ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे.......
चैत्य वास के पूर्व गण, कुल और शाखाओं का प्राचुर्य होते हुए भी उनमें पारस्परिक विग्रह या अपने गण का अहंकार नहीं था ।वे प्रायः अविरोधी थे ।अनेक गण का होना व्यवस्था- सम्मत था। गणों के नाम विभिन्न कारणों से परिवर्तित होते रहते थे। भगवान महावीर के उत्तराधिकारी सुधर्मा के नाम से गण का नाम सोधर्म -गण कहा गया।समन्तभद्रसूरि ने वनवास स्वीकार किया, इसलिए उसे वनवासी गण कहा गया ।
चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष संविग्न , विधि- मार्ग या सुविहितमार्ग कहलाया और दुसरा पक्ष चैत्य वासी।
स्थानकवासी
इस संप्रदाय का उद्भव मूर्ति- पूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोंकाशाह ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और आचार की कठोरता का पक्ष प्रबल किया। वे ग्रहस्थावस्था में ही थे ।इनकी परंपरा में ऋषि लवजी, आचार्य धर्मसिंह जी और आचार्य धर्मदास जी प्रभावशाली आचार्य हुए। आचार्य धर्मदास जी के निन्यानवें शिष्य थे ।उन्होंने अपने विद्वान शिष्य को बाईस भागों में बांटा और विभिन्न प्रांतों में उन्हें धर्म प्रचार करने के लिए भेजा। इसके बाद लोकांशाह का संप्रदाय बाईस टोला या बाईस सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।आगे चलकर स्थानकों की मुख्यता के कारण यही "स्थानकवासी' संप्रदाय के नाम से पहचाने जाने लगा ।वर्तमान में इनका नाम 'श्रमण संघ' कर दिया गया है और यह भी अनेक विभागों में विभक्त दिखाई देता है।
तेरापंथ
स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य 'संत भीखणजी' आचार्य भिक्षु ने विक्रम संवत 1817 में तेरापंथ धर्म का प्रवर्तन किया। आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और संगठन पर बल दिया। एक सुत्रता के लिए उन्होंने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया, शिष्य-प्रथा को समाप्त कर दिया। थोड़े ही समय में एक आचार्य, एक अचार और एक विचार के लिए तेरापंथ प्रसिद्ध हो गया। आचार्य भिक्षु आगम के अनुशीलन द्वारा कुछ नए तत्वों को प्रकाश में लाए। सामाजिक भूमिका में उस समय कुछ अपूर्व- से लगे। आध्यात्मिक दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान है। कुछ तथ्य वर्तमान समाज के पथ-दर्शक बन गए हैं।
दिगम्बर
दिगम्बर परंपरा भी एक रुप नहीं रही। वह अनेक संघों में विभक्त हो गई ।उसमें मूल पांच संघ है -- मूल संघ, यापनीय संघ ,द्राविड़ संघ, काष्ठा संघ और माथुर संघ। वर्तमान में उसके कई सम्प्रदाय है तेरापंथ,बीसपंथ तारणपंथ आदि।
ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे••••
3.भगवान महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा
आर्य जम्बूकुमार
ये राजगृह-निवासी सेठ ऋषभदत के पुत्र थे।इनकी माता का नाम धारिणी था।इनका जन्म विक्रम पूर्व 486 में हुआ था। इनका लालन-पालन अपार वैभव के बीच हुआ।जब आर्य जम्बूकुमार सोलह वर्ष के हुए तब आठ रूपवती कन्याओं के साथ इनका विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। दहेज में इनको निन्यानबे करोड़ की संपत्ति प्राप्त हुई।उसी दिन प्रभव नाम का प्रसिद्ध चोर अपने पांच सो साथियों के साथ चोरी करने वहीं आया। जम्बूकुमार उस समय अपनी रुपसी पत्नियों के साथ वैराग्यमय वार्तालाप कर रहे थे।चोर प्रतिबुद्ध हुआ।उसने अपने साथियों को प्रतिबुद्ध किया। इस प्रकार आर्य जम्बु विक्रम पूर्व 469 मे 527 व्यक्तियों के साथ (अपने माता-पिता,आठों पत्नियों तथा उनके माता-पिता,पांच सो चोर और चोरपति प्रभव तथा स्वयं) सुधर्मा के पास दिक्षित हों गये ।उस समय उनकी आयु सोलह वर्ष की थी। अठाईस वर्ष की आयु में ये आचार्य बने और
छतीस वर्ष की आयु में इन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। ये चरम शरीरी थे। इनका पूरा आयुष्य 80 वर्ष का था। चौसठ वर्ष के श्रमण-पर्याय में ये चंवालीस वर्ष तक युगप्रधान आचार्य के रूप में रहे। ये इस युग के अन्तिम केवली थे। इनका निर्वाण विक्रम पूर्व 406 में हुआ।
आचार्य जम्बु के साथ-साथ केवलज्ञान की परम्परा विछिन्न हो गई। यहां से श्रुतकेवली--चतुर्दशपूर्वी की परम्परा चली। छह आचार्य श्रुतकेवली हुए--प्रभव, शंय्यभव, यशोभद्र, संभूतविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र।
स्थूलभद्र के पश्चात् चारपुर्व नष्ट हो गये। वहां से दसपूर्वी की परम्परा चली--1. महागिरी,2. सुहस्ती, 3. गुणसुन्दर, 4. कालकाचार्य, 5. स्कन्दिलाचार्य, 6. रेवतिमित्र,7. मंगु, 8. धर्म, 9. चन्द्रगुप्त,10. आर्यवज्र
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः l
9. सुक्ष्म भस्त्रिका
सुखासन की मुद्रा में बैठे l कार्योत्सर्ग करें, 1 या 2 मिनट के अभ्यास में शरीर पूर्ण शिथिल हो जाएं l
रीड की हड्डी सीधी रहे l
अब पूरक (श्वास लेने) और रेचक (श्वास छोड़ने) की प्रक्रिया शुरू करें l
पूरक की अपेक्षा रेचन की प्रधानता रहे l
शरीर हिले-डुले नहीं, पूर्ण स्थिर रहे l
स्थिरता की अवस्था में सूक्ष्म रूप से श्वास-प्रश्वास (पूरक रेचक) चलता रहे l
ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे••••
3.भगवान महावीर की उत्तरवर्ती परम्परा
गणधर गौतम
इनका मूल नाम इन्द्रभूति था। ये गोब्बर ग्रामवासी गौतम-गोत्रीय ब्राह्मण के पुत्र थे।ये पचास बर्ष की अवस्था में प्रव्रर्जित हुए और भगवान महावीर के प्रथम गणधर बने।
तीस वर्ष तक ये भगवान महावीर के साथ क्षद्मस्थ अवस्था में ग्रामानुग्राम विहार करते हुए धर्म का प्रचार करते रहे। जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुआ, उस समय ये प्रतिबोध देने के लिए दुसरे गांव गए हुए थे। निर्वाण की सूचना मिलते ही ये से शोक विह्वल हो गए। चिन्तन की धारा मुड़ी और वे केवली हो गए। उस समय उनकी अवस्था अस्सी वर्ष की थी। वे केवलज्ञानी के रूप में भगवान महावीर के बाद बारह वर्ष तक रहें और बानवें बर्ष की आयु समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो गए।
गणधर सुधर्मा
दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि भगवान महावीर के प्रथम उतराधिकारी गौतम थे। श्वेतांम्बर परम्परा का अभिमत है कि केवली कभी किसी परम्परा का वाहक नहीं होता। गौतम केवली हो चुके थे। सुधर्मा के अतिरिक्त शेष नौ गणधर भगवान की उपस्थिति में निर्वाण को प्राप्त हो चुके थे। इसलिए संघ के संचालन का भार गणधर सुधर्मा पर आया और वे भगवान महावीर के प्रथम उतराधिकारी हुए। उनका जन्म विक्रम संवत पूर्व 550 में कोल्लाग सन्निवेश के अग्निवेश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण धम्मिल के वहां हुआ। उनकी माता का नाम भद्दिला था। उनका सम्पूर्ण आयुष्य सौ वर्ष का था। वे पचास वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए,बयांलीस वर्ष तक क्षद्मस्थ अवस्था में (तीस वर्ष तक भगवान के पास और बारह वर्ष तक भगवान के निर्वाण के बाद) और आठ वर्ष तक केवलज्ञानी की अवस्था में रहें। वे वैभारगिरी (राजगृह) पर एक मास का अनशन कर वीर निर्वाण 20 (वि पूर्व 450) में निर्वाण को प्राप्त हुए।
ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे••••
भगवान के प्रधान शिष्य गौतम भिक्षा के लिए जा रहे थे। लोगों में शिव राजर्षि के सिद्धांत की चर्चा सुनी। वे भिक्षा लेकर लौटे। गौतम ने पूछा --'भगवन! द्वीप समुद्र कितने हैं?' भगवान ने कहा-- 'असंख्य है'।गौतम ने उसे प्रचारित किया। यह बात शिव राजर्षि तक पहुंची। वह संदिग्ध हुआ और उसका विभंग-ज्ञान लुप्त हो गया। वह भगवान के समीप आया, वार्तालाप कर भगवान का शिष्य बन गया ।
उद्रायण सिंन्धु -सौवीर आदि सोलह जनपदों का अधिपति था।दस मुकुटबद्ध राजा इसके अधीन थे।भगवान लंबी यात्रा कर वहां पधारें।राजा ने भगवान के पास मुनि- दीक्षा ली।
वाराणसी के राजा शंख के बारे में कोई विवरण नहीं मिलता।अंतकृतदशा आगम के अनुसार भगवान ने राजा अलक को वाराणसी में प्रव्रज्या दी थी ।संभव है उसी का दूसरा नाम है।
उस युग में शासक-सम्मत धर्म को अधिक महत्व मिलता था।इसलिए राजाओं का धर्म के प्रति आकृष्ट होना उल्लेखनीय माना जाता है ।जैनधर्म में समाज को केवल अपना अनुगामी बनाने का यत्न नहीं किया, वह उसे व्रती बनाने के पक्ष पर भी बल देता रहा। शाश्वत सत्यों की आराधना के साथ-साथ समाज के वर्तमान दोषों से बचने के लिए भी जैन श्रावक प्रयत्नशील रहते थे। चारित्रिक उच्चता के लिए भगवान महावीर ने जो आचार- संहिता दी, वह समाज में मानसिक स्वास्थ्य का वातावरण बनाए रखने में सक्षम है।
ऊं श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे••••
भगवान के प्रधान शिष्य गौतम भिक्षा के लिए जा रहे थे। लोगों में शिव राजर्षि के सिद्धांत की चर्चा सुनी। वे भिक्षा लेकर लौटे। गौतम ने पूछा --'भगवन! द्वीप समुद्र कितने हैं?' भगवान ने कहा-- 'असंख्य है'।गौतम ने उसे प्रचारित किया। यह बात शिव राजर्षि तक पहुंची। वह संदिग्ध हुआ और उसका विभंग-ज्ञान लुप्त हो गया। वह भगवान के समीप आया, वार्तालाप कर भगवान का शिष्य बन गया ।
उद्रायण सिंन्धु -सौवीर आदि सोलह जनपदों का अधिपति था।दस मुकुटबद्ध राजा इसके अधीन थे।भगवान लंबी यात्रा कर वहां पधारें।राजा ने भगवान के पास मुनि- दीक्षा ली।
वाराणसी के राजा शंख के बारे में कोई विवरण नहीं मिलता।अंतकृतदशा आगम के अनुसार भगवान ने राजा अलक को वाराणसी में प्रव्रज्या दी थी ।संभव है उसी का दूसरा नाम है।
उस युग में शासक-सम्मत धर्म को अधिक महत्व मिलता था।इसलिए राजाओं का धर्म के प्रति आकृष्ट होना उल्लेखनीय माना जाता है ।जैनधर्म में समाज को केवल अपना अनुगामी बनाने का यत्न नहीं किया, वह उसे व्रती बनाने के पक्ष पर भी बल देता रहा। शाश्वत सत्यों की आराधना के साथ-साथ समाज के वर्तमान दोषों से बचने के लिए भी जैन श्रावक प्रयत्नशील रहते थे। चारित्रिक उच्चता के लिए भगवान महावीर ने जो आचार- संहिता दी, वह समाज में मानसिक स्वास्थ्य का वातावरण बनाए रखने में सक्षम है।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे..
चेटक
वैशाली अठारह देशों का गणराज्य था। इसके नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी-- ये अठारह सदस्य-- नृप थे। उनमें प्रमुख महाराजा चेटक थे। ये हेहय कुल के थे। इनके पिता का नाम 'केक' और माता का नाम'यशोमती' था । त्रिशला इनकी बहन थी। इनका पूरा परिवार भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का अनुयायी था। वे भगवान महावीर के मामा थे। जैन -श्रावकों में उनका प्रमुख स्थान था। वे बारह व्रती श्रावक थे। उनके सात कन्याएं थीं। चेटक के सभी जमाता प्रारंभ से ही जैन थे। श्रेणिक पीछे जैन बन गया।
अपने दौहित्र कोणिक के साथ चैटक का भीषण संग्राम हुआ।संग्राम भूमि में भी अपने व्रतों का पालन करते थे। अनाक्रमणकारी पर प्रहार नहीं करते थे। एक दिन में एक बार से अधिक शास्त्र प्रयोग नहीं करते थे।इनके गणराज्य में जैन धर्म का समुचित प्रसार हुआ प्रव्रजित राजा
भगवान के पास आठ राजा दीक्षित हुए थे-- 1.विरांगक 2. वीरयशा 3. संजय 4. एणेयक5.सेय 6.शीव 7 उद्रायण 8.शंख --काशीवर्धन। इनमें वीरांगक ,वीरयशा और संजय --ये प्रसिद्ध हैं टीकाकार अभय देव सूरी ने इसके अतिरिक्त कोई विवरण प्रस्तुत नहीं किया है एणेयक श्वेतंविका नरेश प्रदेशी
का संबंधी राजा था ।सेय अमलकत्था नगरी का अधिपति था। शिव हस्तिनापुर का राजा था। उसने सोचा-- मैं वैभव से संपन्न हूं, यह मेरे पूर्वकृत शुभ- कर्मों का फल है। मुझे वर्तमान में भी शुभ कर्म करना चाहिए। यह सोच, राज्य पुत्र को सौंपा। स्वयं दिशा-प्रोक्षित तापस बन गया ।दो- दो उपवास की तपस्या करता और पारणे में पेड़ से गिरे हुए पत्तों को खा लेता, इस प्रकार की चर्या करते हुए उसके विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उसने सात द्वीप और सात समुद्रों को देखा। यह विश्व सात समुद्र प्रमाण है, इसका जनता में प्रचार किया।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे..
तत्व- चर्चा का प्रवाह
भगवान महावीर की तप:पूत वाणी ने श्रमणों को आकृष्ट किया। भगवान पार्श्व की परम्परा के श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में सम्मिलित हो गये।अन्यतीर्थिक संन्यासी भी भगवान की परिषद् में आने लगे। अम्बड़,स्कन्दक,पुद्गल और शिव आदि परिव्राजक भगवान के पास आए, प्रश्न किए और समाधान पाकर भगवान के शिष्य बन गए।
कालोदायी आदि अन्य यूथिकों के प्रसंग भगवान के तत्व-ज्ञान की व्यापक चर्चा पर प्रकाश डालते है। भगवान का तत्व-ज्ञान बहुत सूक्ष्म था। वह युग भी धर्म- जिज्ञासुओं से भरा हुआ था। सोमिल, ब्राह्मण ,तुंगिया नगरी के श्रमणोपासक ,जयन्ती श्राविका,माकन्दी ,रोह, पिंगल आदि श्रमणों के प्रश्न तत्व-ज्ञान की बहती धारा के स्वच्छ प्रतीक है।
भगवान जीवित धर्म थे। उनका संयम अनुतर था। वह उनके शिष्यों को भी संयममूर्ति बनाए हुए था। महानिर्ग्रन्थ अनाथी के अनुसार संयम को देखकर मगध-सम्राट बिम्बिसार-श्रेणिक भगवान का उपासक बन गया। वह जीवन के पूर्व-काल में बुद्ध का उपासक था। उसकी पट्टरानी चेलणा महावीर की उपासिका थी। उसने सम्राट को जैन बनानें के अनेक प्रयत्न किए। सम्राट ने उसे बोद्ध बनानें के प्रयत्न किए। पर कोई भी किसी और नहीं झुका। सम्राट ने महानिर्ग्रन्थ अनाथी को ध्यानलीन देखा। उनके निकट गए। वार्तालाप हुआ। अन्त में जैन बन गए।
इसके पश्चात श्रेणिक का जैन प्रवचन के साथ घनिष्ठ सम्पर्क रहा। सम्राट के पुत्र और महामंत्री अभयकुमार जैन थे। जैन परम्परा में आज भी अभयकुमार की बुद्धि का वरदान मांगा जाता है। जैन साहित्य में अभयकुमार सम्बन्धी अनेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है।
श्रेणिक की तेईस रानियां भगवान के पास प्रव्रजित हुईं। उनके अनेक पुत्र भगवान के शिष्य बने। सम्राट श्रेणिक के अनेक प्रसंग आगमों में उल्लेखित है।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे
तपऔर ध्यान का समन्वय
भगवान महावीर का युग धर्म के प्रयोगों का युग था।उस समय हजारों वैदिक सन्यासी धर्म के विविध प्रयोगों में संलग्न थे। कुछ श्रमण और सन्यासी कठोर तपस्या कर रहे थे। कुछ श्रमण और संन्यासी ध्यान की उत्कृष्ट आराधना में लीन थे।आत्मानुभूति के विभिन्न मार्गों की खोज चल रही थी।
भगवान बुद्ध 6 वर्ष तक कठोर तपश्चर्या करते रहे ।उससे शांति नहीं मिली, तब उन्होंने ध्यान मार्ग अपनाया। उससे उन्हें बोधि-लाभ हुआ ।उन्होंने मध्यम प्रतिपदा का प्रतिपादन किया।यह स्वाभाविक ही था।
भगवान महावीर की दृष्टि हर क्षेत्र में समन्वय की थी। उन्होंने सापेक्षता का जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग किया था। उन्होंने अपनी साधना में तपश्चर्या का पूर्ण बहिष्कार भी नहीं किया और ध्यान को आत्मानुभूति का एकमात्र साधन भी नहीं माना।उन्होंने तपश्चर्या और ध्यान दोनों को मान्यता दी।
कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान महावीर की साधना पद्धति बहुत कठोर है। यह सर्वथा निराधार नहीं है। उनकी साधना पद्धति में कठोर-चर्या के अंश अवश्य हैं किंतु वे अनिवार्य नहीं है।
भगवान महावीर ने देखा कि सब की शक्ति और रूचि समान नहीं होती ।कुछ लोगों में तपस्या की रुचि और क्षमता होती है,किंतु ध्यान की रूचि और क्षमता नहीं होती।कुछ लोगों में ध्यान की रूचि और क्षमता होती है। किंतु तपस्या की रूचि और क्षमता नहीं होती। भगवान महावीर ने अपनी साधना पद्धति में दोनों कोटि की रूचि और क्षमता का समावेश किया। ध्यान की कक्षा तपस्या की कक्षा से ऊंची है ।फिर भी तपस्या साधना के क्षेत्र में सर्वथा मूल्यहीन नहीं है।भगवान महावीर की साधना पद्धति का वह महत्वपूर्ण अंग है।भगवान महावीर दीर्घ तपस्वी कहलाते थे।
अनगार तप में शूर होते हैं।-- 'तवसूरा- अणगारा"--जैन परंपरा का प्रसिद्ध वाक्य है। भगवान महावीर ने केवल उपवास को ही तप नहीं माना। उनकी तप की परिभाषा में ध्यान भी सम्मिलित हैं।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे
भगवान महावीर ने सब मनुष्यों को अहिंसा के आचरण की प्रेरणा दी।
उन्होंने कहा---
1.धर्म की आराधना में स्त्री- पुरुष का भेद नहीं हो सकता। फलस्वरूप श्रमण,श्रमणी श्रावक और श्राविका --ये चार तीर्थ हुए।
2.धर्म की आराधना में जाति-पांति का भेद नहीं हो सकता। फलस्वरूप सभी जातियों के लोग उनके संघ में प्रव्रजित हुए।
3.धर्म की आराधना में क्षेत्र का भेद नही हो सकता। वह गांव में भी की जा सकती है और अरण्य में भी की जा सकती है। फलस्वरूप उनके साधु अरण्यवासी कम संख्या में थे।
4.धर्म की आराधना में वेश का भेद नहीं हो सकता। उसका अधिकार श्रमण को भी है, ग्रहस्थ को भी है।
5.भगवान ने अपने श्रमणों से कहा--धर्म का
उपदेश जैसे पुण्यवान को दो, वैसे ही तुच्छ को भी दो। जैसे तुच्छ को दो वैसे पुण्यवान को दो।
इस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असाम्प्रदायिक और जातीयता का अभाव है।
महावीर तीर्थं के प्रवर्तक थे। तीर्थं एक सम्प्रदाय है। किन्तु उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ बांधा नहीं। उनकी दृष्टि में जैन सम्प्रदाय की अपेक्षा जैनत्व प्रधान था। जैनत्व
का अर्थ है-- सम्यक्-
दर्शन, सम्यक् --ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना। इनकी आराधना करने वाला अन्य सम्प्रदाय के वैश से भी मुक्त हो जाता है, गृहस्थ के वैश में भी मुक्त हो जाता है। शास्त्रीय शब्दों में उन्हें क्रमश, अन्यलिंगसिद्ध, और गृहलिंगसिद्ध कहा जाता है।
सहज ही प्रश्न होता है-- जैन संस्कृति का स्वरूप इतना व्यापक और उदार था,तब वह लोक -संग्रह करने में अधिक सफल क्यों नहीं हुई?
