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Karyasala

(२५) पच्चीसवां बोल: चारित्र पांच

चारित्र:- इस शब्द के तीन अर्थ हैं- १.आत्मा की अशुद्ध प्रवृत्ति का निरोध|

२.आत्मा को शुद्ध- दशा में स्थित रखने का प्रयत्न ।

३. जिससे कर्म का क्षय होता है, वैसी प्रवृत्ति ।

 

चारित्र पांच प्रकार के हैं-

 

(१) सामायिक चारित्र:- समभाव में स्थिर रहने के लिए सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है ।

(२) छेदोपस्थाप्य चारित्र:- दीक्षा ग्रहण करते समय सामायिक चारित्र लिया जाता है । इसमें केवल 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि'- सर्व सावध योग का त्याग किया जाता है । किन्तु दीक्षित होने के सात दिन या छह मास बाद साधक में पांच महाव्रतों  की विभागशः आरोपणा की जाती है । इसे छेदोपस्थाप्य चारित्र कहा जाता है ।

(३) परिहार विशुद्धि चारित्र:- परिहार का अर्थ है- विशुद्धि की विशिष्ट साधना । इस विशुद्धिमय चारित्र का नाम परिहार विशुद्धि  चारित्र है।

(४) सूक्ष्म- संपराय चारित्र:- जिस अवस्था में क्रोध, मान और माया का उपशम व क्षय हो जाता है, केवल सूक्ष्म लोभ का अंश विद्यमान रहता है, उस समुज्जवल अवस्था में सूक्ष्म- संपराय नामक चारित्र प्राप्त होता है ।

(५) यथाख्यात चारित्र:- जिस अवस्था में मोह सर्वथा उपशांत या क्षीण होता है, उसे यथाख्यात चारित्र कहते हैं । इसे वीतराग चारित्र भी कहा जा सकता है ।

(24) चौबीसवां बोल: भांगा ४९

तीन करण तीन योग से ।

तीन करण- करना, कराना, अनुमोदन करना ।

तीन योग- मन, वचन, काया ।

 

Continue...............

 

अंक ३१ का भांगा ३

 

यहां पहले अंक ३ का अर्थ तीन करण एवं दूसरे अंक १ का अर्थ है- एक योग अर्थात् तीन करण एवं एक योग से ३ भांगे हो सकते हैं, जैसे-

 

(क)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से ।

(ख)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से ।

(ग)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- काया से ।

 

अंक ३२ का भांगा ३

यहां पहले अंक ३ का अर्थ है- तीन करण एवं दूसरे अंक २ का अर्थ है- दो योग अर्थात् तीन करण एवं दो योग से ३ भांगे हो सकते हैं, जैसे-

 

(क)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से ।

(ख)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, काया से ।

(ग)  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से, काया से ।

 

अंक ३३ का भांगा १

यहां पहले अंक ३ का अर्थ है- तीन करण एवं दूसरे अंक ३ का अर्थ है- तीन योग अर्थात् तीन करण एवं तीन योग से १ ही भांगा हो सकता है, जैसे-

१.  करूं नहीं, कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से, काया से ।

(24) चौबीसवां बोल: भांगा ४९

तीन करण तीन योग से ।

तीन करण- करना, कराना, अनुमोदन करना ।

तीन योग- मन, वचन, काया ।

 

Continue...........

 

अंक २१ का भांगा ९

यहां पहले अंक २ का अर्थ है दो करण एवं दूसरे अंक १ का अर्थ है- एक योग । अर्थात् दो करण एवं एक योग से ९ भांगे हो सकते हैं, जैसे-

 

(क)  १. करूं नहीं, कराऊं नहीं- मन से।

       २. करूं नहीं, कराऊं नहीं- वचन से ।

       ३. करूं नहीं, कराऊं नहीं- काया से ।

(ख) ४. करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से ।

      ५. करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से ।

      ६. करूं नहीं,अनुमोदू नहीं- काया से ।

(ग)  ७. कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से ।

       ८. कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से ।

       ९. कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- काया से ।

 

अंक २२ का भांगा ९

यहां पहले अंक २ का अर्थ है- दो करण और दूसरे अंक २ का अर्थ है- दो योग । अर्थात् दो करण एवं दो योग से ९ भांगे हो सकते हैं, जैसे-

 

(क) १. करूं नहीं, कराऊं नहीं- मन से, वचन से ।

       २. करूं नहीं, कराऊं नहीं- मन से, काया से ।

       ३. करूं नहीं, कराऊं नहीं- वचन से, काया से ।

(ख) ४. करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से , वचन से ।

       ५. करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, काया से ।

       ६. करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से , काया से ।

(ग)  ७. कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से ।

       ८. कराऊं नहीं,अनुमोदू नहीं- मन से, काया से ।

       ९. कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- वचन से, काया से ।

 

अंक २३ का भांगा ३

यहां पहले अंक २ का अर्थ हैं- दो करण एवं दूसरे अंक ३ का अर्थ है तीन योग । अर्थात् दो करण एवं तीन योग से ३ ही भांगे हो सकते हैं, जैसे-

 

(क) करूं नहीं, कराऊं नहीं- मन से , वचन से, काया से ।

(ख) करूं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से, काया से ।

(ग) कराऊं नहीं, अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से, काया से ।

 

Continue.............

(24) चौबीसवां बोल: भांगा ४९

तीन करण तीन योग से ।
तीन करण- करना, कराना, अनुमोदन करना ।
तीन योग- मन, वचन, काया ।

अंक ११ का भांगा ९
यहां पहले अंक १ का अर्थ हैं- एक करण और दूसरे अंक १ का अर्थ है- एक योग । अर्थात् एक करण और एक योग से ९ भांगे हो सकते है ।
(क) १. करूं नहीं मन से ।
२. करूं नहीं वचन से ।
३. करूं नहीं काया से ।
(ख) ४. कराऊं नहीं मन से ।
५. कराऊं नहीं वचन से ।
६. कराऊं नहीं काया से ।
(ग) ७. अनुमोदू नहीं मन से ।
८. अनुमोदू नहीं वचन से ।
९. अनुमोदू नहीं काया से ।

अंक १२ का भांगा ९
यहां पहले अंक १ का अर्थ है- एक करण एवं दूसरे अंक २ का अर्थ है- दो योग । अर्थात् एक करण और दो योग से ९ भांगे हो सकते हैं जैसे-
(क) १. करूं नहीं- मन से, वचन से ।
२. करूं नहीं- मन से, काया से ।
३. करूं नहीं- वचन से, काया से ।
(ख) ४. कराऊं नहीं- मन से, वचन से ।
५. कराऊं नहीं- मन से, काया से |
६. कराऊं नहीं- वचन से,काया से|
(ग) ७. अनुमोदू नहीं- मन से,वचन से।
८. अनुमोदू नहीं- मन से,काया से|
९. अनुमोदू नहीं- वचन से, काया से ।

अंक १३ का भांगा ३
यहां पहले अंक १ का अर्थ है- एक करण एवं दूसरे अंक ३ का अर्थ है- तीन योग । अर्थात् एक करण और तीन योग से ३ भांगे हो सकते है ।
(क) करूं नहीं- मन से, वचन से, काया से ।
(ख) कराऊं नहीं- मन से, वचन से, काया से ।
(ग) अनुमोदू नहीं- मन से, वचन से, काया से।

Continue............


नोट:- जिज्ञासा हो तो आप ग्रुप में रखे।

(२३) तेइसवां बोल:पांच महाव्रत

महाव्रत:- जब कोई दीक्षित होता है, उस समय वह आजीवन पांच महाव्रतो का पालन करने की प्रतिज्ञा करता है । वह तीन करण और तीन योग से पांच आश्रवो (हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह) का प्रत्याख्यान करता है |

(१) अहिंसा- महाव्रत- पहला महाव्रत अहिंसा का है । उसमे जीव- हिंसा का सर्वथा त्याग किया जाता है ।
(२) सत्य- महाव्रत- दूसरे महाव्रत में असत्य बोलने का सर्वथा परित्याग किया जाता है ।
(३) अचौर्य- महाव्रत- तीसरे महाव्रत में चोरी करने का सर्वथा त्याग किया जाता है । अधिकारी के बिना साधु किसी भी मकान में ठहर नहीं सकता और वह अभिभावकों की अथवा आश्रित व्यक्तियों की अनुमति के बिना किसी को दीक्षा भी नहीं दे सकता ।
(४) ब्रह्मचर्य- महाव्रत- चौथे महाव्रत में मैथुन- अब्रह्मचर्य का सर्वथा परित्याग किया जाता है । साधु स्त्री- जाति का स्पर्श तक नहीं कर सकता, चाहे उसकी वह मां या बहिन ही क्यों न हो । साधु स्त्री के साथ एक आसन पर नहीं बैठ सकता ।
(५) अपरिग्रह- महाव्रत- पांचवे महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा परित्याग किया जाता है । साधु आवश्यक धर्मोपकरण के सिवाय और किसी भी वस्तु का संचय नहीं करता |धर्मोपकरण पर भी वह ममता या मूर्च्छा नहीं करता ।
(६) रात्रि-भोजन-विरति- इन पांच महाव्रतो के सिवाय एक छठा व्रत ओर है । उसमे जीवन- पर्यन्त रात्रि भोजन का त्याग किया जाता है । रात्रि में कोई भी खाने पीने की चीजें पास रखना साधु के लिए निषिद्ध है । साधु रात्रि में कुछ भी खा- पी नहीं सकता ।

नोट:- जिज्ञासा हो तो आप ग्रुप में रखे।

(२२) बाइसवां बोल: श्रावक के बारह व्रत

आचरण की पवित्रता ही मानव जीवन का सर्वस्व है । कोरे ज्ञान या कोरे आचरण में मोक्ष नहीं मिलता, किन्तु दोनों के उचित संयोग से ही मोक्ष मिलता है ।

कहीं - कहीं गृहस्थ साधु- व्रत स्वीकार किए बिना भी संयम का प्रचुर अभ्यास करने के कारण साधुवत बन जाते है । वे प्रतिमाधारी श्रावक कहलाते हैं ।

