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Karyasala

एकान्हिक शतक

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

एकान्हिक शतक

विक्रम संवत 2000 । गुरुदेव तुलसी भीनासर (जिला -बीकानेर) में प्रवास कर रहे थे। श्री महाप्रज्ञ ने जतनलाल जी बैद के मकान में एकान्हिक शतक लिखा । आशु कवित्व की ओर यह पहला कदम था ।1 दिन में 100 श्लोक लिखना उस समय आश्चर्य की बात थी । गुरुदेव ने उनको पुरस्कृत किया।आशुकविता के मूल प्रेरक पंडित रघुनंदन जी शर्मा रहे । गुरुदेव तुलसी पंडित जी के साथश आशुकविता पर वार्तालाप चलाते रहते थे । वह भी प्रेरक बना।

बोझ का भय

विक्रम संवत 2000 में श्री महाप्रज्ञ ने 13 द्वार नामक थोकडे़ के कुछ द्वारों पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी ।फिर बोझ के भय से उसे परठ दिया ।

बहुमुखी अध्ययन

विक्रम संवत 2000 तक श्री महाप्रज्ञ युवा बन चुके थे । समझ शक्ति और चिंतन में परिपक्वता भी आने लगी थी । वह गुरुदेव तुलसी के साथ गंगा शहर में प्रवास कर रहे थे । उस समय कोलकाता में जापान की बमबारी हुई । उस समय भारत ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत था। जापान जर्मनी के साथ था । श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा कोलकाता की हजारों हजारों पुस्तकें गंगा शहर लाई गईं।उससे श्री महाप्रज्ञ को संस्कृत प्राकृत की बहुत पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला । उस समय उन्होंने साम्यवाद का साहित्य पढ़ा । स्टालिन और लेनिन को पढ़ा कम्युनिज्म का अध्ययन किया ।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे....

प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया

विक्रम संवत 1998 ।राजलदेसर में चातुर्मासिक प्रवास। गुरुदेव तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ को प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया तैयार करने का निर्देश दिया। हालांँकि उस समय वे स्वयं विद्यार्थी थे, परंतु गुरुदेव की प्रेरणा और कृपा से वह कार्य अच्छी तरह संपन्न हो गया ।उस ग्रंथ का नाम दिया गया 'तुलसी मंजरी '।इस प्रक्रिया के निर्माण में आशु कवि रत्न पंडित प्रवर रघुनंदन जी शर्मा का सहयोग मिला । तुलसी मंजरी के अध्ययन से हमारे धर्म संघ में प्राकृत भाषा की परंपरा पुष्ट हुई है।

अध्ययन काल संपन्नता

राजलदेसर में श्री चंपालाल जी नाहर के भवन के ऊपरी भाग में गुरुदेव तुलसी ने फरमाया -'अब हमारा नियमित अध्ययन संपन्न हो गया है अब तो विकास करना है।

आगे का अंश अगली पोस्ट में

प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे....

प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया

विक्रम संवत 1998 ।राजलदेसर में चातुर्मासिक प्रवास। गुरुदेव तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ को प्राकृत व्याकरण की प्रक्रिया तैयार करने का निर्देश दिया। हालांँकि उस समय वे स्वयं विद्यार्थी थे, परंतु गुरुदेव की प्रेरणा और कृपा से वह कार्य अच्छी तरह संपन्न हो गया ।उस ग्रंथ का नाम दिया गया 'तुलसी मंजरी '।इस प्रक्रिया के निर्माण में आशु कवि रत्न पंडित प्रवर रघुनंदन जी शर्मा का सहयोग मिला । तुलसी मंजरी के अध्ययन से हमारे धर्म संघ में प्राकृत भाषा की परंपरा पुष्ट हुई है।

अध्ययन काल संपन्नता

राजलदेसर में श्री चंपालाल जी नाहर के भवन के ऊपरी भाग में गुरुदेव तुलसी ने फरमाया -'अब हमारा नियमित अध्ययन संपन्न हो गया है अब तो विकास करना है।

आगे का अंश अगली पोस्ट में

तृतीय दशक

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…


पिछली पोस्टों में हमने आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के दो दशकों का वर्णन पढ़ा । अब हम पढ़ेंगे तृतीय दशक....

तृतीय दशक

संस्कृत में निबंध और कहानियां

साहित्य के विषय में श्री महाप्रज्ञ को श्री शुभकरण जी दशानी से परामर्श मिलते रहते और गुरुदेव तुलसी भी प्रेरणा देते रहते थे । एक महीने में संस्कृत में एक कथा लिखना उनके लिए अनिवार्य कर दिया गया । कुछ कथाएं लिखी फिर प्रति मास निबंध लिखना आवश्यक हुआ। निबंध प्रतियोगिता भी हुई । इस प्रकार संस्कृत में लिखना, बोलना कविताएं करना श्री महाप्रज्ञ तथा उनके साथी विद्यार्थियों के लिए सहज हो गया । संस्कृतज्ञ मुनियों के साथ संस्कृत में ही बोलने की साप्ताहिक ,पाक्षिक प्रतिज्ञाएं चलतीं।उस समय ऐसा वातावरण बन गया कि भाषा - जगत संस्कृतमय लगने लगा । उस वातावरण से प्रभावित हो महा- महोपाध्याय गिरधर शर्मा ने कहा -'आचार्य तुलसी संस्कृत के जंगम विश्वविद्यालय हैं।'

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

श्री महाप्रज्ञ ने कहा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

श्री महाप्रज्ञ ने कहा

पूज्य कालूगणी के समय मुनि श्री जयचंद लाल जी( छापर )को सन्निपात हो गया । वे उस स्थिति में बकवास करने लगे ।

मैंने संस्कृत में कविता लिखना लगभग 16 वर्ष की अवस्था में शुरू कर दिया था ।

मैंने हिंदी में कविता लिखना विक्रम संवत 2000 में शुरू कर दिया था मेरी हिंदी की पहली कविता थी-

देखा कोकिल के गलहार , प्रस्फुट होता था आभार ।
जी खोल कौए ने पूछा- बहिन कहां पाया उपहार?

मुनि श्री नथमल जी (बागोर)जब बहिर्विहार से गुरुकुल वास में आते तब मैं व्याख्यान कार्यक्रम में जरूर जाता, क्योंकि वह ब्रह्मा, विष्णु आदि की पौराणिक बातें आधा आधा घंटा बोलते थे ।

मंत्री मुनि चर्चिल से प्रभावित थे। वे कहते चर्चित बहुत समझदार है । कुछ साधु हिटलर के पक्ष में भी थे।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

श्री महाप्रज्ञ ने कहा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

श्री महाप्रज्ञ ने कहा

मैंने लगभग तीन-चार वर्षों तक तेरापंथ की ख्यात लिखी पहले यह कार्य मुनि चौथमल जी (जावद) किया करते थे ।

पूज्य कालूगणी तेरापंथ के किसान थे। वह चोल पट्टा ऊंचा रखते और कभी-कभी पछेवड़ी भी उतार देते । उनका भोजन बाजरे की रोटी और राबड़ी था। उन्होंने सीधा-साधा किसान सा
जीवन जीया ।

पूज्य कालूगणी बाहर से अपने प्रवास स्थान पर पधारते तब 10 मिनट पहले पानी नहीं पीते । यह उनका पक्का नियम था

स्त्री और धन के चक्रों में तीनो लोक भ्रांत हो रहे हैं । उनमें जो विरक्त है वह परमेश्वर का दूसरा रूप है पूज्य कालूगणी का यह खास श्लोक था । प्राय: गांवों में यह श्लोक फरमाया करते थे ।

पूज्य कालूगणी का फरमान था मारे साधु साध्वियाँ रे ह्रदय रोग कोनी हुवै कारण पंचमी जावै, गोचरी ,जावै विहार करै ।

पूज्य कालूगणी छोटे साधुओं को वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन मास में सनाय का जुलाब देते थे ताकि पेट साफ हो जाए ।

मुनि श्री आशारामजी बालोतरा का संथारा चल रहा था । वे चाड़वास में अवस्थित थे । उस समय पूज्य कालूगणी का प्रवास बीदासर में हो रहा था ।कुछ संत पूज्य प्रवर के पास से चाडवास गए और वहां अपना रजोहरण धो लिया । पूज्य कालूगणी ने मुनिश्री कोड़ामलजी श्री डूंगरगढ़ के निश्रित रजो हरण को देखा । रजो हरण का प्रक्षालन करने वाले प्रत्येक साधु को प्रायश्चित स्वरूप 51-51 कल्याणक दिलाए । इसका कारण यह था कि आज्ञा लिए बिना रजोहरण धो लिया गया था

पूज्य कालूगणी सरस्वती मंत्र का प्रयोग करते थे ।

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अहंकार विलय की शिक्षा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

अहंकार विलय की शिक्षा

मुनि श्री मगन हमारे धर्म संघ के मंत्री पद पर नियुक्त हुए । उनकी सूझबूझ और संघ भक्ति विशिष्ट थी । अपनी गुणवत्ता और विरल विशेषताओं के आधार पर उन्हें तेरापंथ धर्म संघ में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था । उनकी शिक्षाएं भी महत्वपूर्ण हुआ करती थी । श्री महाप्रज्ञ को भी उनसे शिक्षा प्राप्त हुई । जिससे जीवन में एक नया मोड़ आया । श्री महाप्रज्ञ की भाषा में वह इस प्रकार है -'विक्रम संवत 2005 लाडनू में 1 दिन प्रतिक्रमण के पश्चात मैं मंत्री मुनि के पास आया । उन्होंने सहज भाव में दो बोल कहे । वे मेरीअहंकार मुक्ति की साधना में संबल बन गए । उन्होंने कहा विद्या और गुरु कृपा का अहंकार नहीं करना चाहिए । हम मुनि है हम किस बात का अहंकार करें। मांगना बहुत छोटा काम है । हम रोटी के लिए दूसरों के सामने हाथ पसारते हैं । फिर अहंकार किस बात का करे । ना जाने कितनी बार यह जीव बेर की गुठली बनकर पैरों से रौंदा जा चुका है फिर अहंकार किस बात का ? इन छोटे-छोटे बोलो ने मन की गहरी परतों को छू लिया । अहंकार मेरी मृदुता पर कभी आक्रमण नहीं कर सका ।'

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पीठ थपथपाई

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

पीठ थपथपाई

विक्रम संवत 1993 में श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी ने संस्कृत भाषा में श्लोक बनाएं मुनि श्री मगन ने पीठ थपथपाई और हर्ष व्यक्त करते हुए कहा- "छोटे-छोटे संत संस्कृत में श्लोक बनाने लग गए।'

दर्शन में प्रवेश

पूज्य कालूगणी के स्वर्गवास के बाद विक्रम संवत 1994 के बीकानेर चतुर्मास में आचार्य तुलसी ने दर्शन और काव्य साहित्य का विशेष अध्ययन शुरू किया । गुरुदेव तुलसी के साथ मुनि धनराज जी (सिरसा ,
गणमुक्त )मुनि चंदनमल जी
(सिरसा ,गणमुक्त )भी अध्ययन करते थे । पंडित रघुनंदन जी शर्मा के पास अध्ययन चलता। भाषा और व्याकरण की दृष्टि से पंडित जी का ज्ञान विशिष्ट था । स्यादवाद रत्नाकरावतारिका टीका के आधार प्रमाणनय तत्वालोकालंकार का अध्ययन प्रारंभ हुआ । मुनि श्री धनराज जी और मुनि चंदनमल जी अध्ययन के प्रारंभ में साथ रहे । कालांतर में आचार्य तुलसी ने उनको पूर्ववत् बहिर्विहार के लिए भेज दिया । आचार्य तुलसी का अध्ययन यथावत चालू रहा परंतु वे अकेले ही थे 2 परिच्छेदों का अध्ययन हो चुका था । विक्रम संवत 1995 सरदारशहर में तीसरा परिच्छेद प्रारंभ करते समय उन्होंने श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी से कहा -'तुम भी अध्ययन के समय साथ रहा करो ।'उस समय श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी का अध्ययन दर्शनशास्त्र की दृष्टि से शून्य सदृश था। उसका प्राथमिक ज्ञान भी उनके पास नहीं था । प्रस्तुत ग्रंथ
भी यदि प्रारंभ से पढ़ा जाता, तो शायद क्रमशः आगे बढ़ने के कारण कुछ समझ भी सकते थे । इसके बावजूद भी उस अज्ञात जंगल में मार्ग तय करते हुए जब बाहर आए तो अपने आप को मंजिल के निकट पाया । विक्रम संवत 1996 में आचार्य तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ को स्यादवाद मंजरी पढ़ाई।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

कालूगणी का स्वर्गवास

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

कालूगणी का स्वर्गवास

पूजा कालूगणी के जीवन का अस्तकाल सन्निकट आ गया । उनके बाएंँ हाथ की तर्जनी अंगुली में छोटा सा व्रण हो गया । वह छोटा सा व्रण भयंकर बनता जा रहा था । उपचार भी किया गया पर सफलता नहीं मिली । विक्रम संवत 1993 भाद्रव शुक्ला षष्ठी को सूर्यास्त से कुछ समय पूर्व पूजा कालूगणीवरके रूप में देदीप्यमान तेरापंथ का वह भास्कर अदृश्य हो गया ।

तत्पश्चात युवाचार्य तुलसी आचार्य बन गए । भाद्रव शुक्ला नवमी के दिन पदाभिषेक किया गया । मुनि तुलसी जो कुछ विद्यार्थी साधुओं के संरक्षक थे । अब वे पूरे धर्म संघ के संरक्षक बन गए । पहले उनका काफी समय श्री महाप्रज्ञ आदि कुछ साधुओं के लिए समर्पित था , अब उनका काफी समय संपूर्ण तेरापंथ के विकास के लिए समर्पित हो गया । मुनि तुलसी का आचार्य बनना श्री महाप्रज्ञ को कुछ अटपटा सा लगा। लगने का कारण यह नहीं था कि मुनि तुलसी आचार्य बन गए । इसका कारण यह था कि पहले वे श्री महाप्रज्ञ के बहुत निकट थे । अब कुछ दूर से लगने लगे आचार्य बनने से पूर्व उनकी करुणा के भागीदार श्री महाप्रज्ञ आदि कुछ संत ही थे , लेकिन अब हजारों हजारों व्यक्ति उस करुणा के भागी बन गए । करुणा की सघनता यकायक छितर गई। पहले श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी के साथ आहार करते थे । अब आहार अलग करना पड़ रहा था। वह उनको अच्छा नहीं लग रहा था और आचार्य तुलसी के साथ आहार करना अब संभव नहीं था। अध्ययन की व्यवस्था भी कुछ समय के लिए गड़बड़ा गई थी। यह भी अटपटापन पैदा करने में कारण बना । यह सारे अनुभव संधिकाल के थे । समय के साथ श्री महाप्रज्ञ का अटपटापन चला गया । वह परिस्थितियों के नवीन समीकरणों में ढलते गए ।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

भक्तामर की प्रति

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

भक्तामर की प्रति

पूज्य कालू गणी के पास भक्तामर की एक प्रति थी । वह प्रति पूज्य गुरुदेव ने श्री महाप्रज्ञ को बख्सा दी । बाद में जब पूज्य श्री कालू गणी व्रण ग्रस्त हो गए , उस भक्तामर की प्रति की अपेक्षा महसूस हुई । पूज्य प्रवर ने श्री महाप्रज्ञ से कहा - 'तुम्हारे पास जो भक्तामर की प्रति है ,वह लाओ'। श्री महाप्रज्ञ ने तत्काल वह प्रति पूज्य प्रवर को अर्पित कर दी ।

सेवा नियुक्ति

पूज्य कालूगणी ने अपनी शारीरिक अस्वस्थता की गंभीरता को देखकर मुनि तुलसी को अपना युवाचार्य घोषित किया । वह दिन था विक्रम संवत 1993 भाद्रव शुक्ला तृतीया का । भावी आचार्य के मनोनयन से धर्म संघ निश्चिंत बन गया ।

हमारे धर्म संघ में युवाचार्य का स्थान भी बहुत ऊंचा होता है युवाचार्य की सेवा सम्मान व्यवस्था का एक कार्य है - पंचमी समिति के लिए उनका जल पात्र वहन करना । यह सेवा कार्य अपने आप में एक महत्वपूर्ण कार्य है । इस सेवा कार्य में नियुक्त मुनि युवाचार्य का निकट परिचारक हो जाता है ।
युवाचार्य मनोनयन के दिन ही युवाचार्य तुलसी के जल पात्र वाहन की सेवा का अवसर श्री महाप्रज्ञ को प्राप्त हुआ उसका साक्ष्य है कालूयशोविलास का यह पद्य--
मुनि नथमल जी आविया, ले पाणी रो पात्र ।
सज्ज हुआ सारा मुनि , सहचर उलसित गात्र।।

मात्र 1 दिन बाद ही पूज्य कालू गणी ने कहा-' यह छोटा है इसलिए यह कार्य मुनि दुलीचंद संभाल लेगा ।' श्री महाप्रज्ञ से यह कार्य वापस ले लिया गया । इसके पीछे एक कारण श्री महाप्रज्ञ की तत्कालीन शारीरिक लघुता और अल्प वयस्कता प्रतीत हो रहा है । दूसरा कारण यह भी अनुमानित किया जा सकता है कि उस सेवा कार्य में संलग्न हो जाने से सेवा की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण अवसर प्राप्त हो जाता , किंतु अध्ययन आदि के विकास में कुछ अवरोध भी आ सकता था ।

श्री महाप्रज्ञ को अध्ययन- अध्यापन आदि रूप में संघ की सेवा करने का बहुत अवसर मिला । ‌ हो सकता है कालूगणी के अंतर्मन में अथवा नियति के गर्भ में यह तथ्य रहा हो कि इस व्यक्ति के द्वारा अन्य सेवाएंँ भी जाएंँ ।

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आठवां अध्याय

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

आठवां अध्याय

विक्रम संवत 1992 कालूगणी उदयपुर में पंचायती नोहरे में विराजमान थे । पंचमी समिति से लौटकर मुनि तुलसी और श्री महाप्रज्ञ ने पूज्य प्रवर को वंदना की । वंदना कर मुनि तुलसी जाने लगे और श्री महाप्रज्ञ जाने की तैयारी में थे , तब पूज्य प्रवर ने फरमाया तुमने आठवां अध्याय याद किया या नहीं ?

