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Karyasala

अध्याय - 16

महामना मेघ यह उपदेश सुन बहुत प्रसन्न हुआ और प्रांजल वाणी से भगवान महावीर की स्तुति करने लगा।
मेघ ने कहा- आर्य! आप सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है,स्थितात्मा है, धैर्यवान है, अमर है, अभय है, राग द्वेष की ग्रन्थियों से रहित है और संसार का अंत करने वाले है। आप देखने वालों के लिये उत्तम चक्षु है, ज्ञानियों के लिए उत्तम ज्ञान है, ठहरने वालो के लिए उत्तम स्थान है ओर चलने वालों के लिये उत्तम गति है।
है तीर्थनाथ ! आपने इस चतुर्विध संघ का प्रवर्तन किया है। है स्वयंबुद्ध ! आपने अपने ज्ञान से समस्त संसार को जागृत किया है।
भगवन! आप अहिंसा की आराधना कर पुरुषोत्तम बने है, भय को सर्वथा छोड़ पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी है।
भगवन आप संसार मे उत्तम है, संसार मे एकमात्र नेता है, संसार के द्वीप है, अभयदाता है, महान है तथा मनुष्यो को दृष्टि देने वाले है, मार्ग देने वाले है, प्राण ओर बोधि देने वाले है।
निग्रन्थों के अधिपति भगवान महावीर के इस महान प्रवचन को और मेघकुमार के प्रतिबोध को जो सुनता है, श्रद्धा रखता है, उसकी दृष्टि निर्मल होती है,उसे सम्यग पथ की प्राप्ति होती है, मोह के बन्धन टूट जाते है और वह मुक्त बन जाता है।
मेघ के माध्यम से सम्बोधि का जन्म हुआ। मेघ ने महावीर को सुना, समझा और श्रद्धापूर्वक उसका अनुशीलन किया।
मेघ मुक्त हो गया। और भी जो इसे सुनेगें, समझेगे ओर आचरण करेंगे वे भी मुक्त होंगे। हम सबके अंतस्तल में सच्ची प्यास प्रकट हो और हम महावीर के चरणों मे अपने आपको सहज भाव से समर्पित कर उस परम सत्य का रसास्वादन करे।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 16

मेघ ने जानने की बहुत लंबी यात्रा की। किंतु मन की शांति नही मिली। ज्ञान का परिचय ओर संग्रह अलग बात है और ज्ञान की अनुभूति भिन्न। इसलिए मेघ ने कहा- प्रभो! मानसिक सुख, प्रसन्नता की प्राप्ति कैसे हो कैसे हो प्रमाद से मुक्ति? कृपया मुझे इसका मार्ग दर्शन दे।
भगवान ने कहा- आत्मा अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है।मेघ तू उसी में चित्त को रमा, उसी में मन को लगा।
आनन्द का स्रोत बाहर नही । आनन्द या मानसिक प्रसन्नता के लिए इनका आत्मा में विलीन होना आवश्यक है।
तू आत्मा में स्थिर, आत्मा के लिए हितकर, आत्मयोगी, आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला, ध्यान में लीन ओर स्थिर आशय वाला बन।
मन की प्रसन्नता का पहला पाठ है - मनशुद्धि। ओर दूसरा पाठ है- मन को बाहर से हटाकर चेतना के साथ संयुक्त करना।
जिस मनुष्य के राग- द्वेष का जितनी मात्रा में विलय होता है, उसे उतनी ही मात्रा में मानसिक सुख प्राप्त होता है।

जो पुरुष वीतराग का स्मरण करता है, वह स्वयम वीतराग बन जाता है।

वीतरागता साध्य है। वीतराग आदर्श है। साधक आदर्श को सतत सामने रखे। राग द्वेष को जीतकर ही वीतराग बना जा सकता है।
सर्वदा अपनी आत्मा को शुद्ध रख, इस प्रकार तू सदगति को प्राप्त होगा।

आयुष्य कर्म का बंध जीवन के तीसरे भाग में होता है। उस तीसरे का पता नही चलता कि यह तीसरा है। असावधान व्यक्ति वह क्षण चूक जाता है। इसलिए में कहता हूं- क्षण क्षण जागृत रहो।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 16

धर्म का परम फल है आत्मा का पूर्ण विकास। मनुष्य धर्म का आचरण करता है और सतत अभ्यास से अपने लक्ष्य तक पहुंचता है। जब मोह कर्म का संपूर्ण विलय हो जाता है,तब उसमें वीतरागता का प्रादुर्भाव होता है। वीतरागता का अर्थ है- समता का चरम विकास। सिद्ध अवस्था को प्राप्त आत्मा अपने आनंद स्वरूप में स्थित रहती है।यह अंतिम विकास की बात है, जहा न मन है, न वाणी है, न शरीर है।
धर्म की प्रारंभिक भूमिकाओं में मन, वाणी ओर शरीर रहता है। धर्म सब दुःखो का अंत करता है। मानसिक प्रसन्नता अध्यात्म का फल है। वह कैसे मिलती है? कहा से प्राप्त होती है? उसकी क्या साधना है? आदि प्रश्नों का समाधान इस अध्याय में है। वह आगे जानेंगे.....

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 15

धर्म जीवन का एक आवश्यक अंग है। इसे जो भूलता है, वह अपने आपको भूलता है। जो इसे जानता है और विश्वास करता है वह धर्म का आचरण भी करता है। प्रत्येक कार्य मे धर्म को सामने रखा जाये तो मनुष्य अनैतिक व अधार्मिक नही हो सकता।
भगवान ने कहा- जब तक मनुष्य के शरीर होता है तब तक क्रिया होती है। आवश्यक क्रिया को करते हुआ मनुष्य धर्म का आचरण करे। जिस प्रकार भोजन आदि क्रिया आवश्यक होती है, उसी प्रकार आत्मा की साधना करना भी अत्यंत आवश्यक है। मनुष्य शरीर को खुराक देता है, किंतु आत्मा को नही। इसलिए कहा गया है कि अपने को देखो, जानो।
समभाव की प्राप्ति के लिए सामयिक करे, आत्मा को पवित्र भावनाओं से भावित करे और शुभ संकल्प करें। संकल्प का अर्थ है दृढ़ निश्चय। मनुष्य पवित्र संकल्पों को संजोए तो वह स्वस्थ, सशक्त, विज्ञ,सुखी और सौभाग्यशाली बन सकता है।
में कब परिग्रह को छोडूंगा, में कब मुनि बनूगा, में कब भोजन का परित्याग करूंगा- श्रावक इस प्रकार के चिंतन अथवा मनोरथ से आत्मशोधन करे।
सत्संगति का एक क्षण भी संसार सागर से पार कर देता है। महावीर कहते है - संत की उपासना से व्यक्ति को धर्म का सुनना मिलता है। जीवन मे सबसे पहला कदम मुख्य होता है। अगर वह गलत दिशा में उठ जाता है तो आदमी भटक जाता है। धर्म के श्रवण से उसका ज्ञान होता है और उस ज्ञान से व्यक्ति को विज्ञान - सत्यासत्य के निर्णय की क्षमता मिलती है।
आत्मा न शब्द है, न गंध है, न रुप है, न स्पर्श है , न रस है, न वर्तुल गोलाकार है और न त्रिकोण है। वह अमूर्त सत्ता है। आत्मा की खोज आत्मा से ही होती है। तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा व विद्या से आत्मा की खोज करो। शरीर का अंत हो जाता है आत्मा वही है। शरीर के अंत होने पर आत्मा नया शरीर बना लेती है।
महावीर का समग्र बल आत्मा को जागृत करने में है। इसलिए यह स्पष्ट विवेक दिया है और कहा है - आत्मस्वभाव के अतिरिक्त कोई धर्म नही है।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 14

मेघ बोला- जो गृहस्थ भोग का सेवन करता है और गृहस्थी चलाने में लगा हुआ है, वह धर्म की आराधना कैसे कर सकता है।
भगवान ने कहा- धर्म की आराधना न घर मे है और न घर को छोड़ने में। उसका अधिकारी वह है जो आशा को त्याग चुका है। जिसने घर का त्याग किया किंतु आशा का त्याग नही किया, वह न त्यागी है ना गृहस्थ। गृहवासी मनुष्य आशा का जितना परित्याग करते है उसी को मैने धर्म कहा है और वही अगार धर्म कहलाता है। अनगार के लिए महाव्रत रूप धर्म और गृहस्थ के लिए अणुव्रत रूप धर्म का विधान किया गया है।
मेघ बोला- यदि गृहस्थ भी धर्म के अधिकारी है तो साधु कोन बनेगा?
भगवान ने कहा- जिस गृहस्थ में मुक्त होने की जितना भावना होती है वह उतनी ही मात्रा में समता का आचरण करता है और जितनी मात्रा में समता का आचरण करता है उतनी ही मात्रा में धर्म का आचरण करता है। इस प्रकार वह गृहस्थ कार्यो में लगा रहने पर भी धर्म की आराधना करने का अधिकारी है।
गृहस्थ अनावश्यक हिंसा का परित्याग कर सकता है जितनी मात्रा में वह उसका त्याग करता है , उतनी मात्रा में उसकी प्रवृति सत् हो जाती है।
संयम के उत्कर्ष ओर मन का निग्रह करने के लिए साधना में रुचि रखने वाला श्रावक प्रतिमाओं को स्वीकार करे।
प्रतिमा का अर्थ है- अभिग्रह- अमुक प्रकार की प्रतिज्ञा, संकल्प। ओर ये प्रतिमाएं भावी अनशन के लिए भी पृष्टभूमि बनाती है। इसलिए असंयम को छोड़कर संयम का सेवन करना चाहिए। असंयम महान दुःख है। संयम उत्तम सुख है।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 14

सिर जो मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नही होता, ओंकार को जप लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नही होता, अरण्य में निवास करने मात्र से कोई मुनि नही होता और कुश के बने हुए वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नही होता।
श्रमण वह होता है, जो समभाव रखे। ब्राह्मण वह होता है, जो ब्रह्मचर्य का पालन करे। मुनि वह होता है, जो ज्ञान की उपासना करें और तापस वह होता है, जो तपस्या करे।
योगलिक युग मे न कोई जाति थी और न कोई वर्ण था। भगवान रिषभ के युग मे जाति और वर्ण की व्यवस्था का प्रवर्तन हुआ।
मनुष्य जाति एक है।उसका विभाग आचार अथवा वर्ण के आधार पर होता है। जाति का गर्व करना सबसे बड़ा उन्माद है क्योंकि जातिवाद तात्विक वस्तु नही है।
साधुत्व समता की आराधना है। छोटे और बड़े के विचारों में अहं का जन्म होता है। साधक अहम से ऊपर विचरने वाला होता है
मेघ बोला- देव! किस उपाय से मन की स्थिरता प्राप्त हो सकती है, जिससे स्वीकृत मार्ग पर आरूढ़ रहने का मार्ग सिद्ध हो जाये।
भगवान ने कहा- मन दुष्ट घोड़ा है। वह साहसिक और भयंकर है। वह दौड़ रहा है। उसे जो भली भांति अपने अधीन करता है, वह मनुष्य नष्ट नही होता- सन्मार्ग से च्युत नही होता।
जिसने आत्मा को साध लिया, उसने विश्व को साध लिया। जिसने आत्मा को गंवा दिया ,उसने सब कुछ गंवा दिया।
जिसकी मति धर्म मे लगी हुई है, वह श्रमण हो या गृहस्थ, साध्य में मन को स्थिर बनाकर आत्मा को साध लेता है।

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अध्याय - 13

शरीर मुक्ति का बाधक है। मुक्तात्मा का पुनः जन्म नही होता। अवतार वही आत्माएं लेती है जो सशरीरी है। शरीर पांच है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस ओर कार्मण। संसारी के दो और तीन शरीर सदा रहते है। दो शरीर मे आत्मा अधिक देर नही रहती उसे तीसरा शरीर शीघ्र ही धारण करना पड़ता है। आत्मा जब एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर मे प्रवेश करती है, उस गमन को अंतराल गति कहते है।

मेघ बोला- भगवन! इन्द्रिय समूह बहुत चंचल है। उसे संयत कैसे किया जाए? आप उसका तात्पर्य मुझे समझाये।

भगवान ने कहा- चित्त की एकाग्रता और निर्विचारता ऊर्जा को ऊपर उठाती है और सहस्रार में पहुंचाती है।

सबसे पहले आवश्यक है - जागरण। साधक अपने मन , वाणी और शरीर के प्रति पूर्ण होश से भरे रहने का सतत प्रयत्न करें। मन को ऊपर ले जाये और उसे सहस्रार पर स्थिर करे।