इसके उत्तर में पांच कारण प्रस्तुत होते हैं।
1.जैन दर्शन की सुक्ष्म सिद्धांतवादईता।
2.तपोमार्ग की कठोरता
3.अहिंसा की सूक्ष्मता।
4.समाजिक बन्धन का अभाव।
5.जैन साधु-संघ का प्रचार के प्रति उदासीन मनोभाव।
ये सारे तत्व लोक -संग्रहात्मक पक्ष को अशक्त करते रहे हैं।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे.....
नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा
भगवान महावीर का युग क्रियाकांण्डों का युग था। महाभारत की ध्वंस -लीला का जनमानस पर अभी असर मिटा नहीं था। जनता त्राण की खोज में भटक रही थी। अनेक दार्शनिक उसे परमात्मा की शरण में ले जा रहे थे।समर्पण का सिद्धांत बल पकड़ रहा था। श्रमण-परंपरा इसका विरोध कर रही थी।भगवान पार्श्व के निर्वाण के बाद कोई शक्तिशाली नेता नहीं रहा, इसलिए उसका स्वर जनता का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पा रहा था। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध ने उस स्वर को फिर शक्तिशाली बनाया।
भगवान महावीर ने कहा-- 'पुरुष! तेरा त्राण तू ही है। बाहर कहां त्राण ढूंढ रहा है ?इस आत्मकर्तृत्व की वाणी ने भारतीय जनमानस में फिर एक बार पुरुषार्थ की लौ प्रज्वलित कर दी। श्रमण- परंपरा में ईश्वर- कर्तृत्व को मान्यता नहीं दी। इसलिए उसमें उपासना या भक्तिमार्ग का विकास नहीं हुआ।भगवान महावीर के धार्मिक निरूपण में आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांत है। उसमें उपासना और भक्ति के सिद्धांत नहीं है।
भगवान महावीर की व्याख्या में व्रत धार्मिक जीवन की आधारशिला (मूल गुण) है। धर्म का भव्य प्रासाद उसी के आधार पर खड़ा किया जा सकता है।
भगवान महावीर ने मुनि- धर्म के लिए पांच महाव्रतों तथा गृहवासी के लिए पांच अणुव्रतों की व्यवस्था दी।
पांच महाव्रत--अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह।
पांच अणुव्रत--एकदेशीय अहिंसा,एकदेशीय सत्य,
एकदेशी अचौर्य ,स्वदार-संतोष, इच्छा-परिमाण,।
व्रतों के विस्तार में भगवान ने उस समय के अनैतिक आचरणों की ओर अंगुली- निर्देश किया और उन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी। भगवान महावीर के अस्तित्वकाल में उनका धर्म बहुत व्यापक नहीं बना। उनके श्रावकों की संख्या लाखों में ही सीमित थी।
भगवान के निर्वाण के बाद उत्तरवर्ती आचार्यों ने उपासना और भक्तिमार्ग को भी स्थान दिया।उस अवधि में जैन धर्म में प्रतीकों की पूजा- उपासना प्रचलित हुई।मंत्र-जप का महत्व बढ़ा। महावीर की आत्म- केंन्द्रित साधना विस्तार- केंन्द्रित हो गई।उस युग में जन -साधारण जैन धर्म की और आकृष्ट हुआ और वह भारत के बहुत बड़े भाग में एक प्रभावी धर्म के रूप में सामने आ गया।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे
जो लोग अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करते थे, उनके सामने महावीर ने कटु-सत्य प्रस्तुत किया। भगवान ने कहा-- 'जो ऐसा करते हैं, वे धर्म के नाम पर अपने बंधन की श्रृंखला को और अधिक सुदृढ़ बना रहें हैं।
भगवान महावीर से पूछा गया --'भंते !शाश्वत धर्म कौन- सा है ?'
भगवान ने कहा --'किसी भी प्राणी को मत मारो' उपद्रुत मत करो,परितप्त मत करो, स्वतंत्रता का अपहरण मत करो-- यह शाश्वत धर्म है। '
भगवान महावीर ने कभी नहीं कहा कि जैन धर्म शाश्वत है।तत्व शाश्वत हो सकता है, किंतु नाम और रूप कभी शाश्वत नहीं होते।
भगवान महावीर का युग धर्म के प्रभुत्व का युग था। उस समय पचासों धर्म- संप्रदाय थे। उनमें कुछ तो बहुत ही प्रभावशाली थे।कुछ शाश्वतवादी थे और कुछ अशाश्वतवादी।शाश्वतवादी अशाश्वतवादी सम्प्रदाय पर प्रहार करते थेऔर अशाश्वत वादी शाश्वतवादी धारा पर। इस पद्धति को महावीर ने सांम्प्रदायिक अभिनिवेश की संज्ञा दी।
महावीर की अनेकांन्त दृष्टि और स्याद्वादी निरूपण-शैली को मुख्य प्रयोजन है-- सत्य के प्रति अन्याय करने की मनोवृति का विसर्जन। स्याद्ववाद एक अनुरोध है,उन सब से जो सत्य को एकांगी दृष्टि से देखते हैं और आग्रह की भाषा में उसकी व्याख्या करते हैं।महावीर ने स्याद्वाद के माध्यम से शाश्वत वादी तत्ववेत्ताओं से अनुरोध किया कि वे अशाश्वतवादी धारा को भी समझने का प्रयत्न करें और अशाश्वतवादी तत्ववेताओं से अनुरोध किया की वे शाश्वतवाद की स्वीकृति का द्वार सदा के लिए बंद ना करें। एकागिंता सत्य को मान्य नहीं है, तब फिर किसी संप्रदाय को क्यों मान्य होनी चाहिए? संप्रदाय एक सीमा है। उस सीमा की एक सीमित उपयोगिता है। मनुष्य उपयोगिता को ध्यान में रखकर घर बनाता है --अनंन्त को एक सीमा में बांधकर उसमें रखता है।किंतु जब वह घर अनंन्त आकाश का आरोपण कर लेता है तब उसकी उपयोगिता असत्य में बदल जाती है। धार्मिक जब संप्रदाय को ही अंतिम सत्य मांग लेता है तब उसकी उपयोगिता आग्रह में बदल जाती है।वह निरपेक्ष आग्रह ही साम्प्रदायिकता है। महावीर की अहिंसा इसी से ईंधन से प्रज्वलित हुई है।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे
महावीर ने एक सिद्घान्त की स्थापना और की। उनके अनुसार किसी भी संप्रदाय में प्रवर्तित व्यक्ति मुक्त हो सकता है।इस स्थापना में सम्प्रदाय के बीच व्यवधान डालने वाली खाइयों को पाटने का प्रयत्न है।
कोई भी सम्प्रदाय किसी भी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन दे सकता है, यदि वह व्यक्ति घर्म से अनुप्राणित हो।कोई भी सम्प्रदाय किसी भी व्यक्ति को मुक्ति का आश्वासन नहीं दे सकता, अगर वह धर्म से अनुप्राणित न हो।मोक्ष को सम्प्रदाय की सीमा से मुक्त कर भगवान महावीर ने असाम्प्रदायिक सता के सिद्धांत पर दोहरी मोहर लगा दी।
भगवान महावीर मुनित्व के महान प्रवर्तक थे। वे मोक्ष की साधना के लिए मुनि-जीवन बिताने को बहुत आवश्यक मानते थे। फिर भी उनकी प्रतिबद्धता का अन्तिम स्पर्श सच्चाई के साथ था, किसी नियम के साथ नहीं। भगवान ने 'गृहलिंग-सिद्ध' की स्वीकृति देकर क्या मोक्ष-सिद्धि के लिए मुनि -जिवन की एकक्षत्रता को चुनौती नहीं दी? घरवासी गृहस्थ भी किसी क्षण मुक्त हो सकता है,इसका अर्थ है कि धर्म की आराधना अमूक प्रकार का वेश या परम्परा की जीवन प्रणाली को स्वीकार किये बिना भी हो सकती हैं। जीवन व्यापी सत्य जीवन को कभी और कहीं भी आलोकित कर सकता है। इस सत्य को अनावृत कर भगवान ने धर्म को आकाश की भांति व्यापक बना दिया। 'प्रत्येक-बुद्ध-सिद्ध' का सिद्धांत भी सम्प्रदायिक दृष्टि के प्रति मुक्त विद्रोह है। 'प्रत्येक -बुद्ध' किसी सम्प्रदाय से प्रभावित तथा किसी धर्म -परम्परा से प्रतिबद्ध होकर प्रवज्रित नहीं होते। वे अपने ज्ञान से ही प्रबुद्ध होते हैं। भगवान ने उनको उतनी ही मान्यता दी,जितनी अपनी परम्परा में प्रवर्जित होने वालों से प्राप्त थी
अश्रुत्वा केवली,अन्यलिगं
-सिद्ध, गृहलिगं-सिद्ध और प्रत्येक बुद्ध- सिद्ध--महावीर की ये चार स्थापनाएं 'मेरे उपस्थान में आओ,तुम्हारी मुक्ति होगी,अन्यथा नहीं होगी'इस मिथ्या आश्वासन के सम्मुख खुली चुनौती के रूप में प्रस्तुत है।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे।--
असांप्रदायिक धर्म का मन्त्र दान
एक व्यक्ति ने आचार्य श्री तुलसी से पूछा --क्या भगवान महावीर जैन थे? आचार्य श्री ने कहा-- नहीं वे जैन नहीं थे। वे जिन थे ,उन को मानने वाले जैन होते हैं ।वह जैन न होकर भी दूसरे शब्दों में अजैन होकर भी महान धार्मिक थे। इसका फलित स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति जैन होकर भी धार्मिक हो सकता है, ऐसा अनुबंध नहीं है। जैन ,वैष्णव, शैव,बौद्ध--ये सब नाम धर्म की परंपरा के सूचक हैं। इनकी धर्म के साथ व्याप्ति नहीं है। इसी सत्य की स्वीकृति का नाम है सांप्रदायिक दृष्टि है।
संप्रदायिकता एक उन्माद है। उसके आक्रमण का ज्ञान तीन लक्षणों से होता है-- 1संप्रदाय और मुक्ति का अनुबंध-मेरे संप्रदाय में आओ तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी ।
2.प्रशंसा और निंदा*--अपने संप्रदाय की प्रशंसा और दूसरे संप्रदायों की निंदा ।
3.एकान्तिक आग्रह है-- दूसरों के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न न करना।
भगवान महावीर अहिंसा की गहराई में पहुंच चुके थे। इसलिए उन पर सांप्रदायिक उन्माद आक्रमण नहीं कर सका। इसे उलटकर भी कहा जा सकता है कि भगवान महावीर पर सांप्रदायिक उन्माद का आक्रमण नहीं हुआ। इसलिए वे अहिंसा की गहराई में जा सके ।आत्मौपम्य
की दृष्टि को विकसित किए बिना जो धर्म के मंच पर आता है ,उसके सामने धर्म गोण और संप्रदाय मुख्य होता है । आत्मौपम्य की दृष्टि को विकसित कर धर्म के मंच पर आने वाले व्यक्ति के सामने धर्म मुख्य और संप्रदाय गोण होता है ।भगवान महावीर ने संप्रदाय को मान्यता दी। पर मुख्यता नहीं दी।जो लोग संप्रदाय को मुख्यता दे रहे थे, उनके दृष्टिकोण को महावीर ने सारहीन बतलाया।
जो धर्म-नेता अपने उपस्थान में आने वाले के लिए ही मुक्ति का द्वार खोलते हैं और दूसरों के लिए उसे बंद रखते हैं, वे महावीर की दृष्टि में अहिंसक नहीं है। वे अपनी ही कल्पना के ताने-बाने में उलझे हुए हैं।
भगवान महावीर ने मोक्ष का अनुबंध किसी संप्रदाय के साथ नहीं माना, किंतु धर्म के साथ माना।भगवान 'अश्रुत्वा
केवली' के सिद्धांत की स्थापना कर सांप्रदायिक दृष्टि को चरम बिंदु तक ले गए। 'अश्रुत्वा केवली 'उस व्यक्ति का नाम है, जिसने कभी धर्म नहीं सुना, किंतु अपनी नैसर्गिक निर्मलता के कारण केवली की कक्षा तक पहुंच गया है। 'अश्रुत्वा केवली' के साथ किसी भी संप्रदाय, परंपरा या धर्माराधना की पद्धति का संबंध नहीं होता।उस संप्रदाय-मुक्त व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी मानकर महावीर ने धर्म की असांप्रदायिक सता को मान्यता दे दी।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे
तपऔर ध्यान का समन्वय
भगवान भगवान महावीर ने अज्ञानमय तप का प्रबल विरोध किया और ज्ञानमय तप का समर्थन। अहिंसा पालन में बाधा न आए, उतना तप सब साधकों के लिए आवश्यक है। विशेष तप उन्हीं के लिए है, जिनका दैहिक बल और विराग तीव्र हो। भगवान महावीर ने धार्मिक जीवन की अनेक कक्षाएं प्रतिपादित की। ग्रहवासी के लिए चार कक्षाएंँ हैं।
1सुलभ- बोधि--यह प्रथम कक्षा है। इसमें न धर्म का ज्ञान होता है और न अभ्यास ही। केवल उसके प्रति अज्ञात अनुराग होता है सुलभ-बोधि व्यक्ति निकट भविष्य में धर्माचरण की योग्यता पा सकता है।
2. सम्यग् दृष्टि--यह दूसरी कक्षा है। इसमें धर्म का अभ्यास नहीं होता, किंतु उसका ज्ञान होता है।
3अणुव्रती--*यह तीसरी कक्षा है। इसमें धर्म का ज्ञान और अभ्यास दोनों ही होते हैं।
4. प्रतिमाधर--यह चौथी कक्षा है ।इसमें धर्म का विशेष अभ्यास होता है।
मुनि के लिए लिए दो कक्षाएं हैं--
1.संघवासी मुनि--यह पहली कक्षा है ।इसमें अहिंसा चरण की प्रधानता है, तपस्या की प्रधानता नहीं है।
2.एकलबिहारी मुनि
--यह दूसरी कक्षा है इसमें अहिंसाचरण के साथ-साथ तपस्या भी प्रदान होती है।
इन कक्षाओं में मुनि के लिए (एकलबिहारी )कक्षा और गृहवासी के लिए चौथी (प्रतिमाधर)कक्षा में कुछ कठोर साधना का अभ्यास होता है। शेष कक्षाओं की साधना का मार्ग ऋजु है।
भगवान भगवान महावीर की साधना-पद्धति में मृद,मध्य और प्राज्ञ और अधिक-- तीनों मात्राओं का समन्वय है ।मनुष्य भी मंद,मध्य और प्राज्ञ --तीन कोटी के होते हैं। इन तीनों कोटियों को एक कोटि में रखकर धर्म की व्याख्या करने की अपेक्षा विभिन्न कोटि के लोगों के लिए विभिन्न दृष्टिकोण से धर्म की व्याख्या करना अधिक मनोवैज्ञानिक हैं।
ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे--
हरिभद्रसूरि ने लिखा है---
पारमैश्वर्य युक्तत्वात् ,
आत्मैव मत ईश्वर: ।
स च कर्तेति निर्दोषं,
कर्तृवादो व्यवस्थित:।।
'आत्मा परम ऐश्वर्य-सम्पन्न है अत:वह ईश्वर है। वह कर्ता है इस दृष्टि से महावीर का दर्शन कर्तृवादी है।'
महावीर ने कर्तृत्व का निरसन नही किया। उन्होंने उस कर्तृसता का निरसन किया, जिसे समग्र जगत् की निर्माण-वेदिका पर प्रतिष्ठित किया जा रहा था।
भगवान महावीर ने ईश्वरोपासना के स्थान में श्रमणोपासना का प्रवर्तन किया। ईश्वर परोक्ष शक्ति है और वह अगम्य है। उसके प्रति जितना आकर्षण हो सकता है, उतना जीवित मनुष्य और गम्य व्यक्ति के प्रति नही हो सकता। भगवान ने मनुष्य को ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठित किया और यह उदघोष किया कि ईश्वर कोई कल्पनातीत सता नहीं है। वह मनुष्य का ही चरम विकास है। जो मनुष्य विकास की उच्च कक्षा तक पहुंच जाता है, वह परमात्मा या ईश्वर है।
भगवान महावीर ने परम आत्मा की पांच कक्षाएँ निर्धारित की--
1.अर्हत--धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक।
2. सिद्ध--मुक्त आत्मा।
3.आचार्य--धर्म- तीर्थ के संचालक।
4.उपाध्याय--धर्म-ज्ञान के संवाहक।
5.साधु-- धर्म के साधक।
इनमें चार कक्षाओं के अधिकारी मनुष्य है और एक कक्षा के अधिकारी मुक्त आत्माएँ है। इनमें पहला स्थान मनुष्य का है, दूसरा स्थान मुक्त आत्मा का है। मुक्त आत्मा मनुष्य-मुक्ति का हेतु नहीं है। उसकी मुक्ति के हेतु अर्हत है।
इसलिए नमस्कार महामंत्र में प्रथम स्थान उनको मिला।
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ॐ श्री महाप्रज्ञ गुरवे नमः
गतांक से आगे--
भगवान महावीर की स्थापना में आत्मा की तीन कक्षाएँ है।
1बहिरॅ -आत्मा*--यह पहली कक्षा है। इसमें देह ही सब कुछ होता है। उसमें विराजमान चिन्मय आत्मा का आस्तित्व ज्ञात नहीं होता।
2.अन्तर-आत्मा--यह दूसरी कक्षा है। इस कक्षा में सत्य उदधाटित हो जाता है कि जैसे दूध में नवनीत व्याप्त हेता है, वैसे ही देह में चिन्मय सता व्याप्त है।
3.परम आत्मा--