श्री महाप्रज्ञ - 'नहीं किया ।'

पूज्य प्रवर - 'उसे याद करना शुरू कर दो ।'

श्री महाप्रज्ञ ने आठवां अध्याय याद कर लिया बाद में जब आगम संपादन का काम शुरू हुआ , तब उन्होंने अनुभव किया कि अगर पूज्य कालूगणी आठवें अध्याय को याद करने की प्रेरणा नहीं देते तो आगमो के संशोधन कार्य में कुछ कठिनाई आती , मानो पूज्य कालूगणी जानते थे कि इसे( श्री महाप्रज्ञ) को आगम का कार्य करना है ।

आज कौन सा व्याख्यान दिया?

श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि पूज्य कालूगणी का आचारनिष्ठ और सरल स्वभावी मुनि के प्रति बहुत वात्सल्य भाव रहता था , क्योंकि श्री महाप्रज्ञ शिशु होने के साथ-साथ शैशवोचित सारल्य से परिपूर्ण थे , इसलिए पूज्य प्रवर की वत्सलता को प्राप्त करना श्री महाप्रज्ञ के लिए सहज था ।विक्रम संवत 1993 का चतुर्मास पूज्य कालूगणी गंगापुर मेवाड़ में बिता रहे थे ।श्री महाप्रज्ञ यदा-कदा उपदेश दिया करते थे । पूज्य प्रवर पूछते आज तुमने कौन सा व्याख्यान दिया । श्री महाप्रज्ञ बताते आज मैंने अमुक व्याख्यान दिया । तब पूज्य प्रवर फरमाते स्थान की दूरी है , सुनाई नहीं देता अन्यथा तुम्हें अपेक्षित परिष्कार के लिए बताते।

विक्रम संवत 1996 से 2004 के बीच श्री महाप्रज्ञ को व्याख्यान देने का मौका मिला - दोपहर में व्याख्यान देते , रात्रि में रामायण से पहले उपदेश रूप व्याख्यान देते 'राजा चंद' आदि का व्याख्यान बाँचा ।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

आठवां अध्याय

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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आठवां अध्याय

विक्रम संवत 1992 कालूगणी उदयपुर में पंचायती नोहरे में विराजमान थे । पंचमी समिति से लौटकर मुनि तुलसी और श्री महाप्रज्ञ ने पूज्य प्रवर को वंदना की । वंदना कर मुनि तुलसी जाने लगे और श्री महाप्रज्ञ जाने की तैयारी में थे , तब पूज्य प्रवर ने फरमाया तुमने आठवां अध्याय याद किया या नहीं ?

श्री महाप्रज्ञ - 'नहीं किया ।'

पूज्य प्रवर - 'उसे याद करना शुरू कर दो ।'

श्री महाप्रज्ञ ने आठवां अध्याय याद कर लिया बाद में जब आगम संपादन का काम शुरू हुआ , तब उन्होंने अनुभव किया कि अगर पूज्य कालूगणी आठवें अध्याय को याद करने की प्रेरणा नहीं देते तो आगमो के संशोधन कार्य में कुछ कठिनाई आती , मानो पूज्य कालूगणी जानते थे कि इसे( श्री महाप्रज्ञ) को आगम का कार्य करना है ।

आज कौन सा व्याख्यान दिया?

श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि पूज्य कालूगणी का आचारनिष्ठ और सरल स्वभावी मुनि के प्रति बहुत वात्सल्य भाव रहता था , क्योंकि श्री महाप्रज्ञ शिशु होने के साथ-साथ शैशवोचित सारल्य से परिपूर्ण थे , इसलिए पूज्य प्रवर की वत्सलता को प्राप्त करना श्री महाप्रज्ञ के लिए सहज था ।विक्रम संवत 1993 का चतुर्मास पूज्य कालूगणी गंगापुर मेवाड़ में बिता रहे थे ।श्री महाप्रज्ञ यदा-कदा उपदेश दिया करते थे । पूज्य प्रवर पूछते आज तुमने कौन सा व्याख्यान दिया । श्री महाप्रज्ञ बताते आज मैंने अमुक व्याख्यान दिया । तब पूज्य प्रवर फरमाते स्थान की दूरी है , सुनाई नहीं देता अन्यथा तुम्हें अपेक्षित परिष्कार के लिए बताते।

विक्रम संवत 1996 से 2004 के बीच श्री महाप्रज्ञ को व्याख्यान देने का मौका मिला - दोपहर में व्याख्यान देते , रात्रि में रामायण से पहले उपदेश रूप व्याख्यान देते 'राजा चंद' आदि का व्याख्यान बाँचा ।

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लिपि कला का विकास

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

लिपि कला का विकास

हमारे धर्म संघ में लिपि कला का बहुत महत्व रहा है । इन वर्षों में तो प्रकाशित पुस्तकें सुलभ हो गई किंतु प्राचीन काल में तो हस्तलिखित प्रतियां ही ज्यादा उपयोगी थी । मुद्रित पुस्तकों के अभाव में लिपि कला का अभ्यास स्वतः महत्वपूर्ण बन गया ।

एक बार पूज्य कालूगणी ने छोटी खाटू में बाल साधुओं की हस्तलिपि देखी ।श्री महाप्रज्ञ के समवयस्क और सहपाठी साधुओं की लिपि सुंदर और सुघड़ थी । किंतु श्री महाप्रज्ञ इस क्षेत्र में कुछ पीछे थे । पूज्य प्रवर ने उनकी लिपि को देखा मुस्कुराए लेकिन कुछ भी कहा नहीं । पार्श्वस्थ विराजित मुनि श्री मगन ने कहा_ 'कंवर साहब का अक्षर तो डागलै सुखावे जिसा है ।'अर्थात यह अक्षर वैसे ही टेढ़े मेढ़े हैं जैसे छत पर उपले सुखाए जाते हैं। श्री महाप्रज्ञ को कुछ लज्जा का अनुभव हुआ किंतु वह मन में एक तड़प को जन्म दे गई ।

कालांतर में उनकी लिपि भी अच्छी हो गई ।कुछ समय बाद पाली राजस्थान में विक्रम संवत 1991 /92 में श्री महाप्रज्ञ ने पार्श्वनाथ स्तोत्र की प्रतिलिपि की और मुनि तुलसी को दिखाई उन्होंने कहा उसे कालूगणी को दिखाओ।पूज्यप्रवर ने उसे देखा और श्री महाप्रज्ञ की पीठ थपथपाते हुए कहा _'अब तुम्हारे अक्षर ठीक हो गए हैं'।
श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि पूज्य कालूगणी की विद्यमानता तक लिपि कला और चित्रकला का संतों में अधिक विकास था । साध्वियोंों में कम था । साध्वी रेशमाजी और साध्वी सुंदर जी लिखने में कुशल थी ।

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मांढा में परीक्षा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

मांढा में परीक्षा

विक्रम संवत 1991 लगभग पूज्य कालू गणी मांढा( जिला पाली )में प्रवास कर रहे थे । वहां एक दिन पूज्य प्रवर विद्यार्थी साधुओं के पाठ उच्चारण की परीक्षा ले रहे थे । मुनि श्री मगन पास में बैठे थे । कुछ विद्यार्थी साधुओं की परीक्षा हो चुकी थी । श्री महाप्रज्ञ पंचमी समिति (शौच)से निवृत्त होकर कुछ विलंब से आए । मुनि मगन ने कहा -'नाथू जी आओ और इस पाठ ( सुतकृतांग की टीका )का उच्चारण करो । श्री महाप्रज्ञ ने उस पाठ को पढा और वे उस में सफल हो गए । मुनि श्री मगन बोले -'आज तो यह बहुत सफल रहा है ।'तब पूज्य प्रवर ने कहा अभी बच्चा है - अभी सफलता का क्या पता चले । उस वक्त पूज्य प्रवर ने एक दोहा कहा_

लाखां लोहां चामड़ां , पहलां किसा बखाण। बहु बछेरा डीकरा , नीवडियां निरवाण।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

तुम्हारे लिए कोई पद्य नहीं बनाऊंगा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे

तुम्हारे लिए कोई पद्य नहीं बनाऊंगा

विक्रम संवत 1991 में पूज्य कालू गणी जोधपुर में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे । भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा के दिन पूज्य प्रवर का आचार्य पदारोहण दिवस था । विद्यार्थी साधु भी पूज्य प्रवर के अभिनंदन में कुछ बोलना चाहते थे । उन्होंने मुनि तुलसी से प्रार्थना कि हमें कुछ बना कर दें । उन्होंने सबको पद्य बना कर दे दिए । श्री महाप्रज्ञ को भी पद्य बना कर दिए पर वे श्री महाप्रज्ञ को पसंद नहीं आए । उन्होंने शिकायती लहजे में कहा_ 'दूसरे साधुओं के लिए तो आपने अच्छे पद्य बनाए हैं , मेरे वाले पद्य इतने अच्छे नहीं हैं ।'मुनि तुलसी ने कहा 'तुम्हारे वाले पद्य सबसे अच्छे हैं ।'श्री महाप्रज्ञ अपने आग्रह पर अड़े रहे और मुनि तुलसी उनको समझाते रहे। आखिर जब वे माने ही नहीं , दूसरा नया पद्य बनाने का आग्रह करते रहे । तब मुनि तुलसी ने कहा _'आज से यह प्रतिज्ञा है कि भविष्य में मैं तुम्हारे लिए कोई पद्य नहीं बनाऊंगा । 'मुनि तुलसी द्वारा बनाए गए 2 पद्यों में से एक पद्य इस प्रकार है_

तात के पुत्र अनेक हुवै पर नंदन के पितु एक कहावै ,
ज्यूं घन के बहु इच्छु हुवै पिण चातक तो चित्त मेघ ही ध्यावै ।
सागर के हुए मच्छ कच्छ बहु पर मीन तो चित्त समुद्र ही चावै,
त्यौं गुरु के बहुत शिष्य हुए फिर एक गुरु नित शिष्य के भावै ।

मुनि तुलसी की इस प्रतिज्ञा ने श्री महाप्रज्ञ के लिए कविता सृजन का द्वार खोल दिया । उनका मानस कविता बनाने के लिए समुद्यत हो उठा । एक दिन श्री महाप्रज्ञ धर्म संघ के श्लाघ्य कवि बन गए। उन्होंने हिंदी और संस्कृत में अनेक काव्य रचे जो आज जनमानस को युगबोध देने में समर्थ हैं।

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

संकल्पों की स्वीकृति

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

संकल्पों की स्वीकृति

श्री महाप्रज्ञ की अवस्था लगभग 14 वर्ष की थी उनके मन में एक संकल्प उठा कि मुझे अपने सभी साथियों से आगे बढ़ना है इस संकल्प की स्वीकृति के लिए उन्होंने तीन सूत्र विशेष रूप से निर्धारित किए तथा समग्रता से पालन करने के लिए मन ही मन प्रतिज्ञा कि वे तीन सूत्र है_

1. मुनि तुलसी मेरे संरक्षक हैं, अध्यापक हैं और मैं उनका विद्यार्थी हूं इसलिए मैं वह काम नहीं करूंगा , जिससे मुनि तुलसी अप्रसन्न हो । मुझे कोई भी ऐसा आचरण नहीं करना है , जिससे मुनि तुलसी को यह सोचना पड़े कि मैंने जिस मुनि का निर्माण किया वह ऐसा कर रहा है ।

2. मैं किसी से ईर्ष्या नहीं करूंगा और ना किसी के अनिष्ट की कल्पना करूंगा। जो मेरा अनिष्ट करेगा । मैं उसका भी इष्ट साधने का प्रयास करूंगा ।

3. मैं निरंतर ज्ञान ,दर्शन और चरित्र की आराधना में संलग्न रहूंगा ।

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आंतरिक विश्वास

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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आंतरिक विश्वास

विक्रम संवत 1991 श्री महाप्रज्ञ आंख की समस्या से जूझ रहे थे । आंखों में दानों की चुभन और पानी गिरना दोनों चल रहा था ।लंबे समय तक व्याधि की पीड़ा को भोगते भोगते श्री महाप्रज्ञ का मानस अज्ञात की आशंका से कांप उठा ।मारवाड़ का एक गांव खेरवा रात्रि का समय आंखों में चुभन के कारण नींद नहीं आ रही थी । मन में संकल्प और विकल्पों का जाल बिछ गया । श्री महाप्रज्ञ ने सोचा आंखों की यही स्थिति रही तो जीवन व्यर्थ चला जाएगा । मैं अध्ययन और विकास नहीं कर पाऊंगा । पूज्य कालूगणी और मुनि तुलसी के पास रहना कैसे संभव होगा । लंबे समय तक यह संकल्प विकल्प उठते रहे । फिर आस्था का सैलाब उमड़ा । रात्रि में लगभग 4:00 बजे का समय मन में अकल्पित श्रद्धा ,संकल्प और शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ । मन ही मन सोचा मैं बिल्कुल ठीक हो जाऊंगा । मेरी आंखों की बीमारी ठीक हो जाएगी और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंच जाऊंगा रात्रि बीती । दिन आया श्री महाप्रज्ञ ने सारी आपबीती मुनि तुलसी को सुनाई। उन्हें भी बाल मुनि को आश्वस्त किया । इससे श्री महाप्रज्ञ का मन हल्का हो गया । मुनि तुलसी ने उपचार की ओर अधिक ध्यान दिया। अनेक औषधियों का प्रयोग किया कभी पिप्पली का, कभी नींबू के रस का तो कभी शहद का पर विशेष लाभ नहीं हुआ । उदयपुर विक्रम संवत 1992 में दानों को मिश्री से घिसना शुरू किया ।3 वर्ष तक यह क्रम चला उसे कुछ लाभ हुआ । बीमारी की भयंकरता भी समाप्त हो गई ।

श्री महाप्रज्ञ ने 1 दिन बताया बचपन में मेरी आंखों में दाने पड़ने की समस्या थी उस समय पूज्य कालूगणी मारवाड़( खेरवा, खिंवाड़ा) की यात्रा में थे । तब मैंने आंखों के दानों के विषय में खूब चिंतन किया अनुप्रेक्षा की ।

फिर पूज्य कालूगणी मालवा की यात्रा के दौरान पेटलावद पधारे । वह एक जनजाति के बंधु (आदिवासी ) ने कहा यह आंखों के दाने ठीक हो जाएंगे । फिर उसके वहां से संत जड़ी लाते । लगता है जनजाति के लोग आंख संबंधी औषधि का विशेष ध्यान रखते हैं।

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अप्रत्याशित बदलाव.........

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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अप्रत्याशित बदलाव.........


श्री महाप्रज्ञ अपने विद्या गुरु( मुनि तुलसी ) के पास गए । पाठ पुनरावर्तन की बात बताई । वे प्रसन्न हुए , किंतु पूरे नहीं उनका सोचना था कि श्री महाप्रज्ञ ने गलतियों से भरे पाठ का पुनरावर्तन किया होगा । जब उनको दशवैकालिक , कालूकौमुदी का पुर्वार्ध्द और अभियान चिंतामणि सुनाई तो वे प्रसन्न ही नहीं हुए आश्चर्य से भर गए । पाठ शुद्ध कैसे हुआ? श्री महाप्रज्ञ पुस्तक पढ़ते नहीं केवल पुनरावर्तन करते स्वयं श्री महाप्रज्ञ को भी पता नहीं कि पाठ शुद्ध कैसे हुआ । पाठ शुद्ध हो गया यह एक तथ्य है पर कैसे हुआ यह एक प्रश्न है।

पूज्य गुरुदेव तुलसी 'महाप्रज्ञ: व्यक्तित्व एवं कृतित्व' में लिखते हैं कालूगणी वापस जोधपुर पधारे तब तक ढाई महीनों का समय लग गया । यह समय इन(श्री महाप्रज्ञ) के जीवन में एक बहुत बड़े रूपांतरण का समय था । वह क्षेत्र परिपाकी क्षयोपशम था या अवस्था परिपाकी क्षयोपशम कुछ कहा नहीं जा सकता। पर जब हम आए तो वह हमें सर्वथा बदले हुए मिले यह बदलाव बाहर और भीतर दोनों ओर से घटित हुआ था ।उस ढाई मास के छोटे से काल में इनकी समझ काफी विकसित हो गई । जो कुछ पहले का सीखा हुआ था उसे पक्का शुद्ध और व्यवस्थित कर लिया गया । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह एक अबोध शिशु की भूमिका से ऊपर उठकर आत्मबोध की भूमिका तक पहुंच गए थे।

 

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अप्रत्याशित बदलाव

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अप्रत्याशित बदलाव

विक्रम संवत 1990 में पूज्य कालूगणी का प्रवास डीडवाना में हो रहा था । वहाँ श्री महाप्रज्ञ की दोनों आंखों में दाने हो गए । पहले भी आंखों की पीड़ा कई बार हो जाती थी, कभी दाने हो जाते कभी आंखें दुखने लगती तो कभी कुछ और हो जाता । तात्कालिक उपचार से कोई लाभ नहीं हुआ । आंखों से पानी बहने लगा । पढ़ना लिखना बंद हो गया सहपाठी साधुओं को श्री महाप्रज्ञ से आगे बढ़ने का अनायास अवसर मिल गया।

साथ ही साथ एक प्रसंग और घटित हो गया । डीडवाना में श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी को अभिधान चिंतामणि सुना रहे थे ।उच्चारण में अशुद्धियां आने लगी । मुनि तुलसी ने उपालंभ देते हुए कहा- 'मैं तुम्हें आगे और कुछ नहीं पढ़ाऊंगा, नया अध्ययन बंद कर जो ग्रंथ कंठस्थ है पहले उन्हें शुद्ध करो और फिर आगे बढ़ो।'

पूज्य कालूगणी विहार करते-करते लूणी जंक्शन पहुंचे । जोधपुर चातुर्मास निश्चित हो चुका था । पूज्य प्रवर जसोल, बालोतरा होकर जोधपुर पधारने वाले थे। श्री महाप्रज्ञ की आंखों से पानी ज्यादा गिरने लगा इसलिए उनको मुनि श्री हेमराज जी (आतमा )के साथ सीधा जोधपुर भेज दिया गया । पढ़ना बिल्कुल बंद था। मुनि श्री हेमराज जी ने प्रोत्साहित करते हुए कहा-' तुम प्रतिदिन कंठस्थ पाठ का जितना प्रत्यावर्तन करोगे उतना ही अंकित कर पूज्य कालूगणी को निवेदन कर दूंगा।' मुनि श्री की यह बात श्री महाप्रज्ञ के दिमाग में बैठ गई ।वह प्रतिदिन हजारों गाथाओं का पुनरावर्तन करने लगे।

ढाई मास के पश्चात पूज्य कालूगणी चतुर्मास के लिए जोधपुर पधारे । मुनि श्री हेमराज जी ने श्री महाप्रज्ञ के पुनरावर्तन का लेखा-जोखा पूज्य प्रवर के समक्ष प्रस्तुत किया । वह प्रत्यावर्तन कई लाख श्लोकों की संख्या तक हो गया था । पूज्य प्रवर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्री महाप्रज्ञ को साधुवाद दिया और साथ-साथ मुनि श्री हेमराज जी को भी साधुवाद दिया।

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उदक -सेवा

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उदक -सेवा

तेरापंथ धर्म संघ में सर्वोच्च स्थान आचार्य का होता है । उनकी परिचर्या के लिए साधु - साध्वियों की नियुक्ति की जाती है । पूज्य कालू गणी की व्यवस्था का दायित्व साध्वी जयकंँवरजी (माधोपुर )पर था । वह पूज्य जयाचार्य के पास दीक्षित और पूज्य गुरुदेव तुलसी के शासनकाल में दिवंगत हुईं। उन्होंने अधिकांश चतुर्मास गुरुकुल वास में ही की पूज्य मघवागणी पूज्य माणकगणी , पूज्य डालगणी , पूज्य कालूगणी के लिए व्यवस्था का कार्य प्रायः वही करती थी । अष्टम आचार्य पूज्य कालूगणी के सानिध्य में श्री महाप्रज्ञ( बाल मुनि नथमल )करीब 6 वर्ष रहे । उस अवधि में जब कभीपालर( मीठा ) बाकळ (खारा )पानी का चखकर निर्णय करना होता , तब साध्वी जयकंँवरजी बाल मुनि नथमल से करती -'नान्हा साधु जी, आओ देखो पानी पालर है या बाकळ?' ज्ञातव्य है कि श्री महाप्रज्ञ का बचपन में पालर पानी पिया हुआ था । उनके संसार पक्षीय घर में कुंड थी ।

बोझ कहां गया?

