाद मुनि तुलसी उन श्लोकों का अर्थ बोध देते यानी एक - एक श्लोक के एक-एक शब्द को स्पष्ट करते, जिससे बाल साधुओं को अर्थ हृदयंगम हो जाता। यह क्रम काफी समय तक चलता रहा।

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कालू - कृपा प्रसाद

29. बाल पणै में कंठ सुरीला श्री कालू रै मन भाया,
मधुरी - मधुरी तान ध्यानमय सुण जन - जन मन हरषाया,
हो सुजना ! पाई बक्सीस वत्सलता इजहार हो।।

बालपणै में कण्ठ सुरीला........

वि. स.1988 में पूज्य कालूगणी के सानिध्य में एक बार संगीत प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। अनेक साधुओं ने उस में भाग लिया। उस प्रतियोगिता में मुनि नथमलजी ने बहुत सुंदर गीत गाया! गीत का ध्रुवपद इस प्रकार है।-

'चेत! चतुर नर कहै तनै सतगुरु,

किस विध तूं ललचाना है।'

इस गीत प्रतियोगिता में मुनिश्री ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। पूज्य कालूगणी द्वारा प्रशंसित और पुरस्कृत हुए। पुरस्कार में पूज्यप्रवर ने एक कल्याणक दिया।

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कालू कृपा प्रसाद 4th

28.'हाबू बंगू वल्कलचीरी' नत्थू नै यूं बतलाता,
टेढा़ मेढा़ कदम देख कर छोगा - सुत अति मुलकाता,
हो सुजना! गांठ लगाई पछेवड़ी रै कित्ती बार हो।।
हो सुजना! कंबल भेजी प्रभु मन में करुणा ल्यार हो।।

कंबल भेजी........

वि. स. 1988 पूज्य कालूगणी लाडनू में विराजमान थे। सर्दी का मौसम था। बाल मुनि नथमल जी मुनि तुलसी के लिए होम्योपैथिक दवा लाने के लिए सूरजमलजी बैंगानी के घर गए वह प्रवास स्थल से काफी दूर था। पूज्यप्रवर पंचमी समिति से प्रवास - स्थल पर पधारे और पधारते ही पूछा - नत्थू कहां है?
संत - मुनि तुलसी के लिए दवा लाने गया है।
कालूगणी - सर्दी बहुत है। जाओ, देखो, कंबल ओढ़कर गया या नहीं?
संत - कंबल यही पड़ा है।
कालूगणी ने मुनिश्री कोड़ामलजी (श्रीडूंगरगढ़) आदि दो संतो को निर्देश दिया - 'तुम कंबल लेकर जाओ और उसे ओढा़ दो।' इस घटना से यह ज्ञात होता है कि बालमुनि नथमल ने पूज्य कालूगणी से अत्यधिक वात्सल्य प्राप्त किया।

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कालू कृपा प्रसाद 2nd

28.'हाबू बंगू वल्कलचीरी' नत्थू नै यूं बतलाता,
टेढा़ मेढा़ कदम देख कर छोगा - सुत अति मुलकाता,
हो सुजना! गांठ लगाई पछेवड़ी रै कित्ती बार हो।।
हो सुजना! कंबल भेजी प्रभु मन में करुणा ल्यार हो।।

टेढ़ा - मेढ़ा कदम देख........

मुनिवर साधिक दस वर्ष की अवस्था में दीक्षित हो गए। अपने रहन-सहन आदि के प्रति विशेष सजगता जैसी कोई बात उस बाल सुलभ मन में नहीं पनप पाई थी। पूज्य कालूगणी के पास जब बाल मुनि अकेले होते तब वे बाल मुनि को संबोधित कर फरमाते - 'नत्थू! तुम चलो, कैसे चलते हो?' बाल मुनि टेढे़ -मेढे़ कदमों से चलते। कालूगणी फरमाते - 'ऐसे नहीं, ऐसे चलो।' इस प्रकार प्रयोगात्मक शिक्षण ने आपकी चाल- ढाल में सुधार ला दिया।

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कालू कृपा प्रसाद 2nd

28.'हाबू बंगू वल्कलचीरी' नत्थू नै यूं बतलाता,
टेढा़ मेढा़ कदम देख कर छोगा - सुत अति मुलकाता,
हो सुजना! गांठ लगाई पछेवड़ी रै कित्ती बार हो।।
हो सुजना! कंबल भेजी प्रभु मन में करुणा ल्यार हो।।

टेढ़ा - मेढ़ा कदम देख........