यह तीसरी कक्षा है। इसमें चिन्मय सता पर आई हुई देहरुपी भस्म दूर होने लग जाती है। आत्मा परमात्मा के रूप में प्रकट हो जाता है।
आत्मा और परमात्मा मानवीय पुरुषार्थ की प्रक्रिया से वियुक्त नहीं है। भगवान महावीर के दर्शन में परमात्मा का अस्वीकार नहीं है, उसकी विश्व सृजनसता का अस्वीकार है।
भगवान महावीर के अनुसार जगत अनादि-अनंत है। उनके कर्तृत्व का भार वहन करने के लिए किसी सता को जन्म देने की आवश्यकता नहीं है। भगवान महावीर से स्कंदक संन्यासी ने पूछा--'भंते! भगवान यह जगत शाश्वत है या अशाश्वत?'भगवान ने कहा--'आयुष्मन! आस्तित्व की दृष्टि से यह जगत शाश्वत है और रुपान्तरण की दृष्टि से वह अशाश्वत है। वह अशाश्वत है इस दृष्टि से उसमें जगत् -कर्तृत्व का अंश भी सन्नहित है। महावीर के अनुसार वह जीवों और परमाणुओं के स्वाभाविक संयोग की प्रक्रिया से संपादित होता है। इस सम्पादन को लक्ष्य में रखकर महान् आचार्य हरिभद्रसूरि ने महावीर के दर्शन की ईश्वरवादी दर्शनों से तुलना की है।
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गतांक से आगे--
यह सापेक्षता ही स्याद्वाद का रहस्य है, इसी के द्वारा सत्य का ज्ञान और उसका निरुपण होता है। यह सिद्धांत जनतंत्र की रीढ़ है। कुछेक व्यक्ति सता, अधिकार और पद से चिपककर बैठ जाएँ, दूसरों को अवसर न दें तो असंतोष की ज्वाला भभक उठती है। यह सापेक्ष- नीति गुटबंदी को कम करने में काफी काम कर सकती हैं। नीतियाँ भिन्न होने पर भी यदि सापेक्षता हो तो अवांछनीय अलगाव नहीं होता।
महावीर ने जो किया, वह मुक्ति के लिए किया। उन्होंने जो कहा, वह मुक्ति के लिए कहा। जनतंत्र भी तो व्यव्हारिक मुक्ति का प्रयोग है। इसलिए महावीर की करनी और कथनी-- दोनों में पथप्रदर्शन की क्षमता है।
मनुष्य की ईश्वरीय सत्ता का संगठन
भगवान महावीर का जन्म उस युग में हुआ, जिसमें मनुष्य भाग्य के झूले में झूल रहा था। भाग्य ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि तत्व है। जब मनुष्य ईश्वरीय सत्ता का यंत्र बनकर जीता है तब उसके जीवन-रथ का सारथि भाग्य ही होता है। भगवान महावीर भाग्य वादी नहीं थें, वे गणतंत्र के संस्कारों में पले-पुसे थे। वे किसी भी महासता को अपनी सम्पूर्ण स्वतंत्रता सौंप देने के पक्ष में नहीं थे। उनकी अंहिसा की व्याख्या में अधिनायकवादी मनोवृत्ति के लिए कोई अवकाश नहीं था। भगवान ने कहा--'दूसरों पर शासन करना हिंसा है, इसलिए किसी की स्वतंत्रता का अपहरण मत करो।' इस दुनिया में स्वतंत्रता का अपहरण होता है पर वह ईश्वरीय तत्व नहीं हो सकता।
भगवान महावीर आत्मवादी थे। ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन करते थे, किन्तु उसकी मनुष्य से भिन्न सता स्वीकार नहीं करते थे। मनुष्य ईश्वर की सृष्टि है, ईश्वर उसका सर्जक है, यह कृति और कर्ता का सिद्धांत उन्हें स्वीकार्य नहीं था।
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गतांक से आगे--
महावीर का पहला सिद्धांत था-- समानता
आत्मिक समानता की अनुभूति के बिना अहिंसा विफल हो जाती है। गणराज्य की विफलता का मूल हेतु है--विषमता
महावीर का दूसरा सिद्धांत था--आत्म-निर्णय का अधिकार।
हमारे भाग्य का निर्णय किसी दूसरी सता के हाथ में हो, वह हमारी सार्वभौम सत्ता के प्रतिकूल है-- यह उन्होंने बताया। उन्होंने कहा--दु:ख और सुख दोनों तुम्हारी ही सृष्टि है। तुम्हीं अपने मित्र हो और तुम्हीं अपने शत्रु। यह निर्णय तुम्हीं को करना, तुम क्या होना चाहते हो? जनतंत्र के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धांत है। जहां व्यक्ति को आत्म- निर्णय का अधिकार नहीं होता, वहां उसका कर्तृत्व कुण्ठित हो जाता है। नव-निर्माण के लिए पुरुषार्थ और पुरुषार्थ के लिए आत्म-निर्णय का अधिकार आवश्यक है।
महावीर का तीसरा सिद्धांत था--आत्मानुशासन।
उन्होंने कहा--दूसरों पर हुकूमत मत करो। हुकूमत करो अपने शरीर पर, अपनी वाणी पर और अपने मन पर। आत्मा पर शासन करो, संयम के द्वारा , तपस्या के द्वारा।यह अच्छा नहीं होगा कि कोई व्यक्ति वध और बंधन के द्वारा तुम्हारे पर शासन करे।
जनतंत्र की सफलता आत्मानुशासन पर निर्भर है। बाहरी नियंत्रण जितना अधिक होता है, उतना ही जनतंत्र निस्तेज होता है। उसकी तेजस्विता इस बात पर निर्भर है कि देशवासी लोग अधिक से अधिक आत्मानुशासित हो।
महावीर का चौथा सिद्धांत था--सापेक्षता।
उसका अर्थ है-- सबको समान अवसर। बिलौना करते समय एक हाथ पीछे जाता है और दूसरा आगे आता है, फिर आगे वाला पीछे और पीछे वाला आगे जाता है। इस क्रम से नवनीत निकलता है,स्नेह मिलता है।
चलते समय एक पैर आगे बढ़ता है, दूसरा पीछे। फिर आगे वाला पीछे और पीछे वाला आगे आ जाता है। इस क्रम से गति होती है, आदमी आगे बढ़ता है।
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गतांक से आगे....
4. अन्योन्यवाद--
इस संघ का आचार्य पकुधकात्यायन था। उसका कहना था--"सातों पदार्थ न किसी ने किए, न किसी ने करवाए । वे वंध्य, कूटस्थ तथा खम्बे के समान अचल है। वे हिलते नहीं, बदलते नहीं,आपस में कष्टदायक नही होते और एक -दूसरे को सुख-दु:ख देने में असमर्थ है। पृथ्वी,आग, तेज, वायु,सुख,दु:ख तथा जीव-- ये ही सात पदार्थ है। इनमें मारने वाला, मार खाने वाला,सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जानने वाला कोई नहीं। जो तेज शस्त्रों से दूसरे से दूसरे के सिर कटवाता है वह खून नहीं करता, सिर्फ उसका शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है, इतना ही।" पकुधकात्यायन के इस मत को अन्योन्यवाद कहते हैं।
5. चातुर्याम संवरवाद--इस संघ के आचार्य निग्गंथ नातपुत्र(तीर्थंकर महावीर) थे।
6. विक्षेपवाद--इस संघ का आचार्य संजयवेलट्ठिपुत्र था ।वह कहता था--"परलोक है या नहीं, यह मैं नहीं समझता। परलोक है यह भी नहीं;परलोक नहीं है यह भी नहीं। अच्छे या बुरे कर्मों का फल मिलता है, यह भी मैं नहीं मानता, नहीं मिलता यह भी मैं नहीं मानता। वह रहता भी है, नहीं भी रहता। तथागत मृत्यु के बाद रहता है या रहता नहीं, यह मैं नहीं समझता। वह रहता है, यह भी नहीं, वह नहीं रहता, यह भी नहीं। इस वाद को विक्षेपवाद कहते हैं।
महावीर का धर्म और गणतंत्र
भगवान महावीर वैशाली गणतंत्र के वातावरण में पले-पुसे थे। वैशाली गणराज्य के प्रमुख महाराजा चेटक भगवान के मामा थे। भगवान के पिता सिद्धार्थ उस गणराज्य के एक सदस्य थे। भगवान के प्रारम्भिक संस्कार अहिंसा की व्याख्या में प्रतिफल मिलते हैं।
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2.नियतिवाद
इस संघ का आचार्य मक्खली गोशालक था। उसका कहना था--"प्राणी के अपवित्र होने में न कुछ हेतु है, न कुछ कारण है। वे बिना हेतु के और बिना कारण के ही अपवित्र होते हैं ।प्राणी की शुद्धि के लिए भी कोई हेतु नहीं है ,कुछ भी कारण नहीं है ।बिना हेतु के और बिना कारण के ही प्राणी शुद्ध होते हैं। खुद अपनी या दूसरे की शक्ति से कुछ नहीं होता। बल,वीर्य,पुरुषार्थ या पराक्रम यह सब कुछ नहीं है। सब प्राणी बल हीन और निवीर्य है -- वे नियति (भाग्य) संगति और स्वभाव के द्वारा परिणत होते हैं-- अक्लमंद और मूर्ख सबों के दुखों का नाश अस्सी लाख के महाकल्पों के फेर में होकर जाने के बाद ही होता है।" इस मक्खली गोशालक के मत को संसार शुद्धिवाद कहते थे। इसी को नियतिवाद भी कहते हैं।
3.उच्छेदवाद
इस संघ का प्रमुख अजीतकेशकंबली था। उसका कहना था--"दान, यज्ञ तथा होम यह सब कुछ नहीं है, भले- बुरे कर्मों का फल नहीं मिलता । न इहलोक है न परलोक है। चार भूतों से मिलकर मनुष्य बना है, जब वह मरता है तो पृथ्वी धातु पृथ्वी में, आपो धातु पानी में ,तेजो धातु तेज में तथा वायु धातु वायु में मिल जाता है। और इंद्रियां सब आकाश में मिल जाती है। मरे हुए मनुष्य को चार आदमी अर्थी पर सुलाकर उसका गुणगान करते हुए ले जाते हैं। वहां उसकी अस्थि सफेद
हो जाती है और आहुति जल जाती है। दान का पागलपन मुर्खो में उत्पन्न किया है। जो आस्तिकवाद कहते हैं वे झूठ भाषण करते हैं।व्यर्थ की बड़ -बड़ करते हैं। अक्लमंद और मूर्ख दोनों का ही मृत्यु के बाद उच्छेद हो जाता है। मृत्यु के बाद हो कुछ भी अवशेष नही रहता।अजीतकेशकंबली के इस मत को उच्छेदवाद कहते हैं।
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कोई धर्म पुराना होने से अच्छा होता है और नया होने से अच्छा नहीं होता, इस मान्यता में मुझे सत्य की ध्वनि सुनाई नहीं देती, फिर भी इस सत्य पर आवरण नहीं डाला जा सकता कि श्रमण परंपरा प्रागवैदिक है और भारतीय जीवन में आदिकाल से परिव्याप्त है।श्रमणों की अनेक धाराएं रही है। उनमें सबसे प्राचीन धारा भगवान ऋषभ की और सबसे अर्वाचीन भगवान बुद्ध की है।और सब मध्यवर्ती है।
वैदिक और पौराणिक दोनों साहित्य-- विधाओं में भगवान ऋषभ श्रमण धर्म के प्रवर्तक के रूप में उल्लेखित हुए हैं। भगवान ऋषभ का धर्म विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित होता रहा है। आदि में उसका नाम श्रमण- धर्म था।फिर अर्हत धर्म हुआ। भगवान महावीर के युग में उसे निर्ग्रंथ धर्म कहा जाता था। बोद्ध साहित्य में भगवान का उल्लेख 'निग्गंठ नातपुते' के नाम से हुआ।उनके निर्वाण की दूसरी शताब्दी में वह जैन- धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भगवान महावीर के अस्तित्व-काल में श्रमणों के चालीस से अधिक संप्रदाय थे ।उनमें पांच बहुत प्रभावशाली थे--
1.निर्ग्रंथ--महावीर का शासन।
2. शाक्य-- बुद्ध का शासन।
3. अाजीवक-मक्खली गौशालक का शासन।
4.गैरिक-- तापस शासन।
5. परिव्राजक--सांख्य।
बौद्ध साहित्य में छह श्रमण- संप्रदायों, उनके आचार्य तथा सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है।
1.अक्रियावाद --
इस संघ का आचार्य पूरण कश्यप था। उसका कहना था कि "किसी ने कुछ किया या करवाया, काटा या कटवाया, तकलीफ दी या दिलवाई,शोक किया या करवाया, कष्ट सहा या दिया, डरा या दूसरे को डराया,प्राणी की हत्या की, चोरी की,डकैती की, घर लूट लिया, बटमारी की,परस्त्रीगमन किया, असत्य वचन कहा, फिर भी उसको पाप नहीं लगता। तीक्ष्ण धार के चक्र से भी अगर कोई इस संसार के सब प्राणियों को मारकर ढेर लगा दे तो भी उसे पाप न लगेगा। गंगा नदी में उतर किनारे पर जाकर भी कोई दान दें या दिलवाए यज्ञ करें या करवाएं तो कुछ पुण्य नहीं होने का ।दान, धर्म, संयम, सत्य-भाषण इन सबों से पुण्य-प्राप्ति नहीं होती" इस पुरण-कश्यप के वाद को अक्रियावाद कहते थे।
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3.विनयवाद--
विनयवादी
अहं--विसर्जन और समर्पण को सर्वोपरि मूल्य देते थे। उनकी दृष्टि अहं ही सब दु:खों का मूल था।
4. अज्ञानवाद --अज्ञानवादी दु:खों का मूल ज्ञान को मानते थे ।अज्ञानी मनुष्य जितना सुखी होता है, उतना ज्ञानी नहीं होता। अपने सारे ज्ञान का प्रयोग ज्ञान के निरसन में करते थे। भगवान महावीर ने चारों वादों की समीक्षा कर क्रियावाद का सिद्धांत स्वीकार किया। उनका स्वीकार एकांगी दृष्टि से नहीं था। इसलिए उनके दर्शन को सापेक्ष-- क्रिया वाद की संख्या दी जा सकती है।
कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यज्ञ, जातिवाद आदि ब्राह्मण-- सिद्धांतों का विरोध करने के लिए महावीर ने जैन धर्म का प्रवर्तन किया। किंतु यह गहराई से आलोचित नहीं है। महावीर जिस श्रमण परंपरा में दीक्षित हुए वह बहुत प्राचीन है।उसका अस्तित्व वेदों की रचना से पूर्ववर्ती है।।वेदों में स्थान-- स्थान पर विरोधी विचारधारा का उल्लेख मिलता है। उसका संबंध श्रमण-परंपरा से ही है।
भगवान महावीर का परिवार तेईसवे तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के धर्म का अनुगामी था ।इन साक्ष्यों से यह प्रतिध्वनित नहीं होता कि महावीर ने ब्राह्मण- सिद्धांतों का विरोध करने के लिए जैन धर्म का प्रवर्तन कि।। महावीर ने स्वयं द्वारा व्याख्यात अहिंसा की प्राचीन तीर्थंकरों द्वारा व्याख्यात अहिंसा के साथ एकता प्रतिपादित की है।
भगवान महावीर जैन- धर्म के प्रवर्तक नहीं,किन्तु उन्नायक थे। उन्होंने प्राचीन परंपराओं को आगे बढ़ाया, अपने समसामयिक विचारों की परीक्षा की और उनके आलोक में अपने अभिमत जनता को समझाए। उनके विचारों का आलोचनापूर्वक विवेचन सूत्रकृतांग में मिलता है।।वहां पंचमहाभूतवाद, एकात्म वाद,तज्जीवतच्छरीरवाद,अकारकवाद,षष्ठात्मवाद,नियतीवाद,सृष्टिवाद, कालवाद, स्वभाववाद, यदृच्छावाद, प्रकृतिवाद आदि अनेक विचारों की चर्चा और उन पर भगवान का दृष्टिकोण प्राप्त है।
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निर्वाण
भगवान तीस वर्ष की अवस्था में श्रमण बने, साढे बारह वर्ष तक तपस्वी जीवन बिताया और तीस वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। भगवान ने काशी, कौशल, पांचाल, कलिंग् कम्बोज, कुरु-जांगल,बाह्मीक, गांधार, सिंधु,सौवीर आदि देशों में विहार किया।
भगवान के चौदह हजार साधु और छतीस हजार साध्वियां बनी। नंदी सूत्र के अनुसार भगवान के चौदह हजार साधु प्रकीर्णकार थे। इससे जाना पड़ता है,सर्व साधुओं की संख्या और अधिक थी।1,59,000 श्रावक और 3,18,000 श्राविकाएँ थीं। यह व्रती श्रावक- श्राविकाओं की संख्या प्रतीत होती है।जैन धर्म का अनुगमन करने वाले की संख्या इससे अधिक थी, ऐसा संभव है। भगवान के उपदेश का समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ। उनकी क्रांति- स्वर समाज के जागरण का निमित्त बना। वि.पू.470 (ई.पू.527) पावापुर में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान का निर्वाण हुआ।
भगवान महावीर के समकालीन धर्म संप्रदाय