(१) अहिंसा- अणुव्रत- श्रावक छोटे- बड़े सभी जीवों की मानसिक, वाचिक तथा कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं करता,परन्तु वह कुछ अंशों में स्थूल हिंसा का त्याग कर सकता है ।
(२) सत्य- अणुव्रत- किसी निर्दोष प्राणी की हत्या हो वैसे असत्य का त्याग करना सत्य- अणुव्रत है ।
(३) अस्तेय- अणुव्रत- डाका डालकर, ताला तोड़कर, लूट- खसोटकर, बड़ी चोरी का त्याग करना अस्तेय- अणुव्रत है ।
(४) ब्रह्मचर्य- अणुव्रत- कामुकता की सीमा करना ब्रह्मचर्य- अणुव्रत है ।
(५) अपरिग्रह- अणुव्रत- सोना, चांदी, मकान, धन आदि सब परिग्रह हैं । परिग्रह के संचय की मर्यादा करना अपरिग्रह- अणुव्रत है।
(६) दिग्विरति - व्रत- पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिणाम निश्चित कर उसके बाहर हर तरह के सावध- कार्य करने का त्याग करना दिग्विरति अणुव्रत है ।
(७) भोगोपभोग- परिणाम- व्रत- पंद्रह प्रकार के कर्मादान और छब्बीस प्रकार के भोगोपभोग की प्रवृत्ति की मर्यादा करना भोगोपभोग- परिणाम- व्रत है ।
(८) अनर्थदण्डविरति व्रत- बिना प्रयोजन हिंसा में प्रवृत्ति करने का त्याग करना अनर्थदण्डविरति- व्रत है ।
(९) सामायिक व्रत- एक मुहूर्त तक सावध- प्रवृत्ति का त्याग कर स्वभाव में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक - व्रत है ।
(१०) देशावकाशिक- व्रत- एक निश्चित अवधि के लिए हिंसा आदि का त्याग करना देशावकाशिक व्रत है ।
(११) पौषध-व्रत- अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या तथा अन्य किसी तिथि में उपवास के साथ शारीरिक साजसज्जा को छोड़कर एक दिन रात तक सावध प्रवृत्ति का त्याग करना पौषध व्रत है । यह चौविहार उपवास के साथ ही हो सकता है ।
(१२) अतिथि- संविभाग- व्रत- साधु को अशुद्ध दान देने का त्याग करना और निर्दोष दान देना अतिथि- संविभाग- व्रत है ।

नोट:- जिज्ञासा हो तो आप ग्रुप में रखे।

(२१) इक्कीसवां बोल:राशि दो

जब हम संसार- भर की वस्तुओं को पृथक् - पृथक् करने लगते हैं, तब उनको कई हज़ार श्रेणियों में पहुंचा देते हैं, जैसे- मनुष्य, गाय, भैंस, ऊंट, मकान, कोट, बर्तन आदि और जब वापस मुड़ते हैं- एकीकरण की ओर दृष्टि डालते हैं, तब हमें मूल रूप में दो ही पदार्थ- राशियां मिलती हैं-

(१) जीव राशि= चेतन-ज्ञानवान आत्माओं की राशि ।

(२) अजीव राशि= अचेतन- ज्ञान- रहित जड़ पदार्थों की राशि ।

हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि जगत में उन दो राशियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है अथवा यों कहा जा सकता है कि जगत का अस्तित्व इन दोनों के अस्तित्व पर ही निर्भर है ।

(२०) बीसवां बोल:द्रव्य छह

द्रव्य:- जिसमें गुण और पर्याय होते है, उसको द्रव्य कहते है ।

(१) धर्मास्तिकाय- यहां धर्म का अर्थ हैं- जो जीव और पुद्गल की गति में उदासीन सहायक होता है, वह द्रव्य ।
अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश- समूह ।
(२) अधर्मास्तिकाय- जो स्थिति में उदासीन सहायक है, वह द्रव्य ।
अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश- समूह ।
(३) आकाशास्तिकाय- आकाश का अर्थ है- जिसमें जीव और पुद्गल को आश्रय प्राप्त है, वह द्रव्य । अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश- समूह ।
(४) काल- मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास आदि काल- व्यवहार सिर्फ मनुष्य- लोक में ही होता है, बाहर नहीं ।
(५) पुद्गलास्तिकाय- जो वर्ण,गंध,रस,स्पर्श युक्त हो और जिसमें मिलने और पृथक होने का स्वभाव विद्यमान हो, उसे पुद्गल कहा जाता है । अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश- समूह ।
(६) जीवास्तिकाय- जीव का अर्थ है- प्राण धारण करनेवाला । अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेश- समूह ।

(१९) उन्नीसवां बोल: ध्यान चार

ध्यान:- चिंतनीय विषय में मन को एकाग्र करना, एक विषय पर मन को स्थिर करना अथवा मन,वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध करना ।

ध्यान चार है-
१. आर्त्तध्यान- अर्ति का अर्थ है- पीड़ा या दुख । उसमे होने वाली एकाग्रता को आर्त्तध्यान कहते है ।
२. रौद्रध्यान- जिसका चित्त क्रूर और कठोर हो, वह रुद्र होता है और उसके ध्यान को रौद्र कहा जाता है ।
३. धर्मध्यान- वीतराग या सर्वज्ञ की आज्ञा (उपदेश) पर चिंतन करना । उस विषय में निरंतर सोचते रहना धर्मध्यान है ।
४. शुक्लध्यान- शुक्ल ध्यान का अर्थ है परिपूर्ण समाधि । यह चिंतन की निर्मलता का प्रकृष्ट रूप है ।

शुक्ल ध्यान की चार अवस्थाएं हैं । चौथी अवस्था में पहुंचने के बाद जीव सांसारिक बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।

(१८) अठारहवां बोल: दृष्टि तीन

दृष्टि:- साधारणतया दृष्टि का अर्थ है- चक्षु । परन्तु यहां पर दृष्टि का प्रयोग तत्त्व- श्रद्धा (तात्विक रुचि) के अर्थ में हुआ है ।

दृष्टि के तीन प्रकार है-
१. सम्यक् दृष्टि- सम्यक् अर्थात् पदार्थों के असली स्वरूप को जानने वाले की दृष्टि सम्यक् दृष्टि होती है ।
२. मिथ्यादृष्टि- मिथ्या अर्थात् पदार्थों को मिथ्या माननेवाले की दृष्टि मिथ्यादृष्टि होती है ।
३. सम्यक्- मिथ्यादृष्टि- शेष तत्त्वों में यथार्थ विश्वास रखने वाले तथा किसी एक तत्त्व में संदेह रखनेवाले की दृष्टि सम्यक्- मिथ्यादृष्टि होती है ।

(१७) सतरहवा बोल: लेश्या छह

लेश्या:- जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहते है ।

इनके छह प्रकार हैं-
१. कृष्णलेश्या: - काजल के समान कृष्ण और नीम से अनन्तगुण कटु पुद्गलो के संबंध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कृष्ण लेश्या है ।
२. नीललेश्या:- नीलम के समान नीले और सौंठ से अनन्तगुण तीक्ष्ण पुद्गलो के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह नीललेश्या है ।
३. कापोतलेश्या:- कबूतर के गले के समान वर्ण वाले और कच्चे आम के रस से अनन्तगुण कषैले पुद्गलो के संबंध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कापोतलेश्या है ।
४. तेजोलेश्या:- हिंगुल (सिंदूर) के समान रक्त और पके आम के रस से अनन्तगुण मधुर पुद्गलो के संयोग से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह तेजोलेश्या है ।
५. पद्मलेश्या:- हल्दी के समान पीले तथा मधु से अनन्तगुण मिष्ट पुद्गलो के संयोग से आत्मा का जो परिणाम होता है, वह पद्मलेश्या है ।
६. शुक्ललेश्या:- शंख के समान श्वेत और मिश्री से अनन्तगुण मीठे पुद्गलो के संबंध से आत्मा का जो परिणाम होता है, वह शुक्ललेश्या है ।


नोट:- जिज्ञासा हो तो आप ग्रुप में रखे।

(१६) सोलहवां बोल: दंडक चौबीस

दंडक:- जहां प्राणी अपने कृत- कर्मो का फल, जो एक प्रकार का दण्ड है, भोगते हैं, उन स्थानों, अवस्थाओं को दंडक कहते हैं ।

सात नारक का- दंडक एक पहला
भवनपति देवों के दंडक दस
२.असुरकुमार का दंडक दूसरा
३.नागकुमार का दंडक तीसरा
४. सुपर्णकुमार का दंडक चौथा
५. विद्युत्कुमार का दंडक पांचवां
६.अग्निकुमार का दंडक छठा
७. द्वीपकुमार का दंडक सातवां
८. उदधिकुमार का दंडक आठवां
९.दिक् कुमार का दंडक नौवां
१०.वायुकुमार का दंडक दसवां
११. स्तनितकुमार का दंडक ग्यारहवां
१२. पृथ्वीकाय का दंडक बारहवां
१३. अप्काय का दंडक तेरहवां
१४. तेजस् काय का दंडक चौदहवां
१५.वायुकाय का दंडक पंद्रहवां
१६. वनस्पतिकाय का दंडक सोलहवां
१७. द्वीन्द्रिय का दंडक सतरहवां
१८. त्रीन्द्रिय का दंडक अठारहवां
१९. चतुरिंद्रिय का दंडक उन्नीसवां
२०. तिर्यच्च पंचेंद्रिय का दंडक बीसवां
२१. मनुष्य पंचेंद्रिय का दंडक इक्कीसवां
२२.व्यंतर देवों का दंडक बाईसवां
२३.ज्योतिष्क देवों का दंडक तेइसवां
२४.वैमानिक देवों का दंडक चौबीसवां

(१५) पंद्रहवा बोल: आत्मा आठ

आत्मा- जीव की जितनी परिणतिया हैं, भिन्न भिन्न प्रकार की रूपांतरित अवस्थाएं हैं, उतनी ही आत्माएं हैं । इसलिए वे सब अप्रतिपाद्य हैं- उनका वर्णन नहीं किया जा सकता ।

प्रस्तुत बोल में प्रधानत: आठ आत्माओं का ही प्रतिपादन किया गया है-
(१) द्रव्य आत्मा- चैतन्यमय असंख्य प्रदेशों का पिंड जीव ।
(२) कषाय आत्मा- जीव की क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार की कषाय परिणति ।
(३) योग आत्मा- जीव की मन,वचन और काया- इन तीनों की योगमय परिणति ।
(४) उपयोग आत्मा- जीव की ज्ञान- दर्शनमय परिणति ।
(५) ज्ञान आत्मा- जीव की ज्ञानमय परिणति ।
(६) दर्शन आत्मा- जीव आदि तत्वों के प्रति यथार्थ या अयाथार्थ श्रधान ।
(७) चारित्र आत्मा- कर्मो का निरोध करने वाला जीव का परिणाम ।
(८) वीर्य आत्मा- जीव का सामर्थ्य विशेष |

(१४) चौदहवां बोल: नौ तत्व के ११५ भेद

Continue.........