मुनिवर साधिक दस वर्ष की अवस्था में दीक्षित हो गए। अपने रहन-सहन आदि के प्रति विशेष सजगता जैसी कोई बात उस बाल सुलभ मन में नहीं पनप पाई थी। पूज्य कालूगणी के पास जब बाल मुनि अकेले होते तब वे बाल मुनि को संबोधित कर फरमाते - 'नत्थू! तुम चलो, कैसे चलते हो?' बाल मुनि टेढे़ -मेढे़ कदमों से चलते। कालूगणी फरमाते - 'ऐसे नहीं, ऐसे चलो।' इस प्रकार प्रयोगात्मक शिक्षण ने आपकी चाल- ढाल में सुधार ला दिया।

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कालू कृपा प्रसाद 1st

28.'हाबू बंगू वल्कलचीरी' नत्थू नै यूं बतलाता,
टेढा़ मेढा़ कदम देख कर छोगा - सुत अति मुलकाता,
हो सुजना! गांठ लगाई पछेवड़ी रै कित्ती बार हो।।
हो सुजना! कंबल भेजी प्रभु मन में करुणा ल्यार हो।।

हाबू बंगू वल्कलचीरी........

कालूगणी विनोद प्रिय थे। बाल मुनि नथमल उनके लिए विनोद के साधन थे। उनका विनोद केवल मनोरंजन के लिए नहीं होता था, उसके माध्यम से वे बाल संतों को प्रशिक्षण देते और उनके जीवन को बेहतर बनाने का प्रयत्न करते। वे बालमुनि को बंगू, हाबू और वल्कलचीरी जैसे शब्दों से संबोधित करते थे। ग्रामीण संस्कृति में पले - पुसे बाल मुनि नथमल की रहन - सहन, बोलचाल आदि प्रवृत्तियां दूसरे संतों से भिन्न थी। उनमें ग्राम्य संस्कृति की झलक थी। उनकी प्रकृति भद्र व सरल थी। संभवत: इसलिए पूज्यवर बाल मुनि को ऐसे विनोदपरक संबोधनों से आहूत करते थे।

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तुलसी की पोशाल

27. सी - ति प्रश्न उभारी शंका कियां व्याकरण तूं पढसी ?
शास्त्रां रो गंभीर ज्ञान कर किणविध तूं आगे बढ़सी,
हो सुजना! गुरुवर री गुरुता स्यूं फ़लग्यो सहकार हो ।।

सी - ति प्रश्न उभारी शंका.........

तेरापंथ धर्म संघ में शैक्ष साधुओं को संस्कृत व्याकरण में प्रवेश करने के लिए मुनि चौथमल जी के द्वारा प्रणीत 'कालुकौमुदी' को कंठस्थ कराया जाता है। तत्कालीन शैक्ष साधुओं ने उसका पाठ याद करना शुरू किया और उसकी साधनिका भी प्रारंभ की। मुनि श्री की गति मंद थी। मुनि श्री के सहपाठी कालुकौमुदी के सूत्रों और उसकी वृत्ति को कंठस्थ कर रहे थे तथा उसकी साधनिका को हदयंगम कर रहे थे। मुनिश्री को दोनों में ही कठिनाई हो रही थी।

बिदासर की घटना है। स्वरान्त पुल्लिंग की साधनीका चल रही थी। विद्यार्थी साधुओं को बताया गया कि 'जिन' शब्द की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'जिन:' रूप बनता है।

मुनि श्री ने तत्काल जिज्ञासा के स्वरों में पूछा - हम 'सि' ही क्यों जोड़े ? उसके स्थान पर 'ति' क्यों नहीं जोड़ें ? शब्दरूप व क्रियारूप के विभेद के ज्ञान के अभाव में ही कोई ऐसा प्रश्न कर सकता है। उसे जानने वाला कोई मेधावी ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता। समय के साथ क्षयोपशम विशद बनता गया और मुनिश्री विद्यार्थियों की अग्रिम पंक्ति में आ गए। मुनि तुलसी की चिंता सदा के लिए समाप्त हो गई।


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तुलसी की पोशाल

26. मंथर गति से दसवेआलिय नवदीक्षित मुनि याद करै,
दैव और पुरुषार्थ योग स्यूं मेधावी बणकर उभरै,
हो सुजना! भाग्यविधाता श्री कालू - तुलसी किरदार हो ।।

मंथर गति स्यूं........

बाल मुनि नथमल के अध्ययन का प्रारंभ प्राकृत भाषा के जैन आगम दसवैकालिक सूत्र से हुआ। उसमें मुनि की जीवन - यात्रा का सांगोपांग निरूपण किया गया है। प्रारंभ में बाल मुनि का अध्ययन बहुत मंथर गति से चला क्योंकि मन अध्ययन में नहीं लगता था। पूरे दिन में मुश्किल से दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाते थे। इस मंथर गति से पूज्य कालूगणी और मुनि तुलसी दोनों ही प्रसन्न नहीं थे। वे चाहते थे कि मुनि नथमल त्वरित गति से आगे बढ़े। अपरिचित से परिचित होने में प्रारंभिक कठिनाई होती ही है। मुनि नथमल ने भी उस कठिनाई का सामना किया किंतु वह कठिनाई शीघ्र ही दूर हो गई। उनकी सीखने की गति तेज हो गई और वे प्रतिदिन आठ-दस श्लोक कंठस्थ करने लगे।

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तुलसी की पोशाल

25. बाल साधु मिल भणे - गुणे है तुलसी री पोशाल में,
भावी रा आलेख अमोला लिख्या शिष्य रे भाल में,
हो सुजना! अनहद गुरु - किरपा पायो नेह - दुलार हो।।


अनहद गुरु - किरपा........