भगवान महावीर का युग धार्मिक मतवादों और कर्मकांडों से संकुल था। बौद्ध साहित्य के अनुसार उस समय तिरेसठ श्रमण- संप्रदाय विद्यमान थे। जैन साहित्य में 363 धर्म -मतवादों का उल्लेख मिलता है। यह भेदोपभेद की विस्तृत चर्चा है। संक्षेप में सारे संप्रदाय चार वर्गों में समाते थे। भगवान ने उन्हें चार समवसरण कहां है। वे है----
1. क्रियावाद-- क्रिया वाद दार्शनिकों की धर्म निष्ठा आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मवाद पर टिकी हुई थी। वे सुकृत को एक समान नहीं मानते थे। सूचीर्ण कर्म का फल अच्छा होता है और दूश्चीर्ण कर्म का फल बुरा होता है-- इस सिद्धांत में उनकी आस्था थी।
2. अक्रियावाद--
अक्रियावादी दार्शनिकों की नैतिक- निष्ठा वर्तमान की उपयोगिता पर टिकी हुई थी। वे आत्मा को पुनर्जन्मानुयायी तत्व नहीं मानते थे, इसलिए उनमें धर्म- निष्ठा नहीं थी। उनका सिद्धांत था-- सुकृत और दुष्कृत के फल में अंतर नहीं है।सुचीर्ण कर्म का फल अच्छा नहीं होता।दुश्चीर्ण कर्म का फल बुरा नहीं होता। कल्याण और पाप अफल है। पुनर्जन्म नहीं है और मोक्ष नहीं है'
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श्रावक के गुण
अणुव्रतों का पालन करने वाला श्रद्धा- संपन्न व्यक्ति श्रावक कहलाता है और उसके मुख्य गुण ये है।--
1ः. ग्रहण किए हुए व्रतों का सम्यक पालन करना।
2ःजहाँ बहुश्रुत सधार्मिक लोग हो, उस स्थान में आना- जाना।
3ः बिना प्रयोजन दूसरों के घर न जाना।
4ः चमकीला- भड़कीला वस्त्र न पहनना। सदा सादगीमय जीवन बिताना।
5ःजुआ आदि कुव्यसनों का त्याग करना।
6ःःमीठी वाणी से काम चलाना। कठोर वचन नहीं कहना।
7ः तप,नियम, वंदना आदि धार्मिक अनुष्ठानों में सदा तत्पर रहना ।
8ःविनम्र रहना। कभी दुराग्रह नहीं करना। 9ःजिनवाणी के प्रति अटूट श्रद्धावान रहना।
10ःऋजू व्यवहार करना। मनकी ऋजुता,वचन की ऋजुता, और शरीर के ऋजुता रखना।
11ः गुरु वचन को सुनने के लिए तत्पर रहना।
12ः प्रवचन या शास्त्रों की प्रवीणता प्राप्त करना।
शिष्टाचार
शिष्टाचार के प्रति जैन आचार्य बड़ी सूक्ष्मता से ध्यान देते हैं।वे आशातना को सर्वथा परिहार्य मानते हैं । किसी के प्रति अनुचित व्यवहार करना हिंसा है।आशातना हिंसा है।अभिमान भी हिंसा है। नम्रता का अर्थ है --कषाय विजय। अभ्युथान, अभिवादन, प्रिय निमंत्रण,अभिमुख गमन, आसान- प्रदान, पहुंचाने के लिए जाना, हाथ जोड़ना आदि आदि शिष्टाचार के अंग हैं। इनका विशद वर्णन उत्तराध्ययन के पहले और दशवैकालिक के नौवें अध्ययन में है।
श्रावक-व्यवहार- दृष्टि से दूसरे लोगों को भी नमस्कार करते हैं। धर्म- दृष्टि से उनके लिए वन्दनीय मुनि होते हैं।
यह आध्यात्मिक और त्याग-प्रधान संस्कृति का एक संक्षिप्त-सा रूप है। इसका सामाजिक जीवन पर भी प्रतिबिंब पड़ा है।
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इस आवश्यक कार्य से
निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि भण्ड- उपकरणों का प्रतिलेखन करें, उन्हें देखें। उसके पश्चात हाथ जोड़कर गुरु से पूछे-- मैं क्या करूं? आप मुझे आज्ञा दें- मैं किसी की सेवा में लगूं या स्वाध्याय में? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अग्लान-भाव से सेवा करें और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करें। दिनचर्या के प्रमुख अंग है- स्वाध्याय और ध्यान ।कहा है--
स्वाध्यायाद्
ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत।
ध्यान-स्वाध्याय-संपत्या परमात्मा प्रकाशते।।
स्वाध्याय के पश्चात ध्यान करें और ध्यान के पश्चात स्वाध्याय। इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय के क्रम में परमात्मा प्रकाशित हो जाता है।
आगमिक काल विभाग इस प्रकार रहा है-- दिन के पहले पहर में स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षा- चर्या और चौथे में फिर स्वाध्याय ।
रात के पहले पहर में स्वाध्याय करें, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद ले और चौथे में फिर स्वाध्याय करें।
पूर्व रात में आवश्यक कर्म करें। दिन के पहले पहर में प्रतिलेखन करें, वैसे चौथे पहर में भी करें। यह मुनि की जागरूकतापूर्ण जीवन- चर्या हैं।
श्रावक
धर्म की आराधना में जैन- साधु-साध्वीयां संघ के अंग है, वैसे श्रावक- श्राविका भी है। ये चारों मिलकर ही चतुर्वेिध धर्म संघ को पूर्ण बनाते हैं ।भगवान ने श्रावक- श्राविकाओं को साधु-साध्वीयों के माता- पिता तुल्य कहा है।
श्रावक की धार्मिक-चर्या यह है--
1- सामायिक के अंगो का अनुपालन करना।
2-दोनों पक्षों के पौषधोपवास करना। आवश्यक कर्म जैसे साधु- संघ के लिए, वैसे श्रावक-संघ के लिए भी है।
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गतांक से आगे--
2.भगवान महावीर
साधना और सिद्धि
गणों की सारणा --वरणा और शिक्षा-- दीक्षा के लिए सात पद निश्चित थे और उनका अपना अपना उत्तरदायित्व था--
1-आचार्य-- सूत्र के अर्थ की वाचना देना और गण का संचालन करना। 2-उपाध्याय-- सूत्र की वाचना देना शिक्षा की वृद्धि कर
3-स्थवीर-- श्रमणों को संयम में स्थिर करना, श्रामण्य से गिरते हुए श्रमणों को पुन: स्थिर करना,उनकी कठिनाइयों का निवारण करना।
4-प्रवर्तक--आचार्य द्वारा निर्दिष्ट धर्म-प्रवृतियों तथा सेवा-कार्य में श्रमणों को नियुक्त करना।
5-गणी--श्रमणों के छोटे-छोटे समुहों का नेतृत्व करना।
6-गणधर--साध्वियों के विहार आदि की व्यवस्था करना।
7-गणावच्छेदक-- धर्म शासन की प्रभावना करना, गण के लिए विहार और उपकरण की खोज तथा व्यवस्था करने के लिए कुछ साधुओं के साथ संघ के आगे-आगे चलना, गण की सारी व्यवस्था की चिंता करना।
इनकी योग्यता के लिए विशेष मापदंड स्थिर किए गए थे। इनका निर्वाचन नहीं होता था। ये आचार्य द्वारा नियुक्त किए जाते थे,किंतु इसमें स्थविरों की सहमति होती थी।
मुन्नी की दिनचर्या
अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचन व धर्म- जागरिका करना-- यह का चर्या का पहला अंग है। स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना। आवश्य करणीय- अवश्य करनी है कर्म छह है--
1.सामायिक-- समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन।
2.चतुर्विशतिस्तव-- चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति ।
३.वन्दना-- आचार्य को द्वादशावर्त- वंदना।
4.प्रतिक्रमण-- कृत दोषों की आलोचना करना।
5.कायोत्सर्ग-- काया का स्थिरीकरण।
6.प्रत्याख्यान त्याग करना।
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2.भगवान महावीर
साधना और सिद्धि
भगवान ने ग्रहस्थों को धर्म का उपदेश दिया। उसे स्वीकार करने वाले पुरुष और स्त्रियां, उपासक और उपासिकाएँ या श्रावक और श्राविकाएँ कहलाए। भगवान के आनन्द आदि दस प्रमुख श्रावक थे। वे बारह व्रती थे।उनकी जीवनचर्या का वर्णन करने वाला एक अंग- ग्रंथ 'उपासक' दशा है। जयंन्ती आदि श्राविकाएँ थी, जिनके प्रौढ़ तत्व-ज्ञान की सूचना भगवती सूत्र में मिलती है। धर्म- आराधना के लिए भगवान का तीर्थ सचमुच तीर्थ बन गया। भगवान ने तीर्थ चतुष्टय( साधु' साध्वी' श्रावक' श्राविका) की स्थापना की, इसलिए वे तीर्थंकर कहलाए।
संघ व्यवस्था और संस्कृति उन्नायक
सभी तीर्थंकर की भाषा में धर्म का मौलिक रूप एक रहा है। धर्म का साध्य मुक्ति है, इसका साधन द्विरुप रूप नहीं हो सकता। उसमें मात्रा-भेद हो सकता है, किंतु स्वरूप- भेद नहीं हो सकता।
धर्म के आराधना अकेले में हो सकती है, पर उसका विकास अकेले में नहीं होता। अकेले में उसका प्रयोजन ही नहीं होता, वह समुदाय में होता है। समुदाय मान्यता के बल पर बनते हैं। असमानताओं के उपरांत भी कोई एक समानता आती है और लोग एक भावना में जुड़ जाते हैं।
जैन मनीषियों का चिंतन साधना के पक्ष में उतना ही वैयक्तिक है, उतना ही साधना- संस्थान के पक्ष में सामुदायिक हैं। जैन तीर्थंकर ने धर्म को एक और वैयक्तिक कहा, दूसरी और तीर्थ का प्रवर्तन किया-- श्रमण- श्रमणी और श्रावक- श्राविकाओं के संघ की स्थापना की।
धर्म वैयक्तिक तत्व है।किंतु धर्म कीआराधना करने वालों का समुदाय बनता है,इसलिए व्यवहार में वह भी सामुदायिक बन जाता है।
भगवान ने श्रमण- संघ की बहुत ही सुंदृढ व्यवस्था की।अनुशासन की दृष्टि से भगवान का संघ सर्वोपरि था।पांच महाव्रत और अणुव्रत-- ये मूलगुण थे। इनके अतिरिक्त उत्तर गुणों की व्यवस्था की। विनय, अनुशासन और अात्म-विजय पर अधिक बल दिया।व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण संघ को ग्यारह या नौ भागों में विभक्त किया। पहले सात गणधर सात गणों के और आठवें- नौवें तथा दसवें-ग्यारहवें क्रमश: आठवें और नौवें गण के प्रमुख थे।
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2.भगवान महावीर
साधना और सिद्धि
बौद्धों के इतिहास में बुद्ध को जिस खतरे का अंदेशा था, वह पाया जाता है।यद्यपि बौद्ध धर्म का इतिहास पराक्रम शाली है। उसमें दोष होते हुए भी वह देश के लिए अभिमान रखने लायक है। लेकिन जो डर बुद्ध को था, वह महावीर को नहीं था, यह देखकर आश्चर्य होता है। महावीर नीडर दीख पडते हैं। इसका मेरे मन पर बहुत असर है।इसलिए मुझे महावीर की तरफ विशेष आकर्षण है। बुद्ध की महिमा भी बहुत है।सारी दुनिया में उनकी करुणा की भावना फेल रही है, इसलिए उनके व्यक्तित्व में किसी प्रकार की न्यूनता होगी, ऐसा मैं नहीं मानता हूं। महापुरुषों की भिन्न-भिन्न वृत्तियां होती है,लेकिन कहना पड़ेगा कि गौतम बुद्ध को व्यवहारिक भूमिका छू सकी और महावीर को व्यवहारिक भूमिका नहीं सकी।उन्होंने स्त्री पुरुषों में तत्वत: भेद नहीं रखा। वे इतने दृढ़ प्रति रहे कि मेरे मन में उनके लिए एक विशेष ही आदर है। इसी में उनकी महावीरता है।
रामकृष्ण परमहंस के संप्रदाय में स्त्री सिर्फ एक ही थी और वह थी श्री शारदा देवी, जो रामकृष्ण परमहंस की पत्नी थी और नाममात्र की ही पत्नी थी।वैसे तो वे उनकी माता हो गई थी और संप्रदाय के सभी भाइयों के लिए वह मातृ स्थान में ही थी। परंतु उनके सिवा और किसी स्त्री को दीक्षा नहीं दी गई थी।
महावीर स्वामी के बाद 2500 साल हुए, लेकिन हिम्मत नहीं हो सकती थी कि बहनों को दीक्षा दे। मैंने सुना है कि चार साल पहले रामकृष्ण परमहंस मठ में स्त्रियों को दीक्षा दी-- जाए ऐसा तय किया गया। स्त्री और पुरुषों का आश्रम अलग रखा जाए,यह अलग बात है।लेकिन अब तक स्त्रियों को दीक्षा ही नहीं मिलती थी,अब मिल रही।इस बात से अंदाजा लगता है कि महावीर ने 2500 साल पहले उसे करने में कितना बड़ा पराक्रम किया।'
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साधना और सिद्धि
स्त्रियों को साध्वी होने का अधिकार देना भगवान महावीर का विशिष्ट मनोबल था। इस समय दूसरे धर्म के आचार्य ऐसा करने से हिचकते थे।आचार्य विनोबा भावे ने इस प्रसंग को बड़े ही मार्मिक ढंग से स्पर्श किया है। उनके शब्दों में-- महावीर के संप्रदाय में स्त्री-पुरुषों का किसी प्रकार का भेद नहीं किया गया है। पुरुषों को जितने अधिकार दिए गए हैं, वे सब अधिकार बहनों को भी दिए गए हैं। मैं इन मामूली अधिकारों की बात नहीं करता हूं, जो इन दिनों चलता है और जिनकी चर्चा आजकल बहुत चलती है। उस समय ऐसे अधिकार प्राप्त करने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई होगी। परंतु मैं तो आध्यात्मिक अधिकारों की बात कर रहा हूं।
पुरुषों को जितने अध्यात्मिक अधिकार मिलते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी अधिकार हो सकते हैं इनआध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद- बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणाम स्वरुप उनके शिष्यों में जीतने श्रमण थे,उसे ज्यादा श्रंमणियां थीं।वह प्रथा आज तक जैन धर्म में चली आई है। आज भी जैन संन्यासिनी होती है। जैन धर्म में यह नियम है कि सन्यासी अकेले नहीं घूम सकते। दो से कम नहीं,ऐसी सन्यासी और सन्यासिनियों के लिए नियम है। तदनुसार दो-दो बहिनें हिंदुस्तान में घूमती हुई देखते हैं। बिहार, मारवाड,गुजरात, कोल्हापुर, कर्नाटक, और तमिलनाडु की तरफ इस तरह देखने को मिलती है,यह एक बहुत बड़ी विशेषता माननी चाहिए।
महावीर के पीछे 40 साल ही के बाद गौतम बुद्ध हुए, जिन्होंने स्त्रियों को सन्यास देना उचित नहीं समझा। स्त्रियों को सन्यास देने में धर्म- मर्यादा नहीं रहेगी, ऐसा अंदाजा उनको था। लेकिन एक दिन उनका शिष्य आनंद एक बहन को लेकर आया और बुद्ध भगवान के सामने उपस्थित किया और बुद्ध भगवान से कहा-- 'यह बहिन आपके उपदेश के लिए सर्वथा पात्र है, ऐसा मैंने देख लिया है।आपका उपदेश अर्थात सन्यास का उपदेश इसे मिलना चाहिए।' तो बुद्ध भगवान ने उसे दीक्षा दी और बोले --'हे आनंद !तेरे आग्रह और प्रेम के लिए मैं यह काम कर रहा हूं लेकिन इससे अपने संप्रदाय के लिए बड़ा खतरा मैंने उठा लिया है' ऐसा वाक्य बुद्ध भगवान ने कहा और वैसा परिणाम बाद में आया भी।
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साधना और सिद्धि
इंद्रभूति गौतमगोत्री थे। जैन साहित्य में इनका सुविश्रुत नाम गौतम है। भगवान के साथ इनके संवाद और प्रश्नोत्तर इसी नाम से उपलब्ध होते हैं। ये भगवान के पहले गणधर और ज्येष्ठ शिष्य बने।
इन्द्रभूति की घटना सुन दूसरे पण्डितों का क्रम बंध गया। एक-एक करके सब आए और भगवान के शिष्य बन गए। उन सबके एक-एक सन्देह था।--
1. इंद्रभूति-- जीव है या नहीं?
2. अग्निभूति-- कर्म है या नहीं?
3. वायुभूति--शरीर या जीव एक है या भिन्न?
4. व्यक्त -पृथ्वी आदि भूत है या नहीं?
5. सुधर्मा --यहां जो जैसा है वह परलोक में भी वैसा होता है या नहीं?
6 मंडितपुत्र --बंध- मोक्ष है या नहीं?
7. मोर्यपुत्र--देव है या नहीं?
8. अकंम्पित -नरक है या नहीं?
9. अचलभ्राता --पुण्य ही मात्रा -भेद से सुख- दु:ख का कारण बनता है या पाप उससे पृथक् है?
10. मेतार्य--आत्मा होने पर भी परलोक है या नहीं ?
11. प्रभास--मोक्ष है या नहीं?