मूलबन्ध का अभ्यास ओर पुनः पुनः प्रयोग भी कामविजय में सहायक है।

आसन- सिद्धासन, पद्मासन  ,पांदागुष्ठासन आदि भी इसमें उपयोगी होते है।

भोजन शक्ति देता है ओर उसका उपयोग उचित या अनुचित किसी भी तरह हो यह संभव है। इसलिए यहां कहा गया है कि साधक वैसा भोजन न करे, जिससे विकृति को उत्तेजना मिले। शरीर की निश्छलता से मन शांत हो जाता है।

इस लोक में जितने कारण बन्धन के है, उतने ही कारण मुक्ति के है।

बन्धन ओर मुक्ति सापेक्ष शब्द है।

सिद्धि गांव में भी हो सकती है अरण्य में भी हो सकती है।सिद्धि वही होती है जहाँ राग ओर द्वेष का विलय हो जाता है।

साधना का आंतरिक पक्ष है- राग - द्वेष पर विजय। जो राग द्वेष का विजेता है उसके लिए गांव, नगर, उपवन नदी ,तट आदि सब समान है।

 

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 13

आत्मा का शुद्ध स्वरूप उपादेय है। वही साध्य है। वह कैसे प्राप्त होता है, इसकी विधि का नाम साधना है। साधना को एक शब्द में बांधा जाए तो वह है संयम। संयम का अधिकारी वही होता है, जो संदेह के वातावरण में सांस नही लेता। साध्य की प्राप्ति में इन्द्रिय, मन औऱ शरीर बाधक होते है। आत्मा के साथ इनका गहरा संपर्क है। उसे यह ज्ञात है कि बन्धन के स्रोत कहा कहा है । जिसे बन्धन के मार्गो का अवबोध नही है वह प्रतिक्षण उनका संग्रह करता रहता है। एक के बाद दूसरी बंधन की श्रृंखला जुड़ती चली जाती है। इसलिए साध्य, साधन औऱ उसके ज्ञान की ज्ञप्ति अत्यंत आवश्यक है।--

मेघ बोला- भगवन! साध्य क्या है? साधन क्या है? साध्य की साधना कौन करता है? में साध्य और साधन के विषय को जानना चाहता हु।

भगवान ने कहा- वत्स! यह प्रश्न दुरूह है। यह अनेक प्रकार से विभक्त होता है। लोग भिन्न - भिन्न रुचिवाले होते है, अतः साध्य भी अनेक हो जाते है।

लोक है या नही- इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नही करता।

जीव है या नही- इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नही करता।

कर्म है या नही- इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नही करता।

कर्म का फल भोगना पड़ता है या नही- इस प्रकार संदिग्ध रहने वाला व्यक्ति साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नही करता।

लोक है, जीव है, कर्म है और कर्मफल भुगतना पड़ता है- इस प्रकार जो आस्थावान है, वह साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है।

संयम आत्मा की प्राप्ति- साध्य की सिद्धि का साधन है। आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा राग द्वेष औऱ शरीर से मुक्त होकर परमात्मा हो जाता है। आत्मा और परमात्मा में केवल आवरण ओर अनावरण का ही अंतर है।

 

 

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 12

भगवान ने कहा- चिंता, भय, शोक,क्रोध आदि विविध आवेग, चिरकालीन संवेदन ओर चिरकालीन विचार- ये मन को दुर्बल बनाते है। आत्मा के द्वारा आत्मा की प्रेक्षा के9 धर्मध्यान कहा जाता है। प्रेक्षा जब उत्कृष्ट भूमि पर चलती है, तब शुक्लध्यान कहलाती है। प्रेक्षा का अर्थ है- निर्विकल्प रूप से देखना, अपने द्वारा अपने को देखना- आत्मा को देखना है।
प्रेक्षाध्यान की सिद्धि में परायण व्यक्ति व्याधि, आधि और उपाधि का प्रयत्नपूर्वक अतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होता है।
मन की शुद्धि होने पर भाव की शुद्धि होती है। भाव की शुद्धि होने पर लेश्या की शुद्धि होती है और लेश्या की शुद्धि होने पर अध्यवसाय की शुद्धि होती है। यह साधना का क्रम है।
जो नाव आस्रविणी है-छेद वाली है, वह समुद्र के पार नही पहुचती और जो निरास्रविणी है- छेद रहित है, वह समुद्र के उस पार चली जाती है।
महावीर ने भावना को नौका कहा है। जैसे नाव से समुंद्री यात्रा सानन्द संम्पन होती है, वैसे ही भावना रूपी नौका से चित्त को साध्य के अनुरूप सुवासित कर भव- सागर को पार किया जा सकता है। भावनाएं विविध हो सकती है। जिनसे चित्त विशुद्धि होती है तथा अविधा का उन्मूलन और विधा की उपलब्धि होती है- ये सब संकल्प औऱ विचार भावनाओं के अंतर्गत है। अध्यात्म की साधना है - स्वयं में प्रतिष्ठित होना। पाप से बचने की अपेक्षा स्वयं में स्थित होने का प्रयत्न सशक्त है। अपने से बाहर जाना ही पाप है।
मेघ बोला- प्रभो ! आपका प्रसाद प्राप्त कर मेरा मन पुलकित हो उठा। आपकी सुधारस से सिक्त वाणी मनुष्यों के सन्ताप का हरण कर लेती है।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

अध्याय - 12

मन की चंचलता भी बाहर दे जुड़ी है,पुराने संस्कारो की लीक पर चलती है।स्मृति, कल्पना ओर चिंतन ये सब चंचलता के ही परिणाम है।चंचलता शांत हो जाती है सुख स्वतः ही छलक आता है।
स्वबोध वाले व्यक्ति में हीं भावना कस प्रवेश नही होता। हैं भावना दुसरो के साथ तुलना करने से पैदा होती है। दुनिया मे आदमी को छोड़कर कोई किसी से तुलना नही करता। सब अपने अपने अस्तित्व में मस्त रहते है । स्वबोध में छोटे बड़े का भाव नही रहता। वहाँ प्रत्येक पूर्ण है। यह सच्चाई स्व बोध से प्रकट होती है और हैं भावना जनित दुःख स्वतः ही तिरोहित हो जाता है।
अहंकार भी एक वृति है। हैं भावना वाला अपने आप को क्षुद्र मानता है वहा अहंकारी अपने को महान, बड़ा विशिष्ट समझता है। इसके पीछे अज्ञान का बोलबाला है। ध्यान के द्वारा जैसे- जैसे स्वबोध का मार्ग प्रशस्त होता है वैसे- वैसे अहंकार भी अपने बोरिया बिस्तर समेट लेता है। स्वबोध का मार्ग जिससे सहज ही सरल बन जाता है, संस्कारो का उच्छेद हो जाता है तथा दुःख का उन्मूलन भी।
आरोग्य का एक बड़ा कारण है- जीवन मे श्रम की प्रतिष्ठा। आज देखते है श्रम घटा , रोग बढ़ा। श्रम के अभाव में साध्य कार्य असाध्य बन जाते है। अनेक बीमारियों ने शरीर पर अपना कब्जा जमा लिया है। श्रम शरीर के लिए अपेक्षित है- वह देह की प्रकृति है। प्रकृति की अवहेलना करना अहितकर है।आरोग्य के लिए इनका अनुशीलन अपेक्षित है।
मेघ बोला- मन दुर्बल कैसे होता है, वह बलवान कैसे बनता है यह में जानना चाहता हु।
मन के दुर्बल होने के कारण बहुत साफ है। भय, शोक, चिंता,क्रोधादि, आवेग, संवेदन और चिरकालीन विचार ये कारण है। जिनके मन मे इनसे मुक्त होने की भावना जागृत होती है और जो अपने पर अपना अनुशासन करना चाहता है, उसके लिए मन को सशक्त बनाने की कोई कठिनाई नही है। जैसे वह जागृत होता है और उपायों का अवलंबन कर लेता है मन शांत संतुलित और शक्तिशाली बनने लगता है।

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अध्याय - 12

आत्मा है। आत्मा शाश्वत है। बंध है, बंध का उपाय है। मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है। यह ज्ञेय दृष्टि है।
पुण्य ,पाप, बंध ओर कर्मागमन का हेतुभुत आस्रव - ये सब संसार के बीज है।यह हेय दृष्टि है।
कर्मो का निरोध करना संवर है और कर्मो के क्षय से होने वाली आत्मशुद्धि निर्जरा है- यह उपादेयदृष्टि है।
जो जानने का है उसे जाने, छोड़ने का है उसे छोड़े ओर जो उपादेय है उसके ग्रहण में सलंग्न रहे।
महावीर ने कहा है- सूचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला,- अच्छे कर्मों का अच्छा फल और बुरे कर्मो का बुरा फल होता है।
मेघ बोला- है सर्वदर्शीन ! आपने घोर धर्म का प्रतिवादन किया है। धर्म दुःख का नाश करता है, फिर उस धर्म मे दुःख के लिए स्थान क्यों?
भगवान ने कहा- वत्स! तूने मेरे धर्म का कुछ भी मर्म नही समझा। जो पुरुष मर्म को नही जानते, वे सनातन सत्य की हत्या कर देते है।
धर्म शरीर को कष्ट देने के लिए नही किंतु सत्य की उपलब्धि के लिए है। अहिंसा का अभ्यास किये बिना सत्य की उपलब्धि नही होती। सत्य- दर्शन के लिए तो हमे सत्य पथ का अनुसरण करना होगा।
जब तक शरीर और इंद्रियां है ,जब तक मन चंचल है, तब तक स्वभावतः इंद्रियों के विषय अच्छे लगते है, उनका परित्याग अच्छा नही लगता।

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अध्याय - 12

मनुष्य को बन्धन प्रिय नही है, प्रिय है स्वतंत्रता। स्वतंत्रता की प्राप्ति बन्धन को तोड़े बिना नही मिलती। बन्धन न को न जानकर उसे तोड़ने की बात असम्भव है। इसलिए यहां ज्ञेय,हेय और उपादेय- तीनो का विशद दर्शन है। बन्धन बाधक है- जब आत्मा ये जान लेती है तब उसे तोड़ने को भी प्रेरित होती है। बन्धन टूटता है, लक्ष्य उपलब्ध हो जाता है।
संसार मे तीन प्रकार के पदार्थ होते है- ज्ञेय, हेय ओर उपादेय। विश्व मे सभी पदार्थ ज्ञेय है। जो आत्म-उत्थान में साधक होते है।वे उपादेय है और जो बाधक होते है वो हेय है। आत्मसाधना में तीनों का विवेक आवश्यक है। जिज्ञासा ज्ञान प्राप्ति की सच्ची भूख है। मेघ का मन यह जानना चाहता है कि संसार मे जानने, छोड़ने ओर आचरण करने की क्या चीजे है, जिससे में स्वात्महित को साध सकू।
भगवान ने कहा- धर्म, अधर्म, आकाश, पुदगल ओर जीव - पांच अस्तिकाय तथा काल ये छह द्रव्य है। यह ज्ञेय दृष्टि है। ये छह द्रव्य विश्व- व्यवस्था के संघटक है। इनसे संसार के स्वरूप का बोध होता है।
जीव, अजीव, पुण्य,पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध ओर मोक्ष ये नो तत्व है। यह ज्ञेय दृष्टि है।
मुख्यतया तत्व दो है- जीव ओर अजीव। किंतु मोक्ष के साधन के रहस्य को बतलाने के लिए इनके नो भेद किये गए है। इन नो भेदों में प्रथम भेद जीव का है अंतिम भेद मोक्ष का है। और बीच के भेदों में मोक्ष के साधक ओर बाधक साधनों का वर्णन है।

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सम्बोधि : आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 11