मुनि तुलसी प्रमाद होने पर उपालम्भ देते और अच्छा कार्य करने पर साधुवाद देते। बाल मुनि नथमल के प्रति मुनि तुलसी का अत्यधिक वात्सल्य भाव था। छापर की घटना है। एक दिन मुनि तुलसी ने बाल मुनि को कहा - 'आज तुम्हें विगय नहीं खानी है।' यह एक भूल का प्रायश्चित्त था। बाल मुनि के जीवन का यह पहला प्रसंग था। आहार का समय हुआ। मुनि श्रीचंपालालजी, मुनि तुलसी और बाल मुनी नथमल - तीनों एक साथ आहार करते। गोचरी में आम का रस आया। बाल मुनि नहीं खाए और मुनि तुलसी खाए - यह मुनि तुलसी को अच्छा नहीं लगा। मुनि तुलसी ने बाल मुनि को इशारा किया - 'तुम आम रस खाओ।'

बाल मुनि ने कहा - 'नहीं खाऊंगा। आपने ही मुझे कहा था कि तुम्हें विगय नहीं खानी है।' बालमुनि अपनी बात पर अड़ गए।

बीस - पचीस साधुओं की उस मंडली में मुनि तुलसी ने बाल मुनि को शब्दों से कुछ नहीं कहा, किंतु इशारों से खाने के लिए विवश कर दिया। आखिर बाल मुनि ने अपना बाल हठ छोड़ दिया। ऐसे स्नेह और वात्सल्य के अनेक प्रसंग बाल मुनि के जीवन में घटित हुए हैं, जिन्हें सुनकर आल्हाद की अनुभूति होती है।

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विद्या गुरु की प्राप्ति

24. महिमा मय कालू फरमायो- 'नत्थू! जा तुलछू रै पास',
विनय समर्पण अनुशासन स्यूं लिया प्रगति रा नव उच्छ्वास,
हो सुजना! पाया शिक्षा गुरु तुलसी - सा दिलदार हो।।

महिमामय कालू फरमायो........

विक्रम संवत 1987, माघ शुक्ला दशमी, सरदारशहर भंसालीजी का बाग। अष्टमाचार्य परम पूज्य कालूगणी ने मंत्रोच्चार के साथ बालक नथमल व उनकी माता बालूजी का दीक्षा संस्कार कराया। वहां से प्रस्थान कर पूज्य श्री अपने प्रवास स्थल - गधैयों के पनोहरे में पधारे। दक्षिण दिशा में बने कमरे के पीछे नाल में कालूगणी टहलने लगे। नवदीक्षित मुनि नथमल उनके निकट खड़ा था। गुरुदेव ने बाल मुनि नथमलजी से कहा - 'नत्थू! तुझे तुलसी के पास रहना है, पढ़ना है और यह जैसा कहे, वैसा करना है। गंगाशहर में अज्ञात की उर्वरा में जिस बीज का वपन हुआ था, उसे अब अंकुरित होने का अवसर उपलब्ध हो गया।

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दीक्षा

23. नौ वैरागी वैरागण में नत्थू साधिक दस वय बाल,
निज जननी सह दीक्षा लिन्ही, भंसाली रो बाग विशाल,
हो सुजना! परम कृपालु श्री कालू दीक्षा दातार हो ।।

नौ वैरागी वैरागण में.......

वि. सं. 1987, माघ शुक्ला दशमी, भेरुदानजी भंसाली का बाग, सरदारशहर। पूज्य कालूगणी साधु- साध्वियों के साथ वहां पधारे। बालक नथमल आदि सभी दीक्षार्थी अपने पारिवारिक जनों के साथ वहां पहुंचे।
पूज्य कालूगणी के द्वारा उस समय दीक्षित होने वाले नौ साधु- साध्वियों के नाम इस प्रकार हैं-

1. मुनि चौथमलजी, सरदारशहर
2. मुनि खेतसीजी, श्रीडूंगरगढ़
3. मुनि नथमलजी, टमकोर 4.साध्वी बालूजी, टमकोर
5.साध्वी आसांजी, लाडनूं
6.साध्वी लिछमांजी, सरदारशहर 7.साध्वी छगनाजी, नोहर
8.साध्वी मनोहरांजी, सरदारशहर 9.साध्वी पिस्तांजी, जमालपुर

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मां और बेटे का संवाद

21. मन री बात बताई 'मां! साधु बणणे री है इच्छा'
म्हारे दिल री बात कही, सचमुच है श्रेयस्कर दीक्षा',
हो नत्थू! इंद्रिय - निग्रह रो पथ तलवार दुधार हो'।।

मन री बात बताई........