भगवान उनके प्रच्छन्न संदेहों को प्रकाश में लाते गए और वे उनका समाधान पा अपने को समर्पित करते गए। इस प्रकार पहले प्रवचन में ही भगवान की शिष्य संपदा समृद्ध हो गई-- 4400 शिष्य बन गए।
भगवान ने इंद्रभूति आदि 11 विद्वान शिष्यों को गणधर--पद पर नियुक्त किया और अब भगवान का तीर्थ विस्तार पानी लगा। स्त्रियों ने प्रव्रज्या ली। साध्वी-संघ का नेतृत्व चंदनबाला को सौंपा। आगे चलकर 14000 साधु और 36000 साध्वियांँ हुई।
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2.भगवान महावीर
साधना और सिद्धि
ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था । शुक्ला दशमी का दिन था। छाया पूर्व की और ढल चुकी थी। पिछले पहर का समय,विजय मुहूर्त और उत्तरा-फाल्गुनी का योग था। उस बेला में भगवान महावीर जंभियग्राम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे श्यामाक गाथापति की कृषि-भूमि में व्यावर्त नामक चेत्य की निकट शालवृक्ष के नीचे 'गोदाहिका' आसन में बैठे हुए ईशानकोण की ओर मुंह कर सूर्य का आताप ले रहे थे।
दो दिन का निर्जल उपवास था। भगवान शुक्ल ध्यान में लीन थे। ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा। क्षपक श्रेणी ली। भगवान उत्क्रांत बन गए।उत्क्रांति के कुछ ही क्षणों में वे आत्म-विकास की आठवीं,नवीं और दसवीं भूमिका को पार कर गए। बाहरवीं भूमिका में पहुंचते ही उनके मोह का बंधन पूर्णत:टूट गया। वे वितराग बन गए। तेरहवीं भूमिका का प्रवेश-द्वार खुला। वहां ज्ञानावरण , दर्शनावरण और अन्तराय के बंधन पूर्णत: टूट गए।
भगवान अब अनंत- ज्ञानी,अनंत- दर्शनी, अनन्त- आनन्दमय और अनंत वीर्यवान बन गए। अब वे सर्वलोक के सर्व-जीवो के स्वभाव जानने- देखने लगे।उनका साधना- काल समाप्त हो गया। अब वे सिद्ध- काल की मर्यादा में पहुंच गए। तेरहवें वर्ष के सातवें महीने में वे केवली बन गए।
धर्म में संघीय प्रयोग
भगवान ने पहला प्रवचन देव परिषद में किया। देव अतिविलासी होते हैं। वे व्रत और संयम स्वीकार नहीं करते। भगवान का पहला प्रवचन निष्फल हुआ।
भगवान जंभियग्राम नगर से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे। वहां सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट यज्ञ का आयोजन कर रखा था। उस अनुष्ठान की पूर्ति के लिए वहां इंद्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आए हुए थे।
भगवान की जानकारी पा उनमें पांडित्य का भाव जागा। इंद्रभूति उठे। भगवान को पराजित करने के लिए वे अपनी शिष्य- संपदा के साथ भगवान के समवसरण में आए। उन्हें जीव के बारे में संदेह था। भगवान ने उनके गूढ प्रश्न को स्वयं सामने ला रखा। इंद्रभूति सहम गए। उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ।उनकी अंतर-आत्मा भगवान के चरणों में झुक गई। भगवान ने उसका संदेह निवर्तन किया। वे उठे,नमस्कार किया और श्रद्धापूर्वक भगवान के शिष्य बन गए।भगवान ने उन्हें छह जीव-निकाय,पांच महाव्रत और पचीस भावनाओं का उपदेश दिया।
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*साधना और सिद्धि
भगवान तृण- स्पर्श को सहते। तिनकों के आसन पर नंगे बदन बैठते, लेटते और नंगे पैर चलते तब वे चुभते।
भगवान उनकी चुभन से घबराकर वस्त्रधारी नहीं बने।
भगवान ने शीत- स्पर्श सहा ।शिशिर में जब ठंडी हवाएं फुंकारे मारती, लोग उनके स्पर्श मात्र से कांप उठते; दूसरे साधु पवन-शुन्य स्थान की खोज और कपड़ा पहने की बात सोचने लग जाते। कुछ तापस धूनी तप कर सर्दी से बचते कुछ लोग ठिठुरते हुए किवाड़ को बंद कर विश्राम करते ।वैसी कड़ी औरअसह्य सर्दी में भी भगवान शरीर-निरपेक्ष होकर खुले बरामदों और कभी-कभी खुले द्वार वाले स्थानों में बैठ उसे सहते।
भगवान ने आतापनाएंँ ली।सूर्य के सम्मुख होकर ताप सहा। वस्त्र न पहनने के कारण मच्छर और क्षुद्र जंतु काटते, वे उसे समभाव से सह लेते ।
भगवान ने साधना की कसौटी चाही। वे वैसे जनपदों में गए, जहां के लोग निर्ग्रन्थ साधुओं से परिचित नहीं थे।वहां भगवान ने स्थान और आसन संबंधी कष्टों को हंसते-हंसते सहा। वहां के लोग रुक्ष भोजी थे, इसीलिए उनमें क्रोध की मात्रा अधिक थी।उसका फल भगवान को भी सहना पड़ा। भगवान वहां के लिए पूर्णता अपरिचित थे,इसलिए कुत्ते भी उन्हें एक ओर से दूसरी ओर सुविधापूर्वक नहीं जाने देते। बहुत सारे कुत्ते भगवान को घेर लेते। तब कुछेक व्यक्ति ऐसे थे,जो उनको हटाते। बहुत लोग ऐसे थे, जो कुत्तों को भगवान को काटने के लिए प्रेरित करते ।वहां जो दूसरे श्रमण थे वे लाठी रखते,फिर भी कुत्तों के उपद्रव से मुक्त नहीं थे। भगवान के पास अपने बचाव का कोई साधन नहीं था, फिर भी वे शांत भाव से वहां घूमते रहें
भगवान का संयम अनुतर था ।वे स्वस्थ दशा में भी अवमौदर्य करते -कम खाते।रोग होने पर भी वे चिकित्सा नहीं करते, औषध नहीं लेते। वे विरेचन ,वमन, तेल- मर्दन स्नान, दत्तौन आदि नहीं करते। उनका पथ इंद्रिय के कांटों से अबाध था। कम खाना और औषध ने लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है। भगवान ने यह स्वास्थ्य के लिए नहीं किया। वे वही करते जो आत्मा के पक्ष में होता। उनकी सारी चर्या आत्मलक्षी थी। अन्न जल के बिना दो दिन,छह मास बिताए। उत्कटुक ,गोदोहिका आदि आसन किए, ध्यान किया,कषाय को जीता,यह सब निरपेक्ष भाव से किया। भगवान ने मोह को जीता, इसलिए वे 'जिन' कहलाए। भगवान की अप्रमत साधना सफल हुई।
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साधना और सिद्धि
भगवान तितिक्षा की परीक्षा- भूमि थे।चंड कौशिक सांप ने उन्हें काट खाया।और भी सांप नेवले आदि सरीसृप जाती के जंतु उन्हें सताते। पक्षियों ने उन्हें नोचा।
भगवान को मौन और शून्यगृह -वास के कारण अनेक कष्ट झेलने पड़े। ग्राम- रक्षक ,राजपुरुष और दुष्कर्मा व्यक्तियों का कोप भाजन बनना पड़ा। उन्होंने कुछ प्रसंगों पर भगवान को सताया। यातना देने का प्रयत्न किया।
भगवान अबहुबादी थे। वे प्राय: मौन रहते। आवश्यकता होने पर भी विशेष नहीं बोलते। एकांत स्थान में उन्हें खड़ा देख लोग पुछते-' तुम कौन हो?' तब भगवान कभी कभी नहीं बोलते। भगवान के मौन से चिढ़कर वे उन्हें सताते। भगवान क्षमा- धर्म को स्व-धर्म मानते हुए सब कुछ सह लेते। वे अपनी समाधि (मानसिक- संतुलन)को भी नहीं खोते।
कभी-कभी भगवान प्रश्नकर्ता को संक्षिप्त-सा उतर देते।'मैं भिक्षु हूं'-यह कहकर फिर अपने ध्यान में लीन हो जाते।
देवों ने भी भगवान को अछूता नहीं छोड़ा। उन्होंने भी भगवान को घोर उपसर्ग दिए। भगवान ने गंध, शब्द ,और स्पर्श सम्बन्धी अनेक कष्ट सहे।
सामान्य बात यह है कि कष्ट किसी के लिए इष्ट नहीं होता। स्थिति यह है कि जीवन में कष्ट आते हैं, फिर वे प्रिय लगने लगे या ना लगे। कुछ व्यक्ति कष्टों को विशुद्धि के लिए वरदान मान उन्हें हंसते-हंसते झेल लेते हैं। कुछ व्यक्ति अधीर हो जाते हैं। अधीर को कष्ट सहन करना पड़ता है और धीर कष्ट को सहते हैं।
साधना का मार्ग इससे भी और आगे है। वहां कष्ट निमंत्रित किए जाते हैं। साधनाशील उन्हें अपने भवन का दृढ़ स्तंभ मानते हैं।कष्ट आने पर साधना का भवन गिर न पड़े, इस दृष्टि से वे पहले ही उसे कष्टों के खंभों पर खड़ा करते हैं। जान- बूझकर जो कष्टों को न्योता देते हैं, उसे उनके आने पर अरति और न आने पर रत्ति नहीं हो सकती।अरति और रति- ये दोनों साधना के बाधक है। भगवान महावीर इन दोनों को पचा लेते थे। वे मध्यस्थ थे। मध्यस्थ वही होता है, जो अरति और रति की ओर न झुके।
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साधना और सिद्धि
आहार की मीमांसा में अहिंसा-विशुद्धि के बाद ब्रम्हचर्य की विशुद्धि की ओर ध्यान देना सहज प्राप्त होता है। भगवान आहार -पानी की मात्रा के जानकार थे। रस-गृद्धि से वे किनारा करते रहे।वे जीमनवार में नहीं जाते और दुर्भिक्ष भोजन भी नहीं लेते। उन्होंने सरस भोजन का संकल्प तक नहीं किया । वे सदा अनासक्त और यात्रा- निर्वाह के लिए भोजन करते रहे। भगवान ने अनासक्ति के लिए शरीर की परिचर्या को भी त्याग रखा था। वे खाज नहीं खनते। आंख को भी साफ नहीं करते। भगवान संग- त्याग की दृष्टि से ग्रहस्थ के पात्र में खाना नही खाते।और न ही उनके वस्त्र ही पहनते।
भगवान का दृष्टि- संयम अनुतर था। वे सर्दी में नंगे बदन घूमते। सर्दी से डरे बिना हाथों को फैलाकर चलते। भगवान अप्रतिबद्ध-विहारी थे, परिवा्रजक थे। बीच-बीच में शिल्प-शाला, सुना घर, झोपड़ी, प्रपा, दुकान, लोहाकार- शाला विश्राम-गृह, श्मशान वृक्ष मूल आदि स्थानों में ठहरते। इस प्रकार भगवान 12 वर्ष और साढ़े छह माह तक कठोर- चर्या का पालन करते हुए आत्म-समाधि में लीन रहे। भगवान साधना- काल में समाहित हो गए। अपने आप में समा गए। भगवान दिन-रात जागरूक रहते। उनका अंतः करण सतत क्रियाशील या आत्मान्वेषी हो गया। भगवान अप्रमत बन गए। वे भय और दोषकारक प्रवृत्तियों से हटकर सतत जागरूक बन गए।
ध्यान करने के लिए समाधि(आत्म-लीनता या चित स्वास्थ्य), चेतना और जागरूकता- ये सहज अपेक्षित है। भगवान ने आत्मिक वातावरण को ध्यान के अनुकूल बना लिया। बाहरी वातावरण पर विजया पाना व्यक्ति के सामर्थ्य की बात है, उसे बदलना उसके सामर्थ्य से परे भी हो सकता है। आत्मिक वातावरण बदला जा सकता है। भगवान ने इस सामर्थ्य को पूरा उपयोग किया। भगवान ने नींद पर भी विजय पा ली। वे दिन- रात का अधिक भाग खड़े रहकर ध्यान में बिताते। विश्राम के लिए थोड़े समय लेटते तब भी नींद नहीं लेते। जब कभी नींद सताने लगती तो भगवान फिर खड़े होकर ध्यान में लग जाते। कभी-कभी तो सर्दी की रातों में घड़ियों तक बाहर रहकर नींद टालने के लिए ध्यानमग्न हो जाते।
भगवान ने पूरे साधना काल में मात्र एक मूहुर्त तक नींद ली। शेष सारा समय ध्यान और आत्म- जागरण में बीता।
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साधना और सिद्धि
भगवान ने विजातीय तत्वों( पुद्गल-आसक्ति) को न शरण दी और न उनकी ली। वे निरपेक्ष भाव से जीते रहे।
भगवान श्रमण बनने से दो वर्ष पहले ही अपेक्षाओं को ठुकराने लगे। सजीव पानी छोड़ दिया, अपना अकेलापन देखने लग गए; क्रोध, मान, माया और लोभ की ज्वाला को शांत कर डाला।सम्यक- दर्शन का रूप निखर उठा। पौद्गलिक आस्ताएँ हिल गई।
भगवान ने मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और चर जीवों का आस्तित्व जाना। उन्हें सजीव मान वे उनकी हिंसा से विलग हो गए।
भगवान ने संसार के उपादान को ढूंढ निकाला। उनके अनुसार उपाधि- परिग्रह से बंधे हुए जीव ही कर्मबद्ध होते हैं।कर्म ही संसार भ्रमण का हेतु है। वे कर्मों के स्वरूप को जान उनसे अलग हो गए। भगवान ने स्वयं अहिंसा को जीवन में उतारा। दूसरों को उसका मार्गदर्शन दिया। वासना को सर्व कर्म- प्रवाह का मूल मान भगवान ने स्त्री- संग छोड़ा
अहिंसा और ब्रह्मचर्यच-ये दोनों साधना के आधारभूत तत्व है।अहिंसा अवैर- साधना है। ब्रम्हचर्य जीवन की पवित्रता है। अवैर भाव के बिना आत्मसाम्य की अनुभूति और पवित्रता के बिना विकास का मार्गदर्शन नहीं हो सकता। इसलिए भगवान ने उन पर बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से मनन किया।
भगवान ने देखा-- बंध कर्म से होता है। उन्होने पाप को ही नहीं, उसके मूल को उखाड़ फेंका।
भगवान अपने लिए बनाया हुआ भोजन नहीं लेते। वे शुद्ध भिक्षा के द्वारा अपना जीवन चलाते। आहार का विवेक करना अहिंसा और ब्रह्मचर्य इन दोनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जीव- हिंसा का हेतुभूत आहार जैसे सदोष होता है, वैसे ही ब्रम्हचर्य में बाधा डालने वाला आहार भी सदोष है।
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साधना और सिद्धि
भगवान ने क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद आदि सभी वादों को जाना और ,फिर अपना मार्ग चुना। वे स्वयं संम्बुद्ध थे। भगवान निर्ग्रन्थ बनते ही अपनी जन्मभूमि से चल पड़े। हेमंत ऋतु थी।भगवान के पास केवल एक देव- दूष्य वस्त्र था। भगवान ने नहीं सोचा कि सर्दी में मैं यह वस्त्र पहनूंगा। वे कष्ट- सहिष्णु थे। तेरह महीनों तक वह वस्त्र भगवान के पास रहा। फिर उसे छोड़कर भगवान पूर्ण अचेल हो गए। वे पूर्ण असंग्रही थे ।
भगवान प्रहर-प्रहर तक किसी लक्ष्य परआंखे टीका ध्यान करते। उस समय गांव के बाल- बच्चे उधर से आ निकलते और भगवान को देखते ही हल्ला मचाते, चिल्लाते।फिर भी वे स्थिर रहते। वे ध्यान लीन थे।
भगवान को प्रतिकूल कष्टों की भांति अनुकूल कष्ट सहने पड़े। भगवान जब कभी जनाकीर्ण बस्ती में ठहरते, उनके सौंन्दर्य से ललचा अनेक ललनाएँ उनका प्रेम चाहती। भगवान उन्हें साधना की बाधा मान परहेज करते। वे स्व- प्रवेशी की (आत्म-लीन) थे।
साधना के लिए एकांतवास और मौन,-- ये आवश्यक है। जो पहले अपने को न साधे, वह दूसरों का हित नहीं सकता है। स्वयं अपूर्ण,पूर्णता का मार्ग नहीं दिखा सकता।
भगवान् ग्रहस्थों से मिलना-जुलना छोड़ ध्यान करते, पूछने पर भी नहीं बोलते। कई आदमी भगवान को -पीटते, किंतु उन्हें भी वे कुछ नहीं कहते।भगवान वैसी कठोरचर्या मे रम रहे थे जो सबके लिए सुलभ नहीं है।
भगवानों असह्य कष्टों को सहते। कठोरतम कष्टों की वे परवाह नहीं करते। व्यवहार दृष्टि में उनका जीवन नीरस था। वे नृत्य और गीतों से जरा भी नहीं ललचाते। दण्ड-युद्ध,मुष्टि-युद्ध आदि लड़ाइयां देखने को भी उत्सुक नही होते।
भगवान स्त्री कथा,भक्त-कथा, देश कथा और राज्य कथा में भाग नहीं लेते। उन्हें मध्यस्थ भाव से डाल देते। वे सारे कष्ट-- अनुकूल और प्रतिकूल, जो साधना के पूर्ण विराम है, भगवान को लक्ष्यच्युत नहीं कर सके।
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2.भगवान महावीर
नाम और गोत्र।
भगवान जब ित्रसला के गर्भ में आए, तब से सम्पदाएँ बढ़ी, इसलिए माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा।
वे ज्ञात (नाग)नामक क्षत्रिय- कुल में उत्पन्न हुए, इसलिए कुल के आधार पर उनका नाम नागपुत्र हुआ ।
साधना के दीर्घकाल में उन्होंने अनेक कष्टों का वीर- वृत्ति से सामना किया। अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुए, इसलिए उनका नाम महावीर हुआ।यही नाम सबसे अधिक प्रचलित है।
सिद्धार्थ काश्यप गौत्रीय थे। पिता का गोत्र ही पुत्र का गोत्र होता है। इसलिए महावीर काश्यप गौत्रीय कहलाए।
योवन और विवाह
बाल क्रीड़ा के बाद अध्ययन का समय आया। तीर्थंकर गर्भ काल से अवधि- ज्ञानी होते हैं। महावीर भी अवधि- ज्ञानी थे। वे पढ़ने के लिए गए। अध्यापक जो पढ़ाना चाहता था, वह उन्हें ज्ञात था। आखिर अध्यापक ने कहा--आप स्वयं सिद्ध हैं। आपको पढ़ने की आवश्यकता नहीं ।
योवन आया। महावीर का विवाह हुआ। वे सहज विरक्त थे।विवाह करने की उनकी इच्छा नहीं थी। पर माता-पिता के आग्रह से उन्होंने विवाह किया। दिगंम्बर परंम्परा के अनुसार महावीर अविवाहित ही रहे। श्वेताम्बर-साहित्य के अनुसार उनका विवाह छत्रिय -कन्या यशोदा के साथ हुआ। उनके प्रियदर्शना नाम की एक कन्या हुई। उसका विवाह सुदर्शना के पुत्र (आपके भानजे) जमाली के साथ हुआ।