विक्रम संवत 1990 जैन मुनि पदयात्री होते हैं और स्वावलंबी जीवन जीते हैं वे अपना सामान स्वयं उठा कर चलते हैं । जोधपुर संभाग की यात्रा के दौरान पूज्य कालूगणी डीडवाना पधारें वहां से विहार होने वाला था । श्री महाप्रज्ञ कुछ अस्वस्थ हुए उनका बोझ मुनि श्री सोहन लाल जी (चूरु )ने ले लिया । विहार का समय हुआ श्री महाप्रज्ञ को बिना बोझ देख पूज्य प्रवर कालूगणी ने पूछा- नत्थू तुम्हारा बोझ कहां गया?

श्री महाप्रज्ञ- संतों ने ले लिया ।

पूज्य प्रवर -जाओ , थोड़ा बोझ वापस ले आओ इस प्रकार सारा बोझ नहीं देना चाहिए ।

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'ति' क्यों नहीं ?

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'ति' क्यों नहीं ?

श्री महाप्रज्ञ ने कालू कौमुदी को कंठस्थ किया व्याकरण को कंठस्थ करने के साथ-साथ उसकी साधनिका को समझना भी आवश्यक होता है । केवल रटा हुआ ज्ञान अधिक सार्थक नहीं होता ।

विक्रम संवत 1989 बीदासर के पंचायती नोहरे में प्रवास । मुनि तुलसी के पास साधनिका का क्रम चला । उन्होंने कहा - स्वरांत पुल्लिंग में बताया गया है - 'जिन' एक शब्द है , उसमें प्रथमा विभक्ति के एक प्रवचन में 'सि' प्रत्यय का योग करने पर ' जिनः' शब्द बनता है। श्री महाप्रज्ञ ने इस विषय में एक प्रश्न कर डाला कि जिन शब्द के साथ ' सि ' प्रत्यय ही क्यों जोड़ा गया ' ति ' प्रत्यय क्यों नहीं जोड़ सकते ? इस पर मुनि तुलसी ने खिन्न मुद्रा में कहा - तुम भी क्या संस्कृत पढ़ पाओगे ?

इस घटना का दूसरा पक्ष भी है - यह श्री महाप्रज्ञ की तार्किक बुद्धि का उदाहरण है । जिस विद्यार्थी में इस प्रकार की तार्किकता /जिज्ञासा होती है, वह ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है ।

श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि मुनि तुलसी ने हमको दो बार बृहत् कालू कौमुदी पढ़ाई । पहली बार में मुनि बुद्ध मलजी भी पठन में साथ रहे थे , दूसरी बार अध्ययन में मैं अकेला ही था । 'श्री भिक्षुशब्दनुशासनम्' के प्रमुख तीन चार अध्याय विक्रम संवत 1997 लाडनूंँ चातुर्मास में पंडित रघुनंदन जी ने पढ़ाए। शेष अपने आप पढ़े । न्यायदर्पण , 'लिंगानुशासनम्' स्वतः पढे़ । 'काव्यानुशासन' पंडित जी ने पढ़ाया ।

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ऐरे गैरे नत्थू खैरे

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ऐरे गैरे नत्थू खैरे

एक बार मुनि श्री बुद्ध मलजी ने श्री महाप्रज्ञ को कोई सुझाव दिया तो उन्होंने उस का मजाक उड़ाते हुए कहा - तुम्हारा तो नाम ही 'बुद्धू' है , तुम मुझे क्या सुझाव दे सकते हो । मुनि श्री बुद्ध मलजी ने भी तत्काल उत्तर देते हुए कहा- ' मैं समझदार व्यक्ति के कथन को ही महत्व देता हूं ,ऐरे गैरे नत्थू खैरे मेरे विषय में क्या कहते हैं , उस पर मैं कभी ध्यान ही नहीं देता।' ‌

प्रसंग चाय का

पूज्य कालूगणि का लगभग विक्रम संवत 1990 का प्रवास सुजानगढ़ में हो रहा था । उस समय कई बाल मुनि थे । जैसे श्री महाप्रज्ञ मुनि , श्री बुद्ध मलजी , मुनि श्री नगराज जी (सरदार शहर गण मुक्त ) आदि वहां जुकाम , बुखार के प्रसंग में किसी ने कहा चाय ले लो । उस समय श्री महाप्रज्ञ ने पहली बार चाय का नाम सुना ।

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ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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एक बादशाह का शाहजादा काजी़ के पास पढ़ने गया । वहांँ गुरुकुल जैसी व्यवस्था थी । विद्यार्थी को वहां 12 वर्ष तक रह कर पढ़ना होता था । वहां पुस्तकीय ज्ञान के साथ साथ व्यवहारिक ज्ञान भी दिया जाता था । शहजादे की पढ़ाई पूरी हो गई । सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के बाद काजी़ शाहजादे को साथ लेकर स्वयं उसके घर पहुंचाने चला । रास्ते में काजी ने बाजार से कुछ गेहूं खरीदे और पोटली शहजादे के सिर पर रख दी । कुछ कदम चलते ही वह हाँफने लगा । उसके सिर से पोटली उतार दी गई । सब राजमहल पहुंचे बादशाह ने काजी से पूछा -शाहजादे का व्यवहार कैसा रहा ? काजी ने कहा बहुत अच्छा और विनय युक्त रहा ।शाहजादे से भी पूछा - गुरुजी का व्यवहार कैसा रहा? शाहजादे ने कहा 12 वर्षों तक अच्छा रहा, परंतु आज का व्यवहार उससे भिन्न था । आज बाजार में उन्होंने मुझसे भार उठवाया । बादशाह ने खिन्न होकर इसका कारण पूछा। काजी ने कहा जहांपनाह- शाहजादे को एक पाठ पढ़ाना बाकी था । कल हमारा शाहजादा बादशाह बनेगा और न्याय करेगा । किसी साधारण से अपराधी को देखकर भावावेश में कह देगा कि इसके सिर पर 20 किलो वजन रखकर इसे बाजार में घूमाओ । जब तक वह स्वयं बोझ नहीं उठाएगा , इसको कैसे पता चलेगा कि 20 किलो वजन उठाना कितना मुश्किल होता है । किसी के साथ अन्याय और क्रूर व्यवहार ना हो और हमारे शाहज़ादे की प्रतिष्ठा को आंच न आए , इसलिए इसे आज एक नया बोध पाठ दिया था ।

पूज्य कालूगणी ने कहानी का उप संहार करते हुए कहा- अध्यापक तो बादशाह के शहजादे से भी भार उठवा लेता है , तो फिर तुम्हारी शिकायत कैसे मानी जा सकती है? तुलसी जो कुछ कर रहा है वह ठीक कर रहा है ।तुम उसी के पास पढ़ो और वह जैसा कहे वैसा करो।

 

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अध्यापक की शिकायत

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अध्यापक की शिकायत

मुनि तुलसी की पोशाल ( पाठशाला ) में अनेक विद्यार्थी संत पढ़ते थे ।
उन्हें मुनि तुलसी की बातें अच्छी लगती थी ।पर कठोर अनुशासन झेलने की मानसिकता निर्मित नहीं हुई थी।

पूज्य कालूगणी का प्रवास सरदार शहर में गधैयों के नौहरे में हो रहा था । एक दिन अपने अध्यापक के कड़े अनुशासन से मुक्ति पाने के लिए श्री महाप्रज्ञ और मुनि बुद्ध मलजी ने एक योजना बनाई । मौका देखकर दोनों बाल मुनि पूज्य कालूगणी के पास गए । पूज्य प्रवर उस समय रात्रि में बड़ी चौकी के नीचे पोढा़ए (लेटे) हुए थे । दोनों बाल मुनियों को देखकर पूछा - बोलो किस लिए आए हो? यह सुनकर एक बार तो दोनों मुनि सब पका गए । बोलने की हिम्मत नहीं हुई , फिर साहस जुटाकर स्खलद्वाणी से अपने शिक्षक मुनि तुलसी की शिकायत करते हुए कहा । मुनि तुलसीराम जी स्वामी हम पर कड़ाई बहुत करते हैं । पूज्य प्रवर पद पर आसीन हो गए।

कालूगणी -तुलसी तुम पर कड़ाई किस लिए करता है । खान -पान , रहन -सहन के लिए?

बाल - मुनि नहीं ।

कालूगणी -तुम्हारी पढ़ाई के लिए

बाल -मुनि हां ।

इस पर पूज्य प्रवर ने ना तो किसी को डांटा और ना ही प्रोत्साहित किया। केवल सीधा सा निर्देश देते हुए कहा इस विषय में तुम्हारी बात नहीं चलेगी । पढ़ाई के लिए तो वह कड़ाई करेगा ही। दोनों संतों ने सोचा आज ऊपर तक पहुंच ही गए , तो मन की बात साफ-साफ कह देनी चाहिए। पूज्य श्री का दृष्टिकोण समझ लेने पर भी दोनों ने कहा - गुरुदेव उनकी कड़ाई हमसे सहन नहीं होती । इस पर पूज्य प्रवर ने फरमाया तुम सहना सीखो । सहने से ही तुम्हारा जीवन बनेगा । दोनों मुनीम मौन हो गए। अब कहने के लिए कुछ विशेष नहीं था दोनों को असमंजस में देखकर पूज्य प्रवर ने कहा - तुम दोनों बैठो मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं ।

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मानसिक भय

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मानसिक भय

मुनि तुलसी में महाप्रज्ञ पर जितना कठोर अनुशासन किया उससे अधिक उनको वात्सल्य मे भी दिया । अपनत्व के बिना तो ना तो अनुशासन को सहा जा सकता है और ना ही वात्सल्य दिया जा सकता है । मुनि तुलसी और श्री महाप्रज्ञ में गहरा तादाम्य था । विक्रम संवत 1989 में पूज्य कालूगणी का प्रवास राजलदेसर जिला चूरू में हो रहा था ।1 दिन मुनि श्री सोहन लाल जी चूरु ने भूत , चुड़ैल आदि की बातें सुनाई। जिससे श्री महाप्रज्ञ के मन में भय की स्थिति पैदा हो गई। रात्रि में नींद आने में भी कठिनाई हो गई । उन्होंने मुनि तुलसी को यह बात बताई । मुनि तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ की छाती पर अपना हाथ रख कर उनको सुलाया।

बिना धब्बे वाला कंबल लेंगे

पूजा कालू गणी का विक्रम संवत 1989 का चतुर्मास सरदार शहर में हुआ । उस चातुर्मास में पूज्य प्रवर ने कुछ मुमुक्षुओं को दीक्षित किया । दीक्षार्थियों के लिए आए हुए वस्त्रों में से एक कंबल को अलग रखते हुए पूज्य प्रवर ने कहा ।यह कंबल नत्थू- बुद्धू को देना है । संतों के द्वारा यह बात श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी के पास पहुंची साथ ही उनको यह भी बताया गया कि कंबल के एक भाग में धब्बे हैं तथा दूसरा भाग साफ है । दोनों बाल मुनि बिना धब्बे वाला भाग लेने के लिए आतुर हो गए । कालूगणी ने दोनों को बुलाया और कहा यह कंबल है , तुम दोनों ले लो।

दोनों एक साथ- बोले हम तो बिना धब्बे वाला लेंगे।

पूज्य प्रवर - धोने के बाद दोनों एक जैसे हो जाएंगे।

बाल मुनि - हमें तो बिना धब्बे वाला ही चाहिए ।

दोनों बाल मुनि आग्रह कर रहे थे पूज्य प्रवर ने मनोवैज्ञानिक प्रयोग किया कंबल के दोनों किनारों को पकड़कर तथा शेष भाग को अपनी पछेवड़ी में छिपाते हुए कहा- अब तुम दोनों एक एक सिरे को पकड़ लो। जिसके जो आए वह ले लो । बाल मुनियों ने अपने हाथ से 1-1 भाग को पकड़ा । बिना धब्बे वाला भाग मुनि श्री बुद्ध मलजी के पास चला गया और धब्बे वाला भाग श्री महाप्रज्ञ जी के पास आ गया ।

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मानसिक भय

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मानसिक भय

मुनि तुलसी में महाप्रज्ञ पर जितना कठोर अनुशासन किया उससे अधिक उनको वात्सल्य मे भी दिया । अपनत्व के बिना तो ना तो अनुशासन को सहा जा सकता है और ना ही वात्सल्य दिया जा सकता है । मुनि तुलसी और श्री महाप्रज्ञ में गहरा तादाम्य था । विक्रम संवत 1989 में पूज्य कालूगणी का प्रवास राजलदेसर जिला चूरू में हो रहा था ।1 दिन मुनि श्री सोहन लाल जी चूरु ने भूत , चुड़ैल आदि की बातें सुनाई। जिससे श्री महाप्रज्ञ के मन में भय की स्थिति पैदा हो गई। रात्रि में नींद आने में भी कठिनाई हो गई । उन्होंने मुनि तुलसी को यह बात बताई । मुनि तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ की छाती पर अपना हाथ रख कर उनको सुलाया।

बिना धब्बे वाला कंबल लेंगे

पूजा कालू गणी का विक्रम संवत 1989 का चतुर्मास सरदार शहर में हुआ । उस चातुर्मास में पूज्य प्रवर ने कुछ मुमुक्षुओं को दीक्षित किया । दीक्षार्थियों के लिए आए हुए वस्त्रों में से एक कंबल को अलग रखते हुए पूज्य प्रवर ने कहा ।यह कंबल नत्थू- बुद्धू को देना है । संतों के द्वारा यह बात श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी के पास पहुंची साथ ही उनको यह भी बताया गया कि कंबल के एक भाग में धब्बे हैं तथा दूसरा भाग साफ है । दोनों बाल मुनि बिना धब्बे वाला भाग लेने के लिए आतुर हो गए । कालूगणी ने दोनों को बुलाया और कहा यह कंबल है , तुम दोनों ले लो।

दोनों एक साथ- बोले हम तो बिना धब्बे वाला लेंगे।

पूज्य प्रवर - धोने के बाद दोनों एक जैसे हो जाएंगे।

बाल मुनि - हमें तो बिना धब्बे वाला ही चाहिए ।

दोनों बाल मुनि आग्रह कर रहे थे पूज्य प्रवर ने मनोवैज्ञानिक प्रयोग किया कंबल के दोनों किनारों को पकड़कर तथा शेष भाग को अपनी पछेवड़ी में छिपाते हुए कहा- अब तुम दोनों एक एक सिरे को पकड़ लो। जिसके जो आए वह ले लो । बाल मुनियों ने अपने हाथ से 1-1 भाग को पकड़ा । बिना धब्बे वाला भाग मुनि श्री बुद्ध मलजी के पास चला गया और धब्बे वाला भाग श्री महाप्रज्ञ जी के पास आ गया ।

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शिक्षक मुनि की अप्रसन्नता

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शिक्षक मुनि की अप्रसन्नता

एक बार श्री महाप्रज्ञ ने मुनि तुलसी के निर्देशानुसार श्लोकों/ गाथाओं को कंठस्थ नहीं किया । इससे मुनि तुलसी अप्रसन्न हो गए साँयकालीन प्रतिक्रमण के बाद श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी को वंदना करने गए और विनम्र स्वर में निवेदन किया- मेरी कोई भूल हुई हो तो मुझे बताएं उसका प्रायश्चित दे ,लेकिन आप प्रसन्न रहें मुनि तुलसी नहीं बोले। श्री महाप्रज्ञ अपना हाथ उनके पैरों में टिकाए हुए वंदना की मुद्रा में बैठे रहे फिर भी मुनि तुलसी नहीं बोले लगभग 2 घंटे बीत गए प्रहर रात आ गई सोने का समय हो गया । मुनि तुलसी पूज्य कालू गणी के पास चले गए और श्री महाप्रज्ञ मुनि श्री चंपालाल जी के पास चले गए ।

कितना ही पगपीटा करो

गुरुदेव तुलसी ने 'मेरा जीवन- मेरा दर्शन 'भाग 1 में लिखा है ,मेरी पाठशाला के विद्यार्थियों में मुनि नथमल जी और मुनि बुद्धमल जी दोनों अध्ययन शील थे उनकी प्रतिभा में विकास की नई संभावनाएं दिखाई दे रही थी ।पर उनमें बाल्यावस्था की चंचलता भी थी । वह पढ़ते-पढ़ते बहुत जल्दी थक जाते । कभी इधर उधर घूमने लगते , कभी हंसने लगते कभी बातें करते और कभी असमय में नींद ले लेते । मैं इन पर पूरी नजर रखता था । अपना अध्ययन करते समय भी मेरा ध्यान उनकी ओर रहता । वह गलती करते तो उनके लिए दंड का निर्धारण भी मैं करता गलती का दंड भुगतने के लिए कभी उन्हें खड़ा कर देता, कभी उनका विगय( दूध दही मिठाई आदि) बंद कर देता और कभी बोलना भी बंद कर देता। विगय बंद करने पर उन्हें कोई खास परेशानी नहीं होती । पर मैं उनसे नहीं बोलता, तो उनका मन बेचैन हो जाता । इस बेचैनी को दूर करने के लिए कभी वे घंटों तक मेरे पास बैठकर पैर सहलाते रहते किंतु जब तक मैं आश्वस्त नहीं हो जाता बात नहीं करता था। खड़े रहने की बात भी कठिन थी। मुनि नथमल जी के लिए और भी कठिन थी ।वह खड़े-खड़े पग पीटते रहते। मैं उन्हें कहता कितना ही पगपीटा करो गलती का दंड तो भुगतना ही होगा।