६. संवर:- कर्म निरोध करनेवाली आत्मा की अवस्था ।

प्राणातिपात आदि पंद्रह आश्रवो के अप्राणातिपात आदि पंद्रह संवर प्रतिपक्षी हैं । मुख्य पांच भेद हैं-
१. सम्यक्तव संवर २. व्रत संवर ३. अप्रमाद संवर ४. अकषाय संवर ५. अयोग संवर
और इसके गौण पंद्रह भेद है-
१. प्राणातिपात विरमण संवर २. मृषावाद विरमण संवर ३. अदत्तादान विरमण संवर ४. अब्रह्मचर्य विरमण संवर ५. परिग्रह विरमण संवर ६. श्रोत्रेंद्रिय निग्रह संवर ७.चक्षु:इन्द्रिय निग्रह संवर ८. घ्राणेन्द्रिय निग्रह संवर ९. रसनेन्द्रिय निग्रह संवर १०. स्पर्शनेंद्रिय निग्रह संवर ११. मनो निग्रह संवर १२.वचन निग्रह संवर १३. काय निग्रह संवर १४. भंडोपकरण रखने में अयत्ना न करना १५. सूचि- कुशाग्र मात्र दोष सेवन न करना ।

७. निर्जरा:- शुभ योग की प्रवृत्ति से होने वाली आत्मा की आंशिक उज्जवलता को निर्जरा कहते हैं ।

निर्जरा के बारह भेद हैं-
१. अनशन २. ऊनोदरी ३.भिक्षाचरी ४. रस- परित्याग ५. कायक्लेश ६. प्रतिसंलीनता ७. प्रायश्चित ८. विनय ९. वैयावृत्य १०. स्वाध्याय ११. ध्यान १२. व्युत्सर्ग ।

८. बंध:- आत्म- प्रदेशों के साथ कर्म- पुद्गलो का दूध- पानी की तरह मिल जाना, संबंधित हो जाना, एकीभाव हो जाना, बंध कहलाता है ।

बंध चार प्रकार का होता हैं-
१. प्रकृति बंध २. स्थिति बंध ३. अनुभाग बंध ४. प्रदेश बंध ।

९. मोक्ष:- अपूर्ण रूप से कर्मो का क्षय होना निर्जरा और पूर्ण रूप से कर्मो का क्षय होना मोक्ष है ।

मोक्ष प्राप्त करने के चार उपाय या साधन हैं-
१.ज्ञान २. दर्शन ३. चारित्र ४. तपस्या ।

(१४) चौदहवा बोल: नौ तत्व के ११५ भेद

तत्त्व:- सद्वस्तु, वह वस्तु जिसका वास्तविक अस्तित्व हो।

तत्त्व के नौ भेद हैं-
१. जीव: चेतनामय अविभाज्य असंख्य- प्रदेशी पिंड ।

जीव के १४ भेद:
१-२. सूक्ष्म एकेंद्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
३-४. बादर एकेंद्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
५-६. द्वीन्द्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
७-८. त्रीन्द्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
९-१०. चतुरिंद्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
११-१२. असंज्ञी पंचेंद्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।
१३-१४. संज्ञी पंचेंद्रिय के दो भेद- अपर्याप्त और पर्याप्त ।

२. अजीव: अचेतन तत्त्व ।

अजीव के १४ भेद:
१. धर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं- स्कंध, देश, प्रदेश ।
२.अधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं- स्कंध, देश, प्रदेश ।
३. आकाशास्तिकाय के तीन भेद हैं- स्कंध, देश, प्रदेश ।
४.काल का एक भेद हैं- काल ।
५.पुद्गलास्तिकाय के चार भेद हैं- स्कंध, देश, प्रदेश, परमाणु ।

३. पुण्य:- सुख देनेवाला उदीयमान शुभ कर्म पुद्गल - समूह ।

पुण्य के नौ भेद हैं-
१.अन्न पुण्य २.पान पुण्य ३.स्थान पुण्य ४.शय्या पुण्य ५.वस्त्र पुण्य ६. मन पुण्य ७.वचन पुण्य ८. काय पुण्य ९. नमस्कार पुण्य ।

४. पाप:- दुःख देनेवाला उदीयमान अशुभ कर्म पुद्गल- समूह ।

पाप के अठारह भेद हैं-
१. प्राणातिपात पाप २.मृषावाद पाप ३. अदत्तादान पाप ४.मैथुन पाप ५. परिग्रह पाप ६.क्रोध पाप ७.मान पाप ८.माया पाप ९.लोभ पाप १०.राग पाप ११.द्वेष पाप १२. कलह पाप १३.अभ्याख्यान पाप १४. पैशुन्य पाप १५. पर- परिवाद पाप १६. रति- अरति पाप १७.मायामृषा पाप १८. मिथ्यादर्शनशल्य पाप

५. आश्रव:- कर्म ग्रहण करने वाली आत्मा की अवस्था ।

इसके मुख्य पांच भेद है-
१. मिथ्यात्व आश्रव २.अव्रत आश्रव ३.प्रमाद आश्रव ४. कषाय आश्रव ५.योग आश्रव
और गौण पंद्रह भेद हैं-
१. प्राणातिपात आश्रव २.मृषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह ६. श्रोत्रेंद्रिय ७. चक्षु: इन्द्रिय ८. ध्राणेन्द्रिय ९. रसनेन्द्रिय १०. स्पर्शनेंद्रिय ११. मन १२.वचन १३.काया १४. भंडोपकरण १५. सूचि- कुशाग्र मात्र ।

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(१३) तेरहवां बोल: दस प्रकार के मिथ्यात्व

मिथ्यात्व:- विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते है।
१.धर्म को अधर्म समझना
२.अधर्म को धर्म समझना
३.मार्ग को कुमार्ग समझना
४. कुमार्ग को मार्ग समझना
५.जीव को अजीव समझना
६.अजीव को जीव समझना
७.साधु को असाधु समझना
८. असाधु को साधु समझना
९.मुक्त को अमुक्त समझना
१०. अमुक्त को मुक्त समझना

धर्म- अधर्म:- जिससे आत्म- स्वरूप की उन्नति एवं अभ्युदय हो, उसे धर्म कहते हैं। इससे विपरीत समझना अधर्म कहलाता है।
मार्ग- कुमार्ग:- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप - ये चार मोक्ष के मार्ग हैं- साधन हैं, उपाय हैं। इन चारों को मोक्ष मार्ग न समझना और उनसे भिन्न को मोक्ष का मार्ग समझना मिथ्यात्व है।
जीव- अजीव:- जिसमें चेतनता हो, वह जीव है और जिसमें चेतना न हो, वह अजीव है। जीव में अजीव की श्रद्धान करना और अजीव में जीव का विश्वास करना मिथ्यात्व है।
साधु- असाधु:- साधु का लक्षण है- सम्पूर्ण रूप से पंच महाव्रत पालन करना। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन पांच महाव्रतो का पालन करने वालों को असाधु और न करनेवालों को साधु समझना मिथ्यात्व है।
मुक्त- अमुक्त:- मुक्त आत्मा का लक्षण है- आठ कर्मो से मुक्ति या छुटकारा पाना। मुक्त कर्म- रहित होते हैं। जो कर्म- रहित हैं, उनको कर्म- सहित समझना और जो कर्म- सहित हैं उनको कर्म रहित समझना मिथ्यात्व है।

(१२) बारहवां बोल:पांच इंद्रियों के तेईस विषय

१. श्रोत्रेंद्रिय के तीन विषय हैं-
१.जीव शब्द २. अजीव शब्द ३.मिश्र शब्द

२. चक्षुरिंद्रिय के पांच विषय हैं-
४.कृष्ण वर्ण ५. नील वर्ण ६. रक्त वर्ण ७. पीत वर्ण ८.श्वेत वर्ण

३. घ्राणेन्द्रिय के दो विषय हैं-
९.सुगंध १०. दुर्गंध

४. रसनेन्द्रिय के पांच विषय हैं-
११. अम्ल रस १२.मधुर रस १३. कटु रस १४.कषाय रस १५. तिक्त रस

५. स्पर्शनेंद्रिय के आठ विषय हैं-
१६. शीत- स्पर्श १७. उष्ण- स्पर्श १८. रुक्ष- स्पर्श १९. स्निग्ध- स्पर्श २०. लघु- स्पर्श २१. गुरु- स्पर्श २२. मृदु- स्पर्श २३. कर्कश- स्पर्श।

पांच इंद्रियों के विषय, गोचर, कार्य- क्षेत्र या विहार- क्षेत्र तेईस हैं। संक्षेप में श्रोत्रेंद्रिय का शब्द, चक्षुरिंद्रिय का रूप, घ्राणेन्द्रिय का गंध, रसनेन्द्रिय का रस और स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श- इस प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय का एक- एक विषय है। विस्तार में इनके तेईस भेद हैं।
शब्द:- जीव के द्वारा जो बोला जाता है, वह है सचित्त शब्द, जैसे- मनुष्य का शब्द। अचित्त (जड़) पदार्थ के द्वारा जो शब्द होता है वह है- अचित्त शब्द, जैसे टूटती हुई लकड़ी का शब्द। सचित्त और अचित्त- दोनों के संयोग से जो शब्द होता है वह है मिश्र शब्द, जैसे- बाजे का शब्द। शब्द मात्र श्रोत्रेंद्रिय का विषय है।
रूप:- रूप पौद्गलिक है। इसके दो अर्थ हैं- आकार और वर्ण। वर्ण पांच प्रकार का है- कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत। रूप मात्र चक्षु:इन्द्रिय का विषय है।
गंध:- गंध भी पौद्गलिक है। इसके दो भेद हैं- सुगंध और दुर्गंध।
रस:- यह भी पौद्गलिक है। यह पांच प्रकार का है- तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर।
स्पर्श:- स्पर्श भी पौद्गलिक है। उसके आठ भेद हैं- शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, लघु, गुरू, मृदु, कर्कश।
इनमे आदि के चार स्पर्श मूल के हैं और अंतिम चार स्पर्श उनकी बहुलता से बनते हैं।

(११) ग्यारहवां बोल: गुणस्थान चौदह

गुणस्थान- आत्मिक गुणों के अल्पतम विकास से लेकर उसके सम्पूर्ण विकास तक की समस्त भूमिकाओं को जैन- दर्शन में चौदह भागों में बांट दिया गया है, जिनको गुणस्थान कहते है।
गुणस्थान के 14 प्रकार है-

(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- प्रथम गुणस्थान में मोह कर्म का सबसे कम क्षयोपशम होता है। जो स्वल्पतम क्षयोपशम है, उसको मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। अथवा मिथ्यात्वी व्यक्ति की जितनी सही दृष्टि है, वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाता है।

(२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान- दूसरी श्रेणी औपशमिक सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व की ओर जानेवाले प्राणी को उपलब्ध होती है। जैसे कोई पत्ता वृक्ष से गिरता है और धरती का स्पर्श नहीं करता। वैसे ही कोई प्राणी औपशमिक सम्यक्त्व से गिरने लग गया, पूरा गिरा नहीं, छह आवलिका का समय शेष है, उस स्थिति का नाम है सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान।

(३) मिश्रदृष्टि गुणस्थान- तीसरी श्रेणी मिश्रदृष्टि गुणस्थान है। यह मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के मिश्रण यानी संदिग्ध अवस्था की प्रतीक है। इस श्रेणी में रहनेवाला व्यक्ति न इधर का रहता है न उधर का। किसी एक तत्त्व में संदेह रहने पर भी यह स्थिति प्राप्त हो जाती है। यह स्थिति अंतर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहती। दृष्टिकोण मिथ्या बनने पर प्रथम गुणस्थान और सम्यक् बनने पर चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि होती है।

(४) अविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान- चौथी श्रेणी का नाम है-अविरतिसम्यग्दृष्टि। इसमें सम्यक्त्व का अवतरण हो जाता है, किंतु व्रत-ग्रहण की क्षमता विकसित नहीं होती। इसमें अनंतानुबंधी चतुष्क का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होता है, पर अप्रत्याख्यानावरण का उदय रहता है। इसलिए प्रत्याख्यान नहीं हो सकता।