महावीर का संदेश है- सम्बोधि को प्राप्त करो। सम्बोधि के लिए ही जीवन उपयोगी है।आगे ऐसा अवसर दुर्लभ है। इस मनुष्य जन्म में ही परमात्मा को जान लिया तो बहुत अच्छा है। धीर व्यक्ति प्राणी मात्र में परमात्मा की जानकर अमर हो जाते है, इस संसार मे पुनःजन्म नही लेते।
पंडित व्यक्ति कर्म क्षय के लिये प्रवर्तक वीर्य को प्राप्त कर पूर्वकृत कर्म की निर्जरा करता है और नये कर्म का अर्जन नही करता। जीव अकेला ही कर्मो को संचय करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। जो किसी का प्रिय भी नही करता और अप्रिय भी नही करता ,सर्वत्र समता का आचरण करता है, उसे समाधि प्राप्त होती है।
भगवान ने कहा- "सच्चम लोयम्मि सारभूयं "-- लोक में सत्य ही सारभूत है। सत्य क्या है? इसका उत्तर यही है - सत्य विराट है। सत्य भगवान है। सत्य असीम है। इसको परिभाषा में बांधना सहज- सरल नही है।
सत्य के अनेक अर्थ है। सत्य का एक अर्थ है- सार्वभौम नियम।यतार्थ वचन को भी सत्य कहा गया है। सत्य को देखना है तो द्रष्टा बनो।द्रष्टा बनने का तात्पर्य है, अपने को देखना, जो स्वयं को देखता है वही सत्य को देखता है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 11
कुछ लोग यह मानते है कि पाप का परित्याग करना आवश्यक नही होता। जो आत्म - तत्व की जान लेता है , वह सब दुःखो से मुक्त हो जाता है। वे अज्ञानी अपने आप को पंडित मानते हुए भी बाल है। वे पाप कर्म से विषाद को प्राप्त हो रहे है। पांडित्य और सम्यग ज्ञान का अंतर जान लेना आवश्यक है।सम्यग ज्ञान कही बाहर से नही आता। उसके लिए स्वयं में प्रवेश करना होता है। पंडित बनने के लिए विश्व मे बहुत साहित्य है, शिक्षक है, वक्ता भी है, ओर विविध प्रकार के उपकरण है। इतनी क्षमता होते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयं को इस ज्ञान से नही जान सकता। ज्ञानी वही है जो अपने को जानता है, और विद्वान वह होता है जो दूसरों को जानता है। ज्ञान की प्रक्रिया शिक्षा से सर्वथा भिन्न है।
जैन दृष्टि से मोक्ष के चार उपाय है- सम्यग दर्शन,सम्यग ज्ञान, सम्यग आचरण ओर सम्यग तप। दर्शन सबका आधार है। दर्शन का अर्थ है- देखना।
भगवान का दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। केवल ज्ञान या केवल तप से मुक्ति नही होती। भगवान ने कहा- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप - इनके समन्वय से मोक्ष सधता है। जब व्यक्ति इन चारों की आराधना करता है, तब वह दुःख मुक्त होता है। तपस्या द्वारा पूर्वबद्ध कर्म का निजरणं करता है। इस प्रकार वह बन्धन से बन्धनमुक्ति की और बढ़ता जाता है।

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 11
आत्मा का स्वरूप चेतन है। वह पोदगालिक गुणों से भिन्न है। वह कर्म करने में स्वतंत्र और उसका फल भोगने में परतंत्र है। यह संसार अध्रुव- अशाश्वत है और दुःखो का आलय है। इसमें परिभ्रमण करता हुआ प्राणी अतकीर्त क्लेशों को प्राप्त होता है।जीव अपने आचरण से बार - बार जन्म लेता है और विचित्र प्रकार के शरीर को धारण करता है।
कर्मो की हानि होते- होते जीव क्रमशः विशुद्धि को प्राप्त होते है और विशुद्ध जीव मनुष्यगति में जन्म लेते है।मनुष्य - जन्म को प्राप्त होकर जो धर्म को सुनता है, श्रद्धा रखता है और संयम में शक्ति का प्रयोग करता है, वह व्यक्ति अर्जित दुःखो को प्रकम्पित कर डालता है।
शुद्धि उसे प्राप्त होती है जो सरल होता है। धर्म उसी आत्मा में ठहरता है, जो शुद्ध होती है। जिस आत्मा में धर्म होता है, वह घी से सींची हुई अग्नि की भांति परम् दीप्ति को प्राप्त होती है।
वह कोनसा कर्म है, जिसका आचरण कर में दुःखी न बनू? मनुष्य में ऐसी तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होती है। उसके पश्चात वह मार्ग की खोज करता है।जैन दर्शन दुःख मुक्ति का दर्शन है।
भगवान महावीर ने कहा- जन्म दुःख है। बुढ़ापा दुःख है। रोग दुःख है। मरण दुःख है। सारा संसार दुःखमय है जहा प्रत्येक प्राणी दुःख पा रहा है।
जैन दर्शन के चार आधार बिंदु है:- 1) दुःख 2) दुःख का कारण है।3) मोक्ष है। 4) मोक्ष का कारण है।इन चार सत्यों के आधार पर सारा दर्शन खड़ा हुआ है।
साधक दुःख के कारणों और उनकी मुक्ति के मार्ग की खोज में जुट पड़ता है। तब उसे सत्य का बोध होता है और वह अपने लक्ष्य का निर्णय कर लेता है। यहां से सत्य की शोध, जिससे दुर्गति का अंत हो प्रारम्भ होता है।यही दर्शन का आदि बिंदु है। जैन दर्शन यहां से प्रारम्भ होता है और निर्वाण प्राप्ति में कृतकार्य हो जाता है।

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अध्याय - 10

जिनके पूर्ण व्रत होता है वह प्राज्ञ पंडित कहलाता है।
यह यात्रा धर्म की है, अनासक्ति की है और सहजता की है। इसलिए इसे धर्म- पक्ष ,पंडित कहा है।
जिस प्रकार अग्नि जीर्ण काष्ट को भस्म कर डालती है उसी प्रकार समाधियुक्त आत्मा वाला मुनि कर्मो को भस्म कर डालता है।
कर्म के अनुभाव से जीव नाना गतियों भव परिभ्रमण करता है। नरक और स्वर्ग-- ये दो परोक्ष है। परोक्ष के विषय मे संशय उत्पन्न हो जाता है।
जो पुरुष पंचेन्द्रिय वध करता है, महा- आरम्भ हिंसा करता है, वह परिग्रही होता है और जो मांस - भोजन करता है, वह नरक में जाता है।

स्वर्ग में जाने के चार कारण है- 1) सराग संयम
2) संयमासंयम 3) अकाम निर्जरा 4) बाल- तप।

तिर्यंच- पशु पक्षी आदि की गति में उत्पन्न होने के चार कारण है।
1) कपट
2) प्रवंचना
3) असत्य भाषण
4) कूट तोल- माप।

प्रमादी जीव शुभ और अशुभ कर्मो के द्वारा संसार मे अनुवर्तन करता है और अप्रमादी जीव संसार का अंत कर देता है।
संसार का अंत करने वालो में कुछ जीव स्वयंबुद्ध होते है, कुछ बुद्धबोधित होते है और कुछ प्रत्येक- बुद्ध होते है। इस प्रकार बोधि की प्राप्ति के अनेक मार्ग है।
यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा - संकल्प हो तो निश्चय दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही है।

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अध्याय - 10
मेघ बोला- जिनका जन्म होता है, उनकी मृत्यु होती है। जिनकी मृत्यु होती है, उनका पुनः जन्म होता है। ऐसी स्थिति में जीना श्रेय है या मरना।
भगवान ने कहा- जीवन दो प्रकार का होता है- संयत जीवन और असंयत जीवन। संयत जीवन श्रेय है, असंयत जीवन श्रेय नही है।
मृत्यु के दो प्रकार है- सकाम मृत्यु- आत्मविशुद्धि की भावना से युक्त ओर अकाम मृत्यु- आत्मविशुद्धि की भावना से रहित। सकाम मृत्यु श्रेय है। अकाम मृत्यु श्रेय नही है।
बाल- असंयमी जीवों का बार बार अकाम मरण होता है। पंडित- संयमी जीवो का सकाम मरण होता है ओर वह अधिक बार नही होता- कम से कम एक बार और उत्कृष्टत्: पन्द्रह बार होता है, फिर वह मुक्त हो जाता है।
मूढ़ चेतना वाले लोग पर्वत या वृक्ष के नीचे गिरकर , अग्नि या जल में प्रवेश कर मरते है, वह अप्रशस्तमरण - अकाममरण कहलाता है।
ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का विसर्जन करना प्रशस्त मरण- सकाममरण कहलाता है, क्योंकि वहां राग द्वेष की प्रवृति नही होती।
जिसमें कुछ भी व्रत नही होता,वह मनुष्य 'बाल' कहलाता है। जिसके व्रत अव्रत दोनों होते है- पूर्ण व्रत भी नही होता और पूर्ण अव्रत भी नही होता, वह बाल पंडित कहलाता है।

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अध्याय - 10
मुनि साधक है। वह मोक्ष का अधिकारी है। मुनि बनते ही मोक्ष नही हो जाता। यदि ऐसा होता तो समस्त संसार मुनि बनता और मुक्त हो जाता।
मन , वाणी और शरीर की निवृत्ति है मोक्ष। किंतु निवृति सीधी नही आती। प्रवृत्ति और निवृत्ति का क्रम है। निवृति के अंतिम बिंदु पर जब साधक पहुंच जाता है तब प्रवृति के जाल से मुक्त हो जाता है।
मेघ बोला-- है प्रभो! मुझे बताइए, साधक कैसे चले? कैसे ठहरे? कैसे सोए? कैसे बैठे? कैसे खाए? और कैसे बोले?
मेघ कुमार ने यहां छह प्रश्न प्रस्तुत किये है। इन छहो प्रश्नों में साधक जीवन के सारे पहलू समा जाते है।
भगवान ने कहा-- साधक संयमपूर्वक चले, संयमपूर्वक ठहरे, संयमपूर्वक सोएं, संयमपूर्वक बैठे, संयमपूर्वक खाएं और संयमपूर्वक बोले। उसे प्रत्येक कार्य में संयत होना चाहिए।
मेघ बोला- प्रभो! पहले या पीछे जब कभी एक दिन इस शरीर को छोड़ना है तो साधक किसलिए खाये? मुझे बताइए।
भगवान ने कहा- साधक उध्वलक्षी होकर कभी भी बाह्र - विषयों की आकांक्षा न करे। केवल पूर्व कर्मो के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे।

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अध्याय - 9
पदार्थो को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यगज्ञान नही कहा जा सकता है। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होना है, वह ज्ञान सम्यगज्ञान कहलाता है।
मुझे ज्ञान होगा, इस उद्देश्य से मुझे अध्ययन करना चाहिए। जो जीव सत् और असत तत्वों को नही जानता, वह सत्य को प्राप्त नही कर सकता।
शिष्य मेघ! आत्मा के स्व प्रकाश के लिए , बन्धन की मुक्ति के लिए और आनन्द के लिए मैने धर्म का प्रवचन किया है।
प्रमादी जीव शुभ- अशुभ फल वाले कर्मो के इन बंधनो से संसार मे पर्यटन करता है। अप्रमत्त मुनि कर्मो के बन्धनों और उनके शुभ- अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर जिन अथवा केवली लोक और अलोक को जान लेता है। वह आयु के अंत मे मन ,वचन ओर काय तीनो योगों का निरोध कर, कर्मरज को सर्वथा क्षीण कर अनन्त ,अचल ओर कल्याणकारी सिद्धिगति को प्राप्त कर, शाश्वत सिद्ध होकर लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है।
संवर का अर्थ है- निरोध। संवर विजातीय तत्व का अवरोधक है। संयम के माध्यम से ही चेतना का पूर्ण विकास होता है। साधना का प्रथम चरण भी संयम है और अंतिम चरण भी संयम है

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अध्याय - 9
मेघ बोला- ज्ञान प्रकाश करने वाला होता है। फिर मिथ्याज्ञान और सम्यकज्ञान ऐसा जो विकल्प किया जाता है, उसका क्या कारण है? अब में यह जानना चाहता हु।
भगवान ने कहा:- ज्ञान पर आवरण आने से अज्ञान होता है। उसके प्रभाव से अज्ञानी जीव यथार्थ अथवा अयथार्थ - कुछ भी नही जान पाता।
यह आवरण जीवो को न विकृत बनाता है और न संस्कृत। यह केवल अपनी आत्मा के सहज प्रकाश को ढकता है। भावो की विशुद्धि के द्वारा ज्ञान का जितना आवरण विलीन होता है,उतना ही आत्मा का अव्यक्त प्रकाश व्यक्त होता है।
आत्मा के उस प्रकाश से संसार के ये पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते है। यदि उसके विभाग न किये जाए तो उस प्रकाश को ज्ञानमात्र ही कहा जा सकता है।
ज्ञान के स्वरूप को समग्र दृष्टिकोण से देखे तो वह एक है। उसके विभाग नही होते है। जहां विभाग किये जाते है वहा उसका प्रकाश कुछ सीमाओं में बंध जाता है। बिजली का प्रकाश बल्ब की ही शक्ति पर निर्भर करता है। वैसे ही ज्ञान आवरण की तारतमता पर आधारित है। वह ज्ञान है पर पूर्ण विशुद्ध नही।अविशुद्धि के आधार पर उसके पांच विभाग होते है। पांचवा विभाग पूर्ण शुद्ध है।
आत्मा ज्ञानमय है। उसका ज्ञान अनन्त है। वह अनन्त गुण और पर्यायो को जानने में समर्थ है।