उनके एक शषवती (दूसरा नाम यशस्वती) नाम की दौहित्री--धेवती हुई।
महाभिनिष्क्रमण
जब वे अट्ठाईस वर्ष के हुए तब उनके माता- पिता का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने तत्काल श्रमण बनना चाहा पर नन्दीवर्धन के आग्रह से वैसा ना हो सका। उन्होंने महावीर से घर में रहने का आग्रह किया। वे उसे टालने सके। दो वर्ष तक फिर घर में रहे। यह जीवन उनका एकांत विरक्तिमय बीता।उस समय उन्होंने कच्चा जल पीना छोड़ दिया, रात्रि भोजन नहीं किया और ब्रह्मचारी रहे।
तीस वर्ष की अवस्था में उनका अभीनिष्क्रमण हुआ। अमरत्व की साधना के लिए निकल गए। 'आज से सब पाप- कर्म अकरणीय है '--इस प्रतिज्ञा के साथ वे श्रमण बने।
शान्ती उनके जीवन का साध्य था। क्रांति उसका सहचर परिणाम। उन्होंने बारह वर्ष तक शांत,मौन और दीर्घ तपस्वी जीवन बिताया।
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2.भगवान महावीर
संसार जुआ है।उसे खींचने वाले दो बैल हैं-- जन्म और मौत। संसार का दूसरा पार्श्व है--मुक्ति। जहां जन्म और मौत दोनों नहीं है। वह अमृत है। वह अमरत्व की साधना का साध्य है। मनुष्य किसी साध्य की पूर्ति के लिए जन्म नहीं लेता।जन्म लेना संसार की अनिवार्यता है। जन्म लेने वाले में योग्यता होती है, संस्कारों का संचय होता है। इसलिए वह अपनी योग्यता के अनुकूल अपना साध्य चुन लेता है। जिसका जैसा विवेक, उसका वैसा ही साध्य और वैसी ही साधना है-- यह एक तथ्य है। उसका अपवाद नहीं होता। भगवान महावीर भी इसके अपवाद नहीं थे।
जन्म और परिवार
दुषम-सुषमा पूरा होने में 74 वर्ष 11 महीने साढ़े 7 दिन बाकी थे। ग्रीष्म ऋतु थी।चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को मध्यरात्रि की बेला थी। उस समय भगवान महावीर का जन्म हुआ। यह ईस्वी पूर्व 599 की बात है। विदेह में कुण्डपुर नामक एक नगर था। उसके दो भाग थे। उत्तर भाग का नाम क्षत्रिय कुण्डग्राम और दक्षिण भाग का नाम ब्राह्मण कुण्डग्राम था। भगवान का जन्म तक दक्षिण कुण्डग्राम में हुआ था।
भगवान की माता त्रिशला क्षत्रियाणी और पिता सिद्धार्थ थे। वे भगवान पार्श्व की परंपरा के श्रमणोपासक थे।
त्रिशला वैशाली गणराज्य के प्रमुख चेटक की बहन थी।सिद्धार्थ क्षत्रिय कुण्डग्राम के अधिपति थे।
भगवान के बड़े भाई का नाम नंदीवर्धन था । उसका विवाह चेटक की पुत्री ज्येष्टा के साथ हुआ था।भगवान के काका का नाम सुपार्श्व और बड़ी बहन का नाम सुदर्शना था।
नाम और गोत्र
भगवान जब त्रिशला के गर्भ में आए, तब से सम्पदाएँ बढ़ी ।इसीलिए माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा।
वे ज्ञात (नाग) नामक क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न हुए, इसलिए कुल के आधार पर उनका नाम नागपुत्र हुआ।
साधना के दीर्घकाल में उन्होंने अनेक कष्टों का वीर- वृति से सामना किया। अपने लक्ष्य से कभी भी विचलित नहीं हुेए,इसलिए उनका नाम महावीर हुआ। यही नाम सबसे अधिक प्रचलित है। सिद्धार्थ -- काश्यप गौत्रीय थे। पिता का गौत्र ही पुत्र का गौत्र होता है। इसलिए महावीर काश्यप गोत्रीय कहलाए।
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तीर्थंकर पार्श्व
पार्श्व के पहले ब्राह्मणों के बड़े- बड़े समूह थे, पर वे सिर्फ यज्ञ- याग का प्रचार करने के लिए ही थे।यज्ञ -याग का तिरस्कार कर उसका त्याग करके वनों में तपस्या करने वालों के संघ भी थे। तपस्या का एक अंग समझकर ही वे अहिंसा धर्म का पालन करते थे पर समाज में उसका उपदेश नहीं देते थे।वे लोगों से बहुत कम मिलते- जुलते थे।
बुद्ध के पहले यज्ञ- याग को धर्म मानने वाले ब्राह्मण थे और उसके बाद यज्ञ-याग से उबकर जंगलों में जाने वाले तपस्वी थे।बुद्ध के समय ऐसे ब्राह्मण और तपस्वी ने थे,ऐसी बात नहीं थी। पर इन दो प्रकार के दोषों को देखने वाले तीसरे प्रकार के सन्यासी भी थे और उन लोगों में पार्श्व मुनि के शिष्यों को पहला स्थान देना चाहिए'।
जैन परंपरा केअनुसार चातुर्याम धर्म के प्रथम प्रवर्तक भगवान अजीतनाथ और अंतिम प्रवर्तक भगवान पार्श्व
हैं। दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेईसवें तीर्थंकर तक चातुर्याम धर्म का उपदेश चला।केवल भगवान ऋषभ और भगवान महावीर ने पांच महाव्रत धर्म का उपदेश दिया। निग्रन्थ श्रमणों के संघ भगवान ऋषभ से ही रहे हैं,किंतु वे वर्तमान
इतिहास की परिधि से परे है। इतिहास की दृष्टि से कौसम्बजी की संघबद्धता सम्बन्धी धारणा सही है।
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तीर्थंकर पार्श्व
धर्मानन्द कौसंम्बी ने भगवान पार्श्व के बारे में कुछ मान्यताऍ प्रस्तुत की है --
'परीक्षित का राज्य- काल बुद्ध से तीन शताब्दियों से पूर्व नहीं जा सकता।परीक्षित के बाद जनमेजय गद्दी पर आया और उसने कुरु देश में महायज्ञ कर वैदिक धर्म का झंडा फहराया। इस समय काशी देश में पार्श्व एक नई संस्कृति की नींव डाल रहे थे। पार्श्व का जन्म वाराणसी नगर में अश्वसेन राजा की वामा नामक रानी से हुआ ।ऐसी कथा जैन ग्रंथों में आयी है। पार्श्व की नई संस्कृति काशी राज्य में अच्छी तरह टिकी रही होगी, क्योंकि बुद्ध को भी अपने पहले शिष्यों को खोजने के लिए वाराणसी ही जाना पड़ा था '
पार्श्व का धर्म बिल्कुल सीधा-साधा था। हिंसा, असत्य, स्तेय तथा परिग्रह-- इन चार बातों के त्याग करने का वे उपदेश देते थे ।इतने प्राचीन काल में अहिंसा का इतना सुसम्बद्ध रूप देने का यह पहला ही उदाहरण है
सिनाई पर्वत पर मोजेस को ईश्वर ने जो दस आज्ञाऍ सुनाई, उनमें हत्या मत करो, इसका भी समावेश था। पर उन आज्ञाओं को सुनकर मोजेस और उनके अनुयायी पैलेस्टाइन में घुसे और वहां खून की नदियां बहाई। न जाने कितने लोगों को क़त्ल किया और ना जाने कितनी युवतियों को पकड़कर आपस में बांट लिया। इन बातों को अहिंसा कहना हो तो फिर हिंसा किसे कहा जाए। तात्पर्य यह है पार्श्व के पहले पृथ्वी पर सच्ची अहिंसा से भरा हुआ धर्म है या तत्व ज्ञान था ही नहीं।
पार्श्व मुनि ने एक और बात की।उन्होंने अहिंसा को सत्य, अस्तेय, और अपरिग्रह-- इन नियमों के साथ जकड़ दिया।इस कारण पहले जो अहिंसा ऋषि मुनियों के आचरण तक ही सीमित थी और जनता की व्यवहार में इसका कोई स्थान न था, अब वह इन नियमों के संबंध से सामाजिक और व्यावहारिक हो गई।
पार्श्व मुनि ने तीसरी बात यह की कि अपने नवीन धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने संघ बनाएं। बोद्ध साहित्य से इस बात का पता लगता है कि बुद्ध के समय जो संघ विधमान थे, का उन सबों में जैन साधु और साध्वियों का संघ सबसे बड़ा था।
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तीर्थंकर पार्श्व
तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्व इतिहासिक पुरुष हैं। उनका तीर्थ प्रवर्तन भगवान महावीर से 250 वर्ष पहले हुआ।भगवान महावीर के समय तक उनकी परंपरा अविच्छिन्न थी। भगवान महावीर के माता- पिता भगवान पार्श्व के अनुयाई थे। अहिंसा और और सत्य की साधना को समाज व्यापी बनाने का श्रेय भगवान पार्श्व को है। भगवान पार्श्व अहिंसक-परंपरा के उन्नयन द्वारा बहुत लोकप्रिय हो गए थे। इसकी जानकारी हमें 'पुरिसादाणीय'
(पुरुसादानीय)विशेषण के द्वारा मिलती है। भगवान महावीर भगवान पार्श्व के लिए इस विशेषण का सम्मान पूर्वक प्रयोग करते थे।
ये काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे।इनकी माता का नाम वामादेवी था। ये 30 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए।वर्षों तक साधना करके केवली बने। तीर्थ की स्थापना कर ऋषभ की श्रंखला में 23 वें तीर्थंकर हुए।।
इनका जन्म ई.पू. 877 में हुआ।उन्होंने 100 वर्ष की आयु व्यतीत कर ई.पू. 777 में सम्मेद शिखर (पारसनाथ पहाड़ी) पर परिनिर्वाण को प्राप्त किया। इसके 178 वर्ष पश्चात भगवान महावीर का जन्म हुआ। पार्श्व के समय में चातुर्याम धर्म पर प्रवर्तित था।
एक बार राजकुमार पार्श्व गंगा के किनारे घूमने निकले। वहां एक तापस पंचांग्नि तप कर रहा था। चारों दिशाओं में अग्नि जल रही थी। ऊपर से सूर्य का प्रचंड ताप आर हा था। पारॅश्व वहां आकर रुके। उन्हें जन्म से अवधि ज्ञान (एक प्रकार का अतिंद्रीय ज्ञान) प्राप्त था। उस दिव्य ज्ञान से उन्होंने लक्कड़ से जल रहे सर्प- युगल को जान लिया। उन्होंने तापस से कहा -'यह क्या? जल रहे इस लक्कड़ में सांप का एक जोड़ा है ।वह जलकर भस्म हो जाएगा।' लक्कड़ को बाहर निकाला गया। सांप का जोड़ा अधजला हो चुका था।उसे देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए। राजकुमार पार््श्व ने उसे नमस्कार मंत्र सुनाया। वह सर्प-युगल मरकर देव- रूप में उत्पन्न हुआ। धरणेन्द्र- पद्मावती के नाम से वह युगल पार्श्वनाथ का परम उपासक बना।
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अरिष्ठनेमी को चोपन दिन के बाद आश्विन कृष्ण अमावस्या के दिन कैवल्य--की प्राप्ति हो गई।वे केवली बने। वे धर्मतीर्थ का प्रवर्तन कर बाईसवें तीर्थंकर हो गए।
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंगिरस ऋषि थे। जैन आगमों के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु बाईसवें तीर्थंकर
अरिष्ठनेमी थे । घोर अांगिरस ने कृष्ण को जो आत्मवादी धारणा का उपदेश दिया है, वह जैन परम्परा से भिन्न नहीं है।' तू अक्षत-+अक्षत है, अच्युत-- अविनाशी है और प्राणसंशित-- अतिसूक्ष्मप्राण है'इस त्रयी को सुनकर श्रीकृष्ण अन्य विधाओं के प्रति तृष्णा-- हीन हो गए। जैन दर्शन आत्मवाद की भिति पर अवस्थित है। घोर अांगिरस ने जो उपदेश दिया उसका संबंध आत्मवादी धारणा से है।
' इसिभासिय' में आंगिरस नाम प्रत्येक बुद्ध का उल्लेख है। वे भगवान अरिष्ठनेमी के शासनकाल में हुए थे।इस आधार पर यह संभावना की जा सकती है कि घोर आंगिरस या तोअरिष्ठनेमी का शिष्य था या उनके विचारो से प्रभावित कोई सन्यासी रहे होंगे।
कृष्ण और अरिष्ठनेमी का परिवारिक संबंध भी था।अरिष्टनेमि समुद्रविजय के और कृष्ण वासुदेव के पुत्र थे। समूद्र विजय और वासुदेव सगे भाई थे। कृष्ण ने अरिष्ठनेमी के विवाह के लिए प्रयत्न किया। अरिष्ठनेमी की दीक्षा के समय वे उपस्थित थे।राजीमति को भी दीक्षा के समय उन्होंने भावुक शब्दों में आशीर्वाद दिया था।
कृष्ण के प्रिय अनुज गज सुकुमाल ने अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली।
कृष्ण की 8 पत्नियां अरिष्ठनेमी के पास प्रव्रजीत हुई। कृष्ण के पुत्र और अनेक परिवारिक लोग अरिष्टनेमि के शिष्य बने।जैन साहित्य में अरिष्ठनेमी और कृष्ण के वार्तालापों, प्रश्नोत्तरों और विविध चर्चाओं के अनेक उल्लेख मिलते हैं।
वेदों में कृष्ण के देवरूप की चर्चा नहीं है! छान्दोग्य उपनिषद में भी कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन है।पौराणिक काल में कृष्ण का रूप--परिवर्तन होता है। वह सर्वशक्तिमान देव बन जाते हैं। कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन जैन आगमों में मिलता है। अरिष्ठनेमी और उनकी वाणी से प्रभावित थे, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
उस समय सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना का आलोक समूचे भारत में आलोकित कर रहा था।
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सौराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना
बौद्ध साहित्य का जन्म काल महात्मा बुद्ध के पहले का नहीं है। जैन साहित्य का विशाल भाग भगवान महावीर से पूर्व का नहीं है। पर थोड़ा भाग भगवान पा पार्श्वनाथ की परंपरा का भी उसमें मिश्रित है। यह बहुत संभव है भगवान अरिष्ठनेमी की परंपरा का साहित्य उपलब्ध नहीं है।
वेदों का अस्तित्व 5000 वर्ष प्राचीन माना जाता है। उपलब्ध साहित्य श्री कृष्ण--युग का उत्तरवर्ती है। इस साहित्यिक उपलब्धि द्वारा कृष्ण- युग तक एक रेखा-चित्र खींचा जा सकता हैं। उससे पूर्व की स्थिति सुदूर अतीत में चली जाती है।
सॉरीयपुर नगर में अंन्धक कुल के नेता समुंद्रविजय राज्य करते थे।उनकी पटरानी का नाम शिवा था।उनके 4 पुत्र थे-- अरिष्ठनेमि,रथनेमि,सत्यनेनमि और दृढनेमि। अरिष्ठनेमी बाईसवें तीर्थंकर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक बुद्ध।
अरिष्ठनेमी का जीव जब शिवारानी के गर्भ में आया,तब माता ने 14 सवप्न देखे।श्रावन- कृष्णा पंचमी को रानी ने पुत्र-- रत्न का प्रसव किया। स्वप्न में रिष्टरत्नमय नेमी देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्ठनेमी रखा।
अरिष्ठनेमी युवा हुए। इंद्रिय- विषयों की और उनका अनुराग नहीं था। वे विरक्त थे। पिता समुद्र विजय ने सोचा कि ऐसा उपक्रम किया जाए जिससे कि अरिष्ठनेमी विषयों के प्रति आसक्त होकर गृहस्थ जीवन जिए। अनेक प्रय TC TVत्न किए।अनेक प्रलोभन दिए गए पर वे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। कुछ समय बिता। अंत में कृष्ण के समझाने पर वे विवाह करने के लिए राजी हुए।
भोज कुल की राजन्य अग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ उनका विवाह निश्चित हुआ। विवाह से पूर्व किए जाने वाले सारे रीति रिवाज संपन्न हुए। विवाह का दिन आया। राजीमती अलंकृत हुई। कुमार अरिष्ठनेमी भी अलंकृत होकर हाथी पर अारुढ हुए।मंगलदीप सजाए गए। बाजे बजने लगे। वर यात्रा प्रारंभ हुई हजारों लोगों ने उसे देखा। वह विवाह मंडप की ओर धीरे-धीरे बढ रही थी। एक स्थान पर अरिष्ठनेमी को करुण शब्द सुनाई दिए। उन्होंने महावत से पूछा--'ये शब्द कहां से आ रहे हैं महावत ने कहा--' देव! ये शब्द पशुओं की चित्कार के हैं। ये आपके विवाह में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के लिए भोज्य बनेंगे।मरण--भय से वे आक्रन्दन कर रहे हैं।'
अरिष्ठनेमी का मन खिन्न हो गया उन्होंने कहा--यह कैसा आनंद! यह केसा विवाह! जहां हजारों पशुओं का वध किया जाता है।यह तो संसार में परिभ्रमण का हेतू है। मैं इसमें क्यों पड़ू। उन्होंने अपने हाथी को वहां से अपने निवास-- स्थान की ओर मोड़ दिया। माता-पिता के पास गए और प्रव्रजित होने की इच्छा व्यक्त की। माता पिता की आज्ञा प्राप्त करके तेले की तपस्या में उज्जयंत पर्वत पर सहस्त्राम्रवन मे श्रावन शुक्ला षष्ठी के दिन एक हजार व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हो गए।
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भरत ने कहा-'तेल भरा कटोरा लिए सारे नगर में घूम आओ। तेल की एक बूंद नीचे ना डालो तो तुम छूट सकते हो। दूसरा कोई विकल्प नहीं है।'
अभियुक्त ने वैसा ही किया। वह बड़ी सावधानी से नगर में घुम आयाऔर सम्राट के सामने प्रस्तुत हुआ।
सम्राट ने पूछा-' नगर में घूम
आए?'*
'जी ,हांँ।अभियुक्त* ने सफलता
के भाव से कहा।
सम्राट--'नगर में कुछ देखा
तुमने?
अभियुक्त--' नहीं, सम्राट!कुछ
नहीं देखा।'
सम्राट-- 'कई नाटक देखे
होंगे?'
अभियुक्त --'जी नहीं! मौत के
सिवा कुछ भी नहीं देखा।'
सम्राट-- 'कुछ गीत तो सुने होंगे?'
ो सुने होंगे
अभियुक्त---'सम्राट की साक्षी से कहता हूं, मौत की गुनगुनाहट के सिवा कुछ नहीं सुना।'
सम्राट-'मौत का इतना डर?'