(५) देशविरति गुणस्थान- पांचवीं श्रेणी देशविरति गुणस्थान है। इसमें अप्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम होता है, इसलिए अंशतः व्रत-ग्रहण की क्षमता प्राप्त हो जाती है।

(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान- छठी श्रेणी का नाम है-प्रमत्तसंयत गुणस्थान। इसमें प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हो जाने से संपूर्ण रूप से व्रती जीवन का क्रम शुरू हो जाता है। इससे आगे की सब श्रेणियों में व्रत/संयम तो रहता ही है, उसके साथ-साथ अन्य गुणों का विकास होता जाता है।

(१०) दसवां बोल: कर्म आठ

कर्म- जीव चेतनामय अरूपी पदार्थ है। उसके साथ लगे हुए सूक्ष्म मलावरण को कर्म कहते है। कर्म आठ हैं-

(१) ज्ञानावरणीय कर्म- आत्मा का पहला गुण है- केवलज्ञान |उसको रोकनेवाले पुद्गलों का नाम है- ज्ञानावरणीय कर्म।

(२) दर्शनावरणीय कर्म- आत्मा का दूसरा गुण है- केवलदर्शन। यह भी ज्ञान की भांति सब आत्माओं में विद्यमान है। इस द्वितीय गुण को आवृत्त करनेवाले कर्म- पुद्गलों का नाम है- दर्शनावरणीय कर्म।

(३) वेदनीय कर्म- आत्मा का तीसरा गुण है- आत्मिक सुख। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है- वेदनीय कर्म।

(४) मोहनीय कर्म- आत्मा का चौथा गुण है- सम्यक्-श्रद्धा। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है- मोहनीय कर्म।

(५) आयुष्य कर्म- आत्मा का पांचवां गुण है- अटल अवगाहन। इस शाश्वत स्थिरता को रोकने वाले पुद्गलों का नाम है- आयुष्यकर्म।

(६) नाम कर्म- आत्मा का छठा गुण है- अमूर्तिकपन। इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम हैं- नाम कर्म।

(७) गोत्र कर्म- आत्मा का सातवां गुण है- अगुरूलघुपन (न छोटापन, न बड़ापन)इसको रोकने वाले पुद्गलों का नाम है- गोत्र कर्म।

(८) अन्तराय कर्म- आत्मा का आठवां गुण है- लब्धि। इसको रोकने वाले कर्म पुद्गलों का नाम है- अन्तराय कर्म।

(९) नौवां बोल:उपयोग बारह

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अज्ञान- यहां अज्ञान शब्द में होने वाले 'नञ् समास' का अर्थ अभाव नहीं, पर कुत्सा है। इसका अर्थ न ज्ञान- अज्ञान अर्थात् ज्ञान का आवरण। यह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है और इससे ज्ञान का विकास रुकता है।

अज्ञान के तीन प्रकार है- मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगअज्ञान इनका अर्थ पुरवोक्त मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के समान ही है।
मन: पर्यवज्ञान और केवलज्ञान- ये दोनों विशिष्ट योगियों के होते हैं। वे (विशिष्ट योगी) कभी मिथ्यात्वी हो नहीं सकते। अत: अज्ञान के भेद सिर्फ तीन ही होते हैं, पांच नहीं।

दर्शन- सामान्य बोध- अनाकार उपयोग को दर्शन कहते हैं। इनके चार भेद हैं-

(१) चक्षु:दर्शन- चक्षु:दर्शनावरणीय- कर्म का क्षयोपशम होने पर चक्षु द्वारा पदार्थों का जो सामान्य बोध होता है, उसे चक्षु:दर्शन कहते है।

(२) अचक्षु:दर्शन- अचक्षुदर्शनावरणीय- कर्म का क्षयोपशम होने पर चक्षु के सिवाय शेष स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्रेंद्रिय तथा मन के द्वारा पदार्थों का जो सामान्य बोध होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते है।

(३) अवधि:दर्शन- अवधिदर्शनावरणीय- कर्म का क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी द्रव्य का जो सामान्य बोध होता है, उसे अवधिदर्शन कहते है।

(४) केवल:दर्शन- केवलदर्शनावरणीय- कर्म का क्षय होने पर आत्मा को जो सर्व पदार्थों का सामान्य बोध होता है, उसे केवलदर्शन कहते है।

(९) नौवां बोल:उपयोग बारह

उपयोग- इस शब्द का अर्थ हैं- काम में लाना। ज्ञान एवं दर्शन को काम में लाने का नाम उपयोग है।

ज्ञान के पांच प्रकार हैं- मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल।

ज्ञान- विशेष की उपेक्षा कर सामान्य का ज्ञान करना दर्शन है और सामान्य की उपेक्षा कर विशेष का ज्ञान करना ज्ञान है।

(१) मतिज्ञान- इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला वर्तमान कालवर्ती ज्ञान मतिज्ञान है।

(२) श्रुतज्ञान- जो ज्ञान श्रुतानुसारी हैं- जिससे शब्द अर्थ का संबंध जाना जाता है और जो मतिज्ञान के बाद होता है, वह श्रुतज्ञान है।

(३) अवधिज्ञान- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से जो ज्ञान मूर्त- पदार्थों (पुद्गलो) को जानता है, उसे अवाधिज्ञान कहते है।

(४) मन: पर्यवज्ञान- इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से जो ज्ञान समनस्क (संज्ञी) जीवों के मन में रहे हुए भावों को जानता है, उसे मन: पर्यवज्ञान कहते है।

(५) केवलज्ञान- मूर्त- अमूर्त, सूक्ष्म- स्थूल आदि समस्त पदार्थ और समस्त पर्याय जिससे जाने जाते हैं, वह केवलज्ञान है।

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(८) आठवां बोल:योग पंद्रह

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काययोग-शरीर के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न काययोग है।

काययोग का सम्बन्ध शरीर के साथ है। शरीर पांच हैं – औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण।

मनुष्य और तियँच गति के जीव औदारिक शरीर वाले होते हैं। औदारिक शरीर वाले जीवों की हलन-चलन रूप प्रवृत्ति औदारिक काययोग कहलाती है।

काययोग का दूसरा भेद है– औदारिकमिश्रकाययोग- कार्मण, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों शरीरों के साथ औदारिक का मिश्र होता है।

देव, नारक, वैक्रियलव्धिसम्पन्न मनुष्य, तिर्यंच एवं वायुकाय के वैक्रियशरीर होता हैं। वैक्रिय शरीर की प्रवृति वैक्रिय काययोग हैं।

औदारिक शरीरवाले मनुष्य और तियँच वैक्रिय लव्धि का प्रयोग कर वैक्रिय रूप बनाते हैं। उस लब्धी को समेटते समय जब तक औदारिक शरीर पूरा नहीं बनता है, तब तक औदारिक काययोग के साथ वैक्रिय का मिश्र होता है।

आहारक शरीर योगजन्य लब्धि है। यह चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के ही हो सकता हैं। आहारक शरीर पूरा बनकर जो प्रवृत्ति करता हैं, वह आहारक काययोग कहलाता है।

आहारक शरीर अपना काम संपन्न कर पुनः औदारिक शरीर में प्रवेश करता है। जब तक क्रिया संपन्न नहीं होती, तब तक औदारिक काययोग के साथ आहारक का मिश्र होता है। वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता हैं।

एक भव से दूसरे भव में जाते समय जीव जब अनाहारक रहता है, उस समय होनेवाले योग का नाम कार्मण काययोग हैं।

(८) आठवां बोल:योग पंद्रह

योग: शरीर,वचन एवं मन के द्वारा होने वाले आत्म- प्रयत्न को योग कहते हैं। इसके तीन प्रकार हैं-

१. मनोयोग २. वचनयोग ३. काययोग

मनोयोग के चार भेद –
१.सत्य मनोयोग ३. मिश्र मनोयोग
२. असत्य मनोयोग ४. व्यवहार मनोयोग

वचनयोग के चार भेद-
५.सत्य वचनयोग ७. मिश्र वचनयोग
६. असत्य वचनयोग ८. व्यवहार वचनयोग

काययोग के सात भेद–

९.औदारिक काययोग
१०. औदारिकमिश्र काययोग
११. वैक्रिय काययोग
१२. वैक्रियमिश्र काययोग
१३.आहारककाययोग
१४.आहारकमिश्र काययोग
१५.कार्मणकाययोग

मनोयोग-मन हमारी प्रवृत्ति का सूक्ष्म किन्तु प्रमुख कारण है। मन के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न मनोयोग है। उसके चार भेद हैं- सत्य मनोयोग,
असत्य मनोयोग, मिश्र मनोयोग और व्यवहार मनोयोग।

सत्य के विषय में होने वाली मन की प्रवृत्ति सत्य मनोयोग है।

असत्य के विषय में होने वाली मन की प्रवृत्ति असत्य मनोयोग है।

सत्य-असत्य के मिश्रण में होने वाली मन की प्रवृत्ति मिश्र मनोयोग है।

मन की जो प्रवृत्ति सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है, उस प्रवृत्ति का नाम व्यवहार मनोयोग है। इसका सम्बन्ध मुख्यत: आदेशात्मक, उपदेशात्मक चिन्तन से है।

वचनयोग-भाषा के द्वारा होने वाला आत्मा का प्रयत्न वचनयोग है। मनोयोग की ही भांति वचनयोग के भी चार प्रकार हैं।

(७) सातवां बोल: शरीर पांच

शरीर- जिसके द्वारा चलना, फिरना खाना - पीना आदि क्रियाएं होती हैं, प्रतिक्षण जीर्ण- शीर्ण होना जिसका स्वभाव है,जो शरीर- नामकर्म के उदय से बनता है और संसारी आत्माओं का निवास- स्थान होता है, उसे शरीर कहते हैं। शरीर पांच प्रकार के होते हैं-

(१) औदारिक शरीर- जो शरीर स्थूल पुद्गलो से निष्पन्न होता है, वह औदारिक शरीर है।

(२) वैक्रिय शरीर - जिस शरीर से छोटापन, बड़ापन, सूक्ष्मता, स्थूलता, एकरूप, अनेक रूप आदि विविध क्रियाएं की जा सकती हैं, वह वैक्रिय शरीर हैं। जिस शरीर से हाड़,मांस, रक्त न हो तथा जो मरने के बाद कपूर की तरह उड़ जाए, उसको वैक्रिय शरीर कहते है।

(३) आहारक शरीर- चतुर्दश पुर्वधर मुनि आवश्यक कार्य उत्पन्न होने पर जो विशिष्ट पुद्गलों का शरीर बनाते हैं, वह आहारक शरीर है।

(४) तैजस शरीर- जो शरीर आहार आदि को पचाने में समर्थ है और जो तेजोमय है,वह तैजस शरीर हैं। उसे विद्युत् शरीर भी कहा जाता हैं।

(५) कार्मण शरीर- ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मो के पुद्गल- समूह से जो शरीर बनता हैं,वह कार्मण शरीर है।

(६) छठा बोल: प्राण दश

प्राण- प्राण का अर्थ है जीवनी शक्ति। प्राण संख्या में दस हैं – उनमें पांच प्राणों का संबंध इन्द्रियों की जो ज्ञान करने की शक्ति है उसे कहते हैं- पांच इन्द्रिय प्राण। मनबल, वचनबल और कायबल का संबंध मन: पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति एवं शरीर पर्याप्ति के साथ है।