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अध्याय - 8
मेघकुमार का मन श्रामण्य के पहले ही दिन कुछेक तात्कालिक कारणों से अस्थिर हो गया। वह घर जाने के लिये तत्पर होकर भगवान महावीर के पास आया औऱ अपनी सारी भावना उनके सामने रखी।भगवान महावीर ने उसके मानस को पढ़ा, उतार- चढ़ाव पर ध्यान दिया और उसे श्रामण्य में पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रतिबोध दिया।
भगवान की वाणी सुन मेघकुमार का आत्म-चेतन्य जगमगा उठा। उसने दुःख, दुःख हेतु, मोक्ष और मोक्ष हेतु- इन चारों को सम्यक जान लिया और पुनः श्रामण्य में स्थिर हो गया।
अब उसकी आत्मा इतनी जागृत हो चुकी थी कि उसने अपने पूर्वकृत मनोमालिन्य की शुद्धि के लिए भगवान से प्रायश्चित की याचना की। वह जान गया कि प्रायश्चित की आग में जले बिना सोना कंचन नही होता। उसने प्रायश्चित लिया और वह भगवान के शासन में पुनः सम्मिलित हो गया।
ज्ञेय अनन्त है ज्ञान भी अनन्त है। हर व्यक्ति में अनन्त ज्ञान का विकास नही है। जिसका ज्ञान सीमित है,उसके लिए ज्ञेय भी सीमित हो जाता है। यह सीमा करने वाला है आवरण। आवरण की तरमरता का अर्थ है ज्ञान के विकास की तरमरता।
सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन मनुष्य को विकास के शिखर तक ले जाते है।ज्ञान विकास का आदि बिंदु है। वह क्रिया के साथ जुड़कर व्यक्ति को शिखर तक पहुंचा देता है।

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अध्याय - 8
पहले सम्यक्त्व होता है , फिर विरति होती है। उसके पश्चात क्रमशः अप्रमाद, अकषाय और अयोग होता है।अयोगावस्था प्राप्त होते ही आत्मा की मुक्ति हो जाती है।
आध्यात्मिक विकास की दो कोटिया बतलाई गई है। पहली कोटि में तीन तत्व है- सम्यक्त्व, व्रत और अप्रमाद।
भगवान महावीर ने मेघकुमार के सामने आध्यात्मिक विकास की दो कोटियों का निरूपण किया है। पहली कोटि मे मिथ्यात्व अविरत औऱ प्रमाद से मुक्ति है।यह मिथ्यात्व का संस्कार अंनत जन्मों से अर्जित है। इस चक्र से बाहर निकलना कठिन ही नही अपितु कठिनतम है। इससे मुक्त होकर ही साधक व्रत- विरति की ओर अग्रसर होता है। विरति का अर्थ है- ब्राह्र विषयों से विरक्त होना।
दुःख के हेतु है-- राग औऱ द्वेष। वीतराग दशा सुख है और उसका हेतु है- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र।
मेघ बोला- है तीर्थनाथ! अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ। आपके प्रसाद से में तीर्थ में आ गया हूं और आपके अनुग्रह से में अब भावितात्मा और स्थितात्मा हो गया हूं।
अब मेरा मोह नष्ट हो गया है,क्लेव्य चला गया है,बुद्धि शुद्ध हो गई है और मन स्थिर बन गया है। अब में पुनः आपके पास श्रामणय स्वीकार करना चाहता हु। पहले जो मेरे मन मे कलुष भाव आया, उसकी शुद्धि के लिए में प्रायश्चित करना चाहता हु और चित्त की समाधि के लिए आपसे पुनः धर्म देशना सुनना चाहता हु।


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सम्बोधि

*अध्याय - 8*
जो वृत्ति आत्मा को उत्तप्त करती है, उसे कषाय कहा जाता है। मन,वचन और शरीर की प्रवृत्ति को "योग" कहा जाता है।
कषाय का अर्थ है-- आत्मा की उतपत्ति। वे चार है- क्रोध, मान, माया और लोभ। इनके अवान्तर भेद सोलह होते है।
योग शुभ और अशुभ- दो प्रकार का होता है और शेष चार सूक्ष्म प्रवत्तियाँ अशुभ ही होती है।
आत्मा शरीर से मुक्त नही है इसलिए वह प्रवृति करती है। स्वतंत्र आत्मा में शरीरजन्य प्रवृत्ति नही होती।जहा प्रवृत्ति है वहा बन्ध है। समस्त प्रवृत्ति के हेतु है- शरीर, वाणी और मन।इनकी प्रवृत्ति को योग कहा जाता है।
जो स्थितात्मा शुभ- अशुभ पुदगल औऱ उनके द्वारा प्राप्त होने वाले फल का त्याग करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है। फिर वह कभी जन्म ग्रहण नही करता।
जब निवृत्ति पूर्णता को प्राप्त होती है तब योगी शैलेशी दशा को प्राप्त होकर अप्रकम्प बनता है और पुद्गगलो से मुक्त हो जाता है।
पदार्थो में जो अनासक्ति होती है, ऊसर मेने विरति कहा है। आत्मोपलब्धि के प्रति जो जागरूक वृति होती है, ऊसर में अप्रमाद कहता हूं। अशुभ योग का त्याग करना भी विरति कहलाता है। वह विरति यथाशक्ति- अशन्त: या पूर्णतः स्वीकार की जाती है।
क्रोध, मान, माया, औऱ लोभ- इन्हें कषाय कहा जाता है। इनके निरोध को मैने अकषाय कहा है। वह शांति का साधन है।सब प्रकार की प्रवृतियों के निरोध को अयोग कहता हूं। अयोग अवस्था को प्राप्त योगी मोक्ष को प्राप्त हो जाते है।

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अध्याय - 8
मिथायत्व, अविरति, प्रमाद और कषाय- इन चार आश्रवों को अभिव्यक्त करने वाला योग भी मिथ्या त्व, अविरति, प्रमाद और ‌कषाय कहलाता है।
प्रवृति का पहला प्रकार है- मिथायत्व। यह सबसे खतरनाक है।इसमें व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक नही होता। प्रवृत्ति का दूसरा प्रकार है - विरति। ऊपर ऊपर विरति पल सकती है किंतु पदार्थो का मोह नही छुटता । प्रवृति का तीसरा प्रकार है - प्रमाद। यह व्यक्ति को जागृत नही होने देता। प्रवृति का चौथा प्रकार है- कषाय। कषाय प्रमाद के अंर्तगत होने पर भी प्रवृति में उसका स्वतंत्र उल्लेख है। प्रवृति का पांचवा प्रकार है- योग। योग का अर्थ है मन , वाणी और काया की चंचलता। मनुष्य का बाहरी रुप जो दिखाई देता है।, वह सिर्फ बाहरी नही है, भीतर का प्रतिबिंब है।भीतर घटना घटती है बाहर उसका विस्तार हो जाता है।
अतत्व में तत्व का संज्ञान करना, अमोक्ष में मोक्ष की बुद्धि करना और अधर्म में धर्म का संज्ञान करना मिथ्यात्व कहलाता है।उसके दो प्रकार है- आभिग्रहीक और अनाभिग्रहीक।
पदार्थो में जो व्यक्त और अव्यक्त आसक्ति होती है, वह अविरति कहलाती है। अपने आत्म-विकास के प्रति जो अनुत्साह होता है, उसको मैने प्रमाद कहा है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 8
बंध आवरण है और मुक्ति निरावरण। बंध और मोक्ष - दोनों एक दूसरे के प्रतिपक्षी है। मोक्ष में बन्धन नही है और बंधन में मुक्ति नही है। बंध क्या है और मुक्ति क्या है? इसी जिज्ञासा का समाधान यहां प्रस्तुत है।
स्व- शासन मुक्ति है और पर- शासन बंधन।
प्रवृति और निवृति बंध- मोक्ष के कारण है। प्रवृति से बंध होता है औऱ निवृति से मोक्ष। प्रवृति स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार की होती है। इन दोनों प्रकार की संग्राहक शब्द है - आश्रव।
इस अध्याय में आश्रव तथा बंध- मोक्ष की प्रक्रिया का विवेचन है।
मेघ बोला- है सर्वदर्शीन! बंध किसे कहते है? मोक्ष किसे कहते है? आत्मा का बंधन कैसे होता है और मुक्ति कैसे होती है- यह में आपसे सुनना चाहता हु।
भगवान ने कहा - आत्मा के द्वारा पुदगलों का जो ग्रहण होता है, वह बंध कहलाता है। जिस अवस्था मे पुदगलों का ग्रहण नही होता औऱ गृहीत पुदगलों का क्षय हो जाता है, उस स्थिति का नाम मोक्ष है।
प्रवृत्ति के द्वारा जीव कर्मो से आबद्ध होता है और निवृति के द्वारा वह कर्मो से मुक्त होता है। प्रवृति बंध का हेतु है और निवृति मोक्ष का।
प्रवृति आश्रव है और निवृति संवर। प्रवृति के पांच प्रकार है और निवृति के भी पांच प्रकार है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय- ये चार सूक्ष्म- अव्यक्त्व प्रवृतियां है। इनमे आत्मा के अध्यवसायो का सूक्ष्म स्पंदन होता है।

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अध्याय - 7
पदार्थ का भोग आसक्ति उत्पन्न करता है औऱ जीवन पदार्थ- सापेक्ष है, यह महान समस्या है।
जितनी भावनात्मक प्रसन्नता है, उतनी मानसिक निर्मलता है। जितनी मानसिक निर्मलता है, उतना सहज सुख है।
भगवान महावीर ने धर्म की संक्षेप परिभाषा देते हुए कहा - चैतन्य का अनुभव धर्म है। अपना अनुभव , अपना बोध,अपना ज्ञान धर्म है।
धर्म क्यों अनिवार्य है?
धर्म है तो व्यवस्था है, धर्म है तो स्वच्छता है। धर्म से हीन जीवन पशु तुल्य है।
सामाजिक, राजनेतिक, पारिवारिक,वैयक्तिक समस्याएं उत्पन्न होती है धर्म उन सब पर नियंत्रण करता है। इस दृष्टि से धर्म की अनिवार्यता को कोई अस्वीकार नही कर सकता।
धर्म का क्या लाभ है?
धर्म का मौलिक लाभ है- आत्मशांति। सभी संतो, ऋषियो अर्हतों ने शांति के लिए अपना जीवन समर्पित किया था। शांति स्वभाव है। चेतना का धर्म है। धर्म का ब्राह्म लाभ भी प्रत्यक्ष है। एक धार्मिक व्यक्ति तनाव से दूर रहता है, तनाव जनित कषाय जनित व्याधियां उसे ग्रस्त नही करती। वह सतत संतुलित जीवन जीता है।


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अध्याय - 7

भगवान ने तीन प्रकार की हिंसा का निरूपण करते हुए गृहस्थ को निरथर्क हिंसा और संकल्पजा हिंसा से दूर रहने की बात कही है, जो अत्यंत व्यवहार्य और सुखी जीवन की प्रेरणा देने वाली है।
कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो हिंसा की जाती है, उसे आरम्भजा हिंसा कहा जाता है। इस हिंसा से गृहस्थ बच नही पाता।
आक्रमणकारियों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध किया जाता है, वह विरोधजा हिंसा है।
जिस हिंसा के प्रयोजक-प्रेरक लोभ, द्वेष और प्रमाद होते है और जिसमे आजीविका का प्रश्न गौण होता है या नही, वह संकल्पजा हिंसा है।
संयमी पुरुषों को सब काल मे, सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणाघात करना चाहिए न प्रमाद का आचरण।
संयमी पुरुषों के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है। संयमी की वृत्ति दो प्रकार की होती है-- अहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन , यह निषेधात्मक वृत्ति है।
गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का होता है- आत्मिक और लौकिक। आत्मिक धर्म दो प्रकार का है- संवर और निर्जरा। समाज के द्वारा अभिमत धर्म को लौकिक धर्म कहा जाता है।
आत्मधर्म साधु और गृहस्थ दोनों के लिए समान है। साधु आत्म धर्म का पूर्ण रूप से पालन करते है और श्रावक उसका पालन यथाशक्ति करते है। संयममय आचरण साधु के लिए भी धर्म है गृहस्थ के लिए भी धर्म है।
जो तीर्थंकर अतीत में हुए, जो वर्तमान में है ओर जो भविष्य में होंगे, वे सब ऐसे ही धर्म का निरूपण करते है। जिसने अहिंसा की आराधना की , उसने मेरी आज्ञा की आराधना की है। उसने मुझे आराध लिया है और उसने धर्म को आत्मसाध कर लिया है। जहाँ अहिंसा है वहा मेरी आज्ञा है।
मेघ बोला- भगवन! धर्म क्या है? उसकी अनिवार्यता क्यों है? उसका लाभ क्या है? यह जिज्ञासा स्वभाविक है।
भगवान ने कहा- धर्म है चेतन्य का अनुभव। उसका प्रथम सोपान है व्रत। उसकी साधना के दो हेतु है- तप और संयम।