एक दिन मां और पुत्र ने परस्पर वार्तालाप किया। पुत्र ने अपनी मां से कहा - मैं मुनि होना चाहता हूं।
मां ने कहा - मैं भी साध्वी बनना चाहती हूं पर तुमने कभी सोचा है - कितना कठिन है यह मार्ग और कितनी कठिन है इसकी साधना!

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गुरुदर्शन

20. मां चाचा सह कालूगणि - दर्शन हित गंगाणै प्रस्थान,
मुनि तुलसी है बड़ा दीपता भाग्यवान गुरु - कृपा महान,
हो सुजना! दरसण करतां ही जुड़ग्यो दिल रो तार हो।।
हो सुजना! निरख्यो निजरां स्यू बालक होनहार हो।।

मां चाचा सह.......

बालक नथमल और उसकी मां बालूजी के मन में वैराग्य- जागरण के पश्चात पूज्य कालूगणी के दर्शन करने का निश्चय किया। मुनि छबीलजी के सहयोगी संत मुनि मूलचंद जी (बिदासर) संघ और संघपति के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे। जब बालक नथमल, उसके चाचा और मां अष्टमाचार्य कालूगणी के दर्शन करने गंगाशहर जाने लगे तो मुनि मूलचंदजी बोले - 'नत्थू तुम गुरुदेव के दर्शन करने जा रहे हो, वहां मुनि तुलसी के दर्शन जरूर करना।'
उस वर्ष (संवत १९८७) कालूगणी का चातुर्मास गंगाशहर था। उनका प्रवास भेरूदानजी चोपड़ा के पुत्र लूणकरणजी चोपड़ा की हवेली में था। उस हवेली की छत पर एक कमरा था। कमरे के पास ऊपर जाने की सीढ़ियां थी। मुनि तुलसी उन सीढ़ियों में ऊपर बैठे थे। वहां बालक नथमल आया और बोला - 'तुलसीराम जी स्वामी कौन है ?'
मुनि तुलसी - 'क्यों भाई! उनसे तुम्हें क्या काम है ?'
बालक नथमल- 'मैं अपनी मां के साथ टमकोर से आया हूं। हम दोनों वैरागी है। मुनि मूलचंदजी ने मुझे उनके दर्शन करने के लिए कहा है।'
मुनि तुलसी से परिचय हुआ। परिचय पाकर बालक को अपनी मंजिल मिल गई, उसके हृदय का तार जुड़ गया। प्रथम साक्षात्कार में मुनि तुलसी को लगा कि बालक भोला - भाला सा दिखता है, पर है होनहार।

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वैराग्य

18. मुनि छबील, मुनि मूलचंद रो चातुर्मासिक योग सुखद,
मिल्यो प्रेरणा - नीर अंकुरित हुयो विराग- बीज बरगद,
हो सुजना! समझ्यो संयम ही जीवन रो सिणगार हो ।।

मिल्यो प्रेरणा- नीर.......

बालक नथमल के जीवन का दसवां वर्ष चल रहा था। उस समय मुनि छबीलजी का चतुर्मास टमकोर में था। उनके सहवर्ती मुनि मूलचंदजी ने बालक को तत्वज्ञान सीखने के लिए प्रेरित किया। एक दिन मुनिद्वय ने बालक को मुनि बनने की प्रेरणा दी। बालक का अंतः करण झंकृत - सा हो गया। जैसे कोई बीज अंकुरित होना चाहता हो और उस पर पानी की फुहारें गिर जाए।

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जलपोत - यात्रा

17. नौका द्वारा मेमनसिंह की यात्रा रो अद्भुत उल्लास,
फुलवाडिया री आपण में करज वसूली रो आयास,
हो सुजना! लघुवय में लगन लगा समझ्यो व्यापार हो।।

'नौका द्वारा मेमन सिंह की.......

कोलकाता से पारिवारिक जनों के साथ नत्थू जलपोत से मेमनसिंह गया। वहां विवाह का कार्य संपन्न होने के पश्चात बालक नथमल को फुलवाडिया ले जाया गया। वहां पिता तोलाराम जी की दुकान थी। उनके स्वर्गवास के बाद मुनीम उसकी देखभाल कर रहे थे। उस समय मालिक के बिना भी मुनीम ईमानदारी के साथ सारा काम करते थे। आसपास के गांवों में 'बाकी' (उधार) वसूल करने के लिए बालक नथमल को ले जाते थे। ग्रामीण लोग 'बाबू तोलाराम का पुत्र आया है' यह जानकर प्रेमपूर्वक स्वागत करते। उनका प्रेम देखकर बालक गदगद हो जाता। उनसे मांगने की बात ही भूल जाता। बालक वहां आसपास के गांवों में घूमकर व्यापार संबंधी कार्य संपन्न कर फिर फुलवाडिया आ गया। फुलवाडिया से नौका की यात्रा कर प्राणगंज गया, वहां से मेमनसिंह और फिर टमकोर (राजस्थान) की ओर प्रस्थान कर दिया।