जीवन धारण करने में प्राणशक्ति का उपयोग होता है। प्राणी की प्राण-शक्ति का वियोजन होते ही मृत्यु हो जाती है। यह शक्ति तब प्राप्त होती है, जब जीव जन्म धारण करने के अनन्तर पर्याप्तियां बांध लेता है। इस दृष्टि से प्राण और पर्याप्ति परस्पर संबद्ध हैं।

श्वासोच्छ्वास प्राण श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से जुड़ा हुआ है। आयुष्य प्राण का संबंध आहार पर्याप्ति से है। जब तक ओज आहार रहता है, तब तक आयुष्य बल के आधार पर प्राणी जीवित रहता है। ओज आहार की समाप्ति आयुष्य की समाप्ति है। आयुष्य बल क्षीण होते ही प्राणी की मृत्यु हो जाती है।

संसार में रहने वाले सभी प्राणी सप्राण होते हैं, किन्तु सब प्राणियों के प्राणों की संख्या समान नहीं होती। एक इन्द्रिय वाले प्राणियों में चार प्राण पाए जाते हैं। दो इन्द्रिय वाले जीवों में प्राणों की संख्या छह हो जाती है। तीन इन्द्रिय वाले जीवों में प्राण सात, चार इन्द्रिय वाले जीवों में प्राण आठ और पांच इन्द्रिय वाले जीवों में दसों प्राण पाये जाते हैं।

(५) पांचवां बोल: पर्याप्ति छह

पर्याप्ति- संसारी प्राणी किसी भी जीवयोनि में उत्पन्न हो, वह जब तक जीवित रहता है तब तक उसे किसी पुष्ट आलम्बन की अपेक्षा रहती है। वह आलम्बन प्राणशक्ति तो है ही, उसके साथ एक विशिष्ट प्रकार की पौद्गलिक शक्ति भी है, जो पर्याप्ति के नाम से अपनी पहचान कराती है। पर्याप्ति का अर्थ है जीवन धारण में उपयोगी पौद्गलिक शक्ति।

(१) आहार पर्याप्ति- इस पर्याप्ति का बंध सबसे पहले होता है। इस पर्याप्ति के द्वारा जीव जीवन भर आहार प्रायोग्य पुद्गलों के ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।

(२) शरीर पर्याप्ति- इस के द्वारा शरीर के अंगोपांगो का निर्माण होता है।

(३) इन्द्रिय पर्याप्ति- यह त्वचा आदि इन्द्रियों के निर्माण का कार्य सम्पन्न करती है।

(४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति- इस के द्वारा श्वास-वायु के ग्रहण और उत्सर्जन की क्षमता प्राप्त होती है।

(५) भाषा पर्याप्ति- यह भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्जन करती है।

(६) मन: पर्याप्ति- मननयोग्य पुद्गलों के ग्रहण करने और छोड़ने में जीव का सहयोग करती है।

(४) चौथा बोल: इन्द्रियां पांच

इन्द्रिय- जिसके अपने एक विषय का ज्ञान होता है, उसे इन्द्रिय कहते है।

(१) स्पर्शन इन्द्रिय- जिस इन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है, वह स्पर्शन इन्द्रिय- त्वचा।

(२) रसन इन्द्रिय- जिस इन्द्रिय से रस का ज्ञान होता है,वह है रसनइन्द्रिय- जिह्वा।

(३) घ्राण इन्द्रिय- जिस इंद्रिय से गंध का ज्ञान होता है वह है घ्राणइंद्रिय- नाक।

(४) चक्षु इंद्रिय- जिस इन्द्रिय से रूप का ज्ञान होता है वह है- चक्षुइंद्रिय- आंख।

(५) श्रोत्र इन्द्रिय- जिस इन्द्रिय से ध्वनि का ज्ञान होता है, वह है श्रोत्रइन्द्रिय- कान।

इन्द्रिय के दो भेद हैं-

(१) द्रव्येंद्रिय- नाक,कान आदि इंद्रियों की बाहरी और भीतरी पौद्गलिक रचना(आकार विशेष) को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं।

(२) भावेन्द्रिय- आत्मा के परिणाम विशेष (जानने की योग्यता और प्रवृत्ति) को भावेन्द्रिय कहते हैं।

(३) तीसरा बोल: काय छह

काय- काय शब्द का अर्थ शरीर है। ये छह प्रकार के होते हैं-

(१) पृथ्वीकाय-मिट्टी, मुरड़, पत्थर, हिंगुल, हरताल, हीरा, पन्ना, कोयला, सोना, चांदी आदि सब पृथ्वीकायिक जीव हैं। मिट्टी की एक डली में असंख्य पृथक-पृथक जीव होते हैं।
पृथ्वीकायिक जीवों को जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक पृथ्वी सचित्त (सजीव) होती है। विरोधी-शस्त्र के योग से वह एक अचित्त (निर्जीव) हो जाती है।

(२) अप्काय- बरसात का जल, ओस का जल,समुन्द्र का जल, धूंअर का जल, कुएं, बावड़ी,तालाब,झील और नदी का जल आदि सब अप्कायिक जीव हैं। जल की एक बूंद में पृथक- पृथक असंख्य जीव होते हैं।
जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक जल सचित्त होता है। विरोधी शस्त्र के योग से वह अचित्त हो जाता है।

(३) तेजस्काय- अग्नि,विद्युत, उल्का आदि सब तेजस्कायिक जीव हैं। अग्नि की एक छोटी-सी चिनगारी में पृथक्- पृथक् असंख्य जीव होते हैं। उनको जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक अग्नि सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से वह अचित्त हो जाती है।

(४) वायुकाय- वायुशरीर वाले वायुकाय कहलाते है। इसके मुख्य पांच भेद हैं: उल्कलिका , मंडलिका , घनवायु , गुज्जावायु , शुद्धवायु। वायु में भी पृथक् पृथक् असंख्य जीव होते हैं। जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वायु सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से वह अचित्त हो जाती है।

(५) वनस्पतिकाय- आम,अंगूर,केला , सब्जी, आलू, प्याज, लहसुन आदि वनस्पतिकाय हैं। उसके दो भेद किए गए हैं- साधारण और प्रत्येक। जैसे: वृक्ष- आम आदि।

(६) त्रसकाय- द्वीन्द्रिय से पंचेंद्रिय तक के समस्त हिलने- चलने, घूमने- फिरने वाले जीव त्रसकायिक जीव कहलाते हैं।

(२) दूसरा बोल: जाति पांच

जाति: इन्द्रियों (त्वचा,जिह्वा,नाक, आँख और कान) के द्वारा जो जीव के विभाग होते है,उसे जाति कहते हैं,जाति शब्द का अर्थ सदृशता है; जैसे- गाय जाति,अश्व जाति। जाति के पांच प्रकार हैं-

(१) एकेंद्रिय- जिन जीवों के केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती हैं,उन जीवों की जाति है- एकेंद्रिय। पृथ्वी,पानी, अग्नि,वायु, वनस्पति आदि।

(२) द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्श तथा रसन- ये दो इन्द्रियां होती है,उन जीवों की जाति हैं- द्वीन्द्रिय। लट,सीप,शंख,कृमि, घुन आदि।

(३) त्रीन्द्रिय- जिन जीवों के स्पर्शन, रसन तथा घ्राण- ये तीन इन्द्रियां होती हैं, उन जीवों की जाति है- त्रीन्द्रिय। चीन्टी,मकोड़ा, जूं, लीख, चिचड़ आदि।

(४) चतुरिंद्रिय- जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण तथा चक्षु- ये चार इन्द्रियां होती हैं उन जीवों की जाति है- चतुरिंद्रिय। मक्खी, मच्छर,भंवरा, टिड्डी,कसारी, बिच्छु आदि।

(५) पंचेंद्रिय- जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण,चक्षु तथा श्रोत्र- ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं, उन जीवों की जाति हैं- पंचेंद्रिय। तिर्यंच्च- मच्छ,मगर,गाय, भैंस,सर्प,पक्षी आदि तथा मनुष्य,देव, नारक।

(१) पहला बोल: गति चार

गति: गति शब्द का अर्थ हैं- एक जन्म स्थिति से दूसरी जन्म स्थिति को या एक अवस्था से दूसरी अवस्था को पाने के अर्थ में हुआ है। जैसे मनुष्य अवस्था में जीव मनुष्य गति कहलाता है और वही जीव तिर्यंच-अवस्था को प्राप्त हो गया तो हम उसे तिर्यंच- गति कहेंगे। गति के चार प्रकार हैं-

(१) नरक गति- नरक सात हैं- रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथ्वियाँ नीचे लोक में हैं।इनमें जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे नारक कहलाते हैं।

(२) तिर्यंच गति- एक,दो,तीन,चार इन्द्रिय वाले जीव तथा पांच इन्द्रिय वाले स्थलचर- भूमि पर चलने वाले, खेचर- आकाश में उड़ने वाले तथा जलचर- पानी में रहने वाले सभी जीव तिर्यंच कहलाते हैं।

(३) मनुष्य गति- मनुष्य की अवस्था को प्राप्त करना मनुष्य गति है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- संज्ञी अौर असंज्ञी। जिन मनुष्यो के मन होता है वे संज्ञी कहलाते है और जिनके मन नहीं होता,वे असंज्ञी कहलाते है। संज्ञी मनुष्य गर्भ से उत्पन्न होते हैं और असंज्ञी मनुष्य मनुष्य -जाति के मल,मूत्र,शलेष्म आदि चौदह स्थानों से पैदा होते है। ये बहुत सूक्ष्म होते हैं,इसलिए हमे दिखाई नहीं देते।

(४) देव गति- जो जीव देव योनि में पैदा होते हैं वे देव गति है। देवता चार तरह के होते हैं- भवनपति, व्यंतर,ज्योतिष्क,वैमानिक।

सभी संसारी जीव अपने किए हुए कर्मो के अनुसार एक गति में से दूसरी गति में परिवर्तित होते रहते हैं।जैसे एक ही जीव कभी मनुष्य,कभी देवता,कभी तिर्यंच और कभी नारक बन जाता है।

आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. उदय कौन से गुण स्थान तक रहता है ?
उत्तर - १४वें गुण स्थान तक रहता है ।

प्रश्न - २. कर्म के दो प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर - १. दलित
२. निकाचित ।

प्रश्न - ३. उत्पत्ति के चौदह स्थान कौन से हैं ?
उत्तर - समनस्क स्त्री ,मनुष्य के निम्नोक्त चौदह स्थानों में ये अमनस्क जीव उत्पन्न होते हैं ।
1. मल 2. मूत्र 3.श्लेश्म ,
4. खंखार 5. वमन 6. पित्त ,
7. पीव 8. शुक्र 9. शोणित ,
10. सूखा शुक्र ( पुनः गीला हुआ ) ,
11. क्लेवर ( मृत शरीर ) , 12. स्त्री पुरुष संयोग ,
13. नगर का कीचड़ 14. सर्व अशुचि स्थान ।