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अध्याय - 7
भगवान महावीर ने कहा-"आणाए मामगं धम्मं " -- आज्ञा में मेरा धर्म है। आज्ञा का अर्थ है- वीतराग का कथन। वही कथन सत्य होता है जो वीतराग द्वारा कथित है।वीतराग वह है जो राग- द्वेष ओर मोह से परे है। उसकी अनुभूति औऱ ज्ञान यथार्थ होता है। इसलिए वह सत्य है। हिंसा जीवन की अनिवार्यता है- इसे प्रत्येक मननशील व्यक्ति स्वीकार करता है। अतः इससे सर्वथा बच पाना सम्भव नही है परंतु इसका विवेक जागृत होने पर अहिंसा के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ा जा सकता है।
हिंसा के कितने प्रकार है? उनकी व्याख्याएं क्या है? अहिंसा की क्या परिभाषा है और उसकी उपासना कैसे संभव हो सकती है? इन सब प्रश्नों का समाधान इसमें किया गया है।
भगवान ने कहा- मेरा धर्म आज्ञा में है, मेरा तप आज्ञा में है। आज्ञा भव्य जीवों की आत्मसिद्धि का हेतु है।
जो जिन- वीतराग ने कहा, वही सत्य और असंदिग्ध है। वीतराग ने राह और द्वेष को जीत लिया इसलिए वे मिथ्यावादी नही होते,अयथार्थ निरूपण नही करते।
आज्ञा का परम तत्व है-- राग औऱ द्वेष का वर्जन।ये राग - द्वेष ही संसार या बंधन का हेतु है और उनसे मुक्त होना ही मोक्ष है।
हिंसा, असत्य, चोर्य्,अब्रह्मचर्य और परिग्रह की प्रवृत्ति असंयम कहलाती है। पूर्ण संयम की आराधना करने वाला संयमी उत्तम मुनि कहलाता है और अपूर्ण संयम की आराधना करने वाला अपूर्ण संयमी या श्रावक कहलाता है।
वित्रगवने राग और द्वेष से विमुक्त होने के लिये उपदेश दिया।राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है और उनमें प्रवृत्ति करना हिंसा है।
हिंसा करने के तीन हेतु है-- आरंभ, विरोध और संकल्प। अतः तत्वज्ञानी पंडितो ने हिंसा के तीन भेद बतलाये है-
▪आरम्भजा हिंसा- जीवनयापन हेतु हिंसा।
▪विरोधजा हिंसा-प्रतिरक्षात्मक हिंसा।
▪संकल्पजा हिंसा-आक्रामक हिंसा।


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अध्याय - 6
कुछ साधुओं से गृहस्थ का संयम श्रेष्ठ होता है, परन्तु सभी गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है।
जो भिक्षु या गृहस्थ शांत और सुव्रत होते है, वे तप और संयम का अभ्यास कर स्वर्ग में जाते है।
जो गृहस्थ या साधु धर्म की आराधना करते है, वे स्वर्ग में दीर्घायु, ऋद्घिमान, समृद्ध, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन हुए हो - ऐसी क्रांति वाले ओर सूर्य के जैसी दीप्ति वाले देव होते है। उसका कारण संयम है।
संयम का मुख्य फल है- कर्म निर्जरणं,आत्म पवित्रता। उसका गौण फल है- देवलोक आदि की प्राप्ति।
मनुष्य जन्म मूल पूंजी है। स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति लाभ है। मूल पूंजी को खो डालने से जीव नरक या तिर्यंच गति को प्राप्त होता है। जिनके पास विपुल ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शिक्षा है, वे मूल पूंजी की वृद्धि करते है। वे कर्मयुक्त हो तो स्वर्ग को प्राप्त होते है और जब उनके रज और मल का बंधन ओर बन्धन का हेतु का नाश हो जाता है तब वे मुक्त हो जाते है।
मेघ बोला- भगवन! मैने कर्म और अकर्म का यह विभाग सम्यक प्रकार से जान लिया है। आपने अप्रमाद को साध्य- सिद्धि का महान तत्व बतलाया है। साधना का मूल तत्व है- अप्रमाद। जीवन का पूरा चक्र प्रमाद की धुरी पर चलता है। प्राणी- जगत प्रमाद से अधिक परिचित है अप्रमाद से नही।अप्रमाद जागरूकता है, वर्तमान का क्षण है। भगवान महावीर का जीवन इसका ज्वलंत प्रमाण है।


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अध्याय - 6
वे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत,चार शिक्षाव्रत तथा विशिष्ट साधना करने के लिये श्रावकोचित्त ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करते है।
गृहस्थ को घर चलाने के लिए वध, बंध आदि का सहारा लेना पड़ता है इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार वहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध जीवों की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा धर्म है।
गृहस्थ सम्पूर्ण असत्य का त्याग करने में असमर्थ होता है परंतु वह ऐसे असत्य का त्याग कर सकता है जिससे किसी निर्दोष प्राणी को बहुत बड़ा संकट का सामना न करना पड़े। यह सत्य अणुव्रत है।
गृहस्थ ऐसी चोरी छोड़ सकता है जिसके लिए उसे राज्य दंड मिले और लोक निंदा करे।
गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचारी नही बन सकता किंतु वह अब्रह्मचर्य के सेवन की सीमा कर सकता है यह ब्रह्चर्य अणुव्रत है।
गृहस्थ समस्त परिग्रह त्याग नही कर सकता किंतु वह अपनी लालसा को सीमाबद्ध कर सकता है यही अपरिग्रह अणुव्रत है।
जो व्रत उपासक की ब्राह्म चर्या को संयमित करते है उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। वे तीन है:-
दिगविरति, उपभोग- परिभोग परिणाम व अनर्थदण्ड विरति।
जो व्रत अभ्यास साध्य होते है और आंतरिक पवित्रता बढ़ाते है उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है । वे चार है:-
सामयिक, देशावकाशिक, पौषध व अतिथिसंविभाग।
इस प्रकार पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों ओर चार शिक्षाव्रतो -- बारह व्रतों का धारण करने वाला बारहव्रती श्रावक होता है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 6
अहिंसा सत्कर्म है। उसकी आराधना वे ही कर सकते है जो पुर्नजन्म को मानते है, जिनका विश्वास है कि सत्कर्म का सत् फल होता है और असत्कर्म का असत् फल होता है। इसके आधार पर व्यक्ति के तीन रूप बनते है।
धर्म की पूर्ण आराधना करने वाला मुनि-- पूर्ण धार्मिक।
धर्म की अपूर्ण आराधना करने वाला सद गृहस्थ-- अपूर्ण धार्मिक।
धर्म की आराधना नही करने वाला-- अधार्मिक।
संसार मे विभिन्न रुचि वाले लोग है। उनमें पृथक - पृथक वाद, जैसे - क्रियावाद- आत्मवाद ओर अक्रियावाद- अनात्मवाद आदि प्रचलित है। कुछ व्यक्ति आत्मा, कर्म आदि में श्रद्धा रखते है और कुछ व्यक्ति नही रखते।
कर्म मुक्ति का साधन जो धर्म है,उसमे भी उसकी पूर्ण आस्था होती है। बाहरी सम्बंध अवास्तविक है। आत्मा में विश्वास करने वाला व्यक्ति प्रत्येक आत्मा की स्वंतत्रता में विश्वास करता है।उसे सुख प्रिय है तो वह यह भी मानता है कि औरो को भी सुख प्रिय है। इसलिए वह अपने सुख के लिए दूसरों का सुख छीनने में क्रूर नही बन सकता।
आत्मवादियों की स्तिथि उनसे नितांत विपरीत होती है। कुछ लोग गृहवासी होते हुए भी सुलभबोधि-धर्मोनमुख होते है।
कुछ दर्शन श्रावक सम्यकदृष्टि होते है, कुछ व्रती होते है। वे घर मे रहते हुए भी धर्म की आराधना करने में तत्पर रहते है।
इस प्रकार उपासक की चार कक्षाएं होती है।
सुलभबोधि,
सम्यगदृष्टि
व्रती
प्रतिमाधारी।
गृहस्थ की ये चार कक्षाएं है। ये उत्तरोत्तर विकसित अवस्थायें है। इनमें धर्म का पूर्ण विकास होता है। जब वह उपासक गृहत्याग कर मुनि बनना चाहता है तब उसे पांचवीं कक्षा मुनि की कक्षा में प्रवेश करना होता है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 5
विषयों का त्याग वैराग्य से होता है। जो विषयों का त्याग कर देता है, उसके विषयों का ग्रहण नही होता और उनका ग्रहण न होने पर इंद्रिया शांत हो जाती है। इंद्रियों की शांति से मन स्थिर बनता है और मन की स्थिरता से विकार क्षीण होते हैं। विकारों के क्षीण होने पर वासना नष्ट हो जाती है।
स्वाध्याय औऱ ध्यान-- ये विशुद्धि की स्थिरता के हेतु है। इनकी उपलब्धि होने पर परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
चित्त को स्थिर बनाकर तथा पर्यकासन की मुद्रा से सीधा-सरल बैठकर, नाक के अग्रभाग में किसी दूसरी पौदगलिक वस्तु में दृष्टि को स्थापित कर अपने स्वरूप को पा लेता है।
जिसने आत्मा को वश में कर लिया, उसने वास्तव में आत्मा को जान लिया। जिसने आत्मा को नही जीता, वह सब कुछ जानता हुआ भी आत्मा को नही पा सकता।
व्यक्ति में पहले मोक्ष की अभिलाषा- संवेग होता है। संवेग का फल है - धर्म- श्रद्धा। जब तक व्यक्ति में मुमुक्षाभाव नही होता, तब तक धर्म के प्रति श्रद्धा नही होती। धर्म- श्रद्धा का फल है- वैराग्य। वैराग्य का फल है- ग्रन्थि भेद। आसक्ति से जो मोह की गांठ घुलती है, वह वैराग्य से खुल जाती है। धर्म श्रद्धा से क्षणिक सुखों के प्रति विरक्ति का भाव उत्पन्न होता है और विरक्त मनुष्य गृहत्यागी अनगार बनता है- मुनि- धर्म को स्वीकार करता है।
जो मुनि बाधाओ से परिपूर्ण सुख से विरक्त होकर निर्बाध सुख को पाने का यत्न करता है वह अनाबाध सुख से सम्पन्न शाश्वत मोक्ष को प्राप्त होता है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 5
साध्य की उपलब्धि साधन से होती है। आत्म-सुख साध्य है और उसके साधन है-- अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि। अहिंसा सबकी रीढ़ है। अन्य सब उसी के सहारे पलते है। साध्य की पूर्णता साधन के अभाव में नही हो सकती इसलिए साधन का बोध और आचरण अपेक्षित है। सुख की प्राप्ति के लिए साधनों का अवलंबन लेना आवश्यक है। इस अध्याय में अहिंसा का स्थूल और सूक्ष्म विवेचन है।:--
मेघ ने कहा-- प्रभो! आपके उपदेश से मैने मोक्ष- सुख का तात्पर्य जान लिया। अब में विस्तार के साथ उसके साधनों को जानना चाहता हु।मेघ ने कहा - संदिग्ध अवस्था मे लक्ष्य का चुनाव नही होता। उसके लिये स्थिरता की अपेक्षा है। मेघ के मन पर पड़ा आशंका का पर्दा हटा तब उसने साध्य का चुनाव किया कि मेरा साध्य मोक्ष है। अब वह उनके उपायों को जानने के लिए व्यग्र है और भगवान से अनेक प्रश्न पूछता है।
भगवान ने कहा-- धीमन! ज्ञान, दर्शन और चारित्र- यह त्रयी मोक्ष का साधन है। उसे धर्म कहा गया है।तुम उसे विस्तार से सुनो और उसका आशय समझने का प्रयत्न करो।
स्वयं को जानना ही यथार्थ ज्ञान है। वह ज्ञान वस्तुतः ज्ञान नही है जिसके द्वारा अपना ज्ञान नही होता है। आत्मा को जानना ही ज्ञान है और आत्मा में दृढ़ निश्चय हो जाना ही दर्शन है। धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा लक्षण है तितिक्षा। जो कष्ट में धैर्य नही रख पाता, वह अहिंसा की साधना नही कर पाता।
अहिंसा अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका है। सभी धार्मिकों ने अहिंसा को परम् धर्म कहा है।
जीवो का हनन वही करता है जो भीरु और निवीर्य हे। जिसमे अहिंसा का तेज है, वह स्वयं का और दूसरो का हनन नही करता। जो दूसरों को कष्ट न पहुंचाता हुआ प्रसन्नता पूर्वक नाना प्रकार के कष्टों को सहन करता है, वही व्यक्ति अहिंसा को जानता है,दूसरा नही।