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अनूठा अनुशासन

अनूठा अनुशासन

बालकों का निर्माण करना एक बड़ी सेवा है । फिर चाहे वह मुनि हों या सामान्य बालक। उनकी मानसिकता टूटे नहीं और विकास का पथ छूटे नहीं इन दोनों बातों पर ध्यान देना आवश्यक है । कहीं उनका मनचाहा और कहीं उनका अनचाहा भी करना होता है । सब कुछ उनका मनचाहा करना और सब कुछ उनका अनचाहा करना यह दोनों ही स्थितियां बालकों के निर्माण में बाधक बन सकती हैं ।

मुनि श्री छत्रमलजी व्याख्यान की सामग्री का संकलन कर रहे थे । श्री महाप्रज्ञ के मन में भी यह भावना जागी । उन्होंने भी उसके संकलन का निर्णय लिया । मुनि तुलसी को इस बात का पता चला तो उन्होंने उसकी मनाही कर दी। इससे श्री महाप्रज्ञ के मन को ठेस लगी । उस समय व्याख्यान सामग्री के संकलन की कोई जरूरत नहीं थी । पर बाल मुनियों में होड़ चल पड़ी । कोई एक विद्यार्थी साधु व्याख्यान की सामग्री संकलित करें , भला दूसरा कैसे ना करें । महाप्रज्ञ ने आग्रह किया इससे मुनि तुलसि अप्रसन्न हो गए । स्वयं श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि मैंने बहुत अनुनय विनय किया और व्याख्यान सामग्री का संकलन बंद कर दिया मुनि तुलसी पुनःप्रसन्न हो गए।

श्री महाप्रज्ञ इस विषय में बहुत जागरूक रहते कि कहीं मुनि तुलसी अप्रसन्न न हो जाएँ। पर कभी कभार वे अप्रसन्न हो जाते। उन्हें प्रसन्न किए बिना श्री महाप्रज्ञ को चैन नहीं मिलता ।

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बातें अधिक अध्ययन कम

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बातें अधिक अध्ययन कम

बचपन में श्री महाप्रज्ञ का अध्ययन में मन कम लगता था । उसका एक कारण था -बातों में रस अधिक आना ।जब मुनि तुलसी आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाते, अनेक बाल मुनि एक जगह बैठकर इधर उधर की बातें करने लग जाते ।हम बातें कर रहे हैं , इस बात का पता मुनि तुलसी को न लगे , इसके लिए एक मुनि को दरवाजे के बाहर बिठा देते ।जब मुनि तुलसी आते दिखाई देते तो वह दरवाजे पर ही इशारा कर देता कि मुनि तुलसी आ रहे हैं, उस संकेत के साथ ही सारे बाल मुनि तत्काल वहां से उठकर अपने स्थान पर जाकर सीखने लग जाते, मानो किसी ने कुछ किया ही ना हो ।

इस वृत्ति का परिष्कार करने के लिए मुनि तुलसी बहुत वात्सल्य के साथ श्री महाप्रज्ञ को समझाते अभी तुम ज्यादा बातें करोगे तो जीवन भर तुम्हें दूसरों के अनुशासन में रहना पड़ेगा , और यदि इस समय अध्ययन करोगे तो बड़े होने पर स्वतंत्र हो जाओगे । कभी यह भी कहते यदि तुम अध्ययन कम करोगे तो सबसे पीछे रह जाओगे । बातें कम और अध्ययन ज्यादा करोगे तो सबसे आगे निकल जाओगे।

इस प्रकार अनेक तरीकों से कही गई इन बातों ने श्री महाप्रज्ञ के मन पर गहरा असर किया और उनकी ज्यादा बोलने की आदत छूट गई । मन में यह विश्वास जग गया कि मेरे संरक्षक और प्रशिक्षित मुनि मेरी कितनी चिंता करते हैं ,मुझे सतत आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं । मुझे उनकी हर बात पर निष्ठा से ध्यान देना चाहिए।

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संरक्षक मुनियों का अनुशासन

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संरक्षक मुनियों का अनुशासन

मुनि तुलसी ने समय-समय पर शिक्षा के द्वारा श्री महाप्रज्ञ में सुसंस्कार भरने का प्रयास किया । वृत्तियों का परिष्कार किया । श्री महाप्रज्ञ की शैक्षणिक देखरेख मुनि तुलसी करते और रहन-सहन की देखरेख मुनि श्री चंपालाल जी करते थे । मुनि श्री चंपालाल जी का अनुशासन बहुत कठोर था । थोड़ी सी भूल होने पर वे अप्रसन्न हो जाते । उन्हें प्रसन्न करना कोई सरल काम नहीं था । इस प्रकार श्री महाप्रज्ञ को अनुशासन के आतप में पकने का अवसर मिला।

हँसिया हळकाई हुवै

विक्रम संवत 1989 में पूज्य कालूगणी का प्रवास तारानगर में हो रहा था । ज्येष्ठ अथवा आषाढ़ का महीना था । श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी मुनि तुलसी के पास अभिधान चिंतामणि पढ़ रहे थे। पढ़ते-पढ़ते एक शब्द आया पे्ढाल: पोट्टिलश्चापि'। इसका उद्भूत उच्चारण उनके हास्य का कारण बन गया । बहुत प्रयत्न करने पर भी वह हास्य को रोक नहीं पाए । सहसा उन्होंने बहुत जोर से हास्य किया । श्री महाप्रज्ञ के इस व्यवहार से मुनि तुलसि अप्रसन्न हो गए । उन्होंने उसी समय अध्यापन बंद कर दिया ।10-15 दिनों तक बार बार निवेदन करने के बाद अध्यापन होना शुरू हो पाया । वह भी इस शर्त के साथ के आगे से कभी अनावश्यक हास्य नहीं करेंगे । यह प्रसंग श्री महाप्रज्ञ की हास्य की आदत को बदलने में काफी सहायक बना।

इस कारण हास्य की आदत को बदलने के लिए मुनि तुलसी ने एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग भी किया। एक बार दोनों बाल मुनियों को अपने पास बुलाया और एक सोरठा याद कराया ।जिसका अर्थ था । होशियार आदमी हंसता नहीं है क्योंकि हंसने से हल्कापन आता है । हंसने में हजारों दोष है । उससे आदमी के गुण चले जाते हैं और वह मूर्ख कहलाता है ।

इस प्रकार मुनि तुलसी ने कभी अनुशासन के द्वारा तो कभी मनोवैज्ञानिक प्रयोग द्वारा श्री महाप्रज्ञ की वृत्तियों में परिष्कार लाने का प्रयत्न किया और वे उसमें सफल भी हुए ।

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ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......

पूज्य कालूगणी का प्रवास मोमासर में हो रहा था । एक दिन आकाश में कोहरा छाया हुआ था । कोहरे की स्थिति में जैन मुनि भिक्षा आदि के लिए बाहर नहीं जाते । श्री महाप्रज्ञ आदि कुछ विद्यार्थी साधु पूज्य कालूगणी की सेवा में बैठे थे । पूज्यश्री ने उस समय एक दोहा सिखाया वह इस प्रकार है-

हर डर ,गुरु डर ,गांव डर ,डर करणी में सार ।
तुलसी डरे सो उबरै, गाफिल खावै मार ।।

भगवान से डरो , गुरु से डरो , गांव से डरो । डरना सार पूर्ण है । जो डरता है , वह उबर जाता है । जो नहीं डरता है वह मार खाता है । प्रस्तुत पद्य में तीसरा चरण है तुलसी डरै सो उबरे । श्री महाप्रज्ञ और उनके सहपाठी मुनि श्री बुद्ध मलजी ने इसका अर्थ यह निकाला , कि मुनि तुलसी से डरने वाला उबर जाता है ,और अपना उद्धार कर लेता है । श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी दोनों ही गोस्वामी तुलसीदास जी से परिचित नहीं थे । दोनों ने यही समझा कि पूज्य कालूगणी ने हमें तुलसी से डरने के लिए कहा है । मुनि तुलसी से वे डरते तो पहले ही थे । अब और अधिक डरने लगे यह डर भी उनके विकास में बहुत बड़ा निमित्त बना ।

बात बात में बोध


एक बार पूज्य कालूगणी टमकोर से राजगढ़ की ओर पधार रहे थे । बीच में एक गांव में बाल मुनियों को संस्कृत भाषा का एक श्लोक सिखाया वह इस प्रकार है-

बालसखित्वमकारणहास्यं,स्त्रीषु विवादमसज्जनसेवा ।
गदर्भयानमसंसकॢतवाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयामि।।

अज्ञानियों अथवा छोटे बच्चों को मित्र बनाना, बिना प्रयोजन हंसना, स्त्रियों के साथ विवाद करना , दुर्जन व्यक्ति के साथ संपर्क रखना , गधे पर सवारी करना , असभ्य वाणी बोलना इन छ:बातों से आदमी लघुता को प्राप्त होता है ।

इस श्लोक को सीखने के बाद श्री महाप्रज्ञ का संस्कृत के प्रति अनुराग बढा़ और अकारण हंसने की आदत बदलने लगी ।

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विकास के सूत्र

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

विकास के सूत्र

श्री महाप्रज्ञ ने दीक्षा के लगभग 1 साल बाद कुछ सूत्र निर्धारित किए-

▪️मैं कोई ऐसा काम नहीं करूंगा जो मेरे विद्या गुरु को अप्रिय लगे ।

▪️मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जिससे मेरे विद्या गुरु को यह सोचना पड़े कि मैंने जिस व्यक्ति को तैयार किया वह मेरी धारणा के अनुरूप नहीं बन सका ।

▪️मैं किसी भी व्यक्ति के लिए अनिष्ट चिंतन नहीं करूंगा ।

गुरु द्वारा प्रशिक्षण

पूज्य कालू गणी को श्री महाप्रज्ञ बहुत प्रिय थे वे । वे उन पर अत्यधिक करुणाशील थे । यदा-कदा उनको प्रशिक्षित करने का प्रयास करते रहते । कभी कोई पद्य कंठस्थ कराते तो कभी कहानी सुनाते । इस प्रकार पूज्य प्रवर ने प्रशिक्षण के द्वारा उनके रहन-सहन चाल चलन में भी बहुत परिवर्तन ला दिया ।

टेढ़ी-मेढ़ी चाल

श्री महाप्रज्ञ 10 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए ‌। उस समय उनको ना ठीक से चलना आता था ,ना अच्छी तरह बोलना और ना ही व्यवस्थित कपड़े पहनने आते थे । पूज्य कालूगणी उनको चलना सिखाते । पूज्य प्रवर कहते नत्थू- 'तुम चलो । कैसे चलते हो ?' जब श्री महाप्रज्ञ टेढ़े मेढ़े कदम रखते । पूज्य श्री फरमाते -'ऐसे नहीं ऐसे चलो ।'इस प्रकार अनेक बार चला चला कर पूछ कालूगणी ने उनकी चाल ढाल में सुधार किया । बचपन में श्री महाप्रज्ञ बहुत तेज चलते थे । 8-9 मिनट में 1 मील चल लेते थे । पूज्य प्रवर ने उनको पछेवड़ी ओढ़ना भी सिखाया । कभी-कभी पूज्य प्रवर स्वयं पछेवड़ी बांधकर बताते ।ऐसे गाँठ देनी चाहिए ।ऐसे खोलनी चाहिए । इस प्रकार कपड़े पहनने से ज्यादा व्यवस्थित लगते हैं ।

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बाल सुलभ चपलता

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

बाल सुलभ चपलता

पूज्य कालूगणी के सानिध्य में अनेक शैक्ष मुनि थे । उनमें यदा-कदा बाल सुलभ चपलता भी देखने को मिलती थी । श्री महाप्रज्ञ भी इसके अपवाद नहीं थे। श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि बचपन में मैं चंचल था । दीक्षित होने के करीब 3 वर्षों का बढ़िया उपयोग नहीं हो पाया चंचलता के
कारण में ज्यादा विकास नहीं कर सका । विक्रम संवत 1991 से मेरे विकास का अच्छा क्रम शुरू हो गया।

श्री महाप्रज्ञ की चपलता के बारे में कोई शिकायत करते तब पूज्य प्रवर फरमाते -'बच्चे में चपलता ना हो तो वह माटी है'।

स्याही में पानी

मुनि श्री पूनम चंद जी (गंगाशहर) दीक्षा पर्याय में श्री महाप्रज्ञ से कुछ छोटे और उम्र में कुछ बड़े थे । वे पूज्य कालूगणी की सेवा में रहते थे । उस समय अक्षरों को सुंदर बनाने के लिए पाटियाँ जमाई जाती थी । कास्ठ की पट्टियों पर खड़िया मिट्टी की स्याही बनाकर कलम से लिखा जाता था । श्री महाप्रज्ञ और मुनि श्री बुद्ध मलजी दोनों पाटियांँ जमा लेते , जब मुनि श्री पूनम चंद जी का क्रम आता तो श्री महाप्रज्ञ कभी-कभी उस स्याही में इतना अधिक पानी डाल देते कि वे पाटी जमा ही नहीं पाते ।

दूसरा केश लुंचन

मुनि जीवन का एक नियम है - केशलुंचन । प्राय: वर्ष में दो बार सिर का केशलोच किया जाता है । संवत्सरी से पूर्व एक बार तो वह अनिवार्य है । श्री महाप्रज्ञ का पहला केश लोचन तो आसानी से हो गया किंतु दूसरा लोचन बहुत मुश्किल से हुआ उस समय वे लाडनूं में मुनि तुलसी के पास थे । मुनि श्री सुख लाल जी (गोगुंदा) और मुनि श्री चंपालाल जी उनका लोचन कर रहे थे । इस बार लोचन बहुत कठिनाई से हो पा रहा था इसलिए श्री महाप्रज्ञ ने बीच में ही मना कर दिया । इस प्रकार आधा लोच पहले दिन और आधा लोच दूसरे दिन हुआ ।

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संगीत प्रतियोगिता

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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संगीत प्रतियोगिता

विक्रम संवत 1988 में पूज्य कालूगणी के सानिध्य में एक बार संगीत प्रतियोगिता का आयोजन हुआ । अनेक मुनियों ने उस में भाग लिया । इस प्रतियोगिता में श्री महाप्रज्ञ ने 'चेत चतुर नर कहै तनै सतगुरु , किस विध तूं ललचाना है' गीत बहुत सुंदर गाया । उस में प्रथम स्थान प्राप्त किया और पूज्य कालूगणी द्वारा प्रशंसित और पुरस्कृत हुए । पुरस्कार में पूज्य प्रवर ने एक कल्याणक बख्साया ।

तुलछू के पास लाडनूं चले जाओ

विक्रम संवत 1988 छापर में मर्यादा- महोत्सव का आयोजन हो रहा था । विक्रम संवत 1988 के चातुर्मास के बाद चर्म रोग के कारण मुनि तुलसी को लाडनूं में रहना पड़ा । उस समय श्री महाप्रज्ञ पूज्य कालू गणी के साथ छापर में थे । मुनि श्री अमोलकचंद जी( राजलदेसर ) और मुनि श्री सुख लाल जी (गोगुंदा )लाडनूं से पूज्य कालू गणी के दर्शनार्थ छापर आए । उन्होंने निवेदन किया-मुनि नथमल जी ( श्री महाप्रज्ञ ) को लाडनूं भिजवाएँ । इससे मुनि तुलसीराम जी का भी मन लग जाएगा । श्री महाप्रज्ञ तो लाडनूं जाने के लिए तैयार थे ही ,क्योंकि मुनि तुलसी के साथ उनका तादाम्य जुड़ा हुआ था श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी के निश्रित वस्त्र आदि की सार संभाल रखते तथा और भी उनकी सेवा करते थे । इस विषय में टिप्पणी करते हुए मुनि तुलसी के संसार पक्षीय ज्येष्ठ भ्राता मुनि श्री चंपालाल जी कहते थे - 'यह (श्री महाप्रज्ञ ) तुलसी के कार्य के लिए तो आधी रात को भी तैयार रहता है ।'

श्री महाप्रज्ञ महासती झमकू जी (चूरू) के पास गए।वे अपने रजोहरण का प्रतिलेखन उनसे करवाया करते। उन्होंने महासतीजी से कहा - 'मैं तो लाडनूं जा रहा हूं '।महासतीजी झमकू जी ने विनोद में कहा - ' फिर आपको पूज्य प्रवर न्यारा में भेज देंगे ।'श्री महाप्रज्ञ असमंजस में पड़ गए ‌। उन्होंने सारी बात पूज्य कालूगणी को बता दी । पूज्य प्रवर ने फरमाया - 'तुम तुलछू के पास लाडनूं चले जाओ , चिंता मत करो । श्री महाप्रज्ञ संतो के साथ लाडनूं पहुंच गए ।

लाडनूं का प्रवास संपन्न कर मुनि तुलसी आदि संतों ने रतनगढ़ में पूज्य कालूगणी के दर्शन किए । उस समय पूज्य प्रवर दुकानों में विराज रहे थे । वहां श्री महाप्रज्ञ ने एक गीत गाया , जिसकी रचना मुनि तुलसी ने की थी । उसका अल्पांश इस प्रकार है-

' गणिवर रे राखो मुझनै साथ ।' गणिवर रे मैं छू बालक आपरो।'
'राखो सिर पर हाथ ।'
गणीवर रे मैं हूं बालक आप रो रे।'
राखो हरदम साथ ।।'

पूज्य कालूगणी रतनगढ़ प्रवास में श्री महाप्रज्ञ से व मुनि श्री बुद्ध मलजी से ' सिंदूरप्रकर 'के श्लोक उच्चरित करवाते और मुनि तुलसी से उनका अर्थ करवाते ।


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गुरु की करुणा

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

गतांक से आगे......…

गुरु की करुणा

एक बार श्री महाप्रज्ञ पूज्य कालू गणी के उपपात में बैठे थे । प्रातः काल का समय था ,चेहरे पर कुछ सुस्ती एवं आलस्य को देखकर पूज्य प्रवर ने उनसे पूछा -क्या नाश्ता नहीं मिला ? क्या आज कल नाश्ता बंद हो गया है ? श्री महाप्रज्ञ ने स्वीकृति सूचक अभिव्यक्ति दी । पूज्यप्रवर ने तत्काल साध्वी सोनां जी (सरदार शहर )को नाश्ता लाने का आदेश दिया । प्रातराश से भी अधिक महत्वपूर्ण है स्नेह और करुणा ।श्री महाप्रज्ञ को बचपन में पूज्य कालूगणी का बहुत वात्सल्य और करुणा प्राप्त हुई । श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि मुनि श्री कानमल जी ( पूर ) कहते - नत्थू को अर्ज करने की जरूरत नहीं , एक बार ऊपर देखते ही कालूगणी साध्वी सोना जी को सिरावण ( नाश्ता ) लाने का निर्देश दे देते हैं । श्री महाप्रज्ञ ने एक बार यह भी बताया कि मैं पूज्य कालूगणी के पास आहार करता तब वे पूछते- लै, और लेसी के? ऐसा अनेक बार फरमाते।

एक बार श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि विक्रम संवत१९९२ में उदयपुर चातुर्मास में लंदन से कोई व्यक्ति काले अंगूर लेकर आया । तब पूज्य कालूगणी ने हम मुनियों को एक एक दो दो अंगूर बख्साए ।

नत्थू कहां है

विक्रम संवत १९९८ में छापर मर्यादा महोत्सव से पहले पूज्य कालूगणी लाडनूं में विराजमान थे । पूज्य प्रवर का प्रवास 'सेवा केंद्र हवेली' में हो रहा था । सर्दी का मौसम ।एक दिन श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी के लिए होम्योपैथिक दवा लाने के लिए श्री सूरजमल जी बैंगानी के घर गए ।पूज्य प्रवर पंचमी समिति से लौटकर प्रवास स्थल पर पधारे और पधारते ही पूछा नत्थू कहां है?