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कोलकाता की यात्रा

16. महानगर री भीड़भाड़, बिछुड्यो ना लाग्यो अतो पतो,
स्वर्ण सूत्र की करी सुरक्षा पहुंच्यों घर भमतो- भमतो,
हो सुजना! खुशियां रो उमडयो बेहद पारावार हो ।।

महानगर री भीड़भाड़........

मेमनसिंह गांव (पाकिस्तान का एक कस्बा) में नथमल की चचेरी बहन (मां की पालित पुत्री) का विवाह था। उसमें सम्मिलित होने चोरडिया परिवार के कुछ सदस्य जा रहे थे। उनके साथ बालक नथमल भी था। जाते वक्त कलकत्ता में अपनी बुआ के यहां कुछ दिन ठहरे। चाचा पन्नालालजी और मुनीम शादी के लिए कुछ आवश्यक सामान लाने बाजार जा रहे थे। बालक नथमल भी उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गया। वह पहली बार ही कलकत्ता गया था। वहां की बहुमंजिली इमारतें, बड़े-बड़े बाजार, चकाचौंध करने वाली दुकानों ने उस को मंत्रमुग्ध कर लिया। नथमल देखने में इतना मग्न हो गया कि उसे न अपना भान रहा, न अपने साथ आए व्यक्तियों का। नथमल मुग्धभाव से चारों तरफ एकटक देख रहा था इसलिए साथ जाने वाले व्यक्तियों का उसे पता ही नहीं चला।
कुछ समय पश्चात जब मनोरम दृश्यों से ध्यान छूटा तो देखा कि मैं तो अकेला रह गया हूं। न चाचा है, न मुनीम। न यह पता कि किस मार्ग से जाना है। न कोठी का नाम - पता है। कोई चेहरा भी परिचित नहीं। बाहर का कोई साथी या मार्गदर्शक सामने न था। उस समय अन्तश्चेतना ने ही मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। भीतर से ही मार्गदर्शन और उसके क्रियान्वयन की क्षमता अभिव्यक्त होने लगी। अपने को अकेला जान सबसे पहले सुरक्षात्मक कार्य किया - अपने गले से स्वर्ण सूत्र निकाला, हाथ की घड़ी खोली और दोनों को अपनी जेब में डाल दिया। उसके बाद पीछे मुड़ा, चलता रहा, चलता रहा,और अपने घर पहुंच गया। उधर चाचाजी नथमल को न पाकर चिंतित हुए। उन्होंने बच्चे को खोजने की दौड़ - धूप की। पूरा बाजार छान लिया पर नथमल नहीं मिला। आखिर पुलिस स्टेशन पर गुम होने की रिपोर्ट लिखाई। वे निराश होकर लौट आए। दरवाजे से ही जोर - जोर से बोलना शुरू किया - 'नत्थू हमसे बिछुड़ गया। उसका पता ही नहीं चला।' उनकी परेशानी के सामने उनकी बहन कुछ क्षण मौन रही, फिर नथमल को सामने लाकर खड़ा कर दिया। परिवारीक जनों के मुरझाए चेहरे खिल गए। सबने पूछा - तू यहां कैसे पहुंचा? बालक नथमल के पास इसका कोई उत्तर नहीं था।

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योगी की भविष्यवाणी

15. इक अलबेलो योगी आयो बालक द्वय सिर हाथ धरै,
सात दिवस है इक रो जीवन, दूजो योगीराज अरे,
हो सुजना! सिद्ध पुरुष री वाणी सहज हुई सचकार हो।।

इक अलबेला योगी आयो........

एक दिन बालक नथमल अपने साथी बच्चों के साथ घर के अहाते में खेल रहा था। एक व्यक्ति आया और एक बच्चे के सिर पर हाथ रखते हुए बोला- यह 7 दिन के बाद इस दुनिया से विदा हो जाएगा। तत्पश्चात् बालक नथमल की ओर मुड़ा, उसके सिर पर हाथ रख कर बोला- 'यह बच्चा योगीराज बनेगा।'
उसकी बातें सुनकर बच्चे घबरा गए। वे योगी का अर्थ नहीं जानते थे पर मौत का अर्थ जानते थे। बच्चों की बात बड़ों तक पहुंची किंतु किसी का भी इस और ध्यान केंद्रित नहीं हुआ। सप्ताह बीतने के साथ ही वह साथी इस संसार से चल बसा। तब लोगों का ध्यान उस भिक्षु व उसकी भविष्यवाणी की ओर गया। उसे खोजने का प्रयत्न किया गया पर कुछ पता नहीं चला।

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बचपन के प्रसंग 3

14. आंख बंद कर चाल सकूं में ? चल्यो भींत स्यूं टकरायो,
'खुलग्यो थारो भाग' बोल यूं पट्टी कर मां सहलायो,
हो सुजना! आंख तीसरी खुलणे री दस्तक दमदार हो।।

आंख बंद कर चाल सकूं मैं........