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अध्याय - 4
भाव- पदार्थ दो प्रकार के होते है-- तर्कगम्य और अतर्कगम्य । अतर्कगम्य भाव मे तर्क का प्रयोग करने वाला बुद्धिवादी उलझ जाता है। इन्द्रिय ओर मन के द्वारा जो पदार्थ जाने जाते है, उन्हें समझने के लिए तर्क का प्रयोग किया जाता है,उससे आगे तर्क की गति नही है।
कुछ रस बहुत स्वादपूर्ण है और कुछ गंध बहुत प्रिय है, किंतु वे तब तक प्राप्त नही होते जब तक उनकी प्राप्ति के लिए यत्न नही किया जाता। वैसे ही आत्मा में आनन्द की विशाल राशि विद्यमान है, किंतु वह मन और इंद्रियों की चपलता से ढंकी हुई है। जब तक वृत्तिया अंतर्मुखी नही बनती ओर उनका बहिमुर्खी व्यापार नही रुकता, तब तक आत्मिक आनन्द का अंश भी प्रकट नही होता। जो मनुष्य कायिक, वाचिक औऱ मानसिक सुख से अनुरक्त रहता है वह उससे आगे देख नही सकता।
वत्स! नैष्कमर्य- योग के प्रति तेरे मन मे जो संकल्प- विकल्प हुए है, उन्हें छोड़ और इन्द्रिय-समूह को संयत बनाकर आत्मा में अवस्थित बन। यह मेरी साक्षात अनुभूति है, इसमें संदेह मत कर।
संशय के बादलों को छिन- भिन्न करते हुए बड़े मधुर शब्दों में महावीर कहते है-- मेघ! उस आनन्द का में प्रमाण हु, मुझे देख। यह जो मेने कुछ कह है वह मेरा अनुभव है, प्रत्यक्ष दर्शन है। इसमें तर्क का कोई अवकाश नही है और न इसमें किसी शाब्दिक- प्रमाण की आवश्यकता है।तू समस्याओं से मुक्त हो और स्वयं प्रत्यक्षीकरण का पथिक बन। अनुभव सदा सत्य होता है।
भगवान ने अनुत्तर आत्मानन्द का उपदेश दिया। वे आगमो के अधिष्ठान-- आधार औऱ वेदों -- शास्त्रों में उत्तम शास्त्र है।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 4

इंद्रिया अपने विषयों से निवृत्त होती है,तब मन अपने विषय से निवृत्त होता है। जहा इन्द्रिय ओर मन की अपने- अपने विषयों से निवृति होती है, वहा ध्यान- लीन व्यक्ति को पवित्र आत्म- दर्शन की प्राप्ति होती है। जिसकी इंद्रियों का बाह्म पदार्थो में व्यापार नही होता, वह योगी सहज, निरपेक्ष, निर्विकार औऱ अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त होता है।
जो संयमी आत्मा में लीन ओर महान योगी है, वह वर्षभर के दीक्षा - पर्याय से समस्त देवो की तेजोलेश्या-- सुखसिका अथवा सुख को लांघ जाता है अर्थात उनसे अधिक सुखी बन जाता है।
इन्द्रिय ओर मन के सुख बाधासहित और क्षणिक होते है। आत्मसुख बाधा रहित औऱ स्थायी होता है।
जो सब कर्मो से विमुक्त है, जो सब कुछ जानते देखते है, जो सब प्रकार की अपेक्षाओं से रहित है और जो सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त है, उन मुक्त आत्माओ को जैसा सुख प्राप्त होता है वैसा सुख काम - भोगों से सम्पन्न मनुष्यों औऱ देवताओं को भी प्राप्त नही होता।यदि मुक्त आत्माओ की सर्वकालिन सुख राशि एकत्रित हो जाये, उसे हम अनन्त वर्गों में विभक्त करें और एक -एक वर्ग को आकाश के एक- एक प्रदेश पर रखे तो वे इतने वर्ग होंगे कि सारे आकाश में भी नही समायेंगे।
वत्स! इस अनिवर्चनीय भाव मे सन्देह मत कर। यह बुद्धि सीमित है, चित्त से आगे इसकी पहुंच नही है।

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महाप्रज्ञ प्रबोध, (मुख्य नियोजिका साध्वी विश्रुत विभा )

प्रतिक्रमण और दीक्षा का आदेश

22. गंगाणै मैं मां बालू सह वैरागी नथमल आयो,
पडिकमणै री मिली आगन्या मनड़ो अतिशय सरसायो,
हो सुजना! भादासर इतिहास रच्यो दीक्षा फरमार हो ।।

भादासर इतिहास रच्यो........

घर की समग्र व्यवस्था करने के बाद मां बालूजी और पुत्र नथमल दोनों कालूगणी के दर्शन करने गए। उस समय कालूगणी श्रीडूंगरगढ़ और सरदारशहर के बीच भादासर गांव में विराज रहे थे।सांझ के समय पूज्य कालूगणी एक तिबारी के मध्यवर्ती द्वार में विराज रहे थे। उसके बाहर सेठ गणेशदासजी गधैया उपासना कर रहे थे। बालक नथमल आगे आया, गधैया जी ने वात्सल्य से अपनी गोद में बिठा लिया। बालक नथमल ने गुरुदेव से प्रार्थना कि - मुझे दीक्षा का आदेश दें।
गुरुदेव - दीक्षा कौन लेगा ? बालक नथमल - मैं और मेरी मां। गुरुदेव - पहले तुम ले लो। तुम्हारी मां के लिए फिर सोचेंगे।
बालक नथमल - दोनों साथ ही लेंगे। मां को छोड़कर दीक्षा नहीं लूंगा।
गुरुदेव ने दो बार फरमाया पर बालक अपनी बात पर दृढ़ रहा।
गुरदेव- तो साथ में लेना है ?
बालक नथमल - हां।
गुरुदेव - ठीक है, माघ शुक्ला दशमी के दिन तुम दोनों की दीक्षा हो जाएगी।
दीक्षा की स्वीकृति प्राप्त कर मां और पुत्र दोनों प्रसन्न हो गए। उस दिन वहां रुके और फिर टमकोर चले गए।

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अध्याय - 4
सुख मनुष्य का प्रथम या चरम लक्ष्य है। मन भी अपने मनोज्ञ विषयों को पाकर सुख की अनुभूति करता है। क्या सुख क्षणिक है? क्या सुख के बाद दुःख का आना उतना ही जरूरी है, जितना दिन के बाद रात का आना है? क्या सुख स्थायी भी हो सकता है? इस खोज में मानवीय चेतना आगे बढ़ी ओर उसे इस सत्य का साक्षात्कार हुआ-- अतीन्द्रिय चेतना के स्तर पर सहज और निरपेक्ष सुख उपलब्ध है। वह स्थायी है, शाश्वत है।
मेघ बोला -- प्रभो! सब सुखों का साधन है शरीर। निर्वाण में वह नही रहता, फिर आनन्द की अनुभूति कैसे होगी। ? मन के भावों का प्रकाशन वाणी के द्वारा होता है। जहाँ वाणी न हो, वहां आनन्द कैसे विकसित होगा? देव! आप बताए।
यह पथ साधन - विहीन है, जहा मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को रोकने का यत्न किया जाता है। आप उस पथ पर लोगो को चलने की प्रेरणा देते है। इस प्रेरणा का कारण क्या है? देव! में यह जानना चाहता हु। जो सुख परोक्ष या अनुभूति का विषय है, उसे प्राप्त करने की विधि बताएं।
मेघ यही जानना चाहता है कि आखिर उसका हेतु क्या है? क्या वह सुख वास्तविक औऱ बुद्धिगम्य है?
भगवान ने कहा-- वत्स! जो - जो कायिक, वाचिक ओर मानसिक सुख है, उसका हमने अनुभव किया है, इसलिए वह सुख है-- ऐसा हमे प्रतीत होता है। हमने चिद् के आनन्द का अभी अनुभव नही किया है, क्योंकि वह इंद्रियों का विषय नही है, मन की वितर्कणा से परे है। आत्म-साक्षात्कार से ही उसका प्रादुर्भाव होता है।

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अध्याय - 3
जीव के शुभ और अशुभ परिणाम से संगृहीत पुदगल कर्म रूप में परिणत होते है, कर्म कहलाते है।
चौहदवे गुणस्थान में जीव मन , वाणी और शरीर से कर्म का निरोध कर शैलेश - मेरु पर्वत की भांति अकम्प बन जाता है, इसलिए इसको शेलेशी अवस्था कहते है। इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव क्षण में कर्म मुक्त हो जाता है।
जो जीव सत्प्रवृत्ति करता है, उसके पाप- कर्म की निर्जरा होती है और शुभ - कर्म का संग्रह होता है, इसलिए वह सत्कर्मा कहलाता है।
प्राणी अपने कर्मो का भोग करता हुआ जन्मता है, मरता है। कर्म सिद्धांत के अनुसार इच्छा की प्रधानता नही है किंतु कृत की प्रधानता है। अर्थात मनुष्य जो चाहता है, वही नही होता, किंतु उसे उसका फल भी भुगतना पड़ता है जो उसने पहले किया है।
मेघ! तू सुख और दुःख को क्षीण करने का प्रयत्न कर । तू सब द्वंदों से मुक्त, सबसे प्रधान महान आनंद-- मोक्ष को प्राप्त होगा। मोक्ष का अर्थ है -- बन्धन मुक्ति। बन्धनों का सम्पूर्ण विलय चौहदवे गुणस्थान में होता है ।ज्यो- ज्यो विलय होता है, आनन्द की अनुभूति स्पष्ट स्पष्टतर और स्पष्टतम होती जाती है। सम्पूर्ण आनन्द की अनुभूति को मोक्ष कहा जाता है।वह सिद्धा अवस्था होती है।
मोक्ष में मन, वाणी और कर्म नही होते- न मनन किया जाता है, न भाषण किया जाता है और न किंचित मात्र प्रवृत्ति की जाती है। वहा आत्मा अकर्मा होती है। मेघ! तू विरक्त होकर अकर्मात्मा बनने का प्रयत्न कर।

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अध्याय - 3
मोह का एक प्रकार है मिथ्यात्व। उससे आत्मा विकृत होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म तथा शेष सभी कर्म मोहकर्म को उत्तेजित करने में निमित्त बनते है। इसलिए मोह कर्म सबसे प्रधान है और शेष सब कर्म उसी के परिवार है। जिस प्रकार सेनापति के मारे जाने पर सेना पलायन कर जाती है, उसी प्रकार मोहकर्म के क्षीण होने पर दूसरे कर्म क्षीण हो जाते है। जिस प्रकार जले हुए बीजों से अंकुर उत्पन्न नही होते, उसी प्रकार कर्म बीजों के जल जाने पर जन्म- मरण रूप अंकुर उत्पन्न नही होते।
विशुद्ध प्रतिमा के द्वारा मोह- कर्म के क्षीण होने पर समाहित आत्मा समस्त लोक और अलोक को देख लेता है।
जो निर्मल अथवा राग-द्वेष मुक्त चेतना का आलंबन लेकर ध्यान करता है, वह धर्म में स्थित हो जाता है। वह स्थिरचित्त होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। निर्मल चित्त वाला व्यक्ति बार -बार संसार में जन्म नही लेता वह जाति- स्मृति ज्ञान के द्वारा आत्मा के विशुद्ध स्थान को जानता है।
मेघ ने कहा-- भगवन! यह जीव जगत विभिन्न रुपों में विभाजित दिखाई दे रहा है और यह नाना प्रकार की प्रवृत्तिया करता है। इन सबके पीछे किसका कर्तत्व है? यह में जानना चाहता हु।
भगवान ने कहा-- यह सारा विभाजन कर्म के द्वारा निष्पन्न होता है। कर्म करने वाली है चेतना। यह आश्रवयुक्त होती है इसलिए कर्मो का आकर्षण सतत करती रहती है। कर्मो कब क्षय होने से चेतना का विकास होता है और उनके प्रबल हो जाने से चेतना का ह्रास हो जाता है।