संत - मुनि तुलसी के लिए दवा लेने गए हैं ।

पूज्य प्रवर - सर्दी बहुत है ,जाओ देखो कंबल ओढ़ कर गया या नहीं । श्री महाप्रज्ञ की निश्रित वस्तुओं में कंबल मिल गया ।

संत - कंबल यहीं पड़ा है ।

पूज्य प्रवर ने मुनि श्री कोडा मलजी (श्री डूंगरगढ़ ) आदि दो संतों को निर्देश दिया - तुम कंबल साथ लेकर जाओ । इस प्रकार अनेक प्रसंग ऐसे हैं ,जिन से ज्ञात होता है कि श्री महाप्रज्ञ ने पूज्य कालूगणी से विशिष्ट वात्सल्य प्राप्त किया ।

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अमूल्य धरोहर

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अमूल्य धरोहर

श्री महाप्रज्ञ के जीवन की एक महत्वपूर्ण धरोहर है पूज्य श्री कालूगणी के साथ घटित मधुर प्रसंग । पूज्य कालूगणी का स्वल्प कालीन ( लगभग 6 वर्षों का ) सानिध्य एवं सतत संरक्षण श्री महाप्रज्ञ के विकास में एक बड़ा निमित्त बना । ऐसे लगता है कि श्री महाप्रज्ञ के मानस पर कालुगणी की एक अमिट छाप है । कालूगणी की करुणा , ममता वात्सल्य और आगे बढ़ने की प्रेरणा ने एक अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा बनने का अवसर दिया । वह श्री महाप्रज्ञ के जीवन की महान उपलब्धि है । अपने दीक्षा गुरु महा मना पूज्य कालूगणी के संदर्भ में श्री महाप्रज्ञ ने एक बार बताया_पूज्य कालूगणी में वात्सल्य भी शत-प्रतिशत था और अनुशासन भी शत-प्रतिशत । मानो एक दूसरे में स्पर्धा थी कि दोनों में कौन आगे ? कालू गणी का जिसके प्रति विश्वास हो जाता उस पर कृपा भी बहुत रखते और जिस पर विश्वास नहीं जमता था , जो ठीक आचारवान नहीं होता , उससे रुख भी नहीं जोड़ते।

अपने मुनि जीवन के प्राथमिक वर्षों के अनुभव में श्री महाप्रज्ञ ने बताया कि प्रारंभ में पूज्य कालू गणी ने मुझे जितना वात्सल्य दिया उतना मुनिश्री मगन ने पहले नहीं दिया । कुछ व्यक्तियों को मुनि श्री मगन वात्सल्य देते थे । उन्हें पूज्य कालू गणी नहीं देते पूज्य कालूगणी और मुनि श्री मगन, दोनों अभिन्न थे , पर कुछ बातों में उन में मतभेद रहता था । मुनि श्री कालू जी (रेलमगरा, पूज्य डालगणी का मनोनयन करने वाले) के प्रति पूज्य कालूगणी जितना सम्मान का भाव प्रकट करते उतना मुनिश्री नहीं करते।

पूज्य कालू गणी के संबोधन

विनोद के क्षणों में पूज्य कालूगणी श्री महाप्रज्ञ को अनेक संबोधन से पुकारते थे । उनके प्रिय संबोधन थे बंगू , शंभू ,हाबू वल्कलचीरी, नत्थू । गुरुदेव तुलसी ने कालू यशोविलास में पूज्य कालूगणी के इस विनोदी स्वभाव का वर्णन इस रूप में किया है _

नानकियां संता स्यूं , सतियां स्यूं विनोद की बातां रे, करता परम प्रमोद में ।
वल्कलचीरी बंगू,हाबू, नत्थू नै बतलाता रे, गुण भरता नई पौध में ।

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शासन स्तंभ मुनि श्री कुंदन मल जी

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शासन स्तंभ मुनि श्री कुंदन मल जी

श्री महाप्रज्ञ को साधु चर्या संबंधित शिक्षण प्रशिक्षण प्रदान करने में मुनिश्री कुंदन मल जी, जावद का भी बड़ा योगदान रहा। वह हमारे धर्म संघ के एक सुंदर लिपिकार मुनि थे वे कलम से लेखन करते थे और शैक्ष मुनियों के प्रशिक्षक मुनि भी थे । मुनि श्री कुंदन मल जी महाप्रज्ञ की बाल अवस्था के परिचारक भी रहे । वे श्री महाप्रज्ञ के खेऴिया (नासिका शोधन वस्त्र )का प्रक्षालन भी कर देते थे । आचार्य श्री तुलसी ने उनको स्वर्गारोहणोपरांत शासन - स्तंभ संबोधन से संबोधित किया।

स्मरण शक्ति का विकास

नव दीक्षित श्री महाप्रज्ञ ने पूज्य कालू गुणी के निर्देशानुसार मुनि तुलसी के सानिध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करना प्रारंभ किया । वह सहज सरल और निश्चिंत थे । उनकी सार संभाल मुनि तुलसी करते थे । श्री महाप्रज्ञ ने एक बार बताया कि मैं कभी चिंता नहीं करता था कि कब चोलपट्टा ( अधोवस्त्र ) सिलवाना है , और कपड़े (ऊपरी वस्त्र बड़ा ) सिलवानी है मेरी सारी चिंता मुनि तुलसी करते थे । श्री महाप्रज्ञ मुनि तुलसी के प्रति समर्पित थे । वे उनकी दृष्टि आराधना में दत्ताव- धान हो गए । मुनि तुलसी के साथ उनका गहरा तादाम्य जुड़ गया।

श्री महाप्रज्ञ मुनी तुलसी की पाठशाला में एक प्रमुख विद्यार्थी रहे हैं । प्रारंभ में उनकी कंठस्थ करने की क्षमता कम थी । उन्होंने मुनि दीक्षा के बाद दसवेआलियं कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया । वे प्रतिदिन लगभग 2 गाथा ही सीख पाते थे । जबकि उनके साथ दीक्षित मुनि श्री खेतसी जी (श्री डूंगरगढ़ )और मुनि श्री चौथमल जी( सरदारशहर ) प्रतिदिन चार पांच गाथा सीख लेते थे। मुनि तुलसी श्री महा प्रज्ञ से कहते थे -थैं ईयां कियां सीखस्यो ( ऐसे कैसे सीख पाओगे ) । 1 वर्ष बाद में तुलसी के प्रयास से श्री महाप्रज्ञ काफी कंठस्थ करने लगे सुजानगढ़ में 1 दिन में अभिधान चिंतामणि के६०-६५ श्लोक तक सीख लेते । अन्य सब काम करते हुए सहजता से उत्तराध्ययन सूत्र का अध्ययन करते थे । इस प्रकार 36 दिनों में पूरा उत्तराध्ययन सूत्र सीख लिया । अध्ययन के प्रारंभिक क्रम में मुनि तुलसी आधा आधा घंटा पदों का उच्चारण करते रहे । ऐसा करने का उद्देश्य था कि उच्चारण अशुद्ध ना रहे ।

आज का बौद्धिक मानस कंठस्थ ज्ञान को महत्वपूर्ण मानता है या नहीं यह एक अलग बात है । परंतु मेरी दृष्टि में कंठस्थ ज्ञान का भी अपना मूल्य है प्राचीन कहावत भी है ज्ञान कंठा में,दाम अंण्टा में । यानि ज्ञान वह है , जो कंठस्थ होता है , और पैसे वे हैं जो आंटी में होते हैं । पास में जो पैसे होते हैं वे तत्काल काम आ सकते हैं ।और ज्ञान भी जो कंठस्थ होता है ,वह कहीं भी और कभी भी काम में लिया जा सकता है । श्री महाप्रज्ञ ने काफी ज्ञान कंठस्थ किया है।मुनी तुलसी श्री महाप्रज्ञ को व्यवस्थित रूप से अध्ययन करवाते और वे विनय पूर्वक अध्ययन करते । तीक्ष्ण बुद्धि और समुचित प्रयास के द्वारा उन्होंने थोड़े ही वर्षों में हजारों पद्य कंठस्थ कर लिए । संस्कृत और प्राकृत भाषा का व्याकरण ,काव्य कोष तथा दर्शन आदि का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया ।

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दीक्षा एक नया जन्म

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

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दीक्षा एक नया जन्म

विक्रम संवत 1987, माघ शुक्ला दशमी की पावन बेला । श्री भैरू दान जी भंसाली का बाग ,जो कालांतर में श्री जयचंद लाल जी सेठिया की मिल्कियत में हो गया । पूज्य कालूगणी साधु साध्वियों से परिवृत होकर वहां पधारे । बालक नथमल आदि सभी दीक्षार्थी अपने पारिवारिक जनों के साथ वहां पहुंचे।

तेरापंथ में दीक्षा पारिवारिक जनों की स्वीकृति पूर्वक होती है । परिषद के बीच लिखित स्वीकृत पत्र पढा़ गया । पूज्य कालूगणी
ने दीक्षार्थियों को दीक्षा की कठिन साधना के प्रति आगाह किया । सबने अपना संकल्प व्यक्त किया । पारिवारिक जनों की मौखिक स्वीकृति भी ली गई, सारी औपचारिकताएं संपन्न हुई । सब दीक्षार्थी गुरुदेव के सामने खड़े हो गए । पूज्य कालूगणी
ने मंत्रोच्चार के साथ दीक्षा की विधि संपन्न की ।
सब दीक्षार्थियों का पुनर्जन्म हो गया । पूज्य कालूगणी के द्वारा उस समय दीक्षित होने वाले 9 साधु साध्वियों के नाम इस प्रकार हैं ।

१.मुनि चौथमल जी, सरदार शहर

२.मुनि खेत सीजी ,श्री डूंगरगढ़

३.मुनि नथमल जी ,टमकोर

४.साध्वी बालू जी ,टमकोर

५.साध्वी आसां जी , लाडनूं

६.साध्वी लिछमा जी सरदार शहर

७.साध्वी साधना जी , नोहर

८.साध्वी मनोहरांजी , सरदारशहर

९.साध्वी पिस्तांजी ,जमालपुर

कालू यशो विलास में गुरुदेव तुलसी ने श्री महाप्रज्ञ के इस अध्यात्म - प्रस्थान का उल्लेख करते हुए कहा है--

नत्थू टमकोरी माता साथ सुहायो ,
भैक्षवशासन में भारी नाम कमायो ।

तुलछु के पास सीखो

दीक्षा का कार्यक्रम संपन्न हुआ । पूज्य कालूगणी भंसालीजी के बाग से गधैया जी के नोहरे (साधुओं के ठिकाने) में पधारे । वहाँ वर्षों से आचार्यों और साधु साध्वियों का प्रवास होता रहा है। वहाँ दक्षिण दिशा में बने कमरे के पीछे नाल में गुरुदेव टहलने लगे । बालक नथमल अब मुनि नथमल बनकर पूज्य प्रवर के निकट विद्यमान था । पूज्यप्रवर ने नव दीक्षित मुनि नथमल (श्री महाप्रज्ञ जी )से कहा तुम जाओ तुलछू ( मुनितुलसी ) के पास सीखो ।

इस प्रकार श्री महाप्रज्ञ का प्रशिक्षण , संरक्षण मुनि तुलसी के पास होने लगा । उस समय मुनि तुलसी की अवस्था लगभग 16 वर्ष की थी । उनके पास और भी अनेक मुनियों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया।मुनि तुलसी के प्राध्यापक- त्व में साधुओं की पाठशाला चलने लगी । पूज्य कालूगणी मुनि तुलसी के पाठन कौशल से प्रसन्न और निश्चिंत थे ।

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दीक्षा की स्वीकृति

गतांक से आगे......…

 

दीक्षा की स्वीकृति

 

गंगा शहर में पूज्य कालूगणी की सेवा कर बालू जी आदि टमकोर आ गईं । वहां कुछ दिन रहकर व्यवस्था का कार्य संपन्न कर मां , और पुत्र पूज्य कालू गणी के दर्शन करने गए । उस दिन पूज्य प्रवर श्री डूंगरगढ़ और सरदार शहर के मार्ग वर्ती गांव 'भादासर' में प्रवास कर रहे थे । सांझ का समय। एक तिबारी , उसके मध्यवर्ती द्वार में पूज्य श्री विराजमान थे । उसके बाहर सरदार शहर निवासी श्री गणेश दास जी गधैया बैठे थे । स्थान की अल्पता के कारण नथमल उनकी गोद में बैठा हुआ था । गधैयजी ने नथमल की दीक्षा के संदर्भ में पूज्य प्रवर से प्रार्थना की ।

नथमल ने गुरुदेव से प्रार्थना कि मुझे दीक्षा का आदेश दें ।

 

गुरुदेव - दीक्षा कौन लेगा ?

 

नथमल - मैं और मेरी मां ।

 

गुरुदेव -पहले तुम ले लो , तुम्हारी मां के लिए फिर सोचेंगे ।

 

नथमल - दोनों साथ ही लेंगे । मां को छोड़कर मैं दीक्षा नहीं लूंगा ।

 

गुरुदेव ने एक दो बार वही बात दोहराई , पर नथमल अपनी बात पर दृढ़ रहा ।

 

गुरुदेव -   तो साथ में ही लेना है ।

 

नथमल - हां ।

 

गुरुदेव - ठीक है माघ शुक्ला दशमी के दिन तुम दोनों की दीक्षा हो जाएगी ।

 

ज्ञातव्य है कि नथमल ने पूज्य कालूगणी के पास मोमासर में दीक्षा की प्रार्थना करना शुरू कर दिया था , फिर भादासर में दीक्षा का आदेश मिला ।

 

दीक्षोत्सव

 

दीक्षार्थी दीक्षा के लिए टमकोर से सरदारशहर जा रहे थे । तब लगभग 80 ऊँटों की पंक्ति साथ थी । सब सरदार शहर पहुंचे दीक्षा से पूर्व घर में उत्सव मनाया जाता है । बनोले निकाले जाते हैं और वैरागी को सजाया संवारा जाता है । वैरागी नथमल को भी सजाया गया  दीक्षा के बनोले में कोट हार पहनाए गए । संभवत  वे आज भी श्री रतन लालजी गधैया ( सरदारशहर ) के पास सुरक्षित है । नथमल छोटा था, इसलिए सेठ सुमेरमल जी दूगड़ के वहां से एक छोटी घोड़ी मंँगाई गई  ।जिस पर नथमल को बिठाकर बनोला निकाला गया  ।श्री गणेश दास जी गधैया के परिवार ने दीक्षा संबंधी उत्सव - कार्यक्रमों में इस प्रकार जिम्मा निभाया मानो उनके अपने परिवार के किसी सदस्य की दीक्षा हो रही हो । वैरागी नथमल को कपड़े आदि पहनाने की साज-सज्जा की योजना बनाने में श्री पन्नालाल जी बरडिया भी काफी सक्रिय रहे ।

 

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तुलसीराम जी स्वामी कहां है ?

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तुलसीराम जी स्वामी कहां है ? 

टमकोर से प्रस्थान करने से पूर्व, मुनि श्री छबील जी के सहवर्ती संत मुनि श्री मूलचंद जी ने नथमल से कहा -'तुम पूज्य कालू गणी के दर्शन करने गंगाशहर जाओ तो ,वहां मुनि तुलसीराम जी नामक एक संत हैं , उनके दर्शन जरूर करना । वे आयु में छोटे हैं , किंतु भाग्यशाली हैं ।उन पर कालूगणी की विशेष कृपा है । वह बहुत होशियार है पछेवड़ी बहुत चतुराई से ओढ़ते हैं और चोल पट्टे की पटली भी बहुत सुंदर लगाते हैं । मुनिश्री की प्रेरणा से प्रेरित होकर नथमल ने मुनि तुलसीराम जी के दर्शन करने का प्रयास किया । वहां के श्रावक श्री नथमल जी बणोट से पूछा- मुनि तुलसीराम जी स्वामी कहां है? उन्होंने स्वयं साथ चलकर नथमल  को मुनि तुलसी के दर्शन कराए और उसके वैरागी होने का परिचय दिया । श्रीलूणकरजी चोपड़ा की हवेली की छत पर एक कमरा था । उस कमरे के पास ऊपर जाने की सीढ़ियां थी । उन सीढ़ियों में मुनि तुलसी बैठे थे ,  उस समय दोनों के बीच बहुत संक्षिप्त वार्तालाप हुआ ।

 

मुनि तुलसी -कहां से आए हो  ?

 

नथमल - टमकोर से ।

 

मुनि तुलसी - नाम क्या है ?

 

नथमल - नथमल ।

 

मुनि तुलसी - दीक्षा क्यों ले रहे हो?