बालक नथमल के बहन की शादी का प्रसंग था। घर मेहमानों से भरा था। परिवारिकजन उनके आतिथ्य में व्यस्त थे। सभी अपने अपने कार्यों में लगे हुए थे। बालक स्वभावत: चंचल होता है। नथमल ने कुतूहलवश अपनी आंखों पर पट्टी बांधी और अपने घर में चलना शुरू किया। जैसे ही बालक दरवाजे के पास पहुंचा, सहसा सिर दीवार से टकरा गया। ठीक उसी स्थान पर चोट लगी, जो पीनियल ग्लैण्ड, ज्योति केंद्र का स्थान है। बालक के सिर से खून बहने लगा, रोते-रोते मां के पास पहुंचा। मां ने सहलाया, डांटा और सिर पर पट्टी करते हुए कहा- आज तेरा भाग्य खुल गया, रो मत, सब ठीक हो जाएगा। मां के स्नेहिल शब्दों से बालक आश्वस्त हो गया। संभव है, यह घटना बालक के तीसरे नेत्र - जागरण (अतींद्रिय चेतना) का निमित्त बनी हो।

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बचपन के प्रसंग 2

13. गो - दोहन बेला में नत्थू, दूध-फेन पीतो सोल्लास,
सुबह- शाम रो क्रम हो पक्को, लाड-प्यार री सहज सुवास,
हो सुजना! बणग्यो मस्तिष्क पूष्टता रो आधार हो।।

गो - दोहन बेला में........

बालक नथमल के दो बहनें थी- 1. माली बाई 2.पारी बाई। बड़ी बहन माली बाई का विवाह चूरू के बैद परिवार में हुआ था। वे बहुत सौम्य प्रकृतिवाली थी। बहुत कम बोलती थी। अपने इकलौते भाई के पालन-पोषण का बहुत ध्यान रखती थी। छोटी बहन पारी बाई थी। उनका स्वभाव बहुत मृदु नहीं था, किंतु अपने भाई पर अत्यधिक स्नेहभाव रखती थी।
उस समय प्रायः घरों में गायें होती थी। बालू जी के घर में भी गाय थी। माली बाई (साध्वी मालूजी) गाय का दूध दूहती। बालक नथमल अपने हाथ में कटोरा लेकर उनके पास बैठ जाता। दूध दोहन से पात्र में जो झाग आते, उनसे बालक का कटोरा भर देती। वह फेनिल दूध बालक वहीं पी लेता।
परम श्रद्धेय आचार्य महाप्रज्ञजी अनेक पाक फरमाते- ढाई वर्ष तक मुझे अन्न खाने को नहीं दिया, केवल दूध पर ही मेरा पालन-पोषण हुआ। संभव है यही पय:पान आचार्यवर की मस्तिष्कीय पुष्टता में निमित्त बना हो।

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

महाप्रज्ञ प्रबोध (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

बचपन के प्रसंग

12. बाखल में साथी संगलिया करता खेलण रो अभ्यास,
मानो नित नूआं प्रयोग स्यूं पायो सत्यशोध आभास,
हो सुजना! शिशुवय में भण्यो नहीं विद्यालय जा' र हो।।

मानो नित नूआं प्रयोग स्यूं........

व्यक्ति के वर्तमान के क्रिया- कलाप को देख कर उसके भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। बालक नथमल बचपन से ही वैज्ञानिक अभिरुचि वाला और सत्यशोध के प्रति जिज्ञासु था। लघुवय में अपने मित्रों के साथ मिलकर बालोंचित् क्रीड़ा करता। उनकी क्रीड़ा का अंग था- दियासलाई की दो डिब्बियों को एक लंबे धागे से बांध देता। कुछ दूरी पर खड़े होकर एक दूसरे की बात को सुनने का प्रयत्न करता। कभी कभी दहलीज पर लोह की शलाका चलाते और उससे उत्पन्न होनेवाली ध्वनि को सुनने का प्रयत्न करते।
छत पर वर्षा का पानी इकट्ठा होता, पानी के बुलबुले बनते। बालक नथमल के मन में प्रश्न होता कि बुलबुला कौन बना रहा है। बुलबुला कैसे बन रहा है। ऐसे अनेक प्रश्न बालक के मानस पटल पर उभरते। इसी जिज्ञासु वृत्ति ने सत्य- शोध की गहराई में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त किया।