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अध्याय - 3
तप वैसा ही करना चाहिए, जिससे मन आर्त ध्यान में न फंसे। क्योंकि सब धर्मों में विवेक प्रमुख धर्म है। विवेकशून्य व्यक्ति अपने को शुद्ध नही बना पाता।
जो व्यक्ति इस बात में श्रद्धा नही रखता कि अपना किया हुआ कर्म भुगतना पड़ता है या इसमें श्रद्धा रखते हुए भी अपनी आत्मशक्ति को सत्कार्य में नही लगाता, वह कष्ट से कतराता है।और कष्टों के आने की आशंका से अपने स्वीकृत मार्ग को त्याग देता है। वत्स! यह मुमुक्षु के लिए हितकर नही है। धीर पुरूष सुख दुःख को समान मानकर अपने हित की ओर जाता है।
मेघ बोला-- सब जीव सुख चाहते है। सबको जीवन प्रिय है। वे दुःख नही चाहते है फिर भी वह मिलता है। सुख दुःख का कर्ता कोन है? भोक्ता कौन है? कौन है इनका अंत करने वाला? सुख दुःख देने वाला कौन है? आप मुझे समाधान दे।
सुख दुःख का कर्ता आत्मा है। वही भोक्ता है। वही सुख दुःख का अंत करने वाला है और वही सुख दुःख को देने वाला है। यह निश्चय नय का अभिमत है।
यह आत्मा शरीर मे आबद्ध है-- कर्म शरीर के द्वारा नियंत्रित है। कर्मो के द्वारा ही यह सतत भव भ्रमण करता है। इसलिए सकर्मा हे।यह क्वचित पुण्यकर्म भी करता है, इसलिये सत्कर्मा है।यह क्वचित कर्म का निरोध भी करता है, इसलिये निष्कर्मा है।
मोह के उदय से जो व्यक्ति कर्म-प्रवृत्ति करता है, वह सकर्मात्मा कहलाता है।

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अध्याय - 3
सुख ओर दुःख जीवन के सहचारी है। सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय । दुःख कर्म कृत है । वह कर्म का भोग है। कर्म के बीज है राग औऱ द्वेष। ये दोनों मोह कर्म की शाखाएं है। मोह का उन्मूलन करने पर अन्य कर्मो की शक्ति स्वतः ही जर्जर हो जाती है। मोह दुःख है और मोह मुक्ति सुख ।
मेघ बोला-- एक व्यक्ति घोर कष्टों को सहन करता हुआ भी खिन्न नही होता और दूसरा व्यक्ति थोड़े से कष्ट में भी अधीर हो जाता है। है महान तत्ववेत्ता ! इसका क्या कारण है?
भगवान ने कहा-- जो व्यक्ति कष्ट को निश्चित रूप से अपनव किये हुए कर्म का परिणाम मानता है और यह श्रद्धा रखता है कि किये कर्म को भोगे बिना उससे मुक्ति नही मिल सकती वह कष्ट के आ पड़ने पर भी खिन्न नही होता। धार्मिक व्यक्ति दुःखो से कतराता नही। विपत्ति में धीरज का होना महान पुरुषों का लक्षण है। आत्म शुद्धि के लिए कष्टाअग्नि की अपेक्षा है। वह साधना में निखार लाने के लिए विविध तपो का अवलंबन लेता है। अपने बल-- शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य -- आत्मिक सामर्थ्य, श्रद्धा औऱ आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर व्यक्ति उसी के अनुसार अपनी आत्मा को नियोजित करे।

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अध्याय - 2
मेघ ने कहा- भगवन! आपने अहमिन्द्र कब सिद्धान्त का प्रतिपादन कैसे किया। यदि यह सही है तो कर्मवाद विघटित हो जाता है।
अहमिन्द्र-- यह जैन परिभाषिक शब्द है। इसका शब्दार्थ है- में इंद्र हू। इसका तात्पर्य है- ऐसी व्यवस्था जहा सब समान हो, कोई छोटा- बड़ा न हो। सब अपने आपको एक- दूसरे के समान समझते हो। उनमे स्वामी सेवक की व्यवस्था नही होती।
भगवान ने कहा-- मेघ! स्वामी- सेवक का सम्बंध व्यवस्था पर आधारित है। सभी सामुदायिक सम्बन्ध कर्मकृत होते है।
जब क्रोध, मान, माया ओर लोभ उपशान्त होते है, तब व्यवस्था अच्छी होती है और सबकी स्वंत्रता अबाधित रहती है। जब क्रोध, मान, माया और लोभ उतेजित होते है, तब व्यवस्था अच्छी नही रहती औऱ परतंत्रता बढ़ती है।
मेघ बोला- भगवन! में धन्य हो गया हूं। आपने मेरे संशय का निवारण किया है। कर्मवाद औऱ व्यवस्था का बोध भी मुझे स्पष्ट हुआ है।
अतः हम सब कुछ कर्मजन्य न मानकर व्यवस्थाजन्य दोषों का परिहार करने के लिए उचित पुरुषार्थ करे।

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अध्याय - 2
धर्म की प्रज्ञापना के दो प्रकार है--संवर ओर निर्जरा। संवर धर्म से असत् और सत् संस्कार सर्वथा निरुद्ध होते है तथा निर्जरा धर्म से पूर्व संचित संस्कार क्षीण होते है। धर्म का यही फल है। अधर्म से नए - नए असत् संस्कारो का संचय होता है । अधर्म का यही तत्वसम्मत फल है।
पूण्य ओर पाप के उदय में द्रव्य, क्षेत्र,काल,व्यवस्था, बुद्धि और पौरुष-- ये निश्चित हेतु बनते है।धर्म का फल हे आत्मोदय। वह आत्मा में ही स्थित है। धर्म से परम् शांति, धृति,सन्तुलन और क्षमा ये गुण बढ़ते है।ये सब धर्म के फल है। धन मिलना धर्म का फल नही है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति से कर्म का आकर्षण होता है। जब आत्मा समस्त कर्मो से मुक्त हो जाती है, तब वह परम आत्मा बन जाती है।सुख सुविधा की सामग्री की प्राप्ति केवल धर्म से नही होती।उनकी प्राप्ति में देश, काल, निमित्त, पुरुषार्थ आदि का भी पूरा योग रहता है।
मेघ ने पूछा! प्राणियों के अपने कृत कर्म भिन्न - भिन्न होते है। भगवान कहते है-- प्रत्येक आत्मा स्वरूपतः एक है। स्वभाव में कोई अनेकत्व नही है। जिस दिन जो भी आत्मा स्वरूप होगी, उसे वही अनुभव होगा जो कि उसका धर्म स्वभाव है।भिन्नता कर्मकृत है।
पूण्य ओर पाप नव तत्वों में से दो है। पूण्य का फल अच्छा है और पाप का फल बुरा। जिसे इस सच्चाई का ध्यान है और उसके प्रति सचेत है वह सहज ही अधर्म मार्ग की ओर नही जाता। अज्ञानी व्यक्ति ही अधर्म, वासना, विषयो का मार्ग पकड़ता है।धर्म का वास्तविक सम्बंध चेतना से है।वह चेतना पर पड़े हुए अज्ञान ओर अदर्शन के पर्दे को दूर करता है।जिसका जो कार्य है वह निश्चित रूप से करता है।
तुमने अभी सत्व को नही पहचाना प्राणी मात्र में अनन्त चैतन्य, अनाबाध आनंद और अप्रतिहत शक्ति है।यह प्रत्येक आत्मा का स्वरूप है।

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अध्याय - 2
माया ओर असत्य मानसिक और शारिरिक स्वास्थ्य के परम शत्रु है।
जो विषयों से द्वेष करता है, वह शोकाकुल होकर दुःखी बन जाता है।जो विषयों से विरक्त होता है, वह शोक को प्राप्त नही होता। वह संसार में रहता हुआ भी पानी मे कमल की तरह भोगो से लिप्त नही होता। रागयुक्त मनुष्य के लिये इन्द्रिय ओर मन के विषय दुःख के कारण बनते है। किंतु वीतराग को वे किंचित मात्र भी दुःख नही दे सकते। मनुष्य सुख पाने और दुःख से मुक्त होने के लिए प्रचुर विषयों का संग्रह करता है। वह सुख की इच्छा करता है किंतु विषय - भोग की अति उसे दुःखी बना देती है। जिसके ज्ञान - दर्शन के आवरण तथा मोह ओर अंतराय क्षीण हो जाते है, वह वीतराग कृतकृत्य हो जाता है-- उसके करणीय शेष नही रहते। वह शुद्धात्मा होने के कारण सब तत्वों को जानता देखता है। वह आयुष्य- क्षय के साथ शेष भवोपग्राही कर्मो को क्षीण कर मोक्ष को प्राप्त होता है, जो सब दुःखो से मुक्त, अव्यय ओर शिव है।
इन कर्मो का सम्पूर्ण विलय होने पर आत्मा के मूल गुण प्रकट होते है।मुक्ति अर्थात स्वतन्त्रता। यही परमात्मा- दशा है। यही मोक्ष है।
मेघ बोला- भगवन! धार्मिक धर्म करता हुआ सदा सुख पाता है। और अधार्मिक अधर्म करता हुआ सदा दुःख पाता है-- कर्म का यह सिद्धांत लोक में संगत नही है, क्योंकि कही- कही धर्म का आचरण करने वाले दुःखी ओर अधर्म का आचरण करने वाले सुखी देखे जाते है। मेघ का यह तर्क नया नही है और व्यवहारिक धरातल पर असंगत भी नही है। किंतु व्यवहार ही सब कुछ नही होता। उसको वास्तविक धर्म का अनुभव भी नही है।
मनुष्य धर्म नही चाहता। वह चाहता है फल। धर्म का फल वस्तुतः भौतिक प्राप्ति नही है। उसका वास्तविक परिणाम है-- स्वभाव में स्थिति। आत्मा का स्वभाव धर्म है -- इस मूल मंत्र को कभी विस्मृत नही करना चाहिये।
भगवान ने कहा-- जो व्यक्ति धर्म- अधर्म तथा पूण्य- पाप को नही जानता, वही इस विषय मे भ्रांत होता है। जो इनको जानता है, वह इस विषय मे भ्रांत नही होता।

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अध्याय - 2
मेघ बोला--स्रोत कोनसे है? प्रिय और अप्रिय विषय क्या है? उनका निरोध कैसे हो सकता है? मेरे मन मे इन्हें जानने की उत्कंठा है। स्पर्श, रस, गंध, रूप, और शब्द-- ये पांच विषय है और इनको ग्रहण करने वाली क्रमशः पांच इन्द्रिया है-- स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु ओर श्रोत। इन पांच इंद्रियों का प्रवर्तक और सब विषयों को ग्रहण करने वाला मन होता है। इसलियें वह शक्तिशाली इंद्रिय है। इसलिए जिसने मन को जीत लिया वह पांचो इंद्रियों को जीत लेता है,वह समूचे विश्व पर विजय पा लेता है।
इन्द्रिय - स्रोतों में आने वाले शब्द, रूप, रस, स्पर्श आदि विषयों को नही रोका जा सकता, किंतु उनमे होने वाले व्यक्त या अव्यक्त संग--मूर्च्छा अथवा आसक्ति को रोका जा सकता है।
आसक्ति से शब्द आदि विषयों में मोह होता है।मोह के कारण मनुष्य विषयों का उत्पादन करता है,फिर उनके सरंक्षण की चिंता करता है, फिर उनका उपभोग करता है। उनके प्रति फिर मोह पैदा होता है।उससे धन अर्जन में साधन- शुद्धि का विवेक विलीन हो जाता है। विवेक के विलीन होने पर मन की शांति विलीन हो जाती है।
विषयों में जो अनुरक्त है, वह उनका उत्पादन चाहता है। उत्पादन के पीछे नाश, संग्रह के पीछे व्यय, क्रिया के पीछे अक्रिया- ये प्राकृतिक नियम से जुड़े हुए है।
जो तृष्णा से अभिभूत और परिग्रह से अतृप्त होता है, उसके माया और मृषा दोनों बढ़ते है। माया ओर मृषा के जाल में फंसा हुआ व्यक्ति दुःख से मुक्त नही होता।

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 2
मोह का उन्मूलन अनेक साधनों से होता है। उसमें पहला है--आहार-विजय।
स्वास्थ्य वक सम्बन्ध मन और भोजन दोनों से है।चिंता, ईर्ष्या, भय, उद्वेग, क्रोध, अहंकार,प्रतिशोध आदि दुषणो से मानसिक रोग उत्पन्न होते है।
वह कही स्थिर नही रहता।
एकाग्रता की साधना में स्वस्थ मन जितना अपेक्षित है उतना ही स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है। शरीर की स्वस्थता के लिए आहार विवेक परम् आवश्यक है। "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" इसमें बहुत कुछ सच्चाई है। इसलिए प्रकाम-- अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नही होता।
जो योगी को सदा सूक्ष्म आहार करना चाहिये। सुक्ष्म आहार से इंद्रिया शांत रहती है।
सब जीवो के ओर देवताओं के भी जो कुछ कायिक ओर मानसिक दुःख है,वह काम भोगो की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है।वीतराग उस दुःख का अंत पा जाता है।
मनोज्ञ ओर अमनोज्ञ इन्द्रिय विषयों में जो राग ओर द्वेष नही करता, वह समाधि-- मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होता है।
अमनोज्ञ विषय द्वेष के बीज है और मनोज्ञ विषय राग के बीज है। जो दोनों में सम रहता है, वह वीतराग कहलाता है।