 

नथमल - मन हो गया ।

 

फिर नथमल ने मुनि श्री मूलचंद जी द्वारा कथित सारी बातें मुनि तुलसी को बता दी । प्रथम बार हुए साक्षात्कार में मुनि तुलसी को लगा कि बालक भोला भाला सा दिखता है पर है होनहार

 कर्म- प्रकृति

उस गंगा शहर प्रवास के दौरान नथमल तत्व ज्ञान की पुस्तक प्राप्त करने के लिए श्री हीरालाल जी आंँचलिया के घर गया । श्री आंँचलिया जी ने उससे तत्वज्ञान के संबंध में अनेक प्रश्न पूछे । काफी समय लगा दिया और फिर एक छोटी सी  पुस्तक ' कर्म- प्रकृति' दी । ज्ञातव्य है कि उस जमाने में श्री हीरालाल जी ने तत्वज्ञान साहित्य को प्रकाशित करवाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया

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प्रतिक्रमण की अनुमति

ॐ श्रीं महाप्रज्ञ गुरवे नमः

गतांक से आगे.......

वैराग्य की परीक्षा....

बालक नथ मल ने अपने बाबा जी श्री बालचंद जी के सामने अपनी भावना व्यक्त की । उस समय वे उसके अभिभावक थे।

नथमल - मैं साधु बनना चाहता हूं।

श्री बालचंद जी- तुम कांच और कंघी हमेशा अपने पास रखते हो, फिर मुनि बनने के बाद कैसे मुंह देखोगे और कैसे केशों को संवारोगे ?

नथमल - पात्र में पानी रहेगा उसमें मुंह देख लूंगा और केशों  का तो लुंचन हो जाएगा ‌।

श्री बालचंद जी - साधु को तो पैदल चलना पड़ता है तुम कैसे चलोगे ?

नथमल - मैं अभी चार कोस चल सकता हूं  

श्री बालचंद जी - साधु बनने के बाद केश लोचन कर लोगे  ?

नथमल- मैं अभी करके दिखा सकता हूं ।

श्री बालचंद जी- तुम्हें दीक्षा दे देने से भाई तोलाराम जी का वंश कैसे चलेगा  ?

नथमल - बाबाजी गोपीचंद जी का वंश कैसे चलेगा ? महाल चंद जी को कहां से लाओगे ? नथमल के उत्तर सुनकर श्री बालचंद जी मौन रह गए । उनकी इच्छा साधु बनाने की नहीं थी , इसलिए फिर सोचेंगे यह कहकर व्यापार के लिए परदेश चले गए।

प्रतिक्रमण की अनुमति

कुछ दिनों बाद श्रीमती बालू जी ने अपने देवर श्री पन्नालाल जी से कहा- हमें आचार्य श्री के दर्शन करने हैं । श्री पन्नालाल जी बालू जी और नथमल को साथ लेकर गंगाशहर गए , उस समय तेरापंथ के अष्टम आचार्य पूज्य कालू गणी  श्री लूणकरण जी चोपड़ा की हवेली में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे । तीनों ने पूज्य श्री के दर्शन किए । प्रवचन सुना । कार्यक्रम के मध्य खड़े रहो कर नथमल ने दीक्षा की प्रार्थना की । उधर बालू जी भी खड़ी हो गईं और दोनों के लिए स्वीकृति मांगने लगीं । अभिभावक के रूप में श्री पन्नालाल जी भी प्रार्थना करने लगे ।

विक्रम संवत् 1987 कार्तिक महीने में पूज्य वर ने दोनों को दीक्षा की प्रथम स्वीकृति (साधु प्रतिक्रमण) सीखने की अनुमति प्रदान कर दी।

 

आगे का अंश अगली पोस्ट में....

वैराग्य मई प्रेरणा

गतांक से आगे...... द्वितीय दशक........

वैराग्य मई प्रेरणा

मुनि छबील जी ने विक्रम संवत 1987 का चतुर्मास टमकोर में किया। उस समय बालक नथमल लगभग 10 वर्ष की अवस्था में था। मुनि श्री छबील जी और उनके सहवर्ती मुनि श्री मूलचंद
जी (बीदासर) ने बालक को वैराग्य मई प्रेरणा दी ।बालक का अंतः करण झंकृत सा हो गया , और वह मुनि बनने का इच्छुक बन गया ।

संभावना की जा सकती है कि वैराग्य की भूमिका के निर्माण में श्री महाल चंद जी चोरडिया का देहावसान भी कुछ निमित्त बना हो । बालक नथ मल के बाबा श्री गोपीचंद जी चोरडिया के एक ही पुत्र था ,महाल चंद । उनका लगभग 25 वर्ष की युवावस्था में अचानक स्वर्गवास हो गया । परिवार दु:खी हो गया । बालक नथमल को भी बहुत दु:ख हुआ क्योंकि वह नथमल से बहुत स्नेह रखते थे। बालक के अंतर्मन में एक चोट लगी । जीवन की अस्थिरता की छाप भाव पटृ पर अमित रूप से अंकित हो गई ।

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मैं मुनि बनना चाहता हूं

बालक नथमल दीक्षा के लिए तैयार हो गया ।दीक्षा की भावना का संबंध केवल वर्तमान जीवन के साथ नहीं होता। पूर्व जन्म के संस्कारों के साथ भी उसका गहरा अनुबंध होता है ।एक कारण यही है कि प्रौढ़ व्यक्ति भी मुनि दीक्षा के लिए तैयार नहीं होता और एक बालक भी दीक्षा के लिए तैयार हो जाता है। इसमें नियति का भी अपना योगदान रहता।कालांतर में
पत्रकारों ने -श्री महाप्रज्ञ से पूछा- 'आप मुनि कैसे बने?' श्री महाप्रज्ञ ने कहा बस कोई नियति थी । 'नियति 'इन तीन अक्षरों के अलावा मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है ।

बालक नथमल ने अपनी मां से कहा ,- 'मैं मुनि होना चाहता हूं।' मां ने कहा -'मैं तो साध्वी बनना ही चाहती थी, किंतु तुम अभी छोटे हो इसलिए मैंने मौन रखा । पुत्र की वैराग्य भावना से मां की दीक्षा का रास्ता भी साफ हो गया। मां और पुत्र दोनों भावात्मक दृष्टि से एक हो गए । दोनों का लक्ष्य एक हो गया । अब अपेक्षा थी लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ाने की।......

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श्री महाप्रज्ञ ने कहा

ॐ श्रीं महाप्रज्ञ गुरवे नमः

गतांक से आगे

श्री महाप्रज्ञ ने कहा

▪️श्री तोलाराम जी एक अच्छे व्यक्ति थे। सुंदर आकृति वाले लड़ाई झगड़े से बचकर रहने वाले और उदार व्यवहार वाले थे। वह क्षत्रिय जैसे लगते थे ।लगता है उनको कुछ पूर्वाभास हो गया था। उन्होंने एक दिन मेरी संसार
पक्षीय मां श्रीमती बालू जी से कहा-' तुम एक पुत्र को जन्म दोगी,पर मैं नहीं रहूंगा । 'बालू जी तत्काल बोल उठी -' ऐसा बेटा मुझे नहीं चाहिए, जिसके आने पर आप ना रहे।' श्री तोलाराम जी का यह पूर्वाभास कुछ समय बाद ही सत्य साबित हो गया।

▪️ मेरे संसार पक्षियों दादाजी श्री बींजराज जी चोर डिया कहा
क रहते थे , कि हमारे परिवार में दो ऐसे व्यक्तित्व होंगे , जो विशिष्ट कार्य करेंगे मैं व साध्वी प्रमुखा उस परिवार के ही सदस्य है।

▪️ जन्म के बाद 2 वर्ष तक मुझे अन्न दिया ही नहीं गया था । दूध और फल पर ही रखा गया था। ऐसा बालू जी (संसार पक्षीया मां) कहा करती थी । साध्वी मालू जी (संसार पक्षीया बहन )भी कहा करती थी। इससे हड्डियां मजबूत बनती हैं ।

▪️मेरा सहक्रीडक बालक
मूलचंद चोर्डिया गणित में अच्छा था ।यदि उसे निमित्त मिलता तो वह दुनिया का विशिष्ट गणितज्ञ बन जाता ।

▪️ श्री महालचंद जी चोरडिया (सुपुत्र श्री गोपीचंद जी चौरडिया) प्राण गंज से आए वह मेरे लिए घड़ी व टोर्च लाए थे। मैं टॉर्च जला कर दिखाता व घड़ी बांध कर समय बताता ।

▪️ विक्रम संवत 2063 भिवानी चातुर्मास ।श्रावण कृष्णा अमावस्या ,श्री महाप्रज्ञ जी ने मातुश्री बालू जी की वार्षिकी के दिन व्यक्तिगत बातचीत के दौरान मुझे बताया कि मातु श्री बालू जी मुझे शिक्षा देती थी कि कभी बाइयों के चक्कर में मत पड़ना।

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तेलिया की भविष्यवाणी

तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणियां सच हो गईं .......

बालू जी की बड़ी पुत्री माली बाई का विवाह हो चुका था । बालू जी अपने पुत्र नथमल के साथ सन्यास के पथ पर अग्रसर हो गईं , अकस्मात एक दुर्घटना घटी बालू जी के दामाद (मालू जी के पति )का देहांत हो गया माली बाई का मन संसार से उद्विग्न हो उठा ।संयम के पथ पर चलने का निश्चय प्रबल बन गया। वे तेरापंथ धर्म संघ में प्रव्रजित होकर साध्वी मालू जी बन गईं । मां बेटी के अलग हुए रास्ते पुनः एक बन गए। पूज्य गुरुदेव ने साध्वी बालू जी की सेवा में साध्वी मालू जी को नियोजित किया ,साध्वी मालू जी ने अंतिम समय तक अपनी संसार पक्षीया मां साध्वी बालू जी की सेवा की ।तेलिये की तीसरी भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई ।अब चौथी भविष्यवाणी कसौटी पर चढ़ गईं ।

५ फरवरी , १९९५ ...... को साध्वी बालू जी के संसार पक्षीय पुत्र , श्री महाप्रज्ञ तेरापंथ धर्म संघ के आचार्य बन गए। तेलिये द्वारा की गई चौथी भविष्यवाणी भी कृतार्थ हो गई।

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कोलकाता में पहली बार

बालक नथमल लगभग 9 वर्ष का था। मेमन सिंह (वर्तमान में बांग्लादेश) में उसकी चचेरी बहन नानू बाई का विवाह था । उस में सम्मिलित होने के लिए वह अपने स्वजन वर्ग के साथ जा रहा था । बीच में कोलकाता में अपनी बुआ के घर ठहरा । शादी के लिए कुछ चीजें खरीदनी थीं । बालक नथमल के चाचा, श्री पन्नालाल जी और दुकान के मुनीम सुरजोजी ब्राम्हण सामान खरीदने के लिए बाजार जा रहे थे ।नथमल भी उनके साथ हो गया। वह पहली बार ही कोलकाता आया था । श्री पन्नालाल जी और मुनीम जी ने दुकान से सामान खरीदा और आगे बढ़ गए । नथमल अकेला पीछे रह गया मार्ग से अपरिचित बालक इधर-उधर झांकने लगा । उस विकट बेला में उसने अपने हाथ की घड़ी खोली गले में से स्वर्ण सूत्र निकाला और दोनों को जेब में रख लिया । वह पीछे मुड़ा और अज्ञात मार्ग की ओर चल दिया । सौभाग्य वश वह यथा स्थान पहुंच गया उसने आपबीती सारी घटना मां को सुनाई तो वे अवाक् - सी रह गई । तत्काल उनके मुख से निकला ,'यह सब भीखणजी स्वामी के प्रताप से हुआ है । नहीं तो इतने बड़े शहर में ना जाने क्या घटित होता?'

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वैराग्य - भाव

श्री गोपीचंद जी चौरड़िया की पुत्री छोटी बाई ( साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा जी यह संसार पक्षीया मां ) की शादी का प्रसंग था । टमकोर से लाडनूं आते समय छोटी बाई का भाई नथमल साथ आया। वे लाडनू पहुंचे । यह परंपरा रही है कि बहिन को ससुराल पहुंचाने के लिए भाई साथ जाता है । पारिवारिक लोग तत्रस्थ सेवा केंद्र में साध्वियों के दर्शनार्थ गए ।अन्य जन ऊपर चले गए । नथमल नीचे ही खड़ा रह गया। उस समय बालक नथमल आत्म विभोर हो गया और उसके मानस में वैराग्य भाव का संचार हुआ।

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क्रोध से क्षमा की ओर

गतांक से आगे.......

क्रोध से क्षमा की ओर

बालक नथमल को बचपन में गुस्सा आता था ।उस अवस्था में वह कभी खाना नहीं खाता, पढ़ाई बंद कर देता ,बोलना भी बंद कर देता । वह खंभा पकड़कर, दरवाजा पकड़कर खड़ा हो जाता। किसी की बात नहीं सुनता। पारिवारिक लोग मना कर थक जाते ,किंतु वह तभी मानता जब कड़कड़ाती भूख लग जाती।

ज्यों-ज्यों विवेक जागृत हुआ ,ज्ञान का विकास हुआ , त्यों-त्यों गुस्सा नियंत्रित होता चला गया।

श्री महाप्रज्ञ जी ने कहा -मुझे दीक्षा के बाद गुस्सा कितनी बार आया ,यह उंगलियों पर गिना जा सकता है ।75 वर्षों में संभवत 75 बार भी नहीं आया।

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तेलिया की भविष्यवाणी

जब बालक नथमल लगभग 8 वर्ष का था, वह अपने साथियों के साथ खेल रहा था। उसी समय एक तेलिया वहांआया, उसने बालक को देखा और घर के भीतर चला गया । मां बालू जी कुछ बहनों के साथ बातचीत कर रही थी।तेलिये ने राजस्थानी भाषा में कहा- 'मांजी, तेल घाल द्यो।' बालू जी ने एक बहन को तेल लाने का निर्देश दिया ।वह रसोई घर में गयी। तब तेलिया बोला-' मां, तू बड़ी भागवान है ।बाखळ( घर के अहाते )में जिको थांरो बालक खेल रह्यो हैं बो बड़ो पुनवान है ।'बालूजी ने कहा -'यदि मैं भागवान हुती , तो म्हारा घर- वाळा क्यूं जाता ?तेलिये ने कहा- 'थांरो लड़कों, जिको बाखळ में खेले है,वह एक दिन राजा बणसी।' बालू जी का चेहरा खिल उठा। आस पास बैठी महिलाओं को बातों में रस आने लगा, उन्होंने पूछा -'अच्छा और कांई बतावे है?'एक बहन की ओर इशारा करते हुए कहा -'आ बहन गर्भवती है ।आज स्यूं आठवें दिन इरै एक लड़को हुसी । वह
बहन श्री हरखचंद जी चोरड़िया की धर्मपत्नी थी ।बालू जी की ओर मुड़कर कहा -'मांजी! थांरी बड़ी बेटी थारी सेवा करसी।'बालू जी ने कहा -'बा तो पराये घर जासी, आपरै सासरे जासी, म्हारी सेवा किया करसी। चौथी बार तेलिये ने एक दु:खद बात कह डाली-' सातवें दिन थांरै एक पड़ोसी रे लड़के री मौत होसी।' बहनों को यह बात बहुत अप्रिय लगी, उन्हें लगा कि यह आदमी ठीक नहीं है । यहां से जितना जल्दी चला जाए ,अच्छा है ।
तेलिये ने स्थिति को समझा ,अपने पात्र में तेल का दान लेकर वहां से प्रस्थित हो गया।

सातवां दिन आया ।पड़ोस में रहने वाले अग्रवाल परिवार का आठ वर्षीय लड़का काल कवलित हो गया। इस दु:खद घटना के घटते ही उसके लिए को ढूंढा गया, लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं मिला ।उसके दूसरे दिन श्री हरखचंद जी की धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया । तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणियां सच हो गईं।

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अध्ययन

गतांक से आगे.......

ॐ ह्रीं श्रीं महाप्रज्ञगुरवे नम:

अध्ययन

टमकोर एक छोटा गांव है ।उस समय तो वह अनेक सुविधाओं से वंचित था ।राजकीय विद्यालय भी वहां नहीं था ।संभवत यही कारण रहा होगा कि बालक नथमल को राजकीय विद्यालय के अध्ययन से वंचित रहना पड़ा ।आर्य समाजी गुरु जी श्री विष्णु दत्त शर्मा की पाठशाला में वर्णमाला और पहाड़े पढ़े । कुछ अध्ययन अपने ननिहाल सरदारशहर में श्री नेमिनाथ सिद्ध के पास किया। बालक अपने ननिहाल में कभी दो महीने तो कभी छः महीने तक भी रहा करता था।

भाग्य खुल गया

अक्सर छोटे बच्चे चंचल होते हैं। बालक नथमल भी उसका अपवाद नहीं था। एक दिन उसने बाल सुलभ चपलता के अनुरूप आंखों पर पट्टी बांधी और चलने लगा ।थोड़ा सा चला और दीवार से टकरा गया ,ललाट पर चोट लग गई खून बहने लगा वह रोता रोता मां के पास गया उसी दिन उसकी बहन पारी बाई की शादी थी । इसलिए पारिवारिक जन उसमें लगे हुए थे , किसी ने बालक की ओर ध्यान नहीं दिया , पर मां कैसे ध्यान नहीं देती ?कुछ उलाहना दिया , कुछ पुचकारा पट्टी बांध दी। ठीक हो गया ,आज तुम्हारा भाग्य खुल गया यह कह कर उसका दर्द दूर कर दिया।

आज भी अंकित है

बालक नथमल अपने साथियों के साथ कई प्रकार के खेल खेला करता था। जैसे कबड्डी ,दिया- सलाई से टेलीफोन बनाना ,तिनके का धनुष बनाना, पेड़ के रस्सी बांधकर झूला झूलना, एक बार खेलते समय कोई नाम गोदने वाला व्यक्ति आया, बालकों ने अपने हाथ पर नाम गुदवाए। नथमल ने भी अपने दाएं हाथ पर 'नथमल चोरड़िया' नाम गुदवाया जो आज भी अंकित है।

देव - मान्यता

संसार में विभिन्न देव और देवियां प्रतिष्ठित हैं ,विभिन्न विभिन्न लोगों की आस्था के केंद्र भी बने हुए हैं। श्री महाप्रज्ञ के संसार पक्षीय परिवार में बाबा रामदेव की मान्यता थी इसलिए वे उनके मुख्य केंद्र रुणेचा भी गए।

आभार -ममता कच्छारा,चेंबूर मुंबई

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

मातृत्व का वैशिष्ट्य

ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नम:

गतांक से आगे

मातृत्व का वैशिष्ट्य

जब बालक लगभग ढाई मास का हुआ, तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया। श्री तोलाराम जी के स्वर्गवास के कुछ समय बाद श्रीमती बालू जी अपनी संतानों को लेकर अपनी मां के पास चली गईं ।बालक नथमल जब लगभग ढाई वर्ष का हुआ तब बालू जी अपनी संतानों के साथ वापस टमकोर आ गईं। ‌ ‌ उस समय चीजें सस्ती थीं। पास में कुछ संसाधन था, और दुकान भी चलती थी भरण पोषण में कोई आर्थिक संकट नहीं आया,किन्तु परिवार में पिता का न होना अपने आप में एक बड़ा संकट था।मां बालू जी ने इस संकट का अनुभव अपनी संतानों को नहीं होने दिया ,यह उनके मातृत्व का वैशिष्ट्य था। ‌ ‌ ‌ ‌ माता बालू जी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं।प्रतिदिन प्रायः पश्चिम रात्रि में जल्दी उठकर सामायिक करती तथा तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमल जी द्वारा रचित चौबीसी आराधना और तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के स्तुतीभजनों का स्मरण करती थीं।बालक नथमल सोए सोए भजनों को सुना करता था। संत भीखणजी रो स्मरण कीजिए गीत के बार-बार श्रवण से बालक में के मन में आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया मां बालू जी बालक नथमल को संस्कारी बनाने में बहुत सजग थीं।जब तक बालक साधु साध्वियों के दर्शन नहीं कर लेता ,प्रायः उसे प्रातराश नहीं कराती ,सत्यवादी ता पर बल दिया करतऻऔर जप करना सिखाती थी।

आकाश दर्शन

बालक नथमल में आकाश को पढ़ने का शुरू से ही आकर्षण था। अपने घर में सोया सोया वह सामने वाली दीवार पर देखता रहता ।श्री गोपीचंद जी की हवेली में ऊपर 'मालिए' में चला जाता और उसमें खिड़की से घंटों तक आकाश को देखता रहता ,बालक को उसमें नई नई चीजें दिखाई देती।

गाय का दूध

घर के प्रवेश के रास्ते पर गाय बंधती थी। पारी बाई गाय को दुहती जाती, बालक नथमल प्याला लेकर पारी बाई के पास बैठ जाता वह गाय को दुहती जाती और बालक नथमल दूध पीता जाता है|

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

 

नामकरण

‌गतांश से आगे

प्रेक्षा ध्यान से होता कषायों का शमन,महात्मा महाप्रज्ञ तुम्हें शत शत नमन।

नामकरण

नामकरण संस्कार के अंतर्गत बालक का नाम 'इंद्र चंद्र' रखा गया किंतु वह व्यवहार में नहीं आया ।फिर उसे परिवर्तित कर नथमल नाम रखा गया। उसका कारण यह था कि शिशु के दो अग्रज अल्प अवस्था में ही काल कवलित हो गए थे। इसलिए वर्तमान शिशु को दीर्घ जीवी बनाने के लिए उसका नाक बींध कर उसमें 'नथ' पहनाई गई। नथ पहनाने के कारण बालक का नाम नथमल रखा गया।

वंश परंपरा

श्री बींजराज जी चौरडिया के चार पुत्र थे ।१.श्री गोपीचंद जी २.श्री तोलाराम जी ३. श्री बालचंद जी ४.श्री पन्नालाल जी। इन चारों ही भाइयों की वंश परंपरा में जन्मी संतानें तेरापंथ संघ में दीक्षित हुईं। श्री गोपीचंद जी चोरड़िया की दोहित्रियां साध्वी मंजुला जी (गण मुक्त ), साध्वी प्रमुखा कनक प्रभा जी । श्री तोलाराम चोरड़िया के सुपुत्र आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं सुपुत्री साध्वी मालू जी। श्री बालचंद जी चौरड़िया की पुत्री साध्वी मोहना जी (गण मुक्त)। श्री पन्नालाल जी चोरड़िया की पुत्री साध्वी कमल श्री जी।

श्री तोलाराम जी चोरड़िया के कुल 5 संतानें हुई -3 पुत्र और दो पुत्रियां। तीन पुत्रों में से 2 पुत्र तो लघु वह में ही पंचतत्व को प्राप्त हो गए। जिनमें से एक का नाम गोरधन बताया जाता है, एक का नाम अज्ञात है। शायद उसका नामकरण हुआ ही न हो तीसरा पुत्र नथमल नाम से पहचाना गया। बड़ी पुत्री माली बाई की शादी चुरू निवासी श्री सुआम जी बैद के पुत्र श्री चंपालाल जी बैद के साथ और दूसरी पुत्री प्यारां (पारी) बाई की शादी बीदासर निवासी श्री केशरीमल जी बोथरा के पुत्र श्री मेघराज जी बोथरा के साथ हुई ।
कालांतर में पहली पुत्री मालू जी के जीवन में एक नया मोड़ आया वह 18 वर्ष की हुईं, तभी उनके पति का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात मालू जी की दीक्षा लेने की भावना प्रबल होने लगी, किंतु श्वसुर पक्ष वालों ने किसी आशंका के कारण उनको दीक्षा की अनुमति नहीं दी ।बाद में वह आशंका निर्मूल हो गई तब ससुराल की ओर से उन्हें दीक्षा के लिए लिखित आज्ञा मिल गया। फिर दीक्षा प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं रहा । श्री महाप्रज्ञ ने भी गुरुदेव तुलसी से उनकी दीक्षा की प्रार्थना की ।

पूज्य गुरुदेव तुलसी का विक्रम संवत 1998 का चातुर्मासिक प्रवास राजलदेसर में हो रहा था। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन गुरुदेव तुलसी ने मालू जी को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की ।वह कार्तिक कृष्णा नवमी के दिन गुरुदेव ने 27 मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की । मालू जी सबसे ज्येष्ठ थी। साध्वी मालू जी ने 54 वर्ष 4 मास और 15 दिन तक संयम की आराधना की। विक्रम संवत 2052 फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन उन्होंने अनशन के साथ जीवन यात्रा को संपन्न किया।

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।

चोर आ गया-

महाप्रज्ञ मधुर भाषी हम ध्यान तेरा ध्याए, पल पल में तेरा भंते दीदार सदा पाएं।
तत्व प्रचेता महान साधक ज्योतिपुंज गुरुदेव महाप्रज्ञ जी को नमन करते हुए, "मेरे महावीर भगवान ग्रुप"(MMBG) आपके लिए ला रहा है ,महात्मा महाप्रज्ञ का जीवन चरित्र आचार्य महाश्रमण जी द्वारा रचित पुस्तक महात्मा महाप्रज्ञ से।

भारत की भूमि पर विभिन्न महापुरुषों ने जन्म लिया। उसी भूमि पर विभिन्न धर्म संप्रदाय प्रादुर्भूत हुए ,उनमें एक है जैन धर्म और इस जैन धर्म र्में अनेक प्रभावशाली आचार्य हुए हैं ।18वीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु हुए और उनके द्वारा प्रार्दुभावित संप्रदाय तेरापंथ। तेरापंथ के दशम अधिशास्ता आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी हैं ।राजस्थान प्रांत के झुंझुनू जिले के टमकोर गांव में हुआ। कृतिका नक्षत्र में श्रीमती बालू जी ने खुले आकाश में एक पुत्र रत्न को जन्म दिया ‌‌।
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चोर आ गया-

जब बालक का जन्म हुआ उसकी बुआ जड़ावबाई ने छत पर चढ़कर जोर से शोर मचाया - चोर आ गया चोर आ गया उनकी आवाज सुनकर चोरड़िया परिवार के पुरुष लाठी लेकर आ गए जब घर में आए तो उनको सही स्थिति की जानकारी दी गई कि जिस माता के बच्चे जीवित नहीं रहते उसके लिए ऐसा किया जाता है।

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आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

प्रतिक्रमण की अनुमति

कुछ दीनो बाद श्रीमती बालूजी ने अपने देवर से कहा — हमें आचार्यश्री के दर्शन करने हे । श्री पन्नालालजी बालूजी और * नथमल* को साथ लेकर गंगाशहर गए । उस समय तेरापंथ के अष्टम आचार्य पूज्य कालूगणि श्री लूणकरणजी चौपडा की हवेली में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे । तीनो ने पूज्यश्री के दर्शन किए । प्रवचन सुना । कार्यक्रम के मध्य खड़े होकर * नथमल* ने दीक्षा की प्राथना की । उधर बालूजी भी खड़ी हो गई और दोनो के लिए स्वीकृति माँगने लगी । अभिभावक के रूप में श्री पन्नालालजी भी प्राथना करने लगे ।
विक्रम सवंत १९८७ , कार्तिक महीने में दोनो को दीक्षा की प्रथम स्वीकृति ( साधु प्रतिक्रमण सिखने की अनुमति ) प्रदान कर दी ।

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महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

वेराग्य परीक्षा
बालक नथमल ने अपने बाबाजी श्री बालचंदजी के सामने अपनी भावना व्यक्त की । उस समय वे उसके अभिभावक थे ।
नथमल— में साधु बनना चाहता हु ।
श्री बालचंदजी— तुम काँच और कंघी हमेशा अपने पास रखते हो , फिर मुनि बनने के बाद केसे अपना मुँह देखोगे और केसे केशों को सँवारोगे ?
नथमल— पात्र में पानी रहेगा , उसे अपना मुँह देख लूँगा और केशों का तो लुँचन हो जाएगा ।
श्री बालचंदजी — साधु को तो पेदल चलना पड़ता हे , तुम केसे चलोगे ।
नथमल — में भी चार कोस चल सकता हु ।
श्री बालचंदजी— साधु बनने के बाद केशलुँचन कर लोगे ?
नथमल — में अभी कर के दिखा सकता हु ।
श्री बालचंदजी — तुम्हें दीक्षा दे देने से भाई तोलरामजी का वंश केसे चलेगा ?
नथमल — बाबाजी गोपीचंदजी का वंश केसे चलेगा ? महालचंदजी को कहा से लाओगे ?
नथमल के उत्तर सुनकर श्री बालचंदजी मौन रह गए । उनकी इच्छा साधु बनाने की नहीं थी , इसलिए ‘फिर सोचेंगे ‘- यह कहकर वे व्यपार के लिए परदेश चले गए ।

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महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

में मुनि बनना चाहता हूँ

बालक नथमल दीक्षा के लिए तैयार हो गया। दीक्षा की भावना का सम्बन्ध केवल वर्तमान के जीवन के साथ ही नहीं होता, पूर्वजन्म के संस्करो के साथ भी उसका गहरा अनुबन्ध होता हे । एक कारण यही हे की प्रौढ़ व्यक्ति भी मुनि दीक्षा के लिए तैयार नहीं होता और एक बालक भी दीक्षा के लिए तैयार हो जाता हे । इसमें नियति का भी अपना योगदान रहता हे । कालान्तर में अनेक पत्रकारों ने महाप्रज्ञ से पूछा — ‘आप मुनि केसे बने ?’ श्री महाप्रज्ञ ने कहा — ‘ बस कोई नियति थी । नियति इन तीन अक्षरों के अलावा मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं हे ।
बालक नथमल ने अपनी माँ से कहा —‘में मुनि होना चाहता हु ।’ माँ ने कहा —‘में साध्वी बनना चाहती ही थी , किन्तु तुम अभी छोटे हो , इसलिए मेने मौन रखा । पुत्र की वैराग्य भावना से माँ की दीक्षा का रास्ता भी साफ़ हो गया । माँ और पुत्र , दोनो भावनात्मक दृष्टि से एक हो गए । दोनो का लक्ष्य एक हो गया । अब अपेक्षा थी लक्ष्य की दिशा में क़दम बढ़ाने की ।

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आगम असम्मत कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छमि दुक्कडं

महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

मुनिश्री छबीलजी ने विक्रम सवंत १९८७ का चतुर्मास टमक़ोर मेन किया । उस समय बालक नथमल लगभग दस वर्ष की अवस्था मे था । मुनिश्री छबीलजी और उनके सहवर्ती मुनिश्री मूलचंदजी ( बिदासर) ने बालक को वेराग्यमयी प्रेरणा दी । बालक का अंत:करण झंकृत - सा हो गया और वह मुनि बनने का इच्छुक बन गया ।
सम्भावना की जा सकती हे की वेराग्य की भूमिका - निर्माण मे श्री महालचंदजी चोरडिया का देहावसान भी कुछ निमित बना हो । बालक नथमल के बाबा श्री गोपीचंदजी चोरडिया के एक ही पुत्र था - महालचंद । उनका लगभग पचीस वर्ष की युवावस्था मे अचानक स्वर्गवास हो गया । परिवार दुःखी हो गया । बालक नथमल को भी बहुत दुःख हुआ । क्योंकि वे नथमल से बहोत स्नेह रखते थे । बालक के अंतर्मन मे एक चोट लगी । जीवन की अस्थिरता की छाप भावपट्ट पर अमिट रूप से अंकित हो गई ।

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आगम असम्मत कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं

महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

द्रितीय दशक

वेराग्यमयी प्रेरणा
मुनिश्री छबीलजी ( सुधरी ) तेरापंथ धर्मसंघ में एक विशिष्ट संत हुए हे । उन्होने तेरापंथ के छह आचार्यों की सेवा करने का सोभाग्य प्राप्त किया । वे विक्रम सवंत १९२८, माघ शुक्ला दशमी के दिन लगभग नौ वर्ष की अविवाहित अवस्था में माता दोलाजी के साथ श्रीमज्जयाचार्या के करकमलो से दीक्षित हुए और विक्रम सवंत २००२ , श्रावण शुक्ला द्रीतीया को अनशन की अवस्था में आचार्यश्री तुलसी के शासनकाल में समाधिमरण का वरण किया । उन्होंने आठ आचार्यों ( आचार्य भारमलजी से आचार्य तुलसी तक ) द्वारा दीक्षित साधु - साध्वियों को अपनी आँखो से देखा । उनका संयम - जीवन बहुत निर्मल था । ब्रभ्रमचर्य विशिष्ट था । उन्होंने श्रीमज्जयाचार्य की सेवा का सोभाग्य प्राप्त किया । विक्रम सवंत १९३६ में श्रीमज्जयाचार्य व्रुद्धावस्था के कारण ‘ सुखपाल ‘ द्वारा जयपुर पधारे । सुखपाल को उठाने वाले चार साधु थे - मुनिश्री मायाचंदजी ( पेटलावद) , मुनिश्री रामसुखाजी ( जसरासर ) , मुनिश्री छबीलजी और मुनिश्री इशरजी ( बीकानेर )

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आगम असम्मत कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छमि दुक्कमं

महात्मा महाप्रज्ञ, लेखक :- आचार्य श्री महाश्रमण

मेरा सहक्रिडक बालक मूलचंद चोरडिया गणित में अच्छा था । यदि उसे निमित मिलता तो वह दुनिया का विशिष्ट गणितज्ञ बन जाता
श्री महालचंद चोरडिया ( सुपुत्र श्री गोपीचंदजी चोरडिया ) प्राणगंज से आए । वे मेरे लिए घड़ी व टॉर्च लाए थे । में टॉर्च जलाकर दिखता व घड़ी बाँधकर समय बताता ।
विक्रम सवंत २०६३, भिवानी चतुर्मास । श्रावण कृष्ण अमावस्या । श्री महाप्रज्ञ ने मातुश्री बालूजी की वार्षिकी के दिन व्यक्तिगत बातचीत के दौरान मुझे बताया कि मातुश्री बालूजी मुझे शिक्षा देती थी की कभी बाईयों के चक्कर में मत पड़ना ।
सरदारशहर में जब में ननिहाल में रहता था । एक बार वर्षा के कारण ख़ूब पानी वह रहा था । उस समय मेने बड़ी मुश्किल से उस गली को पार किया ।

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श्री महालचंद चोरडिया ( सुपुत्र श्री गोपीचंदजी चोरडिया ) प्राणगंज से आए । वे मेरे लिए घड़ी व टॉर्च लाए थे । में टॉर्च जलाकर दिखता व घड़ी बाँधकर समय बताता ।
विक्रम सवंत २०६३, भिवानी चतुर्मास । श्रावण कृष्ण अमावस्या । श्री महाप्रज्ञ ने मातुश्री बालूजी की वार्षिकी के दिन व्यक्तिगत बातचीत के दौरान मुझे बताया कि मातुश्री बालूजी मुझे शिक्षा देती थी की कभी बाईयों के चक्कर में मत पड़ना ।
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श्री महाप्रज्ञ ने कहा
श्री तोलरामजी एक अच्छे व्यक्ति थे। सुन्दर आकृति वाले , लड़ाई - झगडे से बचकर रहने वाले और उदार व्यवहार वाले थे । वे क्षत्रिय जेसे लगते थे । लगता हे उनको कुछ पूर्वाभास हो गया था। उन्होंने एक दिन मेरी संसारपक्षिया माँ श्रीमती बालूजी से कहा - ‘ तुम एक पुत्र को जन्म दोगी , पर में नहीं रहूँगा । बालूजी तत्काल बोल उठी एसा बेटा मुजे नहीं चाहिए , जिसके आने पर आप ना रहे ‘। श्री तोलरामजी का यह पूर्वाभास कुछ समय बाद ही सत्य साबित हो गया ।
मेरे संसारपक्षीय दादा श्री बीज़राजजी चोरडिया कहा करते थे की हमारे परिवार में दो एसे व्यक्तित्व होंगे, जो विशिष्ट कार्य करेंगे । में और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा , हम दोनो ही उस परिवार के सदस्य हे ।
जन्म के बाद दो- तीन वर्ष तक मुजे अन्न ही नहीं गया था । दूध और फल पर ही रखा गया था । एसे बालूजी ( संसारपक्षीय माँ ) कहा करती थी । साध्वी मालूजी (संसारपक्षीय बहन ) भी कहा करती थी की इससे हड्डियाँ मज़बूत बनती हे ।

