हमारे जीवन में हिंसा और अहिंसा दोनों चलते हैं व ये दोनों इस जीवन के अंग है | आज अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह का अंतिम दिन अहिंसा दिवस है | आज का दिन महात्मा गांधी का भी जन्म दिवस है व लालबहादुर शास्त्री से भी सम्बद्ध दिन | महात्मा गांधी के जीवन में आध्यात्म का वैशिष्ट्य था | साधु तो पूर्ण अहिंसक जीवन जी सकते हैं पर गृहस्थों के लिए यह संभव नहीं | ऐसे में हिंसा को तीन प्रकारों का विभाजित किया जा सकता है – १. आरंभजा हिंसा २. पर्तिरोधजा हिंसा ३. संकल्पा हिंसा | आरंभजा हिंसा गृहस्थ के लिए अनिवार्य होती है, प्रतिरोध भी स्वयं की व देश की रक्षा के लिए जरूरी हो जाती है पर हम संकल्पजा हिंसा से तो बच भी सकते हैं व बचना भी चाहिए | संकल्पजा हिंसा के कारणों में गुस्सा ब लोभ मुख्य हैं | यदि इनसे हमारा बचाव हो जाए तो हम अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं | सहिष्णुता व अभय का विकास हो जाए व्यक्ति हिंसा से मुक्त होकर अहिंसा के पथ पर अग्रसर हो सकता है | बच्चों में भी सिनेमा व मिडिया के कारण से दुष्प्रभाव न आये व बच्चे संस्कारवान बने | बच्चों को संस्कारवान बनाना हमारा दायित्व होता है |
ठाणं आगम के दशवें अध्याय के १०४ वें श्लोक में यहाँ दश प्रकार के सराग सम्यक-दर्शन का उल्लेख किया गया है | वीतराग तो राग-द्वेष से मुक्त होते है | उपशांत-मोह इग्यरावे गुणस्थान, क्षीण-मोह बाहरवें गुणस्थान, सयोगी केवली तेहरवें गुणस्थान व अयोगी चौहदवें गुणस्थान की आत्माओं को प्राप्त होता है | यहाँ सराग सम्यक दर्शन को दश भेदों में १. नैसर्गिक सम्यक दर्शन – बिना उपदेश के प्राप्त होने वाला २. उपदेश-रूचि जनित – उपदेश के कारण प्राप्त होने वाला सम्यक-दर्शन ३. आज्ञा-रूचि – वीतराग आज्ञा से उत्पन्न होने वाला सम्यक-दर्शन ४. सूत्र रूचि – सूत्र के आधार व अध्ययन से प्राप्त होने वाला सम्यक-दर्शन ५. बीज-रूचि – सत्य के एक अंश के सहारे अनेक अंशों में फैलने वाला सम्यक-दर्शन ६. अभिगम सम्यकत्व-रूचि – विशाल ज्ञान राशि के आशय हो समझने पर प्राप्त होने सम्यक-दर्शन ७. विस्तार रूचि – प्रमाण और नय की भंगिमा से उत्पन्न सम्यक-दर्शन ८. क्रिया-रूचि – क्रिया के उत्पन्न होने वाला ९. संक्षेप-रूचि – मिथ्या आग्रह के अभाव में होने वाला स्वमेव होने वाला सम्यक-दर्शन १०. धर्मविषयक सम्यक दर्शन – धर्म से प्राप्त सम्यक-दर्शन | जहाँ सम्यक-चारित्र होता है वहां सम्यक-दर्शन होगा ही | सम्यक-दर्शन के अभाव ने न सम्यक-ज्ञान हो सकता है न ही सम्यक-चारित्र | अर्ह्नंक की तरह दृढ़ आस्था वाला कभी धर्म नहीं छोड़ता | सम्यकत्व आँख व चारित्र पाँव, दोनों एक दुसरे के पूरक होते हैं |
ठाणं आगम के दशवें अध्याय के यहाँ तप के दश प्रकारों का उल्लेख मिलता है | यह दश-पच्खान से अलग है | ये दश तप १. अनागत – भविष्य में किए जाने वाले तप को पहले ही कर लेना २. अतिक्रांत – वर्तमान में या आगे के निश्चित तप अवधि आगे बढ़ा देना ३. कौटीशः-तप – पहले की सम्पन्नता के बाद दूसरे का प्रारंभ, दो तपों का संगम ४. निशात्रित-तप – यह निश्चित कर लेना कि यह तप मुझे इस दिन करना ही है ५. आगार-तप – आगार रखकर तप करना ६ अनागार-तप – बिना आगार रक्खे तप करना ७. परिणाम-कृत-तप – नक्षत्र आदि के आधार पर भिक्षा लेना ८. अशन-पान-खान का प्रत्याख्यान ९. संकेत-प्रत्याख्यान – जब तक यह कार्य पूरा नहीं होगा तब तक का प्रत्याख्यान, उदहारण के लिए जब तक दिया जलेगा जाप करता रहूँगा १०. अध्वा-तप – कालमान के आधार पर तप करना | तपस्या के साथ जप तथा उपवास के साथ पौषध इस तप का आभूषण होता है व इससे तप विभूषित होता है | जप व स्वाध्याय भी तप का आभूषण होता है | अपने श्रम का सही दिशा में नियोजन, स्वाध्याय व आगम मंथन तथा आगम का अनुवाद आदि ऐसे तप है जो हर व्यक्ति नहीं कर सकता |
ठाणं आगम के दशवें अध्याय के ९९ श्लोक में यहाँ दश प्रकार के मुंडों का उल्लेख मिलता है | मुंड का अर्थ है – दूर करना, अलग कर देना | जिसका मुंडन किया जाय वह – साधक, साधु | दश प्रकारों में १. श्रोतेन्द्रिय-मुंड – सुनने के व श्रवण के विकार को दूर कर देना, कितनी बाते सुनने को मिलती हैं | सुनकर बात को हजम कर लेना हर आदमी के वश में नहीं होता, हर सुनी हुई बात हो बाहर निकलना जरूरी नहीं होता, यहाँ यह विवेक हो कि कौनसी बात कब व किसको बताई जाय २. चक्षु-इन्द्रिय-मुंड – आँख के विकार को निष्प्रभावी बनाया जाय | हम इन आँखों का सदुपयोग करें व किसी भी स्थिति में उसका दुरूपयोग न हो ३. घ्राणइन्द्रिय-मुंड ४. रसनेन्द्रिय-मुंड ५. स्पर्शनेंद्रिय-मुंड ६. क्रोध-मुंड – गुस्से पर नियन्त्रण व उसे दूर करना ७. मान- मुंड – अभिमान से अलग होना ८. माया-मुंड ९. लोभ-मुंड १०. सिर-मुंड – सिर के केशों व बालों का मुंडन | केशों के मुंडन से भी विशेष बात है – इन्द्रियों व कषायों के विकारों का मुंडन करना, उन्हें दूर करना व उनसे अलग होना | सिर मुंडन के बिना तो फिर भी मुक्ति मिल सकती है पर इन्द्रयों के व कषाय के विकारों से अलग हुए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती है |
ठाणं आगम में यहाँ दश प्रकार के दानों का उल्लेख मिलता है | भारतीय संस्कृति में दान की एक परम्परा सदा से रही है | दान का अर्थ है देना | गरीबों को, राष्ट्रहित के लिए, भय-वश व यश के लिए भी दान दिया जाता है | दान के विषय में आगम के अतिरिक्त आचार्य भिक्षु व उमास्वती ने भी लिखा है | दान के दश प्रकारों में १. अनुकम्पा-दान – गरीबों, दुखी, रोगी को दान २. संग्रह-दान – सहायता के लिए दान देना ३. भय-दान – डर के मारे दान देना ४. कारुण्य-दान – शोक व मृत्यु के उपलक्ष में मृत के वस्र्त्र, खटिया आदि का दान ५. लज्जा-दान - लज्जा वश दान देना, दूसरे देते है और मैं नहीं दूंगा तो अच्छा नहीं लगेगा ६. गौरव-दान – यश व कीर्ति आदि की भावना से दान देना ७. अधर्मि-दान – अधार्मिक लोगों को दान देना ८. धार्मिक-दान – जिससे धर्म हो, अर्थात शुद्ध साधु को दिया जाने वाला दान ९. कृतमिति-दान – दान के बदले दान, किसी ने उपकार किया तो उसके बदले दान देना १०. करिष्यति-दान – भविष्य में सहयोग प्राप्त होने की आशा से देना | दान सदा फलदायी होता है, कभी निष्फल नहीं जाता | दान आपस की प्रीति को बढ़ाने वाला व दुश्मनी का नाश करने वाला होता है | साधु-दान सर्वोत्तम दान की कोटि में आता है | किसी नौकर आदि को देने से उसे ख़ुशी मिलती है | अभय-दान व ज्ञान दान का भी बड़ा महत्व होता है | ज्ञान दाता की ज्ञान देने की भावना व क्षमता हो व लेने वाले की भी इच्छा व क्षमता हो तो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है |
ठाणं आगम में यहाँ दश प्रकार के शास्त्रों का उल्लेख किया गया है | जिसके द्वारा हिंसा की जाय वह शस्त्र | आदमी को हिंसा को भी जाने व अहिंसा को भी जाने, हेय को भी जाने व उपादेय जो नही जाने, पाप को भी जाने व पुन्य को भी जाने | हेय भी ज्ञेय उपादेय भी ज्ञेय | हिंसा को जानने से ही उसे छोड़ा जा सकता है | सवंर करने के लिए आश्रव को जानना जरूरी है | उल्लेखित दश सूत्रों में १. अग्नि – जो छोटे व बड़े सब प्राणियों के वध का कारण बन सकता है २. विष – जहर भी एक शस्त्र है ३. लवण ४. स्नेह ५. अम्ल – खटाई ६. क्षार - भस्म, राख ७. दुष्प्रवृत मन ८. दुष्प्रवृत वचन ९. दुष्प्रवृत काया १०. अविरति | पहले छह बाह्य शस्त्र व आगे वाले ४ अन्तर के शास्त्र | मन अन्तरंग शस्त्रों में सबसे ताकतवर शस्त्र है | जितना बड़ा पाप समनस्क प्राणी कर सकता है उतना बड़ा अमनस्क नहीं कर सकता | असंज्ञी पहली नरक तक ही जा सकता है जबकि संज्ञी सातवीं नरक तक | उसी प्रकार ऊर्ध्वगमन भी मन वाला ही ज्यादा कर सकता है | तेंदुलमत्स नामक प्राणी कर तो कुछ नहीं सकता पर मन के दुर्विचारों से बहुत नीची गति का बंध कर लेता है | मन से धर्म व पाप दोनों संभव है | हममें मन को नियन्त्रित रखने का प्रयास करना है साथ ही वचन व काया को भी |
ठाणं आगम में यहाँ दश प्रकार के झूठ के कारणों का उल्लेख किया गया है | दुनियां में सच्चाई व झूठ दोनों चलते हैं | झूठ के दश कारणों में १. गुस्सा – गुस्से के कारण आदमी झूठ बोल देता है, क्योंकि क्रोध में आदमी को बोलने का भान नहीं रहता व झूठ वचन निकल जाता है २. मान – अहंकार में गरीब भी अपने को धनी व अज्ञानी भी ज्ञानी बता देता है ३. माया – छलना वश भी आदमी झूठ बोल देता है व ओर को कुछ ओर बता देता है ४. लोभ – अपने लाभ के कारण अल्प-मूल्य वाली वस्तु का अधिक मूल्य बताकर लाभ कमाने की चेष्टा करता है ५. प्रेय-मिश्रित झूठ – प्रेम के वश झूठ बोलना ६. द्वेष निश्रित झूठ – द्वेष के कारण किसी को नीचा दिखाने के लिए झूठ बोलना ७. हास्य – बिना मतलब हंसी मजाक में होने वाला झूठ का प्रयोग ८. भय – डर के कारण कि सच बताने से मुझे डांट पड़ेगी, मुझे कोई मार देगा या मेरा नुकसान हो जायेगा आदमी झूठ बोल देता है ९. आख्यायिता – झूठी कहानी बनाकर या गढ़कर लोगों को आकर्षित कर लेना १०. उपघात निश्रित – किसी को पीड़ा पहुँचाने या अहित करने के लिए भले को बुरा व बुरे को भला बता देना | हमें यथासंभव झूठ से बचने का प्रयास करते रहना चाहिए व अनपेक्षित झूठ से तो बचना ही चाहिए | न्यायालय न्याय का मंदिर होता है उसमें झूठी गवाही न दें, झूठ न बोलें | कहीं पर भी झूठे हस्ताक्षर न करें | झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता | हमें सत्य का मार्ग ही अपनाना है |
दुनियां में सत्य व असत्य दोनों चलता है | जो जैसा है उसे वैसा ही मानना, समझना व उसमें विश्वास करना सत्य है | सत्य के पीछे छिपे मूल, आशय, व लक्ष्य को भी समझना अपेक्षित है | केवल शब्द की सीमा तक सत्य को रखना बहुत छोटी बात है | ठाणं आगम में शब्द के आधार पर दश प्रकार के सत्य १. जनपद-सत्य – एक ही शब्द का अलग-अलग क्षैत्रों में अलग नाम होता है जैसे पानी को कहीं जल, कहीं नीरू, कहीं वारी नाम से बोला जाता है पर आशय सबका एक है २. सम्मत-सत्य – पंकज कमल का नाम पर यदि मेढक कीचड़ में पैदा हो तो उसे पंकज नहीं कहा जायगा ३. स्थापना-सत्य – हाथी सतरंज में हो तो भी उसे हाथी उस दृष्टि के कहा जा सकता है, पर वह हाथी नहीं होता ४. नाम-सत्य – किसी गरीब का नाम लक्ष्मीधर रखने से वह धनाड्य नहीं हो जाता ५. रूप-सत्य – पुरुष यदि साड़ी पहन ले तो वेश के आधार पर उसे बहन जी भी कहा जाना असत्य नहीं, और उसे असल में पुरुष कहा जाय तो वह भी असत्य नहीं ६. प्रतीक-सत्य – सदा सापेक्ष होता है, अपेक्षा से किसी को छोटा कहना ७. व्यवहार-सत्य – गाँव आ गया, लेकिन आये तो हम हैं, गाँव तो वहां का वहां है ८. सत्व–सत्य – पर्याय की अपेक्षा से, जैसे दूध सफ़ेद दीखता है अतः उसे सफ़ेद कहा जाता है पर उसमें सहीं में तो पाँचों रंग मौजूद होते हैं ९. योग-सत्य – साधु का वेश बना लिया तो साधु कहना १०. मुखारबिंद-सत्य – उपमा के आधार पर, कमल-नयन का प्रयोग | इन सबमें छल नहीं | शब्द, अर्थ व भावना का संगम है | शब्द से भावना की अभिव्यक्ति होती है अतः प्राण-तत्व है भावना |
हमारे पांच शरीर है इनमें औदारिक व वैक्रिय शरीर तो हमारे जीवन काल से संबंधित होता है पर तेजस व कार्मण शरीर सदा हमारे साथ रहते है व मृत्यु के बाद भी साथ रहते हैं | वैक्रिय शरीर देवों व नारकों के ही होता है | हमारे इस औदारिक शरीर का उपयोग धर्म व पाप में से किसी भी कार्य में किया जा सकता है | भौतिक आभूषणों के साथ आत्मा को भी विभूषित करने की दिशा पर चिंतन कर उसे भी आत्मिक-आभूषणों से आभूषित की जाय | हमारे हाथ का बाह्य आभूषण कंगन जबकि उससे महत्वपूर्ण है – दान, त्याग | दान में शुद्ध साधु को शुद्ध-दान के अलावा ज्ञान-दान व उससे भी उत्तम दान है अभय-दान | लौकिक-दान का भी अपनी जगह महत्व है | सिर का आभूषण है गुरु चरणों में सिर को झुकाना | मुख का आभूषण है सत्य तथा यथार्थ वाणी, न कि सोने के दांत | वाणी में याथार्त्य, मृदुता व संस्कृति रहे | कान का बाह्य आभूषण कुंडल पर सही-आभूषण सत्य-वाणी व ज्ञान-श्रवण | हृदय को आभूषित करने के लिए हार से ज्यादा महत्व है शुद्ध व स्वच्छ वृति व विचार का | भुजाओं का आभूषण बाजूबंद नहीं बल्कि पौरुष व पराक्रम | हमारे पौरुष का भी उपयोग मार-पीट में नहीं, कल्याण कार्य में हो | बाह्य आभूषण भार व आंतरिक आभूषण उपहार | हमें सिर्फ शरीर को नहीं, आत्मा को भी आभूषित करना है, व जीवन को भी विभूषित बनाना है |
नदी का एक किनारा विचार व दूसरा किनारा आचार | इन दोनों किनारों को मिलाने वाला होता है संस्कार | अतः हम संस्कारों का एक ऐसा सेतु बनायें जिससे आचार और विचार दोनों का संगम हो | संस्कार आस्था है, विश्वास है इसके जुड़ने से ही काम पूरा होता है | अतः हमारे विचार का आचार में परिणित होना व उसमें पूर्णता आनी बहुत जरूरी है | जैन आगम में राग-द्वेष को पाप का मूल बतलाया गया है | युद्ध पहले भीतर में होता है और तब बाहर में | भागवत गीता में भी कृष्ण ने काम और क्रोध को बड़ा पापी व वैरी तथा दुश्मन बतलाया है | ये आदमी को पाप की दिशा में ढकेलने वाले हैं और भीतर बैठे इसे संचालित कर देते हैं | यह सब जान लेना मात्र पर्याप्त नहीं, हमें इनके कारणों व नियन्त्रण के बारे में भी जानना होगा | स्थितप्रज्ञ व वीतराग वह होता है जो हर स्थिति में पूर्ण सम रहे व समता रक्खे | हर ग्रंथ में राग-द्वेष व काम-क्रोध के संतुलन व नियन्त्रण की प्रेरणा प्राप्त है | यह काम सत्संगत व सत्साहित्य के द्वारा ही संभव है | पांच इंदियों में श्रोत व चक्षु का ज्यादा महत्व इसलिए है कि इससे अच्छा श्रवण व पठन संभव है | सच्चाई व अच्छाई कहीं भी मिले वह ग्रहणीय है, हमें निसंकोच इसे स्वीकार करना चाहिए | आज फिर एक बार संघ संचालक श्री मोहन भागवत जी यहाँ आये है, नागपुर में भी उनसे मिलना हुआ |
ठाणं आगम में श्लोक में दश प्रकार के बल का ऊल्लेख किया गया है | हमारे जीवन में बल का भी बड़ा महत्व होता है | बल के अभाव में आदमी कुछ नहीं कर पाता | बल के दश प्रकारों में – १. श्रोतेन्द्रिय बल – सुनने की शक्ति २. चक्षु इन्द्रिय बल – देखने की शक्ति ३. घ्राण-इन्द्रिय – सुनने की शक्ति ४. रसनेंद्रिय – चखने व खाने की शक्ति ५. स्पर्श-इन्द्रिय – स्पर्श करने की शक्ति ६. ज्ञान बल – ज्ञान की शक्ति, जीवन में ज्ञान का बड़ा महत्व होता है बिना ज्ञान के आदमी कुछ नहीं कर सकता | ज्ञान के क्षैत्र भी अनेक हैं व विकास की संभावनाएं भी अनेक | सबसे महत्वपूर्ण है ज्ञान के विकास के साथ उसका सदुपयोग ७. दर्शन बल – यथार्थ के प्रति आस्था व निष्ठा की शक्ति-सम्पन्नता ८. चारित्र बल – विकास की लिए अच्छे चारित्र का भी बल होना चाहिए ९. तपो-बल – तपस्या का बल, जो हमें नई ऊर्जा व शक्ति प्रदान कर सकता है | १०. वीर्य बल – शरीर का बल | यह बल से श्रम, कार्य क्षमता व भ्रमण मन भी बड़ा उपयोगी होता है | दूसरों की सेवा व परिचर्या में भी यह उपयोगी सिद्ध होता है | शरीर की अनुकूलता से ही हम स्वाध्याय तथा अध्ययन कर सकते हैं | इन सबके अतिरिक्त मनोबल व वचनबल की भी बड़ी उपयोगिता होती है |
एक श्लोक जिसके प्रथम पध में सूर्य के विशेषताओं के साथ तेज सम्पनता, किरणों की विधमानता व तेजस्वित का वर्णन मिलता है | दूसरे पध में सूर्य के प्रकाश की महिमा का उल्लेख है, तीसरे पध में आचार्य की महिमा व चौथे पध में देव व इन्द्र की महिमा का | आचार्य का बहुत बड़ा स्थान होता है | आज का दिन आचार्य भिक्षु का महाप्रयाण-दिवस जिसे हम चरमोत्सव के रूप में मानते हैं | आचार्य भिक्षु का ज्ञान भी विशिष्ट व प्रस्तुतिकरण कला भी विशिष्ट थी | वस्तु को परोसने की कला का भी महत्व, आचार्य भिक्षु जानते थे कि किस व्यक्ति को कैसे समझाया जाय | उन्होने अनेक ग्रंथों की रचना भी की | उनका ज्ञान बड़ा विशाल व गहरा था | उनमें श्रुत की सौरभ, श्रुत की तेजस्विता, बुद्धि की निर्मलता व क्षयोपशम की प्रबलता सब विधमान थी | जयाचार्य ने आपके ग्रंथों की समीक्षा भी की | श्रुत व ज्ञान के साथ बुद्धि का भी योग हो | उन्होंने अपने जीवन में सत्य के लिए कितने-कितने विरोधों का सामना करना पड़ा, विरोध का सामना करने के लिए शक्ति का भी संचार चाहिए | जीवन के आठवें दशक में ७८ साल की उम्र में जब धीरे-धीरे उन्हें लगा कि मेरा अंतिम समय निकट आ रहा है तो उनका त्याग के क्रम भी आगे बढ़ने लगा | अंत में अनशन स्वीकार कर आज के दिन उन्होंने इस देह का विसर्जन कर दिया |