प्रश्न - ४. लौकिक और लोकोत्तर दान किसे कहते हैं ?
उत्तर - सांसारिक प्रवृत्ति चलाने व असंयमी के पोषण के लिए दान देने को लौकिक दान कहते हैं ।
जो दान संयमी के विकास में सहायक होता है उसे लोकोत्तर दान कहते हैं ।

 

आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स् मिच्छामि दुक्कडं |

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. उदय कौन से गुण स्थान तक रहता है ?
उत्तर - १४वें गुण स्थान तक रहता है ।

प्रश्न - २. कर्म के दो प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर - १. दलित
२. निकाचित ।

प्रश्न - ३. उत्पत्ति के चौदह स्थान कौन से हैं ?
उत्तर - समनस्क स्त्री ,मनुष्य के निम्नोक्त चौदह स्थानों में ये अमनस्क जीव उत्पन्न होते हैं ।
1. मल 2. मूत्र 3.श्लेश्म ,
4. खंखार 5. वमन 6. पित्त ,
7. पीव 8. शुक्र 9. शोणित ,
10. सूखा शुक्र ( पुनः गीला हुआ ) ,
11. क्लेवर ( मृत शरीर ) , 12. स्त्री पुरुष संयोग ,
13. नगर का कीचड़ 14. सर्व अशुचि स्थान ।

प्रश्न - ४. लौकिक और लोकोत्तर दान किसे कहते हैं ?
उत्तर - सांसारिक प्रवृत्ति चलाने व असंयमी के पोषण के लिए दान देने को लौकिक दान कहते हैं ।
जो दान संयमी के विकास में सहायक होता है उसे लोकोत्तर दान कहते हैं ।

आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स् मिच्छामि दुक्कडं |

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १.भाव किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्मों के संयोग या वियोग से होने वाली आत्मा की अवस्था को भाव कहते हैं

प्रश्न - २.भाव के कितने भेद हैं?
उत्तर - भाव के पांच भेद हैं । औदायिक ,औपशमिक ,क्षायिक, क्षायोपशमिक ,पारिणामिक ।

प्रश्न - ३. औदयिक भाव किसे कहते हैं ?
उत्तर - कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था को औदायिक भाव कहते हैं ।

प्रश्न - ४. उदय कितने कर्मों का होता है ?
उत्तर - आठ कर्मों का ।

प्रश्न - ५. औपशमिक भाव किसे कहते हैं ?
उत्तर - उपशम से होने वाली आत्मा की अवस्था को औपशमिक भाव कहते हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. आठ कर्मों में बंध कारक कर्म कौन-कौन से हैं?
उत्तर - मोहनिय कर्म से अशुभ कर्म का बंध तथा नाम कर्म से शुभ कर्म का बंध होता है । शेष अपना फल ही देते हैं ।

प्रश्न - २.सामायिक के कितने दोष हैं ?
उत्तर - सामायिक के बत्तीस दोष हैं । मन के १०, वचन के १०, काया के १२ ।

प्रश्न - ३.संवर और सामायिक में क्या अंतर है ?
उत्तर - संवर में कोई काल मान निश्चित नहीं होता है । जबकि सामायिक में काल मान निश्चित होता है ।

प्रश्न - ४.सामायिक के पर्यायवाची शब्द क्या है ?
उत्तर - समता , समाधि संयम ।

प्रश्न - ५.सामायिक कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर - सामायिक चार प्रकार की होती है वह निम्न है -
१. सम्यक्त्व सामायिक ,
२. श्रुत सामायिक ,
३. देशविरति सामायिक
एवं
४. सर्वविरती सामायिक ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. तिर्यञ्च और मनुष्य कौन सा आहार करते हैं?
उत्तर - तीनों प्रकार के आहार करते हैं - आेज, रोम,कवल ।

प्रश्न - २. भवी और अभवी किसे कहते हैं?
उत्तर - जिसमें मोक्ष जाने की योग्यता हो उसे भवी कहते हैं। जिसमें मोक्ष जाने की योग्यता न हो उसे अभवि कहते हैं।

प्रश्न - ३. श्रावक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो अहिंसा आदि 12 व्रतों का पालन करते हैं । उन्हें श्रावक कहते हैं जो श्रद्धावान है , विवेकवान है और अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहते हैं उन्हें श्रावक कहते हैं ।

प्रश्न - ४. कर्म की कितनी अवस्थाएं हैं ?
उत्तर - दस अवस्थाएं - बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उदवर्तन, अपवर्तन ,संक्रमण,उपशम, निधत्ति, निकाचना।

प्रश्न - ५. कर्म के चार परिणाम कौन से हैं ?
उत्तर - आवरण, विकारं, अवरोध, शुभाशुभ का संयोग।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १.कौन से चारित्र के जीव ज्यादा हैं?
उत्तर - सामायिक चारित्र के जीव ज्यादा हैं ।

प्रश्न - २. कौन से चारित्र के जीव कम हैं ?
उत्तर - सूक्ष्म संपराय चारित्र के जीव कम हैं ।

प्रश्न - ३. चारित्र कौन से कर्म का उदय हैं ?
उत्तर - कोई कर्म का उदय नहीं है ।
चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम क्षायक क्षयोपशम हैं ।
प्रश्न - ४. समिति गुप्ति में क्या अंतर है?
उत्तर - समिति प्रवृत्ति है , जबकि गुप्ति निवृत्ति है ।

प्रश्न - ५. देवता और नारकी के जीव कौन सा आहार करते हैं?
उत्तर - ओज आहार ,रोम आहार ।
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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. सामायिक किस लिए की जाती है ?
उत्तर - सामायिक आत्म शुद्धि के लिए की जाती है ।

प्रश्न - २. नव तत्व में कौन सा तत्व है ?
उत्तर - छठ्ठा तत्व - संवर ।

प्रश्न - ३. सामायिक सावद्य है या निरवद्य ?
उत्तर - निरवद्य है ।

प्रश्न - ४. चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर - देश या पूर्ण रूप से सावद्य योगों के परित्याग को चारित्र कहते हैं ।

प्रश्न - ५. चारित्र के पर्यायवाची शब्द कौन - कौन से हैं ?
उत्तर - संवर , संयम प्रत्याख्यान , त्याग आदि ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. श्रावक को किस नाम से पुकारा जाता है ?
उत्तर - श्रमणोपासक (श्रमणों की सेवा करने वाला)

प्रश्न - २. महाव्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर - हिंसा आदि आचरण का 3 करण तथा 3 योग से त्याग करना महाव्रत है ।

प्रश्न - ३. महाव्रत के कितने भेद हैं बताइए ?
उत्तर - महाव्रत के पांच भेद है ।
1. अहिंसा - सब जीवों के प्रति संयम ।
2 . सत्य - यथार्थ चिंतन (जैसा भीतर वैसा बाहर)
3. अस्तेय - बिना आज्ञा पर पदार्थ को ग्रहण करने का त्याग ।
4. ब्रह्मचर्य - विषय - वासना का त्याग , इंद्रिय और मन का संयम ।
5 .अपरिग्रह घर खेत ,धन-धान्य आदि समग्र परिग्रह का त्याग ।

प्रश्न - ४. साधु के धर्मों पकरण वस्त्र , पात्र, पुस्तक आदि परिग्रह में क्यों नहीं?
उत्तर - इसलिए कि संयम निर्वाह के लिए ही उनका उपयोग है ।

प्रश्न - ५. भांगा किसे कहते हैं वे कितने हैं?
उत्तर - भांगा विभाग को कहते हैं । वे 49 है ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. व्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर - व्रत का अर्थ वैसे त्याग होता है किंतु श्रावक के बारह व्रतों में आंशिक त्याग को व्रत कहा है ।

प्रश्न - २. श्रावक के कितने व्रत हैं ?
उत्तर - अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह , दिग्विरति , भोगोपभोग ,अनर्थ दण्ड, सामायिक , देशावकाशिक , पौषध , यथाअतिथि सं विभाग ।

प्रश्न - ३. अणुव्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर - अणु यानी छोटा व्रत अर्थात नियम । एक सीमा तक त्याग अणुव्रत है ।

प्रश्न - ४. गुण व्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर - अणुव्रतों को पोषित करने वाले गुण व्रत कहलाते हैं ।

प्रश्न - ५. शिक्षा व्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर - पूर्व व्रतों की विशुद्धि करने वाले शिक्षा व्रत कहलाते हैं ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. अलोक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जहां केवल आकाश है उसे अलोक कहते हैं ।

प्रश्न - २. हम कहां रहते हैं ?
उत्तर - लोक में ।

प्रश्न - ३. जीव अलोक में क्यों नहीं जा सकता ?
उत्तर - जीव धर्मास्तिकाय के बिना गति नहीं कर सकता है जबकि धर्मास्तिकाय लोक में ही है , ईसलिए अलोक में नहीं जा सकता ।

प्रश्न - ४. राशि किसे कहते हैं ?
उत्तर - राशि यानि समूह (ढेर) है ।

प्रश्न - ५. राशि कितने प्रकार की हैं ?
उत्तर - राशि दो प्रकार की है - जीव राशि ,अजीव राशि ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १.सामान्य गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर - सब द्रव्य में जो समान रूप से पाया जाता है , उसे सामान्य गुण कहते हैं

प्रश्न - २. विशेष गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो सहगामी होकर भी सब द्रव्यों में समान रूप में नहीं पाया जाता उसे विशेष गुण कहते हैं ।

प्रश्न - ३. पर्याय किसे कहते हैं ?
उत्तर - वस्तु की परिवर्तनशील अवस्था को पर्याय कहते हैं ।

प्रश्न - ४.अस्ति काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - प्रदेशों के समूह को अस्ति काय कहते हैं ।

प्रश्न - ५. लोक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जहां छह द्रव्य है उसे लोक कहते हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. सूक्ष्म और बादर से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - सूक्ष्म - जिनका शरीर भी हमें दिखाई नहीं देता है ।
जबकि बादर - जो हमें दिखाई देते हैं ।

प्रश्न - २. पांच आश्रव कितने गुण स्थान तक रहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्व आश्रव - पहले और तीसरे गुण स्थान में,
अव्रत आश्रव - पांचवे गुण स्थान तक ,
प्रमाद आश्रव - छठ्ठे गुणस्थान तक ,
कषाय आश्रव - दसवें गुण स्थान तक ,
योग आश्रव - तेरहवें गुणस्थान तक ।

प्रश्न - ३. सम्यक्त्व के कितने प्रकार हैं?
उत्तर - पांच - औपक्षमिक ,क्षायिक , क्षायोपशमिक , सास्वादन , वेदक ।

प्रश्न - ४. आत्मा किसे कहते हैं?
उत्तर - जीव , जीव के गुण , जीव की क्रिया - इन सब को आत्मा कहते हैं ।

प्रश्न - ५. आत्मा की मुक्ति होने में दो बाधाएं कौन सी है?
उत्तर - 1. कर्म का बंध होते रहना ।
2 . बंधे हुए कर्मों का क्षय नहीं होना ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. रौद्र ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर - हिंसा , असत्य , चौर्य , क्रूरता , ईर्ष्या , मत्सर आदि की प्रवृत्तियों में एकाग्र रहना उसका अनुचिन्तन करना रौद्र ध्यान कहलाता है ।