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कोलकत्ता में पहली बार
बालक नथमल * लगभग नौ वर्ष का था । मेमनसिंह ( वर्तमान में बांग्लादेश ) में उसकी चचेरी बहन ( माँ की पालित पुत्री ) नानुबाई का विवाह था । उसमें सम्मिलित होने के लिए वह अपने स्वजन वर्ग के साथ जा रहा था । बीच में अपनी भुआ के घर ठहरा । शादी के लिए कुछ चीज़ें ख़रीदनी थी । बालक *नथमल के चाचा श्री पन्नलालजी और दुकान के मुनिम सूरजोजि ब्रहामन समान ख़रीदने के लिए बाज़ार जा रहे थे । नथमल भी उनके साथ हो गया । वह पहली बार ही कोलकत्ता आया था । उसे यहाँ का वातावरण बड़ा विचित्र - सा लग रहाँ था।श्री पन्नलालजी और दुकान के मुनिम ने समान ख़रीदा और आगे बढ़ गए । नथमल अकेला पीछे रह गया । मार्ग में अपरिचित बालक इधर उधर झांकने लगा । उस विकट वेला में उसने अपने हाथ की घड़ी खोली , गले में से स्वर्णसूत्र निकला और दोनो को जेब में रख लिया। वह पीछे मुड़ा और अज्ञात मार्ग की और चल दिया । सोभाग्यवश यथास्थान पहुँच गया । उसने आपबीती सारी घटना माँ को सुनाई तो वे अवाक् सी रह गई । तत्काल उनके मुख से निकला - यह सब ( पुत्र का यथास्थान पहुँच जाना ) भीखणजी स्वामी के प्रताप से हुआ हे। नहीं तो इतने बड़े शहर में न जाने क्या घटित होता ? ज्ञातव्य हे की श्री पन्नलालजी का नथमल के प्रति बहुत स्नेहभाव था वे उसका बहुत ध्यान रखते थे । नथमल को पैसे भी देते थे ।
वेराग्य - भाव
श्री गोपीचंदजी चोरडिया की पुत्री छोटिबाई ( साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी की संसारपक्षीय माँ ) की शादी का प्रसंग था। टमक़ोर से लाडनू आते समय छोटीबाई का भाई नथमल साथ आया। वे लाडनू पहुँचे । यह परम्परा रही हे की की बहीन को ससुराल पहुचाने के लिए भाई साथ जाता हे । पारिवारिक लोग तत्रस्थ सेवाकेन्द्र में साध्वियों के दर्शनाथ गए । अन्यजन ऊपर चले गए । नथमल नीचे ही खड़ा रह गया । उस समय बालक नथमल आत्माविभोर हो गया और उसके मानस में वैराग्य भाव का संचार हुआ।

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सातवाँ दिन आया । पड़ोस में रहने वाले अग्रवाल परिवार का आठ वर्षीय लड़का काल- कवलित हो गया । इस दुःखद घटना के घटते ही उस तेलिये को ढूँढा गया , लेकिन उसका कही आता पता नहीं मिला । उसके दूसरे दिन श्री हरकचंदजी की धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया । तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणिया सच हो गई ।
बालूजी की बड़ी पुत्री मालीबाई का विवाह हो चुका था । बालूजी अपने पुत्र * नठमल* के साथ सन्यास पथ पर अग्रसर हो गई । अकस्मात् एक दुर्घटना घटी । बालूजी के दामाद ( मालूजी के पति ) का देहांत हो गया । मालीबाई का मन संसार से उद्रिग्न हो गया । संयम पथ पर चलने का निश्चय प्रबल बन गया । वे तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवजित होकर साध्वी मालूजी बन गई । माँ बेटी के अलग हुए रास्ते पुनः एक बन गए । पूज्य गुरुदेव ने साध्वी बालूजी की सेवा में साध्वी मालूजी को नियोजित किया । साध्वी मालूजी ने अंतिम समय तक अपनी संसारपक्षिया माँ साध्वी बालूजी की सेवा की । तेलिये की तीसरी भविष्यवाणी कसौटी पर चढ़ गई ।
५ फ़रवरी ,१९९५ को साध्वी बालूजी के संसारपक्षीय पुत्र श्री महाप्रज्ञ तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य बन गये । तेलिये द्वारा की चोथी भविष्यवाणी भी कूतार्थ हो गई ।

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तेलिया की भविष्यवाणी
प्रसंग उस समय का हे , जब बालक नठमल लगभग आठ वर्ष का था। वह अपने घर के आहते में साथियों के साथ खेल रहा था । उसी समय एक तेलिया आया । उसने बालक को देखा और घर के भीतर चला गया। माँ बालूजी कुछ बहनो के साथ बातचीत कर रही थी । तेलिये ने राजस्थानी भाषा में कहा - माँजी ! तेल घाल दियों। बालूजी ने एक बहन को तेल लाने का निर्देश दिया । वह रसोई घर में गई ।इस बीच तेलिये ने कहा माँ तू बड़ी भागवान हे । बाखल ( घर के आहते ) में जिको थारो बालक खेल रियो हे , वो बड़ों पुणवन हे । बालूजी ने कहा यदि में भागवान होती तो म्हारा “घरवाला “ क्यू जाता? तेलिये ने कहा - थारो लड़कों , जिको बाखल में खेलें हे , वो एक दिन राजा बनसी । बालूजी का चहेरा खिल उठा । आसपास की बहनो को उसकी बातों में रस आने लगा । उन्होने उससे पूछा - अच्छा और कई बतावे हे ? तेलिये ने एक बहन की और इशारा करते हुए कहा - आ बहन गर्भवती हे । आज स्यू आठवें दिन ईरे लड़कों हूसी । वह बहन हरकचंद चोरडिया की धर्मपत्नी थी । तेलिये ने बालूजी की तरफ़ मूड कर कहा माँजी ! थारी बड़ी बेटी थारी सेवा करसी । बालूजी ने कहा -वो तो पराए घर जासी , मारी सेवा किया करसी ? चोथी बार तेलिये ने एक दुखद बात कह डाली - सातवें दिन थारे एक पड़ोसी रे लड़के की मौत होसी । बहिनो को ये बात बहुत अप्रिय लगी । उन्हें लगा यह आदमी ठीक नहीं हे । यहाँ से जितनी जल्दी चला जाए अच्छा हे । तेलिये ने स्थिति को समझा , अपने पात्र में तेल का दान लेकर वहाँ से प्रस्थित हो गया ।

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देव - मान्यता
संसार में विभिन्न देव और देवियाँ प्रतिष्ठित हे । वे भिन्न- भिन्न लोगों की आस्था के केन्द्र भी बने हुए हे । श्री *महाप्रज्ञ * के संसार पक्षीय परिवार में बाबा रामदेव की मान्यता थी। इसलिय वे उनके मुख्य केन्द्र रुणेचा भी गए ।

*क्रोध को क्षमा की और*
सन्त वह होता हे जो शान्त होता हे। काम, क्रोध, अहं, लोभ आदि नेषेधात्मक भावो की दीमक सन्तता की पोथी को चट कर जाती हे। ये भाव एक बालक में भी हो सकते हे । बालक नठमल को बचपन में ग़ुस्सा आता था। उस अवस्था में वह कभी खाना नहीं खाता , पढ़ाई बन्द कर देता , बोलना भी बन्द कर देता। वह ख्म्भा पकड़कर, दरवाज़ा पकड़कर खड़ा हो जाता, किसी की बात नहीं सुनता। पारिवारिक लोग मनाकर थक जाते, किन्तु वह तभी मानता, जब कड़कड़ाती भूख लग जाती ।
कालान्तर में ज़मीन- आसमान का- सा अन्तर आ गया। ज्यों- ज्यों विवेक जागृत हुआ, ज्ञान का विकास हुआ, त्यों- त्यों ग़ुस्सा नियन्त्रित होता चला गया ।
एक बार श्री महाप्रज्ञ ने कहा- मुँझे दीक्षा के बाद ग़ुस्सा कितनी बार आया, यह अंगुलियो पर गिना जा सकता हे। पचहतर वर्षों में सम्भवतःपचहतर बार भी नहीं आया ।

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महात्मा महाप्रज्ञ

भाग्य खुल गया

अकसर छोटे बच्चे चंचल होते हे । बालक नठमल भी उसका अपवाद नहीं था ।एक दिन उसने बालसुलभ चपलता के अनुरूप अपनी आँखो पर पट्टी बांधी और चलने लगा।थोड़ा - चला और दीवार से टकरा गया।ललाट पर चोट लग गई । ख़ून बहने लगा। बच्चे के लिए माँ सबसे बड़ा आलम्बन होती हे । वह रोता - रोता माँ के पास गया । उसी दिन उसकी बहन पारीबाई की शादी थी। इसलिय पारिवारिकजन उसमें लगे हुए थे । किसी ने बालक की और ध्यान नहीं दिया , पर माँ ध्यान केसे नहीं देती ? कुछ उलाहना दिया , कुछ पुचकारा , पट्टी बाँध दी , ठीक हो गया । आज तुम्हारा भाग्य खुल गया यह कह कर उसका दर्द दूर किया ।
वह अंकित था
बालक नठमल अपने साथियों के साथ कई प्रकार के खेल खेला करता था । ज़ेसे - कबड्डी , दियासलाई से टेलीफ़ोन बनाना , तिनके का धनुष बनाना , पेड़ के रस्सी बाँधकर झूला झूलना । एक बार खेलते समय कोई नाम गोदने वाला व्यक्ति आया। बालकों ने अपने हाथ पर नाम गुदवाए । नठमल ने भी अपने दाँए हाथ पर नठमल चोरड़िया नाम गुदवाया, अन्तिम समय तक उनके हाथ में अंकित था ।

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महात्मा महाप्रज्ञ

आकाश - दर्शन
बालक नठमल में आकाश को पढ़ने का शुरू से ही आकर्षण था। अपने घर में सोया सोया वह सामने वाली दीवार पर देखता रहता था। श्री गोपीचंदजी की हवेली में ऊपर ‘मालीये’ में चला जाता और खिड़की से घंटो तक आकाश को देखता रहता।बालक को उसमें नई- नई चीज़ें दिखाई देती।
गाय का दूध
घर के प्रवेश के रास्ते पर गाय बँधती थी । पारीबाई गाय को दुहती थी । बालक नठमल प्याला लेकर पारीबाई के पास बैठ जाता । वह गाय को दुहती जाती और बालक नठमल दूध पीता जाता ।
अध्ययन
टमक़ोर एक छोटा सा गाँव हे। उस समय तो वह उनके सुविधाओ से वंचित था । राजकीय विधालय भी वहाँ नहीं था । सम्भवतः यही कारण रहा होगा की बालक नठमल को राजकीय विधालय के अध्ययन से वंचित रहना पड़ा । आर्यसमजी गुरुजी श्री विष्णुदत शर्मा की पाठशाला में वर्णमाला और पहाड़े पढ़े। कुछ अध्ययन अपने ननिहाल सरदारशहर में श्री नेमिनाथ सिद्ध के पास किया बालक अपने ननिहाल में कभी दो महीने तो कभी छह महीने तक भी रहा करता था।
बालक नठमल के नाना श्री हीरालालजी बच्छावत थे। यह परिवार पहले चुरु और सरदारशहर के बीच स्थित खीयासर गाँव में रहा करता था । बालक को अपने ननिहाल खीयासर में भी जाने का मौक़ा मिला।कालांतर में बच्छावत परिवार सरदारशहर में स्थानान्तरित हो गया । इसलिए बालक को सरदारशहर में भी रहने का काफ़ी मौक़ा मिला ।

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महात्मा महाप्रज्ञ

मातृत्व का वैशिष्टय
जब बालक लगभग ढाई मास का हुआ तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया । उस समय परिवार में पीछे चार सदस्य थे - माँ बालूजी , बड़ी पुत्री माली बाई , छोटी पुत्री पारीबाई और पुत्र * नठमल। श्री तोलरामजी के स्वर्गवास के कुछ समय बाद श्रीमती बालूजी अपनी माँ के पास चली गई । बालक *नठमल जब ढाई वर्ष का हुआ, तब बालूजी अपनी संतान के साथ वापस टमक़ोर आ गई ।
उस समय सब चीज़ें सस्ती थी । पास में कुछ संसाधन था और दुकान भी चलती थी । भरण पोषण में कोई आर्थिक संकट नहीं आया , किन्तु परिवार में पिता का ना होना अपनेआप में एक बड़ा संकट था ।माँ बालूजी ने इस संकट का अनुभव अपनी संतान को नहीं होने दिया , यह उनके मातृत्व का वैशिष्टय था। माता बालूजी धार्मिक विचारों वाली महिला थी । प्रतिदिन प्रायः पश्चिम रात्रि में जल्दी उठकर सामयिक करती तथा तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जितमलजी द्वारा रचित चोबीसी , आराधना और तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के स्तुति - भजनो का संगान करती थीं । बालक नठमल सोए सोए भजनो को सुना करता था । संत भिखणजी रो समरण कीजे गीत के बार बार श्रवण से बालक के मन में आचार्य भिक्षु के प्रति श्रधा का भाव उत्पन हो गया ।
माँ बालूजी बालक नठमल को संस्कारी बनाने में बहुत सजग थी। जब तक बालक साधुओं , साध्वियों के दर्शन नहीं कर लेता , प्रायः उसे प्रातराश नहीं करती , सत्यवादिता पर बल दिया करती और जप करना सिखाती थीं ।

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वंश- परम्परा

कालान्तर में पहली पुत्री मालूज़ी के जीवन में एक नया मोड़ आया। वे अठारह वर्ष की हुई , तभी उनके पति का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात मालूज़ी की दीक्षा लेने की भावना प्रबल होने लगी , किन्तु श्वसुर पक्ष वालों ने किसी आशंका के कारण उनको दीक्षा की अनुमती नहीं दी । बाद में वो आशंका निर्मूल हो गई , तब ससुराल की और से उन्हें दीक्षा के लिए लिखित आज्ञा मील गई । फिर दीक्षा प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं रहा । श्री महाप्रज्ञ ने भी गुरुदेव तुलसी से उनकी दीक्षा की प्राथना की ।
पूज्य गुरुदेव तुलसी का विक्रम सवंत १९९८ का चातुर्मासिक प्रवास रजलदेसर में हो रहा था। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन गुरुदेव तुलसी ने मालूज़ी को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की। दीक्षा में दो दिन शेष थे । कार्तिक कृष्णा नवमी के दिन गुरुदेव तुलसी ने सताईस ममुक्षुओ को दीक्षा प्रदान की।उनमें चार भाई और तेइस बहने थी । इन बहनो में मालूजी सबसे ज़ेयस्ठ थी । साध्वी मालूजी ने चोपन वर्ष चार मास और पंद्रह दिन तक संयम की आराधना की । विक्रम सवंत २०५२ , फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन उन्हो ने अनशन के साथ जीवन - यात्रा को सम्पन्न किया ।

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वंश - परम्परा

श्री बीजराजजी चोराडिया के चार पुत्र थे -
१- श्री गोपीचंदजी २ श्री तोला रामजी ३ श्री बालचंदजी ४ श्री पन्नालालजी । इन चारों ही भाइयों की वंश - परम्परा में जन्मी सन्ताने तेरापंथ संघ में दीक्षित हुई । श्री गोपीचंदजी चोराडिया की दोहित्रिया साध्वी मंज़ूलाजी( गणमुक्त ) ,साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी । श्री तोलारामजी चोराडिया के सपुत्र आचार्य महाप्रज्ञ एवं सपुत्री साध्वी मालूज़ी। श्री बालचंदजी चोराडिया की पुत्री साध्वी मोहनाजी ( गणमुक्त )। श्री पन्नालालजी चोराडिया की पुत्री साध्वी कमलश्रीजी ।
श्री तोलारामजी चोराडिया के कुल पाँच सन्ताने हुई - तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ । तीन पुत्र में से दो पुत्र तो लघुवय में ही पंचत्व को प्राप्त हो गए , जिनमे से एक का नाम गोरधन बताया जाता हे और एक का नाम अज्ञात हे । शायद उसका नामकरण हुआ ही ना हो । तीसरा पुत्र नठमल नाम से पहचाना गया । बड़ी पुत्री मालीबाई की शादी चुरु निवासी श्री सुआमलजी बैद के पुत्र श्री चम्पालालजी बैद के साथ और दूसरी पुत्री प्यारा ( पारी) बाई की शादी बिदासर निवासी श्री केसरीमलजी बोथरा के पुत्र श्री मेघराजजी बोथरा के साथ हुई ।

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महात्मा महाप्रज्ञ

जन्म
राजस्थान प्रान्त।झुंझुनूं ज़िला । टमक़ोर ( विष्णुगढ़ ) नामक गाँव। विक्रम सवंत 1977,आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी( 14 जून ,1920)का दिन । गोधूली वेला । 17.09 बजे स्थानिक समय सायं लगभग 4.40 बजे। सोमवार कृतिका नक्षत्र में श्रीमती बालूजी ने खुले आकाश में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया ।
चोर आ गया
जब बालक का जन्म हुआ , उसकी बुआ जड़ावबाई ने छत पर चढ़कर ज़ोर से शोर मचाया - चोर आ गया चोर आ गया। उनकी आवाज़ सुनकर चोराडिया परिवार के पुरुष लाठी लेकर आ गए। जब घर में आए तो सही स्थिति की जानकारी दी गई की जिस माता के बच्चे जीवित नहीं रहते, उसके लिए एसा किया जाता हे ।
नामकरण
नामकरण संस्कार के अंतर्गत बालक का नाम ‘इंद्रचंद’रखा गया, किंतु वह व्यवहार में नहीं आया। फिर उसे परिवर्तन कर ‘ *नठमल‘ रखा गया। उसका कारण यह था की शिशू के दो अग्रज अल्प अवस्था में ही काल कवलित हो गए थे। इसलिए वर्तमान शिशू को दिर्धजीवी बनाने के लिए उसका नाक बींधकर उसमें नथ पहनाई गई । नथ पहनाने के कारण बालक का नाम नठमल रखा गया

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"महात्मा महाप्रज्ञ“

प्रथम दशक
भारत की भूमि पर विभिन्न महापुरुषों ने जन्म लिया। उनमें भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध , श्रीराम , श्रीकृष्ण आदि प्रमुख हे । उन्होंने स्वयं को ऊपर उठाया , महनीय साधना की,गहन अनुभव प्राप्त किया और अपने अनुभव वैभव के आधार पर दुनिया को भी कुछ देने का प्रयास किया। संसार उनके अवदानो से उपक्रुत हुआ ।
उसी भूमि पर विभिन्न धर्म सम्प्रदाय प्रदुभूत हुए । उनमें एक हे — जैनधर्म।उसका सम्बन्ध भगवान ऋषभ आदि चौबीस तीर्थकरो के साथ हे । उनमें अंतिम और चौबीसवे तीर्थकर हे भगवान महावीर। उनके बाद जैनधर्म में अनेक प्रभावशाली आचार्य हुए हे। अठारहवीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु हुए,जिनका नाम जैनधर्म के क्रांतिकारी आचार्यों में गिना जाता हे। उनके द्वारा प्रादुभावित सम्प्रदाय तेरापंथ नाम से प्रख्यात हे। उसके नवम आचार्य अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी हुए, जो भारत के प्रख्यात धर्मगुरु थे। उनके उत्तराधिकारी और तेरापंथ के दसम अधिशास्ता आचार्यश्री महाप्रज्ञ हुए। उन्होंने अपने ज्ञान और साधना के द्वारा जनमानस को प्रभावित किया । वे जैनधर्म के एक प्रभावशाली आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए ।

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