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महाप्रज्ञ प्रबोध

संस्कार. 2nd

11. खिंयासर सरदारशहर में बीत रह्मे भोलो बचपन,
'नानेरै को दही बाटियो' भरतो प्राणां में पुलकन,
हो सुजना! बचपन री सारी स्मृतियां है रसदार हो।।

खींयासर सरदारशहर में........
बालक नथमल के ननिहाल पक्ष का बच्छावत परिवार खिंयासर रहता था। पिता तोलारामजी के स्वर्गवास के बाद मां बालू जी अपनी संतान को लेकर अपनी मां के पास चली गई। उस समय यह विवेकपूर्ण निर्णय था। बालक का लालन-पालन ननिहाल के स्वतंत्र वातावरण में जैसा हो सकता था, वैसा शायद पितृपक्ष में संभव नहीं था। बच्छावत परिवार के पास बहुत जागीर, खूब खेती, खूब गाएं थी। मां बालूजी अपने पुत्र के साथ करीब ढाई साल तक अपने पीहर रही और फिर टमकोर आ आ गई।

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महाप्रज्ञ प्रबोध (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा)

संस्कार

10. ब्रह्म मुहूर्त इमरत बेला 'भीखणजी रो समरण' गीत,
सुण आस्था रा दिवला चसग्या प्रभु स्यूं जुड़ी अबोली प्रीत,
हो सुजना! मिलग्या झूलै में गुरुभक्ति संस्कार हो ।।

भिखणजी रो समरण........

शिक्षा जीवन भर चलने वाला अनौपचारिक उपक्रम है। जन्म के साथ शुरू हुआ यह सफर जीवन के हर मोड़ पर साथ रहता है। शिक्षा के इस आयाम में प्रथम शिक्षिका मां ही होती है। मां की हर एक क्रिया अनायास ही बच्चे के भीतर कुछ न कुछ संप्रेषित करती रहती है। मां बालूजी की गतिविधियों का प्रभाव नवजात बालक नत्थू के अवचेतन पर अंकित होता रहा। ब्रह्मबेला में मां की भक्ति प्रधान स्वर लहरियां वातावरण में तरंगित होती। चौबीसी, आराधना, संत भिखणजी का सुमिरण आदि गीतों के माध्यम से मां की भक्तिरस भरी स्वर- l धारा बहती और पास में अधसोए, अधजगे बालक हृत् तंत्री थिरक उठती। अनायास एक तार सा जुड़ गया भिक्षु से, भिक्षु के जीवन से और भिक्षु के दर्शन से। समय के साथ यह तार सघन और सघनतम होता गया।

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एक वज्रपात

एक वज्रपात

9. बण विकराल काल उत् रयो बालू रो उजड़ गयो संसार,
ढाई माह रो सुत माता रै जिजीविषा रो दृढ़ आधार,
हो सुजना! अवतरियो कुल में शिशु उम्मीद जगार हो।।
हो सुजना! आश्वासन भावी रो बालक सुकुमार हो।।

बण विकराल काल उत् रयो......

नियति के योग का परिहार नहीं किया जा सकता। बालक ढाई मास का हुआ और पिता दिवंगत हो गए। पिता के चले जाने पर परिस्थितियों का भार कम नहीं था पर मां के कंधे मजबूत थे। हालांकि उस युग में दैनिक आवश्यक वस्तुएं बहुत सुलभ और सस्ती थी। खानपान, रहन-सहन सब कुछ बहुत कम खर्चीला था, फिर भी पिता का न होना परिवार के लिए अपूरणीय क्षति था।

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(मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

महाप्रज्ञ प्रबोध (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

पिता की भविष्यवाणी

8.पुण्य पूतल्लो जीव उदर में तू भागण जननी बणसी,
किंतु आउखो थोड़ो म्हारो जीवन रो दिवलो बुझसी,
हो सुजना ! सुख-दुख रो इक सागै अनुभव तिणवार हो।।

किंतु आउखो थोड़ो म्हारो.....
चोरड़िया कुल के कुलभूषण तोलारामजी व बालूजी के मध्य संलाप में एक दिन तोलारामजी ने बालूजी को कहा - 'तुम एक पुत्र को जन्म दोगी। मैं उसके जन्म के बाद अधिक समय तक नहीं रहूंगा।' बालूजी ने तत्काल कहा- 'ऐसा बेटा मुझे नहीं चाहिए, जिसके आने पर आप न रहे'।

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महाप्रज्ञ प्रबोध (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

बाह्य व्यविक्तित्व

4. नैणां में निरखी नीश्छलता तेजस्वी आभामण्डल,
सहज सौम्यता स्यूं अभिमंडित पुलकित रहतो मुखमण्डल,
हो सुजना! देह संपदा लख जन-जन घाले थुथकार हो।।

5. सहज सुकोमल सुघड़ हाथ अरु बै कुर्मोन्नत चरण- विशाल,
साक्षी सचमुच भाग्योदय रा लंबा कान भलकतो भाल,
हो सुजना ! रूं रूं में खुशियां दीप्यो दिव्य दिदार हो।।