अभियुक्त--'सम्राट इसे क्या जाने।यह मृत्युदंड पाने वाला ही समझ सकता है।'
सम्राट--'क्या सम्राट अमर रहेगा? कभी नहीं। मौत के मुंह से कोई नहीं बच सकता। तुम एक जीवन की मौत से डर गए। न तुमने नाटक देखे और ना गीत सुने। मैं मौत की लंबी परंपरा से परिचित हूं।यह साम्राज्य मुझे नहीं लुभा सकता।'
सम्राट की करुणा पूर्ण आंखों ने अभियुक्त को अभय बना दिया। मृत्यु--दंड उसके लिए केवल शिक्षाप्रद था। सम्राट की अमृरत्व--निष्ठा ने उसे मौत से सदा के लिए उधार लिया।
श्रामण्य की ओर
सम्राट नहाने को थे। स्नानागार में गए,अंगूठी खोली। अंगुली की शोभा घट गई। फिर उसे पहना, शोभा बढ़ गई।पर पदार्थ से शोभा बढ़ती है,यह सौंदर्य कृत्रिम है'-- इस चिंतन में लगे और लगे सहज सौंदर्य ढूंढने।भावना का प्रवाह आगे बढ़ा। कर्म--मल को धो डाला। छणों में ही मुनी बने, न वेश बदला,न राजप्रसाद से बाहर निकले,किंतु उनका आंतरिक संयम इनसे बाहर निकल गया और वे पिता के पथ पर चल पड़े।
ऋषभ के पश्चात
काल का चौथा चरण दुषमा-- सुषमा आया। वह 42000 वर्ष कम 1 कोटी--कोटी सागर तक रहा। इस अवधि में कर्मक्षेत्र का पूर्ण विकास हुआ।
धर्म बहुत फुला-- फुला। इस युग में जैन धर्म के बीस तीर्थंकर हुए यह सारा दर्शन प्रागैतिहासिक युग का है। इतिहास अन्नंत अतीत की चरण धूलि को भी नहीं छू सका है। यह 5000 वर्ष को भी कल्पना की आंख से देख पाता है।
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गतांक से आगे-----
बाहुबली के पैर आगे नहीं बढ़े। वे पिता की शरण में चले गए, पर उनके पास नहीं गए। अहंकार अब भी बच रहा रहा था। पूर्व दीक्षित छोटे भाइयों को नमस्कार करने की बात आते ही उनके पैर रुक गए। वे एक वर्ष तक ध्यान मुद्रा में खड़े रहे। विजय और पराजय की रेखाएं अनगिनत होती है। असंतोष पर विजय पाने वाले बाहुबली अहं से पराजित हो गए।उनका त्याग और क्षमा उन्हें आत्म -दर्शन की ओर ले गए। उनके अहं ने उन्हें पीछे ढकेल दिया। बहुत लंबी ध्यान-- मुद्रा के उपरांत भी आगे नहीं बढ़ सके।
'ये पैर रुक क्यो रहे हैं? सरिता का प्रवाह रुक क्यों रहा है?'यह शब्द बाहुबली के कानों को बी्ंध ह्रदय को पार कर गए। बाहुबली ने आंखें खोली। देखा, ब्राह्मी और सुंदरी सामने खड़ी है।बहिनों को विनम्र-मुद्रा में देख उनकी आंखें झुक गई।
'अवस्था से छोटे-बड़े की मान्यता एक व्यवहार है। वह सार्वभौम सत्य नहीं हैे।ये मेरे गणित के छोटे से प्रश्न में उलझ गए। छोटे भाइयों को मैं नमस्कार कैसे करूं --इस तुच्छ चिंतन में मेरा महान साध्य विलीन हो गया। अवस्था लौकिक मानदंड है। लोकोत्तर जगत में छुटपन और बड़प्पन के मानदणड बदल जाते हैं। वे भाई मुझसे छोटे नहीं है, उनका चरित्र विशाल है मेरे अहं ने मुझे और छोटा बना दिया। अब मुझे अविलंम्ब भगवान के पास चलना चाहिए।
पैर उठे कि बंधन टूट पड़े। नम्रता के उत्कर्ष में समता का प्रवाह वह चला। वे केवली बन गए। सत्य का साक्षात ही नहीं हुआ, वे स्वयं सत्य बन गए।शिव अब उनका आराध्य नहीं रहा। वे स्वयं शिव बन गए। आनंद उनके लिए प्राप्य नहीं रहा, वे स्वयं आनंद बन गए।
भरत का अनासक्त योग
भरत असहाय जैसा हो गया। भाई जैसा शब्द उसके लिए अर्थवान न रहा।वह सम्राट बना रहा किंतु उसका ह्रदय अब साम्राज्यवादी नहीं रहा। पदार्थ मिलते रहे पर आसक्ति नहीं रही। वह उदासीन भाव से राज्य- संचालन करने लगा
भगवान अयोध्या आए।प्रवचन हुआ।एक प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा -'भरत मोक्ष-गामी है।' एक सदस्य भगवान पर बिगड़ गया और उन पर पुत्र के पक्षपात का आरोप लगाया। भरत ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी वह घबरा गया।भारत के पैरों पर गिर पड़ा और अपराध के लिए क्षमा मांगी।
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गतांक से आगे-----
युवक उन्हें चट कर जाएंगे। रोगी,दुर्बल और अपंग के लिए यहां कोई स्थान नहीं रहेगा। फिर तो यह सारा विश्व रौद्र बन जाएगा। क्रुरता के साथी हैं।--ज्वाला, स्फुलिंग, ताप और सर्वनाश। क्या मेरा भाई अभी- भी समूचे जगत को सर्वनाश की ओर धकेलना चाहता है ?आक्रमण एक उन्माद है आक्रांत उससे बेभान होकर दूसरों पर टूट पड़ता है।
'भरत ने ऐसा ही किया मैं उसे चुप्पी साधे देखता रहा। अब उस उन्माद के रोग का शिकार मैं हूं। हिंसा से हिंसा की आग नहीं बुझती-- यह में जानता हूं।आक्रमण को अभिशाप मानता हूं ।किंतु आक्रमणकारी को सहूँ-- यह मेरी तितिक्षा (सहन शक्ति) से परे है। तितिक्षा मनुष्य के उदात चरित्र की विशेषता है। किंतु उसकी भी एक सीमा है। मैंने उसे निभाया है।तोड़ने वाला समझता ही नहीं तो आखिर जोड़ने वाला कब तक जोड़ें?
भरत की विशाल सेना
" बहली"की सीमा पर पहुंच गई। इधर बाहुबली अपनी छोटी-सी सेना सजा आक्रमण को विफल करने आ गया। भाई-भाई के बीच युद्ध छिड़ गया। स्वाभिमान और स्वदेश-रक्षा की भावना से भरी हुई बाहुबली की छोटी- सी सेना ने सम्राट की विशाल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। सम्राट की सेना ने फिर पूरी तैयारी के साथ आक्रमण किया। दोबारा भी मुंह की खानी पड़ी। लंबे समय तक आक्रमण और बचाव की लड़ाइयां होती रही। आखिर दोनों भाई सामने आ खड़े हुए। तादात्म्य आंखों पर छा गया। संकोच के घेरे में दोनों ने अपने आप को छिपाना चाहा, किंतु दोनों विवश थे।एक के सामने साम्राज्य के सम्मान का प्रश्न था, दूसरे के सामने स्वाभिमान का। वे विनय और वात्सल्य की मर्यादा को जानते हुए भी रणभूमि में उतर आए। दृष्टि -युद्ध, मुष्ठि-युद्ध आदि पांच प्रकार के युद्ध निर्णीत हुए। उन सब में सम्राट पराजित हुआ। विजयी हुआ बाहुबली। भरत को छोटे भाई से पराजित होना बहुत चुभा। वह आवेग को रोक न सका। मर्यादा को तोड़ बाहुबली पर चक्र का प्रयोग कर डाला।इस अप्रत्याशित घटना से बाहुबली का खून उबल गया। प्रेम का स्रोत एक साथ ही सूख गया। बचाव की भावना से विहीन हाथ उठा तो सारे सन्न रह गए। भूमि और आकाश बाहुबली की विरुदावलियों से गूंज उठे। भरत अपने अविचारत इस प्रयोग से लज्जित हो सिर झुकाए खड़ा रहा। सारे लोग भरत की भूल को भुला देने की प्रार्थना करने लगे।
एक साथ लाखों कण्ठों से एक ही श्वर गूंजा--'महान पिता के पुत्र भी महान होते हैं।सम्राट ने अनुचित किया पर छोटे भाई के हाथ से बड़े भाई की हत्या और अधिक अनुचित कार्य होगा। महान ही क्षमा कर सकता है। क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता। महान पिता के महान पुत्र! हमें क्षमा कीजिए हमारे सम्राट को क्षमा कीजिए।'इन लाखों कण्ठों की विनम्र स्वर लहरियों ने बाहुबली के शौर्य को मार्गान्तरित कर दिया। बाहुबली ने अपने आप को संभाला। महान पिता की स्मृति में वेग का शमन किया। उठा हुआ हाथ विफल नहीं लौटता। उसका प्रहार भरत पर नहीं हुआ। वह अपने सिर पर लगा।सिर के बाल नोच डाले ।और अपने पिता के पथ की ओर चल पड़ा।
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गतांक से आगे-----
पुत्रों ने देखा, पिता उन्हें राज्य त्यागना की सलाह दे रहे हैं।पूर्व कल्पना पर पटाक्षेप हो गया। अकल्पित चित्र सामने आया। आखिर वे भी भगवान के बेटे थे। भगवान के मार्गदर्शन का सम्मान किया। राज्य को त्याग स्व-राज्य की ओर चल पड़े। स्व-राज्य की अपनी विशेषताएं हैं। उसे पाने वाला सब कुछ पा जाता है। राज्य की मोहकता तब तक रहती है जब तक व्यक्ति स्व-राज्य की सीमा में नहीं चला आता।एक संयम के बिना व्यक्ति सब कुछ पाना चाहता है। संयम के पाने पर कुछ भी पाए बिना सब कुछ पाने की कामना नष्ट हो जाती है।
त्याग शक्तिशाली अस्त्र है। इसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं है। भरत का आक्रमक दिल पसीज गया। वह दौड़ा दौड़ा आया। अपनी भूल पर पछतावा हुआ। भाइयों से क्षमा मांगी।स्वतंत्रता पूर्वक अपना अपना राज्य संभालने को कहा। किन्तु वे अब राज्य -लोभी सम्राट भरत के भाई नहीं रहे थे। वे अकिंचन जगत के भाई बन चुके थे। भरत का भातृ-प्रेम अब उन्हें नहीं ललचा सका। वे उसकी लालची आंखों को देख चुके थे।इसलिए उसकी गीली आंखों का उन पर कोई असर नहीं हुआ।भरत हाथ मलते हुए घर लौट गया।
साम्राज्यवाद एक मानसिक प्यास है। वह उभरने के बाद सहसा नहीं बुझती। भरत ने एक-एक कर सारे राज्यों को अपने अधीन कर लिया। बाहुबली को उसने नहीं छुआ। 98 भाइयों के राज्य त्याग को वह अब भी नहीं भूला था। अंतर्द्वंद चल रहा।एक छत्र राज्य का सपना पूरा नहीं हुआ।असंयम का जगत ही ऐसा है, जहां सब कुछ पाने पर भी व्यक्ति को अकिंचनता की अनुभूति होती रहती है।
युद्ध का पहला चरण
दूत के मुंह से भरत का संदेश सुन बाहुबली की भृकुटि तन गई। दबा हुआ रोष उभर आया। कांपते होठों से कहा-' दूत! भरत अभी भूखा है? अपने 98 सगे भाइयों का राज्य हड़प कर भी तृप्त नहीं बना ?हाय!यह कैसी मनोदशा है? साम्राज्यवादी के लिए निषेध जैसा कुछ होता ही नहीं। मेरा बाहुबल किससे कम है? क्या मैं दूसरे राज्यों को हड़प नहीं सकता?किंतु यह मानवता का अपमान शक्ति का दुरुपयोग और व्यवस्था का भंग है, मैं ऐसा कार्य नहीं कर सकता। व्यवस्था के प्रवर्तक हमारे पिता है ।उनके पुत्रों को उसे तोड़ने में लज्जा का अनुभव होना चाहिए।शक्ति का प्राधान्य पशु-जगत का चिन्ह है। मानव-जगत मे विवेक का प्राधान्य होना चाहिए ।शक्ति का सिद्धांत पनपा तो बच्चों और बूढों का क्या बनेगा?
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गतांक से आगे-----
साम्राज्य लिप्सा
भगवान ऋषभ कर्म युग के पहले राजा थे।अपने सौ पुत्रों को अलग-अलग राज्यों का भार सौंप वे मुनि बन गए। सबसे बड़ा पुत्र भरत था।वह चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहता था। उसने अपने 98 वे भाइयों को अपने अधीन करना चाहा ।सबके पास दूत भेजें। 98 भाई मिले। आपस में परामर्श कर भगवान ऋषभ के पास पहुंचे ।सारी स्थिति भगवान ऋषभ के सामने रखी।दुविधा की भाषा में पूछा--'भगवान! क्या करें? बड़े भाई से लड़ना नहीं चाहते और अपनी स्वतंत्रता को भी खोना नहीं चाहते।भाई भरत ललचा गया है। आपके दिए हुए राज्य को वह हम से वापस लेना चाहता है।हम उससे लड़े तो भ्रातृ- युद्ध की गलत परंम्परा पड़ जाएगी।बिना लड़े राज्य सौंप दे तो साम्राज्य का रोग बढ़ जाएगा। परमपिता! इस दुविधा से हमें उबारिये।'
भगवान ने कहा --'पुत्रों! तुमने ठीक सोचा। लड़ना भी बुरा है और क्लीव होना भी बुरा है। राज्य दो परों वाला पक्षी है। उसका मजबूत पर युद्ध है।उसकी उड़ान में पहले वेग होता है, अंत में थकान। वेग में चिंगारियांँ उछालती है। उड़ाने वाले लोग उसमें जल जाते हैं। उड़ने वाला चलता चलता थक जाता है। शेष रहती है निराशा और अनुताप।
'पुत्रों! तुम्हारी समझ सही है।युद्ध बुरा है-- विजेता के लिए भी और पराजित के लिए भी। पराजित अपनी सत्ता को गवाकर पछताता है।और विजेता कुछ भी नहीं पाकर पछताता है। प्रतिशोध की चिता जलाने वाला उसमें स्वयं न जले, यह कभी नहीं होता।'
'राज्य रूपी पक्षी का दूसरा पर दुर्बल है। वह है कायरता मैं तुम्हें कायर बनने की सलाह भी कैसे दे सकता हूं?पुत्रों! में तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूं,, जिसके साथ लड़ाई और कायरता की कड़ियां जुड़ी हुई नहीं है।'
भगवान की आश्वासन- भरी वाणी सुनकर वे सारी खुशी से झूम उठे। आशा- भरी दृष्टि से एक-टक भगवान की ओर देखने लगे।भगवान की भावना को वे नहीं पकड़ सके। भौतिक जगत की सत्ता और अधिकारों से परे कोई राज्य हो सकता है --यह उनकी कल्पना में नहीं समाया। उनकी किसी विचित्र भूखंड पाने की लालसा तीव्र हो उठी। भगवान इसीलिए हीं तो भगवान थे कि उनके पास कुछ भी नहीं था। उत्सर्ग की चरम रेखा पर पहुंचने वाले ही भगवान बनते हैं। इस संग्रह के चरम बिंदु पर पहुंच कोई भगवान बना हो ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है।
भगवान ने कहा --'संयम का क्षेत्र निर्वाध राज्य है। इसे लो। न तुम्हें कोई अधीन करने आएगा। और न वहां युद्ध और कायरता का प्रसंग होगा।'
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गतांक से आगे-----
शिल्प कला और व्यवसाय का प्रशिक्षण
ऋषभ ने अपने ज्येष्ट पुत्र भरत को 72 कलाएं सिखलाई।। कनिष्ठ पुत्र बाहुबली को प्राणी की लक्षण -विद्या का उपदेश दिया। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों और सुंदरी को गणित का अध्ययन कराया। धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, चिकित्साशास्त्र,क्रीडा- विधि आदि-आदि विद्याओं का प्रवर्तन कर लोगों को सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बना ।
अग्नि की उत्पत्ति ने विकास का स्त्रोत खोल दिया।पात्र, औजार, वस्त्र,चित्र,आदि शिल्पों का जन्म हुआ। अन्नपाक के लिए पात्र-निर्माण आवश्यक हुआ। कृषि,गृह निर्माण आदि के लिए औजार आवश्यक थे, इसलिए लोहकार-शिल्प का आरंभ हुआ। सामाजिक जीवन ने वस्त्र-शिल्प और गृह-शिल्प को जन्म दिया।
नख,केश आद काटने के लिए नापित-शिल्प (क्षौर कर्म) का प्रवर्तन हुआ। इन पांचों शिल्पों का प्रवर्तन आग की उत्पत्ति के बाद हुआ।
पदार्थों के विकास के साथ-साथ उनके विनिमय की आवश्यकता अनुभूत हुई। उस समय ऋषभ ने व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया।
कृषिकार, व्यापारी और रक्षक-वर्ग भी अग्नि की उत्पत्ति के बाद बने। कहां जा सकता है-- अग्नि ने कृषि के उपकरण, आयात-निर्यात के साधन और अस्त्र- शस्त्रों को जन्म दे मानव के भाग्य को बदल दिया।
पदार्थ बढ़े तब परीग्रह में ममता बढ़ीं, संग्रह होने लगा। कौटुंम्बिक ममत्व भी बढ़ा। लौकैषणा और धनेैषणा के भाव जाग उठे।
सामाजिक परंपराओं का सूत्र पात
पहले मृतकों का दाह-क्रिया नहीं की जाती थी, अब लोग मृतकों को जलाने लगे। पहले पारिवारिक ममत्व नहीं था, अब वह विकसित हो गया। इसलिए मृत्यु के बाद रोने लगे। उसकी स्मृति में वेदी और स्तूप बनाने की प्रथा भी चल पड़ी। नाग -पूजा् और अन्य कई उत्सव भी लोग मनाने लगे।
इस प्रकार समाज में कुछ परंपराओं ने जन्म ले लिया।
धर्मतीर्थ -प्रवर्तन
कर्तव्य बुद्धि से लोक -व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभ राज्य करने लगे। बहुत लंबे समय तक वे राजा रहे। जीवन के अंतिम भाग में वे राज्य त्यागकर मुनि बने। मोक्ष धर्म का प्रवर्तन हुआ।हजार वर्ष की साधना के बाद भगवान ऋषभ को केवल्य -लाभ हुआ। साधु-साध्वी, श्रावक- श्राविका इन चार तीर्थों की स्थापना की। मुनि-धर्म के पांच महाव्रत और गृहस्थ धर्म के बारह व्रतों का उपदेश दिया। साधु-साध्वियों का संघ बना। श्रावक श्राविकाएँ भी बनीं।
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विवाह-पद्धति का प्रारंभ