प्रश्न - २. शुक्ल ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर - शुक्ल का अर्थ -समाधि । जीव की समाधि अवस्था को शुक्ल ध्यान कहते हैं । यह ध्यान उत्कृष्ट ध्यान है ।

प्रश्न - ३. द्रव्य किसे कहते हैं ?
उत्तर - गुण और पर्यायों का जो आधार है वह द्रव्य है ।

प्रश्न - ४. गुण किसे कहते हैं ?
उत्तर - वस्तु के निरंतर साथ रहने वाले धर्म को गुण कहते हैं

प्रश्न - ५. गुण कितने प्रकार का होता है ?नाम बताइए ।
उत्तर - दो प्रकार का सामान्य गुण व विशेष गुण ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. मिथ्या दृष्टि किसे कहते हैं?
उत्तर - कुदेव , कुगुरु , कुधर्म को मानना मिथ्या दृष्टि है ।

प्रश्न - २. मिश्र दृष्टि किसे कहते हैं?
उत्तर - सभी देव , गुरु , धर्म को समान समझना मिश्र दृष्टि है ।

प्रश्न - ३. ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर - किसी एक विषय या आलंबन पर चित्त को केंद्रित करना ध्यान कहलाता है ।

प्रश्न - ४. ध्यान के चार भेद कौन - कौन से हैं?
उत्तर - 1.आर्त ध्यान ,
2.रौद्र ध्यान ,
3.धर्म ध्यान व
4.शुक्ल ध्यान ।

प्रश्न - ५. आर्त ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर - प्रिय वस्तु का वियोग अथवा अप्रिय वस्तु का संयोग होने पर जीव जब शोक - चिंतामग्न बन जाता है । उसे आर्त ध्यान कहते हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. लेश्या किसे कहते हैं ?
उत्तर - मन के शुभाशुभ परिणामों को लेश्या कहते हैं ।

प्रश्न - २. लेश्या का हमारे जीवन में क्या महत्व है?
उत्तर - भावों की मलिन ता , उज्ज्वलता , मन , शरीर एवं दृश्य जगत पर प्रभाव डालती हैं । वही रंगों के आधार पर भाव जगत को प्रभावित किया जाता है ।

प्रश्न - ३. छह लेश्या में शुभ कितनी ? अशुभ कितनी ?
उत्तर - प्रथम तीन - कृष्ण , नील , कपोत अशुभ ।
अंतिम तीन शुभ - तेजस , पदम , शुक्ल ।

प्रश्न - ४. दृष्टि किसे कहते हैं ?
उत्तर - दृष्टि का शब्दार्थ है - देखना । किंतु दृष्टि से तात्पर्य है - शाश्वत सत्य एवं वस्तु सत्य के प्रति हमारा विश्वास ।

प्रश्न - ५. सम्यक् दृष्टि किसे कहते हैं?
उत्तर - देव , गुरू , धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखना ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. दण्डक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जहाँ प्राणी अपने किए हुए कर्मों का दण्ड भोगता है ,उसे दण्डक कहते हैं ।

प्रश्न - २. बताइए नारकी का जीवन कैसा है ?
उत्तर - नरक में भयंकर दुःख है, अनन्त पीड़ा है । तीसरी नरक तक तो परमाधार्मिक देवता भी नारक जीवों को उत्पीड़ित करते रहते हैं ।

प्रश्न - ३.नारक जीव दुःखों की उदीरणा कैसे करते हैं ?
उत्तर - पारस्परिक कलह के द्वारा ।

प्रश्न - ४. विकलेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिनको पांचो इन्द्रियां पूरी न मिली हो ।
उन जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं ।

प्रश्न - ५. तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - तिर्यञ्च गति वाले एेसे जीव जिन्हें पांचो इन्द्रियां पूरी मिली हों , जैसे मछली ,पशु ,पक्षी ,सर्प , नेवला आदि ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. दण्डक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जहाँ प्राणी अपने किए हुए कर्मों का दण्ड भोगता है ,उसे दण्डक कहते हैं ।

प्रश्न - २. बताइए नारकी का जीवन कैसा है ?
उत्तर - नरक में भयंकर दुःख है, अनन्त पीड़ा है । तीसरी नरक तक तो परमाधार्मिक देवता भी नारक जीवों को उत्पीड़ित करते रहते हैं ।

प्रश्न - ३.नारक जीव दुःखों की उदीरणा कैसे करते हैं ?
उत्तर - पारस्परिक कलह के द्वारा ।

प्रश्न - ४. विकलेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिनको पांचो इन्द्रियां पूरी न मिली हो ।
उन जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं ।

प्रश्न - ५. तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - तिर्यञ्च गति वाले एेसे जीव जिन्हें पांचो इन्द्रियां पूरी मिली हों , जैसे मछली ,पशु ,पक्षी ,सर्प , नेवला आदि ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. सूक्ष्म और बादर से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - सूक्ष्म - जिनका शरीर भी हमें दिखाई नहीं देता है ।
जबकि बादर - जो हमें दिखाई देते हैं ।

प्रश्न - २. पांच आश्रव कितने गुण स्थान तक रहते हैं ?
उत्तर - मिथ्यात्व आश्रव - पहले और तीसरे गुण स्थान में,
अव्रत आश्रव - पांचवे गुण स्थान तक ,
प्रमाद आश्रव - छठ्ठे गुणस्थान तक ,
कषाय आश्रव - दसवें गुण स्थान तक ,
योग आश्रव - तेरहवें गुणस्थान तक ।

प्रश्न - ३. सम्यक्त्व के कितने प्रकार हैं?
उत्तर - पांच - औपक्षमिक ,क्षायिक , क्षायोपशमिक , सास्वादन , वेदक ।

प्रश्न - ४. आत्मा किसे कहते हैं?
उत्तर - जीव , जीव के गुण , जीव की क्रिया - इन सब को आत्मा कहते हैं ।

प्रश्न - ५. आत्मा की मुक्ति होने में दो बाधाएं कौन सी है?
उत्तर - 1. कर्म का बंध होते रहना ।
2 . बंधे हुए कर्मों का क्षय नहीं होना ।


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. प्रदेश किसे कहते हैं ?
उत्तर - वह सूक्ष्म भाग प्रदेश कहलाता है जिनके दूसरे भाग की कल्पना भी न की जा सके और जो स्कंध द्रव्य के साथ अवयव रूप से मिला हुआ हो उसे प्रदेश कहते हैं ।

प्रश्न - २.परमाणु किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिसका विभाजन ना हो उसे परमाणु कहते हैं ।

प्रश्न - ३.देश किसे कहते हैं ?
उत्तर - वस्तु के कल्पित अंश को देश कहते हैं । जैसे वस्त्र का कोई भाग ।

प्रश्न - ४. परमाणु और प्रदेश में क्या अंतर हैं ?
उत्तर - प्रदेश और देश स्कंध से मिले हुए होते हैं । जबकि परमाणु उस से पृथक होता है ।

प्रश्न - ५. स्कन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर - अखंड वस्तु को अथवा परमाणुओं के एकीभाव को स्कंध कहा जाता है - जैसे वस्त्र


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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. धर्मास्तिकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव और पुद्गल जिस द्रव्य की सहायता से हलन चलन करते हैं उस द्रव्य का नाम धर्मास्तिकाय है।

प्रश्न - २. अधर्मास्तिकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो द्रव्य जीव और पुद्गल के स्थिर होने में सहयोगी है उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं ।

प्रश्न - ३. आकाशस्तिकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो सब द्रव्यों को आश्रय देता है उसे आकाशस्तिकाय (आकाश द्रव्य) कहते हैं ।

प्रश्न - ४. काल किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो समयवर्ती होता है उसे काल कहते हैं ।

प्रश्न - ५. पुद्गलास्तिकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो द्रव्य रस , स्पर्श , गंध और वर्ण युक्त होता है । यानी संसार में हम जिन अजीव पदार्थों को देखते हैं वे सब पुद्गल हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. विषय किसे कहते हैं ?
उत्तर - इंद्रिय के कार्यक्षेत्र को विषय कहते हैं ।

प्रश्न - २. विषय किस कर्म का उदय हैं ?
उत्तर - विषय नाम कर्म का उदय है ।

प्रश्न - ३. मिथ्यात्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - विपरीत श्रद्धा को मिथ्यात्व कहते हैं ।

प्रश्न - ४. सम्यकत्व किसे कहते हैं ?
उत्तर - यथार्थ तत्व श्रद्धा को सम्यकत्व कहते हैं ।

प्रश्न - ५. मिथ्यात्व किस कर्म का उदय हैं ?
उत्तर - मोहनीय कर्म का ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. योग किसे कहते हैं ?
उत्तर - मन ,वचन और काया के निमित्त से आत्म प्रदेशों के चंचल होने को योग कहते हैं ।

प्रश्न - २. उपयोग किसे कहते हैं ?
उत्तर - सामान्य और विशेष रूप से वस्तु का स्वरूप जानना उपयोग कहलाता है ।

प्रश्न - ३. कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव की शुभाशुभ प्रकृति के द्वारा आकृष्ट कर्मयोग्य पुद्गल स्कंध जो आत्मा के साथ एकीभूत हो जाता है । उसे कर्म कहते हैं ।

प्रश्न - ४. कर्म जीव है या अजीव ?
उत्तर - अजीव हैं ।

प्रश्न - ५. कर्म बंध का हेतु कौन हैं ?
उत्तर - आश्रव ।

प्रश्न - ६. आठ कर्मों के क्षय होने का क्या क्रम हैं ?
उत्तर - १२वें गुणस्थान में सर्वप्रथम मोहनीय कर्म ,१३वें में ज्ञानावरणीय ,दर्शनावरणीय , अंतराय एवं १४वें में शेष चार कर्म - क्षय होते हैं ।

प्रश्न - ७. गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर - आत्मा की क्रमिक विशुद्धि को गुणस्थान कहते हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. औदारिक शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - स्थूल पुदगलों से या हाड मांस रक्त से बने हुए शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं ।

प्रश्न - २. वैक्रिय शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - विशिष्ट पुदगलों से बना शरीर जो दृश्य अदृश्य भी हो सकता है । तथा मृत्यु के बाद कपूर की तरह उड़ जाता है ।

प्रश्न - ३. आहारक शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - चौदह पूर्वधारी मुनियों में जो विशेष आहारक लब्धि वाले होते हैं । उसे आहारक शरीर कहते हैं ।

प्रश्न - ४. तैजस शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - विद्युतमय शरीर जो पाचन आदि का काम करता है । उसे तैजस शरीर कहते हैं ।

प्रश्न - ५. कार्मण शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव के प्रदेशों के साथ लगे हुए कर्म पुदगलों को कार्मण शरीर कहते हैं । तेजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं ।

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पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. देवता की पहचान के चार कारण कौन से हैं ?
उत्तर - 1. धरती से चार अंगुल उपर पैर ,
2. प्रतिछाया नहीं पड़ना ,
3. माला का नहीं कुम्हलाना ,
4. पलक का नहीं झपकना ।

प्रश्न - २. किन कारणों से जीव देव योनि को प्राप्त होता हैं ?
उत्तर - चार कारणों से -
1. सरागसंयम ,
2. संयमासंयम ,
3. बाल तपस्या ,
4. अकाम निर्जरा ।

प्रश्न - ३.जाति किसे कहते हैं?
उत्तर - इन्द्रियोंं के आधार पर किए गए जीवों के विभाग को जाति कहते हैं ।

प्रश्न - ४. जाति के कौन-कौन से भेद हैं?
उत्तर - पांच भेद हैं ।
1. एकेन्द्रिय ,
2. द्विन्द्रिय ,
3. त्रीन्द्रिय ,
4. चतुरिन्द्रिय ,
5 .पंचेन्द्रिय ।

प्रश्न - ५. एकेन्द्रिय किसे कहते हैं तथा इनमें कौन - से जीव आते हैं ?
उत्तर - मात्र स्पर्शेन्द्रिय वाले जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं । इसमें पृथ्वी , पानी , अग्नि , वायु तथा वनस्पति के जीव आते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. इन्द्रिय किसे कहते हैं?
उत्तर - जिस के द्वारा जीव विषयको ग्रहण करता है उसे इंद्रिय कहते हैं । जैसे - कान से शब्द सुनना , आंख से रूप देखना आदि ।

प्रश्न - २. पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव उत्पन्न होते समय आहार आदि ग्रहण करने की जिस शक्ति को पूर्ण करता है उसे पर्याप्ति कहते हैं ।

प्रश्न - ३. किन किन जीवों में कितनी पर्याप्तियां होती हैं ?
उत्तर - एकेन्द्रिय में प्रथम चार - आहार , शरीर , इन्द्रिय , श्वासोच्छवास ,द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक पांच आहार , शरीर , इन्द्रिय , श्वासोच्छवास और भाषा एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय में छहोंं पर्याप्तियां आहार , शरीर इंद्रिय , श्वासोच्छवास , भाषा और मन पाई जाती है ।

प्रश्न - ४.प्राण किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिसके सहारे से जीव जीता है और वियोग होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है उसे प्राण कहते हैं ।

प्रश्न - ५. शरीर किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिसके द्वारा सुख दुःख की अनुभूति होती हैं उसे शरीर कहते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर - नारक , देव , गर्भजमनुष्य एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ।

प्रश्न - २. असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कौन- कौन से हैं ?
उत्तर - चौदह स्थानक असंज्ञी मनुष्य पंचेन्द्रिय एवं असंज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय हैं ।

प्रश्न - ३. काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जीव जिस शरीर में पैदा होता है उसे काय कहते हैं ।

प्रश्न - ४. पृथ्वीकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों का शरीर पृथ्वी है जैसे - मिट्टी ,पत्थर , सोना , चांदी , हीरा , पन्ना आदि

प्रश्न - ५. अपकाय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों का शरीर पानी है जैसे - बरसात का , ओस का , धूंअर का, कुएं का पानी , बावड़ी का , समुद्र का आदि ।

प्रश्न - ६. तेजस् काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों का शरीर अग्नि है जैसे - बिजली की अग्नि , बांस की अग्नि , उल्कापात आदि आदि ।

प्रश्न - ७. वायु काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - वायु ही जिनका शरीर है जैसे - मंडलिका वायु , धन वायु आदि ।

प्रश्न - ८. वनस्पति काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों का शरीर वनस्पति है जैसे - वृक्ष , लता , फल , फूल , शाक, भाजी , अनाज आदि ।

प्रश्न - ९. त्रस काय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जो जीव हलन चलन करें छाया से धूप में आवे , धूप से छाया में जावे उसे त्रस काय कहते हैं जैसे - द्वीन्द्रिय ,त्रीन्द्रिय , चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. द्विन्द्रिय किसे कहते हैं?
उत्तर - जिन जीवो के स्पर्श और रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियां है जैसे :- लट , कृमि, घुण , सीप शंख आदि के जीव ।

प्रश्न - २. त्रीन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों के स्पर्श, रसन , घ्राण ये तीन इन्द्रियां हो जैसे :- खटमल , कीड़ी , जूं ,लीख आदि ।

प्रश्न - ३. चतुरिन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों के स्पर्श ,रसन, घ्राण ,और चक्षु ये चार इन्द्रियां हो जैसे :- मक्खी ,मच्छर , भंवरा ,बिच्छु आदि ।

प्रश्न - ४.पंचेन्द्रिय किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिन जीवों के पांचो इन्द्रियां होती हैं उसे पंचेन्द्रिय कहते हैं ।

प्रश्न - ५.पांच जाति में संज्ञी जीवन कौन-से हैं तथा असंज्ञी जीव कौन से हैं ?
उत्तर - एकेन्द्रीय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव तो असंज्ञी ही है ।
पंचेन्द्रिय के जीव असंज्ञी एवं संज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. देवता की पहचान के चार कारण कौन से हैं ?
उत्तर - 1. धरती से चार अंगुल उपर पैर ,
2. प्रतिछाया नहीं पड़ना ,
3. माला का नहीं कुम्हलाना ,
4. पलक का नहीं झपकना ।

प्रश्न - २. किन कारणों से जीव देव योनि को प्राप्त होता हैं ?
उत्तर - चार कारणों से -
1. सरागसंयम ,
2. संयमासंयम ,
3. बाल तपस्या ,
4. अकाम निर्जरा ।

प्रश्न - ३.जाति किसे कहते हैं?
उत्तर - इन्द्रियोंं के आधार पर किए गए जीवों के विभाग को जाति कहते हैं ।

प्रश्न - ४. जाति के कौन-कौन से भेद हैं?
उत्तर - पांच भेद हैं ।
1. एकेन्द्रिय ,
2. द्विन्द्रिय ,
3. त्रीन्द्रिय ,
4. चतुरिन्द्रिय ,
5 .पंचेन्द्रिय ।

प्रश्न - ५. एकेन्द्रिय किसे कहते हैं तथा इनमें कौन - से जीव आते हैं ?
उत्तर - मात्र स्पर्शेन्द्रिय वाले जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं । इसमें पृथ्वी , पानी , अग्नि , वायु तथा वनस्पति के जीव आते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. मनुष्य गति में कौन सी गति के जीव जाते हैं ?
उत्तर - चारों ही गतिओं के जीव मर कर मनुष्य गति में जाते हैं ।

प्रश्न - २. मनुष्य कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर - दो प्रकार का
1 . संज्ञी - समनस्क जो गर्भ में पैदा होता है ।
2 . असंज्ञी - अमनस्क जो गर्भ से पैदा नहीं होते हैं ।

प्रश्न - ३. मनुष्य गति प्राप्त करने के कितने कारण हैंं ?
उत्तर - चार
1 . प्रकृति की भद्रता
2 . प्रकृति से विनीत
3 . अनुकम्पा भाव
4 . मात्सर्य व ईर्ष्या ना करने वाला

प्रश्न - ४. देव गति किसे कहते हैं?
उत्तर - देव नाम कर्म के उदय से प्राप्त अवस्था को देव गति कहते हैं ।

प्रश्न - ५. देव गति में कौन से जीव जाते हैं ?
उत्तर - तिर्यञ्च व मनुष्य गति के जीव मर कर देव गति में जाते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - १. तिर्यञ्च किसे कहते हैं ?
उत्तर - एक ईन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक एवं पंचेन्द्रिय में मनुष्य , देवता , नारकी को छोड़ सभी जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं ।

प्रश्न - २. तिर्यञ्च गति में किन गतियों के जीव होते हैं ?
उत्तर - चारों ही गतियों के जीव तिर्यञ्च गति में जाते हैं ।

प्रश्न - ३. जीव किन कारणों से तिर्यञ्च गति में जाते हैं ?
उत्तर - 1 . माया ,
2 . गुढ माया ( माया को ढकने के लिए दूसरी माया करना) ,
3 . असत्य वचन ,
4 . कूट माप - तोल ।

प्रश्न - ४. क्या तिर्यञ्च भी सम्यक्त्वी एवं श्रावक हो सकते हैं ?
उत्तर - हां हो सकते हैं ।

प्रश्न - ५. मनुष्य गति किसे कहते हैं ?
उत्तर - मनुष्य गति नाम कर्म के उदय से प्राप्त अवस्था को मनुष्य गति कहते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - १. गति किसे कहते हैं ?
उत्तर - एक जन्म स्थिति से दूसरी जन्म स्थिति में जाने का नाम गति है ।

प्रश्न - २. नरक गति किसे कहते हैं ?
उत्तर - घोर पापा चरण करने वाले जीव पापों का फल भोगने के लिए अधोलोक के जिन स्थानों में पैदा होते हैं उसे नरक गति कहते हैं ।

प्रश्न - ३. नरक गति में जाने के कारण कितने हैं ?
उत्तर - चार -
1. महाआरम्भ
2. महापरिग्रह
3. पंचेन्द्रिय जीवों की घात
4. मांसाहार ।

प्रश्न - ४. नरक गति मे किन गतियों के जीव उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - तिर्यञ्च और मनुष्य गति के जीव उत्पन्न होते हैं ।

प्रश्न - ५. नारकी के जीव कहां पैदा होते हैं ?
उत्तर - गर्भ से नहीं कुंभी में पैदा होते हैं ।

पच्चीस बोल प्रश्नमंच

प्रश्न - १. मनुष्य गति में कौन सी गति के जीव जाते हैं ?
उत्तर -

प्रश्न - २. मनुष्य कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर -

प्रश्न - ३. मनुष्य गति प्राप्त करने के कितने कारण हैंं ?
उत्तर -

प्रश्न - ४. देव गति किसे कहते हैं?
उत्तर -

प्रश्न - ५. देव गति में कौन से जीव जाते हैं ?
उत्तर -

MMBG अध्यापक जयश्री डुंगरवाल, कामरेज

आगम असम्मत् कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं |

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''पहला बोल- गति चार'' (देव गति)

पहला बोल- गति चार*
 
 *देव गति*
 
प्र.1 ऋजु गति किसे कहते हैं?
Ans. जिसमें उत्पत्ति स्थान सम रेखा में हो वह ऋजु गति है ।
 
प्र.2 ऋजु गति का कालमान कितना होता हैं?
Ans. ऋजु गति में एक ही समय में जीव उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाता है।
 
प्रश्न 3. ऋजु गति का दूसरा नाम क्या हैं? 
Ans. ईषद् गति।
 
प्रश्न 4.क्या ऋजु गति वाले जीव अनाहारक अवस्था में रहते हैं?
Ans.नहीं।अनाहरक अवस्था का संबंध वक्र गति तथा केवली समुद् घात से है।
 
प्रश्न 5. वक्र गति किसे कहते है?
Ans.एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय उत्पत्ति स्थान यदि समरेखा में न हो तो जीव घुमाव लेता है,उसे वक्रगति कहते हैं ।
 
*आगम असम्मत्त कुछ लिखा हो तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।*

25 बोल

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