6.तिल त्रिशूल शुभ लक्षण व्यंजन पद्मरेख स्वस्तिक अहलाण,
सत्य सार स्वर कुल गुण उत्तम, प्रवर प्रमाण तथा उन्मान,
हो सुजना! श्रेष्ठ पुरुष रा मानक प्रकट्या होड लगार हो।।

परिवार

7.चोरडिया कुल गौरवशाली, मां बालू तोलामल तात,
पारी, मालू दो बहना रो नत्थू इकलोतो लघु भ्रात,
हो सुजना ! बड़भागी सहज
मिल्यो धार्मिक परिवार हो।।

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महाप्रज्ञ प्रबोध (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

2. जन्म

3. चोर चोर री आवाजां सुण पडोसी दोड्या आया,
सद्यजात शिशु उणिहारो लख चकित रह्या भाया बायां,
सुजना !उमडयो उल्लास थाल्यां रि झंकार हो।।

3. चोर चोर की आवाज आ सुण.........

मातुश्री बालू जी की कुक्षी से पैदा होने वाला यह नवजात उनकी पांचवी संतान था। अग्रजा दो बहने अग्रज दो भाई। भाई दुनिया में आए पर ज्यादा रहे नहीं। तीसरे भाई की स्थिति भी वैसी ही न हो जाए इसलिए नवजात शिशु की सुरक्षा हेतु कई विशेष उपचार किए गए। उनमें से एक था - बच्चे का जन्म होते ही उसकी बुआ ने छत पर चढ़कर जोर से शोर मचाया - चोर आ गया, चोर आ गया। चोरडिया परिवार के लोगों ने सुना और लाठियां लेकर एकत्र हो गए। घर में आने पर उन्हें वास्तविकता की जानकारी हुई

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महाप्रज्ञ प्रबोध

(मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

1. जन्मभूमि

शेखावटी जिलो झूझनू चीहुं दिशि में सोनेला धोर,
सतयुग री सहनाणी मानो सतरंगो कस्बो टमकोर,
हो सुजना ! विष्णुगढ़ नाम दूसरों है श्रीकार हो।।


1. विष्णुगढ़ नाम दूसरों

कहा जाता है कि टमकोर गांव में डाक की व्यवस्था बिसाऊ से संचालित होती थी। बिसाऊ से ही डाकिया आता और डाक बांटकर जाया करता था। सन 1946 में बिसाऊ के ठाकुर रघुवीरसिंहजी टमकोर आए तो गांव वालों ने उनके सामने यह समस्या रखी। समस्या के समाधान हेतु ठाकुर साहब ने छाजेडो़ की हवेली के नीचे के मकानों में डाकघर खुलवा दिया और उसका नाम'बिशनगढ़' ( ठाकुर बिशनसिंहजी के नाम पर ) रख दिया।बिशनगढ़ ही बाद में विष्णुगढ़ के रूप में प्रचलित हो गया। इस प्रकार इस गांव के दो नाम प्रचलित हो गए - विष्णुगढ़ और टमकोर। चूंकि अन्य सभी विभागों में टमकोर नाम ही चल रहा था इसलिए इसका नाम डाकघर में पुनः टमकोर डाल दिया गया।

महाप्रज्ञ प्रबोध

1. तुलसी- पटधारी प्रज्ञा पुरुष महा अवतारी !
मणिधारी मां बालू रो नंदन जन- मनहारी!
अर्पित चरणों में आस्था रो उपहार हो,
भक्ति रस है अविकार हो, जुडयो सांसां रो तारहो,
प्रज्ञा पुरुष महा - अवतारी।।

1. मणिधारी मां बालू
कुछ बातें श्रद्धा से परे होती है, विश्वास से परे होती है किंतु जो श्रद्धा या विश्वास से परे है, वह सत्य नहीं है - ऐसा नहीं कहा जा सकता। साध्वी बालू जी के अंतिम समय की घटना ऐसी ही है।

खेमचंद जी सेठिया की धर्मपत्नी गुलाब बाई ने मुनि नथमलजी को एक बात बताई - साध्वी श्री बालूजी ने जीवन के संध्याकाल में मेरे पिता श्री आसकरणजी चौपड़ा से कहा - मेरे ललाट के मध्य भाग में रत्न हैं,मणि है। मृत्यु के बाद देख लेना।

गुलाब बाई ने अपने पिता से पूछा - आपने दाह - संस्कार के समय उसे देखा या नहीं?

आसकरणजी ने कहा - हजारों की भीड़ थी। मैं देख नहीं सका। पर इतना मुझे अवश्य याद है - दास संस्कार के समय एक पटाखा छुटने जैसी आवाज हुई। इस विषय में जो जागरुकता बरतनी थी, वह नहीं बरती जा सकी।

 

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