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अध्याय - 2
मोह का उन्मूलन अनेक साधनों से होता है। उसमें पहला है--आहार-विजय।
स्वास्थ्य वक सम्बन्ध मन और भोजन दोनों से है।चिंता, ईर्ष्या, भय, उद्वेग, क्रोध, अहंकार,प्रतिशोध आदि दुषणो से मानसिक रोग उत्पन्न होते है।
वह कही स्थिर नही रहता।
एकाग्रता की साधना में स्वस्थ मन जितना अपेक्षित है उतना ही स्वस्थ शरीर भी अपेक्षित है। शरीर की स्वस्थता के लिए आहार विवेक परम् आवश्यक है। "जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" इसमें बहुत कुछ सच्चाई है। इसलिए प्रकाम-- अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नही होता।
जो योगी को सदा सूक्ष्म आहार करना चाहिये। सुक्ष्म आहार से इंद्रिया शांत रहती है।
सब जीवो के ओर देवताओं के भी जो कुछ कायिक ओर मानसिक दुःख है,वह काम भोगो की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है।वीतराग उस दुःख का अंत पा जाता है।
मनोज्ञ ओर अमनोज्ञ इन्द्रिय विषयों में जो राग ओर द्वेष नही करता, वह समाधि-- मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त होता है।
अमनोज्ञ विषय द्वेष के बीज है और मनोज्ञ विषय राग के बीज है। जो दोनों में सम रहता है, वह वीतराग कहलाता है।

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अध्याय - 2
सुख दुःख मीमांसा
भगवान ने कहा--मोह वह है, जो चेतना को विकृत बनाता है। उसका मूल है-अज्ञान। उसका विपाक है- सम्यक्त्व और चारित्र को सतत विमूढ़ बनाये रखना। अहंकार ओर ममत्व ये मोह की ही अवस्थाएं है। अज्ञान तम है। उसमें कुछ दिखाई नही देता। प्रकाश की किरण प्रस्फुटित होने पर ही तम का नाश होता है, वैसे ही ध्यान की प्रकाश रश्मियों से मोह का पर्दा हटता है।
दर्शन मोह से मूढ़ बना हुआ मनुष्य मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। मिथ्यात्वी घोर कर्मों का उपार्जन करता हुआ संसार मे परिभ्रमण करता है। चारित्र- मोह से मूढ़ बना हुआ मनुष्य किसी पर राग करता है और किसी पर द्वेष करता है। राग- द्वेष से कर्म का आत्मा में आस्रवण होता है और उससे संसार -- जन्म-मरण की परंपरा चलती है।
जिसके मोह नही है, उसने दुःख का नाश कर लिया। जिसके तृष्णा नही है, उसने मोह का नाश कर लिया। जिसके लोभ नही है, उसने तृष्णा का नाश कर दिया और जिसके पास कुछ नही है, उसने लोभ का नाश कर दिया।
मेघ बोला- में मोह के प्रपंच को जान चुका हूं और दुःख का मूल कारण मोह है, यह भी जान चुका हूं। प्रभो! उसका उन्मूलन कैसे हो? अब में यह जानना चाहता हु।
भगवान ने कहा- राग ,द्वेष ओर मोह का मूलसहित उन्मूलन चाहने वाले मनुष्य को जिन- जिन उपायो का आलंबन लेना चाहिए,उन्हें में क्रमशः कहुगा।

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अध्याय - 2
सुख दुःख मीमांसा
सुख क्या है और दुःख क्या है।मनुष्य प्रियता में सुख और अप्रियता में दुःख की कल्पना करता है। यह भ्रम है।
इस अध्याय में वास्तविक सुख के स्वरूप और साधनों की चर्चा की गई है। साधक पदार्थों से सर्वथा मुक्त नही हो सकता,किंतु वह पदार्थों के प्रति होने वाली आसक्ति से मुक्त हो सकता है।इस विमुक्त अवस्था का अनुभव ही वास्तविक सुख और आनन्द है।.....
मेघ बोला-- सुखों को पीठ दिखाकर कष्ट क्यों सहा जाए, जबकि जीवन की अवधि स्वल्प है,और कौन जाने, वह फिर प्राप्त होगा या नही?
भगवान ने कहा--जो मनुष्य सुख में आसक्ति रखता है और विलास में रचा- पचा रहता है, उसकी धर्म मे रुचि नही होती, वह कर्तव्य से भी विमुख हो जाता है।
मेघ बोला-- प्राणियों को सुख स्वाभाविक लगता है, प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय। तब अपने सुख को ठुकराकर दुःख क्यों सहा जाए?
भगवान ने कहा-- जो सुख पुदगल जनित है, वह वस्तुतः दुख है, किंतु मोह से घिरा हुआ मनुष्य इस सही तत्व तक पहुँच नही पाता।
मेघ बोला-- मोह क्या है? उसका मूल स्रोत क्या है? वह प्राणियों को क्या फल देता है? में यह जानना चाहता हु। प्रभो ! आप मेरे ज्ञानचक्षु को उदघाटित करे।

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अध्याय - 1

मेघ का मन आलोक से भर गया।उसके पूर्वजन्म उसकी आँखों के सामने नाचने लगे। मै कहां चला गया? प्रभो! मै जगकर भी सोने जा रहा था। आपने मुझे बोध देकर पुनः जागृत कर दिया।आप मार्ग दृष्टा है, जीवन सृष्टा और जीवन निर्माता है।अब में चाहता हु कि आप मेरी जिज्ञासा को शांत करे, मेरे संशय मिटाये ओर मुझे अनन्तशक्ति का साक्षात्कार कराये।
संशय सत्य के निकट पहुचने का द्वार है। लेकिन वह अज्ञान ओर अश्रद्धा से समन्वित नही होना चाहिए।जहा सन्देह है वहा सत्य की उपलब्धि नही होती। संशय ओर संदेह में यही अंतर है।
भगवान ने मेघ को पुर्नजन्म की स्मृति दिलाकर उसके संवेग-मोक्षाभिलाषा को द्विगुणित कर दिया।उसका मन हर्षोत्फुल हो गया।
वह विनम्र स्वर में बोला--देवार्य ! में कृतपुण्य हु, कृतज्ञ हु। आपने मुझे नई दिशा दिखा दी। में चाहता हु मेरी दृष्टि सुस्थिर बने और मेरा पथ प्रशस्त रहे।
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अध्याय - 1
कुछ व्यक्ति पहले कष्ट- कर्म का अर्जन करते है फिर उसे विवश होकर भुगतते है।उसके वेदन काल मे विलाप करते है क्योंकि समभाव हर किसी के लिए सुलभ नही है।
जो व्यक्ति कर्म के उदय से उत्पन्न वेदना समभाव से सहन करता है,उसके बहुत निर्जरा होती है।
वत्स! उस समय हाथी के भव में तू सम्यकदृष्टि नही था, फिर भी कष्ट में कायर नही बना।इस समय तू सम्यकदृष्टि और संयमी है फिर भी इतने थोड़े कष्ट में क्लीव - सत्वहीन बन गया।
साधुओं के शरीर का स्पर्श होने से रात को तेरी नींद नष्ट हो गई।तूने सोचा मुक्ति का मार्ग सुदुष्चर है। उस पर चलने वाले को निरंतर नाना प्रकार के कष्ट सहन करने होते है।
ये सब साधु स्वार्थी है, दूसरे की चिंता नही करते।
आयुष्मन! तेरे लिए ऐसा सोचना उचित नही है। तू पिछले जन्म की घटना को याद करके अपने मन को निश्छल बना।
मेघ बोला- भगवन ! आपने जो कुछ कहा, वह बिलकुल सही है। आपने मेरे मन के सारे भाव जान लिये।
ईहा ,अपोह,मार्गणा ओर गवेषणा करने से मेघ को पूर्वजन्म की स्मृति हुई और उसने अपना पिछला जन्म देखा।मेघ बोला- भगवन! आपका कथन सत्य है।फिर भी मेरे मन मे कुछ सन्देह है। उन्हें दूर करने के लिये आपसे कुछ जानना चाहता हु।

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सम्बोधि, रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 1
एक बार वहा दावानल सुलगा।उस समय जंगल के हिंस्र ओर अहिंस्र सभी पशु आपस मे वैर भूलकर उस स्थल में घुस आये।जैसे एक ही बिल में चींटिया शांतभाव से रहती है,वैसे ही दावानल से डरे हुए पशु शांतरूप से उस स्थल में रहने लगे।थोड़े समय में वह स्थल वन्य पशुओं से खचाखच भर गया।तूने अपने शरीर को खुजलाने के लिये एक पांव को ऊंचा किया।तेरे उस पांव के स्थान को खाली देखकर एक खरगोश वहां आ बेठा।खुजलाने के बाद जब तू पांव नीचे रखने लगा तब तूने खरगोश को वहां बेठा देखा। तो तत्व को जनता था।तेरे चित्त में अनुकंपा- अहिंसा का भाव जागा। खरगोश तेरे पैर से कुचला न जाये- यह सोच कर तूने पांव को बीच मे ही थाम लिया।
ढाई दिन के बाद दावानल अपने आप शांत हुआ।वन्य पशु निर्भय होकर जंगल मे स्वतंत्रता पूर्वक घूमने लगे। वह खरगोश भी वहां से चला गया। पीछे तूने वो स्थान खाली देखा तो उस खंभे की तरह अकड़े निष्क्रिय पांव को पुनः भूमि पर रखने का प्रयत्न किया। तेरा भारी शरीर, भूख से दुर्बल ओर बुढ़ापे से जर्जरित था।इसलियें पैर को नीचे रखने में समर्थ नही हो सका व भूमि पर गिर गया। उस समय तुझे विपुल ,घोर,घोरतम ओर उज्ज्वल वेदना हुई। तीन दिन तक तूने समभाव से सहन किया।
तूने जीवों के प्रति अंहिसावकी साधना की ओर कष्ट में समभाव रखा। अंत मे आयुष्य पूरा कर तू श्रेणीक राजा का पुत्र हुआ।


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सम्बोधि

रचियता :- आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

अध्याय - 1
भगवान कुशल चिकित्सक थे।जो विभिन प्रकार के शारीरिक और मानसिक सन्तापो से संतप्त थे किंतु उनका उन्मूलन करना चाहते थे ओर जो चिरशांति के इच्छुक थे, वे लोग बार बार भगवान के पास आये।
महाराज श्रेणिक का पुत्र 'मेघ' भगवान के पास आया। उसके कर्म और आश्रव स्वल्प थे। वह भव्य 'मोक्षगामी' था। उसने भगवान की वाणी सुनी, विरक्त हुआ और अपने माता पिता की स्वीकृति पाकर दीक्षित हो गया। पहली रात की घटना है। तीन बातो ने उसके मन को चंचल बना दिया।
पहली बात--भूमि का स्पर्श कठोर था।
दूसरी बात-- उस स्थान में बहुत बड़ी संख्या में निग्रन्थ थे।
तीसरी बात--वह मार्ग के बीच मे सो रहा था।
उसके मन मे भांति भांति के संकल्प उत्पन्न होने लगे।उसके लिए वह त्रियामा-- तीन प्रहर की रात शतयामा-- सौ प्रहर जितनी लगी। विशेषतः साधुओं का निस्प्रह: भाव उसे प्रतिक्षण अखरने लगा। दुसरो की उपेक्षा उसे खलने लगी।

'सम्बोधि

'सम्बोधि' सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञानओर सम्यक चारित्र का दिशा बोध है आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी कहते हैं महावीर को जानना है तो महावीर बनकर जानो। एकमात्र कार्य है हमारे लिए करणीय ।यही उर्ध्वारोहण है ।

अध्याय - 1
त्रिलोकी के त्राता महान तीर्थंकर वर्धमान अहिंसा तीर्थ की स्थापना कर जन-जन को तारते हुए एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए राजगृह में आए। वे ज्ञान और दर्शन की संपदा से वर्धमान हो रहे थे। उनका आचार था अहिंसा धर्म ।वे किसी भी प्राणी को पीड़ित नहीं करते थे और अहिंसा की अनुपालना के लिए परीषहों को सहन करते थे, इसलिए वे वीर ( महावीर) नाम से प्रख्यात हुए।

 

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