नाभि अंतिम कुलकर थे।उनकी पत्नी का नाम था 'मरू देवा'। उनके पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया 'उसभ' या 'ऋषभ' । इनका शैशव बदलते हुए युग का प्रतीक था। युगल की एक साथ जन्म लेने या मरने की सहज व्यवस्था भी शिथिल हो गई। उन्हीं दिनों एक युगल जन्मा। उसके माता-पिता ने उसे ताड़ के वृक्ष के नीचे सुला दिया। वृक्ष का फल बच्चे के सिर पर गिरा और वह मर गया। उस युग की यह पहली अकाल मृत्यु थी। अब वह बालिका अकेली रह गई। थोड़े समय बाद उसके माता-पिता मर गए। उस एक अकेली बालिका को अन्य युगलों ने आश्चर्य की दृष्टि से देखा। वे उसे कुलकर नाभि के पास ले गए। नाभि ने उसे ऋषभ की पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। ऋषभ युवा हो गए। उन्होंने अपनी सहोदरी सुमंगला के साथ सुनंदा को स्वयं व्याहा। यहीं से विवाह-पद्धति का उदय हुआ। इसके बाद लोग अपनी सहोदरी के अतिरिक्त भी दूसरी कन्याओं से विवाह करने लगे।
खाद्य समस्या का समाधान
कुलकर युग में लोगों की भोजन-सामग्री थी- कंद, मूल, पत्र, पुष्प और फल। बढ़ती जनसंख्या के लिए कंद आदि पर्याप्त नहीं रहे और वनवासी लोग ग्रहस्वामी होने लगे। इससे पूर्व प्राकृतिक वनस्पति पर्याप्त थी।अब बोये हुए बीज से अनाज होने लगा। वे पकाना नहीं जानते थे और न उनके पास पकाने का कोई साधन था। वे कच्चा अनाज खाते थे। कच्चा अनाज दुष्पाच्य हो गया। लोग ऋषभ के पास पहुंचे और अपनी समस्या का समाधान मांगा। ऋषभ ने अनाज को हाथो से घिस कर खाने की सलाह दी। लोगों ने वैसा ही किया। कुछ समय बाद वह विधि भी असफल होने लगी। ऋषभ अग्नि की बात जानते थे। किन्तु वह काल एकांत स्निग्ध था। वैसे काल में अग्नि उत्पन्न हो नहीं सकती। एकांत स्निग्ध- एकांत रुक्ष-दोनों काल अग्नि की उत्पति के योग्य नहीं होते।
समय के चरण आगे बढ़े काल स्निग्ध- रुक्ष बना। तब वृक्षों की टक्कर से अग्नि उत्पन्न हुई ।वह फैली। वन जलने लगे। लोगों ने उस अग्नि को देखा और उसकी सूचना ऋषभ को दी। उन्होंने अग्नि का उपयोग और पाक-विद्या का प्रशिक्षण दिया। खाद्य समस्या का समाधान हो गया।
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गतांक से आगे-----
ऋषभ का अभिषेक हुआ। उन्होंने राज्य -संचालन के लिए नगर बसाया। वह बहुत विशाल था। उसका नाम रखा विनीता --अयोध्या । ऋषभ प्रथम राजा बने। शेष जनता प्रजा बन गई। वे प्रजा को अपनी संतान की भांति पालन करने लगे। गांवों और नगरों का निर्माण हुआ।लोग अरण्यवास से हट भवनवासी बन गए। ऋषभ की क्रांतिकारी और जन्मजात प्रतिभा से लोग नए युग के निर्माण की ओर चल पड़े। उन्होंने राज्य की समृद्धि के लिए गायों, घोड़ों और हाथियों का संग्रह किया। असाधु लोगों पर शासन और साधु लोगों की सुरक्षा के लिए उन्होंने अपना मंत्रीमंडल बनाया।
चोरी, लूट-खसोट ना हो, नागरिक जीवन व्यवस्थित रहे- इनके लिए उन्होंने न आरक्षक-दल स्थापित किया।
राज्य की शक्ति को कोई चुनौती न दे सके,इसलिए उन्होंने चतुरंग सेना और सेनापतियों की व्यवस्था की।
साम,दाम,भेद और दण्ड- नीति का प्रवर्तन हुआ।
ऋषभ की दंड व्यवस्था के चार अंग थे।--
1. परिभाषाक--थोड़े समय के लिए नजरबंद करना-- क्रोध पूर्ण शब्दों में अपराधी को 'यहां बैठ जाओ' का आदेश देना।
2. माण्डलिबन्ध--नजरबन्द करना - नियमित क्षेत्र से बाहर न जाने का आदेश देना।
3. बन्ध-- बंधन का प्रयोग।
4. घात--डंडे का प्रयोग ।
औषध को व्याधि का प्रतिकार माना जाता है,वैसे ही दण्ड अपराध का प्रतिकार माना जाने लगा। इन्हीं नीतियों में राजतंत्र जमने लगा और अधिकारी चार भागों में बंट गए।आरक्षक वर्ग के सदस्य 'उग्र' मंत्री परिषद के सदस्य 'भोज' परामर्श दात्री समिति के सदस्य या प्रांंतीय प्रतिनिधि ''राजन्य'और शेष कर्मचारी 'छत्रिय' कहलाए।
ऋषभ ने अपने जेष्ठ पुत्र भरत को अपना उत्तराधिकारी चुना। इस तरह यह क्रम राज्यतंत्र का अंग बन गया। यह युगो तक विकसित होता रहा।
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गतांक से आगे------
राजतंत्र और दंड -नीति
कुलकर-व्यवस्था में तीन दंड -नीतियां प्रचलित हुई।पहले कुलकर विमलवाहन के समय 'हाकार'नीति का प्रयोग हुआ। उस समय के मनुष्य स्वयं अनुशासित और लज्जाशील थे।'हां ! तूने यह क्या किया?' ऐसा कहना गुरुतर दंड था।
दूसरे कुलकर चक्षुष्मान के समय भी यही नीति चली। तीसरे और चौथे-- यशस्वी और अभीचंद्र कुलकर के समय में छोटे अपराध के लिए 'हाकार'और बड़े अपराध के लिए 'माकार' (मत करो )नीति का प्रयोग किया गया।
पांचवें,छठे और सातवें-- प्रसनजीत, मरुदेव और नाभी कुलकर के समय 'धिक्कार'नीति चली। छोटे अपराध के लिए'हाकार' मध्यम अपराध के लिए 'माकार'और बड़े अपराध के लिए 'धिक्कार' नीति का प्रयोग किया गया। उस समय के मनुष्य अति मात्र ऋजु,मर्यादा -प्रिय और स्वयं- शासित थे। खेद-प्रदर्शन, निषेध और तिरस्कार ये मृत्यु--दंड से अधिक होते।
अभी नाभि का नेतृत्व चल ही रहा था।युगलों को जो कल्पवृक्षों से प्रकृतिसिद्ध भोजन मिलता था, वह अपर्याप्त हो गया। जो युगल शांत और प्रसन्न थे। उनमें क्रोध का उदय होने लगा। वे आपस में लड़ने-झगड़ने लगे । धिक्कार नीति का उल्लंघन होने लगा। जिन युगलों ने क्रोध, लड़ाई जैसी स्थितियां न कभी देखी और न कभी सुनी-वे इन स्थितियों से घबरा गए। वे मिले, ऋषभ कुमार के पास पहुंचे और मर्यादा के उल्लंघन से उत्पन्न स्थिति का निवेदन किया। ऋषभ ने कहा- इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए राजा की आवश्यकता है।
'राजा कौन होता है?' युगलों ने पूछा।
'ऋषभ ने राजा का कार्य समझाया। शक्ति के केंन्द्रीकरण की कल्पना उन्हें दी। युगलों ने कहा-हममें आप सर्वाधिक समर्थ हैं।आप ही हमारे राजा बने।
ऋषभकुमार बोले -'आप मेरे पिताजी नाभि के पास जाइए, उनसे राजा की याचना कीजिए। वे आपको राजा देंगे।'वे चले, और नाभि को सारी स्थिति से परिचित कराया। नाभि ने ऋषभ को उनका राजा घोषित किया। वे प्रसन्न हो लौट गए।
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गतांक से आगे------
उस समय अब्रह्मचर्य सीमित था । मार-काट और हत्या नही होती थी। न संग्रह था,न चोरी और न असत्य। वे सदा सहज आनंद और शांति मे लीन रहते थे।
कालचक्र का पहला भाग बीता।दूसरा और तीसरा भाग भी लगभग बीत गया।
सहज समृद्धीे का क्रमिक ह्रास होने लगा। भूमि का रस जो अनंत गुना मीठा था,वह कम होने लगा।उसके वर्ण, गंध और स्पर्श की श्रेष्ठता भी कंम हुई।
युगल मनुष्यों के शरीर का परिमाण भी घटता गया। तीन,दो और एक दिन के बाद भोजन करने की परंपरा भी टूटने लगी। कल्प -वृक्षों की शक्ति भी क्षीण होने लगी।
यह यौगलिक व्यवस्था के अंतिम दिनों की कहानी है।
कुलकर - व्यवस्था
असंख्य वर्षों के बाद नए युग का आरंभ हुआ। यौगलिक व्यवस्था धीरे-धीरे टूटने लगी। दूसरी कोई व्यवस्था अभी जन्म नहीं पाई। संक्रांति-काल चल रहा था।एक और आवश्यकता पूर्ति के साधन कम हुए तो दूसरी ओर जनसंख्या और जीवन की आवश्यकताएं कुछ बढ़ी। इस स्थिति में आपसी संघर्ष और लूट- खसोट होने लगी।। परिस्थिति की विवशता ने क्षमा ,शांति,सौम्य आदि सहज गुणों में परिवर्तन ला दिया। अपराधी मनोवृति का बीज
अंकुरित होने लगा।
अपराध और अव्यवस्था ने उन्हें एक नई व्यवस्था के निर्माण की प्रेरणा दी। उसके फलस्वरूपक "कुल "व्यवस्था का विकास हुआ। लोग 'कुल'के रूप में संगठित होकर रहने लगे। उनको कुलों का एक मुखिया होता, वह 'कुलकर'कहलाता। उसे दंड देने का अधिकार होता।वह सब कुलों की व्यवस्था करता, उनकी सुविधाओं का ध्यान रखता और लूट- खसोट पर नियंत्रण रखता। यह शासन -तंत्र का ही आदि रूप था।
मनुष्य प्रकृति से पूरा भला ही नहीं होता और पूरा बुरा भी नहीं होता। उसमें भलाई और बुराई दोनों के बीज होते हैं। परिस्थिति का योग पा वे अंकुरित हो उठते हैं। देश,काल,पुरुषार्थ, कर्म और नियति के योग की सह- स्थिति का नाम है - परिस्थिति।
वह व्यक्ति के स्वभावगत वृत्तियों की उत्तेजना का हेतु बनती है। उससे प्रभावित व्यक्ति बुरा या भला बन जाता है।
जीवन की आवश्यकताएं कम थी। उसके निर्वाह के साधन सुलभ थे। उस समय मनुष्य को संग्रह करने और दूसरों द्वारा अधिकृत वस्तु को हड़पने की बात नहीं मिली। ज्यों ही जीवन की थोड़ी आवश्यकताएं बढ़ी, उसके निर्वाह के साधन कुछ दुर्लभ हुए कि लोगों में संग्रह और अपहरण की भावना उभर आई। जब तक लोग स्वयं शासित थे, तब तक बाहर का शासन नहीं था। जैसे-जैसे स्वगत शासन टूटता गया,वैसे-वैसे बाहरी शासन बढ़ता गया। यह कार्य -कारण- वाद या एक के चले जाने पर दूसरे के विकसित होने की कहानी है।
कुलकर सात हुए हैं । उनके नाम है--विमलवाहन,चक्षुष्मान, यशस्वी, अभीचंद्र, प्रसेनजीत, मरु देव व नाभि।
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1. सुषमा -सुषमा
आज हम अवसर्पिणी के पांचवे पर्व --दुषमा में जी रहे है। हमारे युग का जीवन क्रम सुषम- सुषमा से शुरू होता है। उस समय भूमि स्निग्ध थी। वर्ण ,गंध ,रस और स्पर्श अत्यंत मनोज्ञ थे। मिट्टी की मिठास आज की चीनी से अनंत गुना अधिक थी। कर्मभूमि थी, किंतु अभी कर्मयुग का प्रवर्तन नहीं हुआ था। पदार्थ अति स्निग्ध थे। इस युग के मनुष्य तीन दिन के अंतर से अरहर की दाल जितनी सी वनस्पती खाते और तृप्त हो जाते। खाद्य पदार्थ अप्राकृतिक नहीं थे। विकास बहुत कम थे इसलिए उनका जीवनकाल बहुत लम्बा होता था।
वे तीन पल्य तक जीते थे। उनका शरीर तीन गांउ ऊंचा होता था। वे स्वभाव से शांत और संतुष्ट होते थे। यह चार कोटी -कोटी सागर (काल का काल्पनिक परिमाण) का एकान्तक सुखमय पर्व बीत गया ।
2. सुषमा
तीन कोटि- कोटि सागर का सुखमय पर्व शुरू हुआ। इसमें भोजन दो दिन के अंतर से होने लगा। उसकी मात्रा बेर के फल जितनी हो गई। जीवन काल दो पल्य का हो गया ।और शरीर की ऊंचाई दो गांउ की रह गई।। इनकी कमी का कारण था भूमि और पदार्थों की स्निग्धता की कमी।
3. सुषम- दुषमा
काल और आगे बढ़ा। तीसरे सुख-दु:खमय पर्व में और कमी आ गई। इस एक दिन के अंतर से भोजन होने लगा। उसकी मात्रा आंवला के समान हो गई। जीवन का काल -मान एक पल्य हो गया। शरीर की ऊंचाई एक गांउ की हो गई। इस युग की काल- मर्यादा थी -दो कोटि -कोटि सागर। इसके अंतिम चरण में पदार्थों की स्निग्धता में बहुत कमी हुई। सहज नियम टूटने लगे। तब कृत्रिम व्यवस्था आई और इस समय कुलकर -व्यवस्था को जन्म मिला।
यह कर्म युग के शैशव काल की कहानी है। समाज- संगठन अभी नहीं हुआ था। यौगलिक व्यवस्था चल रही थी। एक जोड़ा ही सब कुछ होता था। न कुल था,न वर्ण था और न जाति। समाज और राज्य की बात बहुत दूर थी। जनसंख्या कम थी। और माता पिता की मौत से छह माह पहले एक युगल जन्म लेता, वही दंपति होता। विवाह संस्था का उदय नहीं हुआ था। जीवन की आवश्यकता बहुत सीमित थी। न खेती होती थी,न कपड़ा बनता था और न मकान बनते थे।भोजन, वस्त्र और निवास के साधन कल्पवृक्ष थे। श्रृंगार और आमोद-प्रमोद ,विद्या, कला और विज्ञान का कोई नाम नहीं जानता था।न कोई वाहन था और न कोई यात्री। गांव बसे नहीं थे। न कोई स्वामी था और न कोई सेवक। शासक -शासित भी नहीं थे। और न कोई शोषक था और ना कोई शोषित। पति-पत्नी या जन्य -जनक के सिवा संबंध जैसी कोई वस्तु नहीं थी।
धर्म और उसके प्रचारक भी नहीं थे।। उस समय के लोग सहज धर्म के अधिकारी और शांत स्वभाव वाले थे। चुगली, निंदा, आरोप जैसे मनोभाव जन्मे में नहीं थे। हीनता और उत्कर्ष की भावनाएं भी उत्पन्न नहीं हुई थी। लड़ने -झगड़ने की मानसिक ग्रंथियां भी नहीं थी। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों से अनजान थे।
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1.भगवान श्री ऋषभ से पार्श्व तक
शाश्वत प्रश्न और जैन दर्शन
हम जिस जगत में जी रहे हैं, वह क्या है ? वह कहां है ? कब से है ?वह एक रूपी है या अरूपी ? वह किसकी रचना है ? यह प्रश्न अनादि काल से मनुष्य के मन में उठता रहा है ।मनुष्य इन्हीं प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए दर्शन की वेदी तक पहुंचा है।
दर्शन देखने की पद्धति है। हम वस्तु को दो साधनों से देखते हैं। पहला साधन है-प्रत्यक्षीकरण या साक्षात्कार और दूसरा साधन है -हेतुवाद।
ध्यान सिद्ध मनुष्य वस्तु को अंतर्दृष्टि से दिखता है। बौद्धिक मनुष्य उसे तार्किक दृष्टि से देखता है। अंतर्दृष्टि वैक्तिक साधन से फलित ज्ञान है। इसलिए उसके अध्ययन की कोई प्रक्रिया नहीं है। तर्क मनुष्य के ऐन्द्रियिक अनुभवों (साहचर्य नियमों )से फलित ज्ञान है। वह सामूहिक बोध है, इसलिए उसके अध्ययन की प्रक्रिया है
अंतर्दृष्टि से दृष्ट तत्वों का प्रतिपादक शास्त्र दर्शन -शास्त्र कहलाता है। तार्किक ज्ञान से उपलब्ध तत्वों तथा तार्किक प्रक्रिया का प्रतिपादक शास्त्र तर्कशास्त्र कहलाता है।
आज दोनों प्रकार के शास्त्र बहुत एकात्मक हो गए हैं। अतः दर्शन -शास्त्र शब्द से उन दोनों का बोध होता है।
भगवान महावीर अंन्तर्दृष्टा थे। उनके उत्तरवर्ती आचार्य तार्किक प्रतिभा के धनी थे । आज का जैन दर्शन उन दोनों के निरूपण का प्रतिफलन है।
जैन दर्शन ने उन शाश्वत प्रश्नों का उत्तर दिया है।--
1. यह जगत चेतन और अचेतन द्रव्यों है।
2. यह अनंत आकाश का मध्यवर्ती आकाश- खण्ड है। समग्र आकाश की तुलना में यह एक बिंदु जैसा है।
3. यह शाश्वत है। इसका आदि- बिंदु नहीं है।
4. यह परिवर्तनशील भी है--प्रति दिन नए-नए रूपों में बदलता रहता है।
5. यह अनादि है, इसलिए किसी महाशक्ति की कृति नहीं है।
इतिहास - खंड में केवल इतना ही प्रासंगिक है कि हमारा जगत शाश्वत और अशाश्वत का सामंजस्य है।
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नमन हमारा अरिहंतो को,
सिद्धोंको आचार्यों को ।
आगम पुरुष उपाध्यायों को,
और लोक के सब संतो को।।
नमस्कार महामंत्र कि इस मंगल भावना के साथ आज से" मेरे भगवान महावीर" ग्रुप आप सबके लिए लेकर आ रहा है अपने इस जैन धर्म और इसकी परंपरा जानने का समझने का एक स्वर्णिम अवसर।
जैन धर्म और इसके दर्शन को समझने के लिए इसकी परंपरा को भी जानना आवश्यक है। भारतवर्ष की दो प्राचीन परंपराएं हैं। --श्रमण और ब्राह्मण परंपराएं । भगवान महावीर के समय श्रमण परंपरा के 40 संप्रदाय थे,और वर्तमान में दो जैन और बौद्ध।
जैन परंपरा के मूल स्त्रोत भगवान ऋषभ हैं। भगवान ऋषभ से अरिष्ठनेमी तक प्रागेतिहासिक एवं भगवान पार्श्व और महावीर ऐतिहासिक पुरुष है। भगवान महावीर के शासन के ढाई हजार से अधिक इस अवधि में अनेकों समर्थ आचार्य हुए, जिनका भारतीय साहित्य संस्कृति के पल्लवन और संवर्धन में महत्वपूर्ण अवदान है।
तेरापंथ धर्म संघ के दशम आचार्य प्रेक्षा प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के इस साहित्य समुद्र के एक मोती, "जैन परंपरा का इतिहास" से हम आत्म श्रृंगार करेंगे।
आगे का अंश अगली पोस्ट में....
आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |